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प्रास्ताविक विचार प्रशस्ति -लेखोंमें और उन शिलालेखोंमें, सिवा इसके कि ये पुस्तकोंके साथ एवं ताडपत्र या कागज पर लिखे हुए हैं, और शिलालेख पत्थरकी शिलापर खुदे हुए हो कर किसी स्थानकी दिवार आदि पर जडे हुए हैं, अन्य कोई अन्तर नहीं है। जिस तरह कोई धर्मशील व्यक्ति अपने द्रव्यका सदुपयोग करनेकी दृष्टिसे देवमन्दिर आदि कोई धर्मस्थान या कीर्तन बनाता है, तो उसके उपदेशक अथवा प्रशंसक विद्वान् जन, उस कार्यकी स्तुतिरूपमें छोटा-बड़ा प्रशस्ति-लेख बना कर और उसे शिलामें खुदवा कर, उस स्थानमें लगवा देते हैं। इसी तरह कोई ज्ञानप्रिय व्यक्ति जो अपने द्रव्यका विनिमय पुस्तकादिके लेखनमें करता है तो उसके उस कार्यकी प्रशंसार्थ, उपदेशक विद्वान् , छोटा-बडा प्रशस्ति - लेख रच कर उसे तत्तत् पुस्तकके अन्तमें लिखवा देते हैं । इस लिये इन प्रशस्तिलेखोंमें और शिलालेखोंमें तथ्यकी दृष्टिसे कोई अन्तर नहीं है और इसीलिये ये दोनों ही प्रकारके लेख इतिहास के अंगभूत ऐसे समान कोटिके साधन हैं।
इन प्रशस्ति-लेखोंकी वर्णनीय वस्तु । ११. इन प्रशस्ति -लेखोंमें मुख्य वर्णन उस व्यक्तिका रहता है जो द्रव्यव्यय करके पुस्तक लिखवाता है । इस वर्णनका सारांश यह होता है-प्रारंभमें उसके जाति या वंशका उल्लेख किया जाता है, फिर उसके पूर्वजोंमेंसे किसी निकटवर्ती ऐसे पुरुषसे वंशावलि शुरू की जाती है जिसके द्वारा उस कुटुम्बकी, स्थानिक प्रसिद्धि आदि हुई हो । फिर दाताके प्रपिता-पिता-माता-भ्राता-भगिनी-पत्नी-पुत्र-पुत्री इत्यादिका यथायोग्य नाम निर्देश किया हुआ होता है। उसके बाद, अगर किसी धर्मोपदेशककी प्रेरणासे वह कार्य किया गया हो, तो उनके गच्छ, गुर्वादिकके परिचयके साथ उनका नामनिर्देश होता है; और फिर जिस ग्रन्थका लेखन कराया गया हो उसका उल्लेख किया जाता है । अन्तमें जिस संवत्सर, मास और तिथिमें वह पुस्तकालेखन समाप्त हुआ हो उसका निर्देश किया जाता है और किसी किसीमें स्थान और समकालीन राजाका भी उल्लेख कर दिया जाता है । अन्तमें जिस लेखकने (लिपिकारने) उस पुस्तककी प्रतिलिपि की हो उसका नाम रहता है और सर्वान्तमें उस पुस्तकके पढने-पढानेवालोंका माल और कल्याण सूचन करने वाला आशीर्वादात्मक वाक्य लिखा जाता है।
बस, यही इन प्रशस्ति-लेखोंकी मुख्य वर्ण्य वस्तु है । इसमेंसे किसीमें कोई उल्लेख विस्तृत रूपमें मिलता है तो कोई संक्षिप्त रूपमें; और किसीमें कितनीक बातें अधिक परिमाणमें मिलती हैं तो किसीमें कम । इसका आधार प्रशस्तिकी रचना पर रहता है । प्रशस्ति बडी हुई तो उसमें अधिक और विस्तृत वर्णन मिलेगा; और छोटी हुई तो उसमें कम और संक्षिप्त ।
कुछ प्रशस्ति-लेखोंका विशेष परिचय । ६१२. प्रस्तुत संग्रहमें जो पद्यात्मक प्रशस्तियां दी गई हैं उनमें सबसे छोटी प्रशस्ति है उसके शिर्फ दो ही श्लोक हैं [ देखो प्र० क्रमार १०९] और जो सबसे बडी है उसके ४९ पथ हैं [ देखो, क्रमाङ्क ९५] । इस प्रकार प्रशस्तिकी रचना छोटी-बडी होनेसे उसमें वर्णनका भी उसी प्रकार संक्षिप्त या विस्तृत रूपमें उपलब्ध होना नियमसिद्ध है।
उदाहरणके तौर पर हम यहां पर इनमेंसे दो-चार प्रशस्तियोंका कुछ परिचय देते हैं । ऊपर निर्दिष्ट दो पद्यवाली छोटीसी प्रशस्तिमें जो वर्णन दिया गया है उससे शिर्फ इतना ही ज्ञात होता है कि-'[ कोई एक] लक्ष्मण नामक श्रावक हुआ जिसकी सपना नामक पत्नी थी। उसके सिंह नामा पुत्र और रां भू नामकी पुत्री-ये दो सन्तान हुए । सिंह को [उसकी पत्नी] संतु का की कूखसे यशो देव नामक पुत्र हुआ जिसने अपने पिताके श्रेयार्थ, जीत कल्प नामक [ यह ] पुस्तिका लिखवाई ।'.
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