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जैनपुस्तकप्रशस्तिसंग्रह -
पराक्रमी, पशःशाली और नीतिके मन्दिर थे । इनके नाम इस प्रकार थे - चाहड, बोहड, आसड और
ना शाधर ।
इस राइड के अब देवी, मुंधी, मादू, तेज य और राजुक ये पुत्रवधुएं थीं और य शोध र, व शोधीर, यश:कर्णादि पौत्र, एवं घेऊय, जासु क, जयंतुक आदि पौत्रियां थी ।
:- प्रथम भाग
इस प्रकार विशाल कुटुम्ब और समृद्धिवाले राह ड का जो वो हडि नामक दूसरा पुत्र था उसका अकस्मात् ( युवावस्था में ही ) स्वर्गवास हो गया ।
इस पुत्र वियोगसे दुःखित हो कर रा. ह ड संसारके खरूपका चिंतन करता हुआ मनमें सोचने लगा कि जीवित, यौवन, शरीर, संपत्ति, स्त्री और कुटुम्ब - यह सब महामेघके बीचमें चमकनेवाली बीजलीकी तरह चंचल हो कर क्षणस्थायी वस्तु है। इसलिये मनुष्यको अपने हितके लिये धर्मकृत्य करना चाहिए। उसमें भी, जो मुनिजन हैं वे ज्ञानदानको अधिक प्रशंसनीय कहते हैं, अतः मुझे भी कुछ ज्ञान दान करना चाहिए। ऐसा विचार कर उसने यह शान्ति नाथ चरित्र लिखवाया । तथा गृहपूजनमें काम आवे ऐसी सुन्दर पित्तलमय शान्तिजिनकी मूर्ति बनवाई।
यह शान्ति नाथ चरित्र का जो पुस्तक है वह राजाके महलकी तरह सुवर्ण ( अच्छे अक्षर और सोना ) से चकचकित है, सुन्दर चित्रोंसे अंकित है और अच्छे पत्रोंसे सुशोभित है । अतः यह बहुजनोंको आनन्द देनेवाला है । विक्रम संवत् १२२७ के भाद्रपदमासमें, जब कि 'सुश्रावक' ऐसा राजा कुमारपाल राज्य कर रहा है, उस समय अणहिलपुर पाटन में यह पुस्तक लिखा गया है ।
यशः प्रभाचार्य के प्रशिष्य परमानन्द सूरि को यह पुस्तक भेंट किया गया है। जब तक नमः श्री प्रजाको अपने पयोधरोत्पन्न पानीसे, जननीकी तरह, तुष्ट करती रहे तब तक यह पुस्तक भी पृथ्वीमें विद्यमान रहो ।
चक्रेश्वर सूरिके शिष्य परमानन्द सूरिने इस पुस्तकके अन्त में यह प्रशस्ति स्थापित की है। मंगल और महाश्री हो ।'
इस प्रशस्ति के वर्णन से मालूम होगा कि इसमें किस तरह राइड के वंश और कुटुम्बका विस्तृत परिचय दिया गया है तथा उसके किये गये अन्यान्य धर्मकृत्योंका निर्देश किया गया है। इसमें समय अर्थात् संवत् और मास तथा स्थानका भी उल्लेख किया गया है और साथमें जिस राजाके राज्यकालमें यह पुस्तकालेखन हुआ उसका भी बडे महत्त्वका उल्लेख विद्यमान है ।
ऐतिहासिक तथ्यकी दृष्टिसे, इसमें किया गया राजाकां यह उल्लेख एक और प्रश्नकी चर्चाके लिये भी बहुत ही अधिक महत्त्व रखता हैं । अण हिलपुरका चौलुक्य चक्रवर्ती सम्राट् कुमार पाल - 1 - जिसको जैन विद्वानोंने एक परम जैन राजा बतलाया है और जिसने अपने जीवनके शेष कालमें जैनशास्त्रोपदिष्ट श्रावक धर्मके व्रतोंका विधिपूर्वक स्वीकार कर 'परमाईत' बिरुद प्राप्त किया था- इस ऐतिहासिक तथ्यके विषयमें कुछ हमारे विद्वान् मित्र शंका उपस्थित करते हैं और वे ऐसा अभिप्राय प्रदर्शित करते हैं, कि यद्यपि सम्राट् कुमार पाल जैनधर्मके प्रति बहुत ही अधिक सहानुभूति रखता था, इसमें कोई सन्देह नहीं; तथापि वह जैसा कि जैन ग्रन्थकार लिखते हैं, एक तरहसे पूरा श्रावक ही बन गया था, इसके लिये समकालीन वैसा कोई प्रमाणभूत आधार नहीं - इत्यादि । यह शंका कैसी भ्रामक और विपर्यासात्मक बुद्धिजन्य है इसके लिये यद्यपि किन्हीं विशेष प्रमाणोंके उपस्थित करने की कोई आवश्यकता नहीं है । क्यों कि कुमार पाल के जैनधर्म स्वीकार करनेका जितना विशिष्ट साहित्य और जितने प्रमाणभूत उल्लेख प्राप्त होते हैं, वे सब उस अंशमें उतने ही तथ्यपूर्ण हैं जितने अंशमें वे कुमार पाल के अस्तित्वके विषयमें तथ्यपूर्ण हैं । परन्तु उनके अतिरिक्त प्रस्तुत प्रशस्तिमें, जो कु मां र पाक की मृत्युके पूर्व ३ वर्ष पहले, स्वयं अणहिलपुर में, उसके समीप ही रहनेवाले एक प्रसिद्ध प्रजाजनका स्मारक रूप लिखा हुआ प्रासङ्गिक
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