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________________ जैनपुस्तकप्रशस्तिसंग्रह-प्रथम भाग आज किसी मी पुस्तक-पुस्तिकाकी १००-२०० प्रतियोंसे ले कर लाख-दोलाख जितनी बडी भारी संख्या में मी प्रतियां उतनी ही सरलतासे एक साथ तैयार कर सकते हैं, लेकिन उस हस्तलेखन-कलाकी पद्धतिमें तो इसकी कोई शक्यता नहीं है । हस्तलिखित हर · एक प्रति या पोथीके तैयार होनेमें तो एक समान ही समय और श्रम आवश्यक होता है । जिस तरह किसी भी चित्रकारको अपने हाथसे एक चित्रके अङ्कन करनेमें जितना समय और श्रम अपेक्षित होता है उतना ही समय और श्रम उसी चित्रकी दूसरी प्रतिलिपिके करनेमें भी उसे आवश्यक होती है। ठीक यही नियम हस्तलिखित पस्तक-पस्तिकाओंकी प्रतिलिपिक विषयमें भी चरितार्थ है। के विषयमें भी चरितार्थ है । इसलिये ऐसे समयापेक्ष एवं परिश्रमपूर्वक लिखे गये ग्रन्थ अथवा पुस्तकके महत्त्व और संरक्षणकी तरफ तद्विद रहना खाभाविक ही है। आज तो हम छपी हुई पुस्तककी रक्षाके तरफ बहुत अधिक लक्ष्य इसलिये नहीं रखते कि कोई पुस्तक बिगड गई, या फट गई, या खोई गई, तो बाजारमेंसे कुछ आने या रूपये दे कर उसकी दूसरी प्रति जब चाहेंगे तब प्राप्त कर लेंगे; लेकिन किसी हस्तलिखित प्रतिके नष्ट-भ्रष्ट हो जाने पर, उसकी दूसरी प्रति उतनी ही सरलता पूर्वक या उतने ही रूपयों या आनोंमें हम कभी प्राप्त नहीं कर सकते । और फिर उस पुराने जमानेमें तो, जब कि एक स्थानसे दूसरे स्थानमें जाने-आनेके लिये आजके जैसा रेल्वे, मोटर, स्टीमर आदि शीघ्रगामी वाहन - व्यवहारका सर्वथा अभाव था, ऐसी हस्तलिखित पुस्तकों-पोथियोंका प्राप्त करना और भी बहुत अधिक परिश्रम और प्रयत्न - साध्य कार्य था । इसलिये उस प्राचीन युगमें पुस्तकोंके प्रेमी ऐसे विद्वान् और सामान्य जन मी पुस्तकोंके लिखने-लिखवानेमें और उनकी अच्छी तरह रक्षा आदि करनेमें बडा गौरव और पुण्य समझते थे। ज्ञानप्राप्तिका प्रधान साधन पुस्तक है। ६३. वास्तवमें देखा जाय तो ज्ञानज्योति प्राप्त करनेका प्रधान साधन पुस्तक ही तो है । पुस्तक -ही-के साधनद्वारा मनुष्यने इतना ज्ञानविकास प्राप्त किया है। मनुष्य जातिकी समुच्चय सभ्यता और संस्कृतिका सर्व-प्रधान निमित्त पुस्तक ही है। जिस मानव-समूह या मानव-जातिने पुस्तकका परिचय नहीं प्राप्त किया और पुस्तकका उपयोग नहीं किया वह समूह या जाति आज मी हमारे सम्मुख असभ्य, असंस्कृत या अनार्यके रूपमें परिगणित है। वह मानव या मानव-समूह ज्ञानसे शून्य है और हम उसे 'ज्ञानेन हीनः पशुभिः समान' इस उक्तिद्वारा पशुके समान कहा करते हैं । पशुकी कोटिमेंसे मनुष्यको ऊंचे उठानेवाली जो ज्ञानशक्ति है वह हमें विशेष रूपमें पुस्तक द्वारा ही प्राप्त हुई है । अतः पुस्तक यह हमारी ज्ञानप्राप्तिका सबसे प्रधान और सबसे विशिष्ट साधकतम कारण है। जैनाचार्योंकी पुस्तक-भक्ति । ६४. पूर्वकालके जैनाचार्योने ज्ञानके इस विशिष्टतर साधनके महत्त्वको खूब अच्छी तरह पहचाना है और इसलिये उन्होंने पुस्तकोंके लिखने-लिखवाने और लिखे हुए ग्रन्थोंकी रक्षा करनेके निमित्त खूब परिणाम कारक उपदेश दिया है और बहुत सक्रिय कार्य किया है । जिस तरह अपने उपास्य देवके मन्दिर और मूर्तिका बनवाना और उसकी पूजा-भक्ति करना अपने धर्मके अनुयायिजनोंके लिये, एक परम कर्तव्य उन्होंने बतलाया है, उसी तरह ज्ञानप्राप्तिके अनन्यभूत साधन जो पुस्तक हैं उनके लिखने-लिखवानेका मी वैसा ही परम कर्तव्य उन्होंने बतलाया है । देव-मन्दिर और देव - मूर्ति जिस तरह धर्मकी उपासनाके प्रधान अंग कहे गये हैं उसी तरह पुस्तक मी वैसा ही धर्मका एक प्रधान अंग बतलाया गया है । इसलिये प्राचीन कालसे जैन समाजमें पुस्तकोंके लिखने-लिखवानेका काम बडा पवित्र और पुण्यकारक समझा जा रहा है। इस विचारको पुष्ट करनेवाले ऐसे सेंकडों ही उपदेशात्मक श्लोक और उनके उदाहरणभूत ऐसे अनेक कथानक जैन ग्रन्थोंमें उपलब्ध होते हैं । पुस्तकोंके प्रति ऐसी विशिष्ट भक्ति और आस्था अन्य किसी संप्रदाय या मतवालोंने प्रकट की हो, ऐसा हमारे देखनेमें कहीं नहीं आया । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002781
Book TitleJain Pustak Prashasti Sangraha 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvijay
PublisherSinghi Jain Shastra Shiksha Pith Mumbai
Publication Year1943
Total Pages218
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size14 MB
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