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________________ जैनपुस्तकप्रशस्तिसंग्रह-प्रथम भाग इस संक्षिप्ततम प्रशस्तिमें, पुस्तक लिखानेवालेके निजके नाम और पुस्तकके नामनिर्देशके अतिरिक्त, उसके पिता-माता तथा पितामह-पितामही और एक फी (पिताकी भगिनी) के- इन पांच नामोंके सिवा और किसी बातका कोई निर्देश नहीं मिलता । इसमें स्थल और समयका भी कुछ निर्देश न होने से ये प्रशस्ति -निर्दिष्ट व्यक्ति कहां और कब हुए इसका भी हमें कोई ज्ञान नहीं हो पाता। - ऐसी ही एक, दो श्लोक और एक संक्षिप्त गद्यवाक्यवाली, दूसरी प्रशस्ति [ देखो ऋ० १०८] है जिसमें लिखा हुआ वर्णन मिलता है कि- 'पल्ली वाल वंशका प्रसिद्ध पुरुष वी सल हुआ जिसकी पत्नी जय श्री थी-जो राजी मती की पुत्री थी । इन वी स ल और ज य श्री की पुत्री जाउ का हुई जो देव और गुरुके पदकमलमें भ्रमर के समान थी। उसने यह सा मा चारी नामक पुस्तक लिखवाई । वि. सं. १२४० के चैत्र सुदि १३ सोमवार को यह पुस्तक लिख कर पूर्ण की गई। इस प्रशस्तिमें पुस्तक लिखनेकी मितिका निर्देश किया गया है जिससे हमें यह बात ज्ञात हो सकती है किपल्ली वाल वंशका वह वीस ल और उसकी पुत्री जा उ का- जिसने पुस्तिका लिखवाई-कब हुए । स्थानका इसमें भी कोई निर्देश नहीं इसलिये इससे यह बात नहीं ज्ञात हो सकती कि वे कहां के रहने वाले थे-उनका और कौन देश था । इन दो पद्यों- श्लोकोंवाली प्रशस्तियोंके पूर्व ३-३ श्लोकवाली दो प्रशस्तियां प्रस्तुत संग्रहमें मुद्रित हैं - जिनमेंसे एकमें [ देखो, क्र. १०५] लिखा है कि- 'कोई आशा धर और अमृत देवी का पुत्र कुल चंद्र नामका हुआ जो सर्वजनप्रिय हो कर सारे जगत्में विख्यात है। उसकी अंबिका नामक पुत्री है जो बडी विनयसंपन्न है। गुरुके उपदेशसे उसने यह पुस्तिका लिखवाई।' इस प्रकार पहले दो श्लोकोंमें इसमें लिखाने वालेका मात्र यह संक्षिप्त नाम-निर्देश किया गया है और तीसरा जो श्लोक है उसमें पुस्तिकाकी चिरस्थितिकी कामनाका उल्लेख करते हुए कहा गया है कि-'जब तक आकाशमें सूर्य और चंद्र विद्यमान हैं तब तक पृथिवीमें यह पुस्तिका भी विद्यमान रहो ।' इस संक्षिप्ततम प्रशस्तिमें जो उल्लेख किया गया है उससे यह कुछ भी ज्ञात नहीं किया जा सकता कि यह सर्वजनप्रिय और सारे जगत्में विख्यात ऐसा कुल चंद्र किस वंशका, किस गांवका और किस समय में था । इसमें पुस्तकका नाम भी निर्दिष्ट नहीं है। ___इसी प्रकारकी ३ श्लोकवाली एक और प्रशस्ति [क्र. १०६ ] है जिसमें इतना वर्णन उल्लिखित है कि-- 'पल्ली वाल वंशमें पुना नामक गृहस्थ हुआ जिसका पुत्र बो हित्य और उसका पुत्र अच्छा धार्मिक ऐसा गण देक हुआ। उसने त्रिषष्टि [ शलाका पुरुष चरित्र ] नामक ग्रंथका यह तीसरा खण्ड पुस्तकमें लिखवा कर इसे स्तंभ तीर्य (खंभा त) की पोषधशाला [ के ज्ञानभण्डार ] में सहर्ष समर्पित किया ।' दो श्लोकोंमें यह वर्णन दे कर तीसरे श्लोकमें कहा गया है कि- 'जब तक सकल प्राणियोंका हित करनेवाला यह जैन मत विद्यमान है तब तक बुध जनों द्वारा पढा जाता हुआ यह पुस्तक भी विद्यमान रहो। इसमें, पुस्तकका नाम, लिखाने वालेका निजका नाम तथा उसके पिता, प्रपिता और वंशका नाम मात्र मिलता है । खंभा त की पोषधशालामें पुस्तकको भेंट करनेके निर्देशसे वह वहींका रहनेवाला होगा ऐसा भी अनुमान किया जा सकता है । पर संवत् का कोई उल्लेख न होनेसे उसके समयका कोई पता नहीं लग सकता बडी प्रशस्तियोंमेसे दो-एकका विशेष परिचय । ६१३. इस तरहकी ये जो छोटी-छोटी प्रशस्तियां हैं उनमें उक्त प्रकारका बहुत ही संक्षिप्त वर्णन मिलता हैअधिकके लिये इनमें कोई अवकाश भी नहीं है। पर जो दस-दस बीस-बीस श्लोकों-पद्योंवाली बडी प्रशस्तियां हैं उनमें इससे कहीं अधिक विस्तृत और विशेष बातें उल्लिखित होती हैं । और जो इनसे भी अधिक संख्यावाले पद्योंकी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002781
Book TitleJain Pustak Prashasti Sangraha 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvijay
PublisherSinghi Jain Shastra Shiksha Pith Mumbai
Publication Year1943
Total Pages218
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size14 MB
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