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________________ प्रास्ताविक विचार १९ पुष्पिकालेखोंमें, क्रमांक ६२ वाला, जो सं. १११० से १९ बीचका किसी वर्षका लेख है, उसमें सूचित किया गया है कि - 'स्तंभ तीर्थ, उस समयके प्रसिद्ध ऐसे ३६ बन्दरोंमें सबसे प्रधान बन्दर माना जाता था' । वह समय गुजरात के पराक्रमी सम्राट् भीम देव के राज्यका था । खंभात उस समय बहुत आबाद और समृद्धिशाली नगर था । अभयदेवसूरि, निचन्द्रसूरि, देवचन्द्रसूरि, हेमचन्द्रसूरि आदि जैसे जैन वाङ्मयाकाशके महानक्षत्र उस समय वहां प्रकाशित हुए थे । इसलिये वहां पर इस पुस्तकलेखन रूप प्रवृत्तिका खूब प्रचार रहना खाभाविक ही है । इस समयको बीते आज प्रायः ९०० वर्ष होने आये हैं । पाटण और खंभातमें, इस तरह ९०० वर्ष पहले लिखे गये ये पुस्तक, आज भी अपने स्थानमें, उसी तरह सुरक्षित है यह हमारे इतिहासकी एक रोमांचक अनुभूति है । भारत वर्ष में, ऐसा और कोई स्थान नहीं है जो इस प्रकारके गौरवकी अनुभूति कर सके कि उसके सन्थागारमें, उसकी हजार हजार नौ सौ नौ सौ वर्षकी पुरानी वस्तु, उसी रूपमें आज भी उसके पास विद्यमान है । - .८ वें परिशिष्टों, गृहस्थोंके कुल, वंश, गोत्र, जाति और शाखाविशेषोंके नामोंकी अनुक्रमणी है । - इस सूचिके देखनेसे ज्ञात होता है कि इसमें श्रीमाल, प्राग्वाट, उपकेश, धर्कट, पल्लीवाल, मोढ, गूर्जर, नागर, दीशावाला, हुंबड आदि उन अनेक वैश्य वंशोंके नाम दृष्टिगोचर होते हैं जो उस समय जैन धर्मका पालन करते थे । इन वंशोंका प्राचीन इतिहास संकलित करनेमें, इस प्रकारके ये पुष्पिकालेख बडे प्रमाणभूत साधन हैं। ओसवाल, श्रीमाल, प्राग्वाट आदि जातियोंकी उत्पत्तिके विषयमें, जो अर्द्ध सत्य मिश्रित दन्तकथायें प्रचलित हैं उन पर, इन लेखोंकी सूक्ष्म छानवीन करनेसे, बहुत कुछ नवीन प्रकाश पड सकता है और कई मिथ्याभ्रम दूर हो सकते हैं। इन लेखोंके अध्ययनसे यह भी ज्ञात होता है कि उस पुरातन समयमें कितनी जातियोंमें जैन धर्मका प्रचार था और आज उसमें कितनी हानि - वृद्धि हुई है। उदाहरणके स्वरूप, हम एक ओसवाल जातिका विचार करें, तो इन लेखों के मननसे हमें प्रतीत होता है, कि यह जाति जो वर्तमानमें जैन धर्मकी उपासक जातियोंमें सबसे प्रधान स्थान रखती है, उस पुराने समय में उतनी प्रसिद्ध नहीं हुई थी । ओसवंश अर्थात् उपकेशवंश, पुरातन धर्कट शासक एक विशिष्ट महावंशकी शाखाविशेष है, जो पीछेसे खयं एक महावंशके रूपमें परिणत हो गया और मूल घर्कट में नामशेष हो गया । इस विषय अधिक वर्णन करनेकी यहाँ जगह नहीं है । इतना सूचन इसलिये किया गया है कि अभ्यासी जन इन लेखोंके अध्ययनसे अपने पुरातन इतिहासकी किन किन ज्ञातअज्ञात बातोंका विशिष्ट ज्ञान प्राप्त कर सकते हैं । ९ में परिशिष्ट में, सब श्रावक और श्राविकाओंकी एकत्र सुदीर्घ नामावलि है । १० वें परिशिष्ट में, कुछ वैसे प्रकीर्ण नाम संगृहीत हैं जिनका समावेश उपर्युक्त किसी विभाग - विशेषमें नहीं हो सकता था । जैन एवं जैनेतर दोनों प्रकारका वाङ्मयसंग्रह | § २६. यद्यपि मुख्य करके, इन पुस्तकोंकी बडी संख्या जैन वाङ्मयके साथ संबन्ध रखने वाली है; तथापि इनमें जैनेतर ग्रन्थ भी कुछ कम नहीं हैं। इनमें कोई कोई जैनेतर ग्रन्थ तो - बौद्ध अथवा ब्राह्मण मतके - ऐसे भी हैं जिनकी प्रतिलिपि और किसी जगह नहीं मिली । महाकवि राजशेखर की काव्य मीमांसा, भोज की शृंगार मंजरी, बिल्हण का विक्रमांकदेव चरित, भूषणभट्ट की लीलावती ( प्राकृत) कथा, जयराशिका त खोपलव इत्यादि ब्राह्मणधर्मीय विद्वानोंके बनाये हुए जो ग्रन्थ इन पुस्तकोंमें मिले हैं, वे अभी तक और किसी जगह नहीं मिले हैं। इसी तरहके बौद्ध मतके भी, जैसे कि धर्म कीर्ति का न्या य बिन्दु, हे तु बिन्दु, और कमलशील का तख संग्रह आदि कई ऐसे अपूर्व, महान् और प्रधान ग्रन्थ इनमें उपलब्ध हुए हैं जिनका अस्तित्व और किसी जगह नहीं है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002781
Book TitleJain Pustak Prashasti Sangraha 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvijay
PublisherSinghi Jain Shastra Shiksha Pith Mumbai
Publication Year1943
Total Pages218
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size14 MB
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