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जैनपुस्तकप्रशस्तिसंग्रह -
- प्रथम भाग
लिखवाये हुए पुस्तकोंके अतिरिक्त शायद ही किसी पुस्तकमें प्राप्त हों । इसलिये ये 'जैन पुस्तक प्रशस्ति लेख ' एक प्रकारसे जैन पुस्तकोंके ही विशिष्टताके निदर्शक हैं ।
पुस्तक प्रशस्ति - लेखोंकी कल्पनाका निमित्त ।
६८. पुस्तकोंके अन्तमें ऐसे पद्यमय 'प्रशस्ति लेख' लिखनेकी कल्पना, जैनाचायोंको, शायद मन्दिरों आदिके प्रशस्तिरूप शिलालेखोंकी कृतियोंको देख कर उत्पन्न हुई है। प्राचीन कालसे हमारे देशमें, देवमन्दिर, धर्ममठ और कूप वापी आदि जैसे कीर्तन निर्माण करनेवालोंके यश और पुण्य कार्यको अक्षरबद्ध करके, उसे भविष्य में चिरकाल तक जन - विदित रखनेकी कामनासे, उन उन कार्योंके करनेवाली व्यक्तियोंके प्रशंसक विद्वान्, यथायोग्य ऐसे छोटे बडे प्रशस्ति लेख बनाते थे जिनको शिलाओंमें खुदवा कर उन्हें उन उन कीर्तन - स्थानोंके किसी उपयुक्त भागमें - सर्वजनदृश्य स्थान पर लगवा कर रखनेकी प्रथा चली आ रही है। सारे भारतवर्ष में से ऐसे हजारों शिलालेख मिल आये हैं और उन्हींके आधार पर प्रायः हमारे देशके प्राचीन इतिहासका बहुत बडा भाग संकलित किया गया है। मन्दिरादिके ऐसे प्रशस्ति - लेखों को देख कर, जैनाचार्यों को शायद यह कल्पना हुई कि पुस्तक लेखनका भी एक वैसा ही पुण्यकार्य है जो विशिष्ट द्रव्यसाध्य है और वह भी मन्दिरादिकी तरह चिरकाल स्थायी वस्तु हो कर कीर्तन खरूप है; अतः जो भावुक गृहस्थ इन पुस्तकोंके लिखवानेमें अपना द्रव्य व्यय करता है, उसके इस सुकृत्यको और यशको भी अक्षर-बद्ध करके चिरकाल स्थायी रखनेकी इच्छासे, ये प्रशस्ति - लेख बनाकर पुस्तकोंके अन्तमें उन्हें लिपिबद्ध करनेकी उन्होंने पद्धति चालू की है। इन प्रशस्ति लेखोंसे दो कार्य सिद्ध होने लगे, एक तो वह कि जो गृहस्थ इन पुस्तकोंको लिखवाता था उसको जब तक वह पुस्तक रक्षित रहेगा तब तक अपना नाम विद्यमान रहेगा, इसका आत्मसन्तोष होने लगा; और दूसरा यह कि इस प्रकारका किसी गृहस्थ का नाम पुस्तकके कारण चिरस्मृत होता देख कर अन्य गृहस्थका भी वैसे ही कार्यके करनेमें उत्साह बढने लगा और उसके अनुकरणरूप वह भी ऐसे पुस्तक लिखवाने की प्रवृत्तिमें अपना द्रव्यव्यय करने लगा । इस संग्रहमें प्रकट किये गये प्रशस्ति - लेखक पढनेसे पाठकोंको इस कथनकी प्रतीति अच्छी तरहसे हो सकेगी ।
१९. इन प्रशस्तियों में से यह भी बात ज्ञात होती है कि निजके पुण्य और यशके सिवा, कई पुस्तक लेखयिता जन, अपने पूज्य, आप्त, बन्धु, आत्मीय और कुटुंबीजनोंके पुण्यार्थं भी ऐसे पुस्तक लिखवाते थे । इनमें से किसी पुस्तक प्रशस्तिमें कहा गया है कि यह पुस्तक अमुक जनने, अपने स्वर्गगत पिताकी या बन्धुकी या पुत्रकी पुण्यस्मृति के निमित्त लिखवाया है; तो किसी प्रशस्तिमें कहा गया है कि यह अमुकने अपनी माताकी या भगिनीकी या पत्नीकी पुण्यस्मृतिके निमित्त आलेखित करवाया है, इत्यादि । जिस तरह इस 'सिंघी जैन ग्रन्थमाला' के प्रतिष्ठापक और परिचालक श्रीमान् बाबू बहादुर सिंह जी सिंघीने, अपने स्वर्गवासी पूज्य पिताकी पुण्यस्मृति निमित्त प्रस्तुत ग्रन्थमालाका प्रकाशन प्रारंभ किया है, उसी तरह पुराने समयके वे ज्ञानप्रेमी श्रावक गण भी, उन उन हस्त लिखित पुस्तकोंका आलेखन भी इसी प्रकारके किसी पुण्यस्मारकके निमित्त करवा गये हैं । ठीक जिस तरह हमने सिंघीजीके इस सुकृत्य और यशः कार्यका सूचन करनेवाली एक संस्कृत पद्यमय प्रशस्ति बनाई है और जो इस ग्रन्थमालाके प्रत्येक ग्रन्थमें, प्रारंभमें, दी जाती है; उसी तरहकी ये सब पुस्तक प्रशस्तियां हैं जो प्रस्तुत पुस्तक प्रकाशित की गई हैं और ये उन उन हस्तलिखित प्राचीन पुस्तकोंके साथ लिखी हुई उपलब्ध हुई हैं ।
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इन प्रशस्तियोंकी ऐतिहासिकता और प्रमाणभूतता ।
१०. अपने देश, समाज, और धर्मके प्राचीन इतिहासकी सामग्रीकी दृष्टिसे ये प्रशस्तियां उतने ही महत्त्वकी और प्रमाणभूत हैं जितने मन्दिरों आदिके शिलालेख और राजाओंके दानपत्र ( ताम्रपट) आदि माने जाते हैं । इन
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