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प्रास्ताविक बिचार
ऊपर जिन दो प्रशस्ति-लेखोंका हमने परिचय दिया है उससे ज्ञात होता है कि सिद्ध और राह ड के कुटुम्बका मूल पुरुष सिद्ध नाग था जो प्राग्वा ट (पोरवाड) वंशीय हो कर मूल सत्य पुर ( सा चोर ) का रहनेवाला था । महामात्य उदयन श्री मा ली की तरह यह सिद्ध ना ग मी शायद अपने भाग्यकी परीक्षा करने या धनोपार्जनकी आकांक्षासे, अपना मूल स्थान छोड कर नूतन गुजरात की तरफ निकल आया है । वह, उस समय अच्छी आबादीवाले मजा हृत ( आधुनिक म ढार) में बस जाता है। वहां अच्छी संपत्ति और प्रतिष्ठा प्राप्त करनेके बाद उसके पुत्रोंमेंसे कुछ अण हिल पुर के पास द धि पद में आ कर रहते हैं। और फिर वे, शायद, पादण में आ कर बसते हैं । प्रशस्ति - लेखोंमें इसके पुत्र-पौत्रों आदिके बारे में जो प्रशंसात्मक वचन लिखे गये हैं, उन परसे अनुमानित होता है, कि इसका यह वंश-परिवार धन और जन दोनों दृष्टिसे बडा समृद्ध और समुन्नत था । इसके सन्तानोंने धर्म और पुण्यार्थ बहुत कुछ द्रव्य व्यय किया । अनेक जिनमन्दिर बनवाये, जिनमूर्तियां प्रतिष्ठित की, तीर्थयात्रादिके निमित्त संघ निकाले और ज्ञानप्रसारके निमित्त पुस्तक लिखवाये । प्रशस्तिगत उल्लेखोंसे यह मी विदित होता है कि इसके सन्तान अत्यंत धर्मनिष्ठ हो कर वे सदाचार और सुसंस्कारसे परिपूर्ण थे। सिद्ध ना ग की दो पौत्रियां जो उसके ज्येष्ठपुत्र वो ढ क की पुत्रियां थीं, साध्वी बन कर 'महत्तरा' जैसे बड़े सम्मानदर्शक पदको प्राप्त हुई थीं। इसके सन्तानोंमें ज्ञानप्रेम भी खूब अधिक था और इसीलिये पुस्तकालेखन तरफ उनकी यह ऐसी विशिष्ट प्रवृत्ति रही। वीर ड ने अपनी ज्ञानभक्तिके निमित्त स्वयं अपने जीवनकालमें उत्तराध्य य न वृत्ति का पुस्तक लिखवाया
और फिर मृत्युके समय भी पुत्र सिद्ध को उसी कार्यमें विशेष कर द्रव्य व्यय करनेका उपदेश देता गया । सिद्ध ने अपनी पिताकी इस शुभेच्छाको पूर्ण करनेके निमित्त एक लाख श्लोक परिमाण ग्रंथाम लिखवा कर पिताकी आज्ञाका उत्तम रीतिसे पालन किया। सिद्ध की एक पत्नी भी, उसी तरह अपनी मृत्युके समय, पुस्तक लिखानेकी पुण्येच्छा अपने पतिके पास प्रकट करती जाती है, जिसे वह पत्नीप्रेमी श्रावक भगवती सूत्र जैसे प्रधान एवं पूजनीय प्रन्यकी सुन्दरतम प्रति लिखवा कर अपने धर्म गुरुको पठन निमित्त समर्पित करता है।
१६. इस बातको बीते आज आठ सौ से भी कुछ ऊपर वर्ष हो गये । राजि मति के इस ज्ञानप्रेमका पुण्यस्मारक रूप वह पुस्तक अब तक उसी पाटण में विद्यमान है । न मालूम इन आठ-आठ सौ वर्षोंमें कितने आचार्योने -कितने मुनियोंने-कितने पण्डितोंने इस पूज्यतम भगवती सूत्रका खाध्याय और वाचन किया होगा; और कितने श्रद्धालु श्रावक श्राविकाओंको इसके अवर्णका लाभ प्राप्त हुआ होगा। कितने ही शास्त्रपूजक जनोंने इस पुस्तककी बडी श्रद्धासे पूजा की होगी और इस पर अनेक वार, अनेकानेक सुवर्ण मुद्राएं चढाई होंगी।
सिद्ध नाग के प्रपौत्र राह ड का एक पुत्र बोह डि छोटी उम्रहीमें वर्गवासी हो गया। इससे पिताको बडा दुःख हुआ और उसके वियोगमें वह विकलसा बन गया । उसको अन्तमें अपने चित्तकी शान्तिका उपाय ज्ञानके प्रसारमें मालूम दिया और इससे उसने उसके लिये शान्ति नाथ चरितका सुन्दर पुस्तक लिखवाया । यह पुस्तक भी अभीतक उसके सद्भाग्यसे उसी पारण में विद्यमान है।
जो कोई व्यक्ति अपने क्षणिक जीवनकी दीर्घकालस्थायिनी कोई स्मृति छोड जाना चाहता है तो वह ऐसे किसी लोकोपयोगी पुण्य स्मारकमें यथाशक्ति कुछ व्यय करना चाहता है, और उसके द्वारा वह अपना नाम कुछकालके लिये स्थिर रखनेकी इच्छा रखता है । पर जिस प्रकार, द्रव्यका सव्यय करनेकी शुभ इच्छा, लाखों धनिकोंमेंसे किसी उसी पुण्यशालीको होती है जिसका भावी जन्म शुभोदयवाला होनेको है । इसी तरह किसी व्यक्ति द्वारा निर्मित कराया हुआ कोई पुण्य स्मारक भी दीर्घकालस्थायी उसीका हो सकता है जिसका पुण्य अधिक प्रबल और संस्कार अधिक सुदृढ हो। यह सिद्ध नाग और उसकी उल्लिखित सन्तानोंके किसी प्रबल पुण्य संस्कारहीका फल है, कि आज आठ-आठ सौ वर्ष जितने दीर्घकाल तक, उनके नामस्मारक ये पुस्तक विद्यमान रहैं और उनमें संलग्न इन प्रशस्ति -लेखोंके अस्तित्वसे, आज हम उसके वंशका यह यथाप्राप्य किंचित् परिचय संसारको दे कर, इस प्रकार उसे अब और भी अधिक दीर्घकालस्थायी बना रहे हैं।
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