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________________ जैनपुस्तकप्रशस्तिसंप्रह-प्रथम भाग ' इस सूचिका ठीक ध्यानपूर्वक अवलोकन करनेसे ज्ञात होगा कि- इसमें तत्कालीन कई बडे राजवंशोंके प्रधान नृपतियोंके नाम दिखाई देंगे। गुजरात के अण हि ल पुरके चौ लुक्य नृपति प्रथम कर्णदेव से लेकर अन्तिम कर्ण देव के पिता सा रंग दे व तकके, प्रायः २२५ वर्षके गूर्जर साम्राज्यके उत्थान और पतनके साक्षी ऐसे, समी राजाओंके राजत्वकालके निर्देशक उल्लेख इन लेखोंमें प्राप्त होते हैं । १ कर्णदेव, २ सिद्धराज जयसिंह, ३ परमाईत कुमारपाल, ४ भीमदेव, ५ वीसलदेव, ६ अर्जुनदेव, और ७ सारंगदेव इस प्रकार ७ तो अण हि ल पुर के महाराजाधिराजोंके नाम इस सूचिमें मिलते हैं । तदुपरान्त लवणप्रसाद, वीरधवल, वीरमदेव और सोभनदेव जैसे अण हि ल पुरके खवंशीय महासामन्त समान प्रख्यात राणकोंके नाम इसमें उपलब्ध हैं। गुजरात के इस युगके भाग्यविधायक महामात्योंमेंसे कर्ण देव का महामात्य मुंजाल, सिद्धराज ज य सिंह के महामात्योंमें आशुक, सान्तुक, गांगिल कुमार पाल के महामात्योंमें महादेव, यशोधवल, कुमरसीह, वाधूय; भीम देव का महामात्य तात, वीरधवल का महामात्य वस्तुपाल, वीसल देव का महामात्य नागड, अर्जुन देव का महामात्य मालदेव, और सारंगदेवक महामात्य कान्ह और मधुसूदन जैसों के नाम इसमें दृष्टिगोचर होते हैं। ___ इनके सिवाय, इन राजाओंके अधिकारनियुक्त ऐसे अनेक मंत्री, सामन्त, दण्डनायक आदि व्यक्तियों के नाम भी इस परिशिष्टमें उपलब्ध हैं जो तत्कालीन जातीय इतिहासमें अपना विशिष्ट स्थान रखते हैं। उदाहरणके लिये, क्रमांक ६६९ वाला पृथ्वी चन्द्र चरित्र का सं० १२१२ का पुष्पिका-लेख देखिये । इसमें म ही और दमन नदीके मध्यमें रहे हुए समग्र लाट देश का सर्वाधिकार भोगनेवाला महाप्रचण्ड दण्डनायक बोसरिका नामोल्लेख है । यह वही वो सरि ब्राह्मण है जो कुमार पाल के संकटकालके जीवनका एकमात्र सखा और साथी था । कुमार पाल के विपद्ग्रस्त जीवनमें वह उसके शरीरकी छायाकी तरह साथ साथ, वन-वन और गांव-गांवमें मटका था । 'कुमारपाल प्रबन्धों में इसका उल्लेख किया गया है; और वहां यह भी लिखा है कि, राज्यप्राप्तिके बाद तुरन्त ही कुमार पाल ने अपने इस उपकारी मित्रको लाट जैसे बहुत बडे समृद्ध देशका महादण्डनायक बनाया था । कुमार पाल के जीवनसंगी इस महासुभटका नामोल्लेख प्रस्तुत पुष्पिकालेखके सिवाय अन्य कोई ऐसी समकालीन कृतिमें उपलब्ध नहीं हुआ। गुजरात बहारके अन्य राजवंशोंमेंसे, मा ल वे के परमार, मेवाडके गुहिलोत, शाकंभरीके चाहमान और कान्यकुब्ज के गढवाल आदि राजवंशोंके कुछ राजाओंके नाम मी इस सूचिमें सम्मिलित है। ५ वें परिशिष्टमें, साधु-मुनियोंके कुल, गण और गच्छ आदिके जो नाम मिलते हैं उनकी सूचि दी हैं। ६ ठे परिशिष्टमें, पुस्तकोंमें उल्लिखित सब यति, मुनि, पंडित, गणि, उपाध्याय, सूरि, साध्वी, आर्यिका महत्तरा, प्रवर्तिनी आदि त्यागीवर्गके नामोंकी सूचि दी गई है। ७ वें परिशिष्टमें, पुस्तकोंमें निर्दिष्ट देश, नगर, ग्राम आदि स्थानवाचक नामोंकी सूचि है। इस सूचिके अवलोकनसे यह ज्ञात होगा कि-गुजरात, सौराष्ट्र, माल वा, मेवाड, मारवाड, कर्णाट, दिल्ली और तिरहुत आदि कितने ही भिन्न भिन्न देशोंमें लिखे गये पुस्तकोंके ये पुष्पिकालेख हैं। अल्बत् , सबसे अधिक संख्या गुजरात में लिखे गये पुस्तकोंकी हैं । गुजरात में भी सबसे पहला स्थान उसकी राजधानी अण हि लपुर पाटनको मिलता है । जिस कालमें ये सब पुस्तक लिखे गये हैं उस कालमें पाटण विद्याका बहुत बडा केन्द्र था और जैनधर्मका तो सारे भारतवर्षमें वह सबसे बडा प्राणवान् स्थान बना हुआ था। पाटण के बाद दूसरा स्थान स्तं म तीर्थ अर्थात् खें भात का आता है। चौ लु क्यों के समयमें खंभा त पश्चिम और उत्तर भारतका सबसे बडा सामुद्रिक बन्दरगाह था। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002781
Book TitleJain Pustak Prashasti Sangraha 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvijay
PublisherSinghi Jain Shastra Shiksha Pith Mumbai
Publication Year1943
Total Pages218
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size14 MB
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