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प्रास्ताविक विचार मामोंकी सूचि दी गई है। इन लिपिकारों के नामोंमें कई प्रकारकी व्यक्तियोंके नाम अन्तर्निहित हैं। इनमें कई प्रसिद्ध प्राचार्य और विद्वान् मुनियोंके नाम हैं, कई बड़े प्रसिद्ध और धनिक ऐसे श्रावकोंके नाम हैं। और कई ठक्कर, मंत्री आदि जैसे राज्य-पदाधिकारियोंके भी नाम इसमें सम्मिलित है। बाकीके बहुतसे ब्राह्मण और कायस्थ, जिनका मुख्य जीवनव्यवसाय पुस्तकें लिखनेका ही था, उनके माम हैं। इनमेंसे कई लेखकोंके नामोंके साथ, उनके अच्छे और सुन्दर अक्षरोंके होनेका तथा उनकी उत्तम प्रकारकी लिपिकलाका निर्देश किया गया है । इससे ज्ञात होता है कि सुन्दर अक्षरोंमें अच्छी तरह पुस्तक लिखनेका काम उस जमानेमें एक मानप्रद और लाधनीय कार्य समझा जाता था।
इन लिपिकारोंमेंसे जो जैन आचार्य, मुनि, यति और श्रावक जन हैं, उन्होंने तो ये पुस्तक या तो अपने निजके पठनार्थ लिखे हैं या अपने स्नेहभाजन किसी दूसरे व्यक्तिके पठनार्थ लिखे हैं । किस लेखकने किस निमित्त वह पुस्तक लिखा, इसका भी उल्लेख कहीं कहीं स्पष्ट रूपसे कर दिया गया है । उदाहरणके लिये-पुष्पिका-लेखांक ६२८ वाला जो ललित विस्त रावृत्ति का पुस्तक है, वह सं. १९८५ में लिखा गया है । उसका लेखक पारि० लूण देव है जो कोई शक्तिसंपन्न श्रावक मालूम देता है । उसने उक्त पुस्तक केवल 'खपरोपकाराय' अर्थात् ख और परके उपकारकी दृष्टिसे लिखा है । इसी पुष्पिका-लेखांकके बाद, ऋ०६२९ वाला जो लेखांक है उसमें उल्लिखित है कि 'सं. १९८६ में, चित्रकूट (इतिहास प्रसिद्ध चित्तोड) में रह कर माणिभद्र नामक यतिने, वरना ग आदि यतिजनोंके और अपने हितके लिये 'जिन दत्ताख्यान' नामक इस पुस्तकका लेखन समाप्त किया । पुष्पिका-लेखांक ६५९ वाला 'पंचा शक' का एक पुस्तक है जो जेसलमेर के भण्डारमें हैं। इसके पुष्पिका-लेखसे विदित होता है कि- 'बि. सं. १२०७ में अजयमेरु दुर्ग (अजमेर का किला) टूटा, उस समय यह पुस्तक भी त्रुटित हो गया-अर्थात् इधर उधरकी भग-दौडमें पुस्तकके कई पत्र बीच-बीचमेंसे खोये गये । फिर यह त्रुदित पुस्तक श्री जि न वल्लभ सूरि के शिष्य स्थिर चन्द्र गणि के हाथमें आया, तो उन्होंने उसका जितना भी भाग खण्डित हो गया था, उसे स्वयं अपने हाथसे, अपने निजके कर्मक्षयके निमित्त, लिख कर पूरा किया
और इस तरह स खण्डित पुस्तकको पुनः अखण्ड बनाया। पिछले शीतकालमें हमने इस पुस्तकके प्रत्यक्ष दर्शन किये और इसके जितने पसे स्थिरचन्द्र गणिने अपने हाथोंसे लिख कर अन्दर रखे थे उनको मी ध्यानपूर्वक देखा
और उनमेंसे कुछका फोट भी लिया । पुस्तकोद्धारकर्ताक इस छोटेसे पुचिका-लेखमें बडे महत्त्वका इतिहास मिला । सं. १२०७ में अजमेर के दुर्गका भंग किसके द्वारा हुआ यह तो इसमें नहीं बताया गया, पर हमें अन्य साधनोंसे ज्ञात है कि यह दुर्गभंग चौ ल क्य नृपति कुमार पाल के प्रचण्ड आक्रमणके कारण हुआ था और इसी आक्रमणमें, गुजरात के चौकों ने चाहमा नों पर विजय प्राप्त कर उनको अपना सामन्त बनाया था । इस इतिहासकी विशेष चर्चाका यहां कोई प्रसंग नहीं। यह तो केवल इसलिये सूचितमात्र किया गया कि इन लेखकोंके पुष्पिका-लेखोंमें कैसी कैसी बातोंका हमें निर्देश मिलता है । इन लिपिकारोंके नामोंमें कई तो बहुत बड़े प्रसिद्ध और विशिष्ट व्यक्तित्व संपन्न पुरुषोंके नाम दृष्टिगोचर होते हैं । लेखांक ६४०४ सिद्ध है म - अष्ट माध्या य पुस्तकका है। इसमें लिखा है कि- 'सं. १२२५ में महं० चंड प्रसाद ने अपने पुत्र य शोधवल के पठनार्थ यह लिखा' । यह महं० पण्डप्रसाद, हमारे विचारसे, महामात्य वस्तु पाल का प्रपिता है । लेखांक १५९ वाला जो 'धर्मा म्युदय का व्य है वह स्वयं महामात्य वस्तु पाल का निजका लिखा हुआ पुस्तक है-ऐसा विद्वर्य मुनिश्री पुण्य विजय जी का तर्क है। इस तरह अच्छे लिपिकारके रूपमें भी ऐसे अनेक विशिष्ट विद्वानोंके नामोंका पता, हमें इन पुष्पिका-लेखोंमें मिलता है, जो हमारे सांस्कृतिक इतिहासकी पूर्तिकी दृष्टि से बड़ा महत्त्वका है।
४ थे परिशिष्टमें, इन पुष्पिका-लेखोंमें महाराजाधिराज, महाराज, महाराजकुमार, महामात्य, मंत्री, प्रधान, दंडनायक आदि जिन जिन मचाधीशों एवं राज्याधिकारियों आदिके नाम लिखे हुए मिले हैं, उनकी सूचि दी गई है।
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