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प्रास्ताविक विचार
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९५. पुस्तक - लेखनके निमित्त प्रकट किये गये इस तरहके उच्च भक्तिभाव के कारण, प्राचीन कालमें, हर एक भावनाशील जैन उपासककी यह भावना रहा करती थी, कि वह अपने हाथोंसे न लिख सके तो अपने द्रव्यसे ही यथाशक्ति पुस्तक - पुस्तिकायें लिखवा कर ज्ञानाभ्यासियोंको भेंट करे अथवा ज्ञानभण्डारों में स्थापित करे । इस भावनाके अनुसार, जो उपासक अधिक समृद्ध होते थे और जो खूब द्रव्यव्यय कर सकते थे. वे एक-दो या पांच-दस नहीं परंतु सेंकडोंकी संख्या में पुस्तक लिखवाते थे और उन्हें ज्ञानभण्डारों में स्थापित कर, भण्डारोंको साहित्य - समृद्ध करते थे । जैन पति कुमार पाल तथा गूर्जर महामात्य व स्तुपाल - तेजपाल आदि अनेकानेक वैभवशाली पुरुषोंने जो अपने द्रव्यसे हजारों पुस्तक लिखवाये और अनेक बडे बडे ज्ञानभण्डार स्थापित किये, यह वृत्तान्त तो इतिहासविश्रुत है ही। पर इन इतिहासविश्रुत व्यक्तियोंके सिवा अन्यान्य सामान्य कोटिकी व्यक्तियोंमेंसे भी हजारों-लाखों जैन उपासकोंने इस पुस्तकलेखन रूप सुकृत्यमें यथाशक्ति अपना पूरा योग दिया है, और इसका उल्लेख, हमें हजारों ही उन पुरानी पोथियों- पुस्तकोंके अन्तमें किया हुआ प्राप्त होता है जो जैन भण्डारोंमें और अन्यान्य स्थानों में विद्यमान हैं। इस प्रकारका पुस्तक लिखानेवालोंके विषयका, जो छोटा-बडा उल्लेख, पुस्तकोंके अन्तमें लिखा हुआ मिलता हैं उसे हमने 'पुस्तक प्रशस्ति' यह विशिष्ट संज्ञा दी है । ये प्रशस्तियां उक्त प्रकारकी 'ग्रन्थ प्रशस्तियों' से भिन्न हैं । इनमें पुस्तक लिखनेवाले या लिखानेवालेका परिचय दिया हुआ होता है नहीं कि पुस्तक कें रचनेवाले – बनानेवालेका । यह प्रस्तुत संग्रह इसी प्रकारकी 'पुस्तक - प्रशस्तियों' का पहला भाग है ।
पुस्तक - लेखनमें त्यागीवर्ग और गृहस्थवर्गकी समान प्रवृत्ति ।
९६. इन पुस्तक लिखने - लिखानेवालोंके सामान्यतया दो विभाग किये जा सकते हैं। उनमें एक तो वह, जो कोई भी ज्ञानाभिलाषी या पुस्तकपाठी मनुष्य अपने निजके पढ़नेके लिये स्वयं अपने हाथोंसे लिखता है; और दूसरा वह, जो अपने पढनेके निमित्त अथवा सामान्य ज्ञानोद्वारके निमित्त उपकार - भावसे दूसरोंके पाससे अर्थात् लेखक- वृत्तिवालोंके पाससे द्रव्य देकर लिखवाता है। जैन समाजके साधु-यति वर्गकी जो स्वयं पुस्तकलेखनप्रवृत्ति है वह प्रधानतया प्रथम विभागमें आती है और गृहस्थ - श्रावक वर्गकी जो प्रवृत्ति है वह द्वितीय विभागमें ।
जैनाचार्यों ने पुस्तकलेखनरूप कार्यको साधु और श्रावक दोनों ही के लिये समान भावसे कर्तव्यरूप बतलाया है । इसलिये साधुवर्ग जो प्रायः सुपठित और साक्षर होता था वह स्वयं अपने हाथोंसे मी यथाशक्ति पुस्तक लेखनका कार्य सतत करता रहता था और गृहस्थ वर्गको उस कार्यमें द्रव्यव्यय करनेकी प्रेरणा कर उनके द्वारा दूसरे लिपिकारोंसे - लेखकवर्ग से भी पुस्तकें लिखवाता रहता था । गृहस्थ वर्ग, जो प्रायः स्वयं अपने हाथोंसे वैसा लेखनकार्य नहीं कर सकता था, वह अपने द्रव्यका व्यय कर ज्ञानाभिलाषियोंके पठन निमित्त दूसरोंसे पुस्तकें लिखवा कर, उन्हें समर्पित करता था । पूर्वके जैनाचार्योंने इस प्रकार स्वयं पुस्तकें लिखना और द्रव्यद्वारा दूसरों से लिखवाना – इन दोनों ही प्रकार के कार्यको आत्माकी अज्ञाननिवृत्तिका एक विशिष्ट कारण बतलाया है और इसीलिये साधु और श्रावक दोनों ही इस कार्यमें यथायोग्य प्रवृत्त होते आये हैं । इसका प्रमाण हमें प्रस्तुत प्रशस्ति संग्रह में सर्वत्र यथेष्ट उपलब्ध होता है ।
प्रस्तुत संग्रह में दो प्रकारके प्रशस्ति - लेख ।
६७. प्रस्तुत संग्रहमें पाठकोंको दो प्रकारके प्रशस्ति - लेख देखने में आवेंगे, जिनमें पहला प्रकार उन बडे बड़े लेखक है जो अधिक तर पद्यमय हैं; और दूसरा प्रकार है, उन छोटे छोटे दो-दो चार चार पंक्तियोंवाले या उससे भी कम शब्दावलिवाले लेखोंका, जिसको हमने 'संक्षिप्त पुष्पिका लेख' की संज्ञा दी है ।
इस दूसरे प्रकार के 'संक्षिप्त पुष्पि का लेख' तो प्रायः पुरानी हस्त लिखित पोथियोंमेंसे - जैन अजैन सब ही संप्रदाय के पुस्तकों में से हजारों ही पुस्तकोंमें लिखे मिलते हैं, परंतु पद्यमय बडे 'पुस्तक प्रशस्ति लेख' जैनोंके
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