SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 18
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रास्ताविक विचार न पुस्तक प्रशस्ति संग्रह नामक यह पुस्तक, कि जिसको क्रमशः ३-४ भागोंमें प्रकाशित करनेकी योजना है, इसका यह पहला भाग आज पाठकोंके सम्मुख उपस्थित किया जा रहा है। प्रस्तुत 'पुस्तक प्रशस्ति संग्रह' क्या वस्तु है और इसका क्या विशेषत्व है – इसके स्पष्टीकरणके लिये कुछ बातें यहां लिखनी उपयुक्त मालम देती हैं । पुस्तक विषयक प्रशस्तियोंके प्रकार । ६१. पुस्तकोंके साथ संबन्ध रखनेवाली प्रशस्तियां दो प्रकारकी होती हैं। इनमें एक तो वे हैं जो अन्यों के अन्तमें उनके रचयिताओंकी बनाई हुई उपलब्ध होती हैं । ये प्रशस्तियां ग्रन्थकारोंकी अर्थात् ग्रन्थके रचनेवाले विद्वानोंकी निजकी गुरुपरम्परा आदिका परिचय देनेवाली होती हैं। इनमें जो वर्णन रहता है उसका सारांश यह होता है कि-अमुक गच्छ, कुल, गण या शाखा आदिमें उत्पन्न अमुक आचार्यके शिष्य-प्रशिष्यने इस ग्रन्थकी रचना की इत्यादि । इनमेंसे कितनीक प्रशस्तियोंमें उस ग्रन्थकी रचनाका समय और स्थानका भी निर्देश किया हुआ रहता है। किसी-किसीमें तत्कालीन राजा या बडे राज्याधिकारिका नाम और कुछ अन्यान्य ऐतिहासिक सूचन मी मिल आते हैं । ये प्रशस्तियां श्लोक-संख्याके परिमाणकी दृष्टिसे भिन्न भिन्न आकारवाली-छोटी-बडी ऐसी अनेक प्रकारकी होती हैं । कोई प्रशस्ति २-३ श्लोक जितनी असंत छोटी होती है तो कोई १००-१२५ लोक जितनी, एक बडे निबन्धके जैसी भी होती है । जैन साहित्यके इतिहासकी सामग्रीकी दृष्टिसे इन प्रशस्त्रियोंका बडा उपयोग है। इन्हीं प्रशस्तियोंके आधारसे भिन्न भिन्न गण-गच्छोंके जैनाचार्योंकी गुरु -परम्परा, उनका समय, उनका कार्यक्षेत्र और उनकी की हुई समाजोन्नति एवं साहित्योपासना आदिका संकलित इतिहास प्रथित किया जा सकता है। इन प्रशस्तियोंके लिये हमने 'जैन ग्रन्थ प्रशस्ति' ऐसा नाम निर्धारित किया है । इस प्रकारकी प्रशस्तियोंके एक विशाल संग्रहका मी हम अलग संपादन कर रहे हैं जो यथा - समय प्रकाशित होगा। ६२. पाठकोंके हाथमें जो संग्रह विद्यमान है, इसका नाम 'जैनपुस्तकप्रशस्तिसंग्रह है। इसमें किसी प्रन्थविशेषकी प्रशस्तियोंका संग्रह नहीं है परंतु पुस्तक- विशेषकी प्रशस्त्रियोंका संग्रह है । यहां पर पुस्तकोंसे हमारा अभिप्राय उन हस्तलिखित पोथियों या प्रतियोंसे है जो इस मुद्रणकलाके (छापेखानेके) युगके पहले ताडपत्र पर अथवा कागज पर हायसे लिखी गई हैं । यह सब कोई जानते हैं कि अपने इस देशमें छापेखानोंके (प्रिंटींग प्रेसोंके) होनेके पहले पठन-पाठन उपयोगी सब प्रकारका वाङ्मय (साहित्य), पठित लोक अपने हाथोंसे लिखते थे और उस लिखे हुए वाश्मयको वे बड़े जतनसे रखते थे। हाथसे लिखने का काम बहुत श्रमसाध्य होता है अत एवं यह मूल्यवान् एवं विशेष संरक्षणीय समझा जाता है । इस मुद्रणकलाके युगमें जिस किसी भी पुस्तक-पुस्तिकाकी १०००-२००० या १०-२० हजार प्रतियां तैयार करनेमें जितना श्रम किसी लेखक या प्रत्यकारको करना पडता है उतना ही श्रम किसी भी पुस्तक-पुस्तिकाकी एक सुन्दर और शुद्ध प्रति हायसे लिखनेमें करना पडता है । इसलिये छपे हुए अन्य या पुस्तककी हजार-पांचसौ अथवा दस-वीस हजार मी प्रतियोंके पीछे किया हुआ श्रम और हस्तलिखित १ प्रतिके पीछे किया हुआ श्रम, श्रमकी दृष्टि से समान- परिमाण होता है । मुद्रणकलाके प्रभावसे तो हम Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002781
Book TitleJain Pustak Prashasti Sangraha 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvijay
PublisherSinghi Jain Shastra Shiksha Pith Mumbai
Publication Year1943
Total Pages218
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy