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जैनपुस्तकप्रशस्तिसंग्रह प्रथम भाग
समयकी दृष्टि से पुस्तकोंका सिंहावलोकन । २३. समयकी दृष्टि से इनका सिंहावलोकन किया जाय तो जिन पुस्तकोंके अन्तमें लेखन-समय दिया हुआ मिला है-उनमें सबसे प्राचीन पंचमी क था की पोथी है जो वि० सं०-११०९ में लिखी गई है। उसके बादकी एक प्रति 'भा ग व ती सूत्र' की है जो सं. ११११ और १११९ के बीचके किसी वर्ष में लिखी गई है। इसका निश्चित वर्ष इसलिये नहीं ज्ञात हो सका कि वर्षके अंकोंका ज्ञापक जो अन्तिम ४ था अंक है वह पुस्तकके अन्तिम पत्रके उस जगहसे टूट जानेके कारण नष्ट हो गया है। ये दोनों पुस्तक जे सलमेर की सूचिमें उल्लिखित हैं। इन दोनों पुस्तकों पर संक्षिप्त ऐसे 'पुष्पिकालेख ही लिखे हुए हैं। प्रशस्ति जैसा कोई बड़ा लेख नहीं है। . ... ...... 'प्रशस्तिलेख' वाला जो सबसे प्राचीन पुस्तक उपलब्ध हुआ है वह सं० ११३८ में लिखा हुआ 'आवश्य क विशेष भाष्य वृत्ति' का है। यह अब पूनाके उक्त राजकीय संग्रहमें सुरक्षित है; पर असल में यह पाटणके भण्डारहीकी पोथी थी । प्रस्तुत संग्रहमें क्रमांक १ वाली जो सबसे पहली प्रशस्ति है वह इसी पुस्तककी है । इसके अन्तिम पत्रके इधर उधर ट्ट जानेसे प्रशस्तिका संपूर्ण पाठ उपलब्ध नहीं है, तो भी मुख्य वर्ण्य विषय वाली पंक्तियां ठीक सुरक्षित हैं । इस वर्णनसे ज्ञात होता है कि यह पुस्तक अन्यान्य पुस्तकोंकी तरह किसी एक व्यक्तिकी नहीं लिखाई हुई है, पर ५-७ व्यक्तियोंने मिल कर संयुक्तभावसे इसे लिखवाई है। जि ने श्वर सूरि के सुशिष्य जिन वल भ सूरि के उपदेशसे विजट, फे रुक, साहस, संधि क, अंदुक, जिन देव और ज स देव नामक गृहस्थोंने इसका लेखन करवाया है। ये गृहस्थ, जैसा कि प्रशस्तिगत उल्लेखसे मालूम होता है, क्षात्रवंशी य हैं और शायद बिल्कुल नये ही जैन धर्ममें दीक्षित हुए हैं। इनका अभी तक श्री मा ल, प्रा ग्वाट या धर्कट जैसे किसी वैश्य वंशके अन्दर प्रवेश नहीं हुआ है । इस प्रकार प्रशस्तियुक्त पुस्तकोंमें यह पोथी सबसे प्राचीन है। ---ताडपत्रीय पुस्तकोंमें जो सबसे पीछे लिखी गई प्रति है वह संक्षिप्तपुष्पिकालेखान्तर्गत क्रमांक ४१६ वाली विशेषावश्यकवृत्तिकी पोथी है जो शायद सं० १५०८ में लिखी गई है।
२४. इस प्रकार सं० ११०९ से ले कर १५०८ तकके पूरे ४०० वर्षों के बीचमें लिखे गये ताडपत्रीय पुस्तकोंके छोटे बडे सर्ब मिला कर ५४४ लेख इस संग्रहमें संकलित हुए हैं। इन लेखोंमें सेंकडों ही श्रावक-श्राविकाओंके नाम निर्दिष्ट हैं । अनेकानेक जैनाचार्य, ग्रन्थकार विद्वान्, साधु एवं साध्वियोंके नाम उल्लिखित हैं। अनेक गण, गच्छ, जाति एवं कुलोंके नाम उपलब्ध हैं । इनके अतिरिक्त अनेक स्थान (ग्राम, नगर, दुर्ग आदि) और तत्कालीन नृपति तथा अन्यान्य राज्याधिकारियोंके नाम प्राप्त हैं।
भिन्नभिन्न परिशिष्टोंका परिचय । ६२५. इन सब भिन्न भिन्न प्रकारके विशेषनामोंकी अकारादि अनुक्रमसे सूचियां बना कर हमने उन्हें पुस्तकके अन्तमें १० परिशिष्टोंके रूपमें दे दी हैं। इनमेंसे १ ले परिशिष्टमें, उन सब प्रन्थोंके नाम दिये गये हैं जो इन प्रशस्ति और पुष्पिकारूप लेखोंमें अन्तरुल्लिखित हैं। इन नामोंके सम्मुख, तीन स्तंभोंमें तीन प्रकारके अंक दिये गये हैं जिनमें पहले स्तंभमें जो अंक हैं वे संवत्के सूचक हैं । इन अंकोंके देखनेसे यह तत्काल नजरमें आ जायगा कि कौन पुस्तक कौन संवत्की लिखी हुई है । दूसरा स्तंभ लेखोंका क्रमांक-सूचक है । इसमें जिन क्रमांकोंके साथ '' ऐसा चिन्ह लगा हुआ है वे क्रमांक संक्षिप्त पुष्पिकालेखोंके हैं - बाकीके प्रशस्तिरूप लेखोंके समझने चाहिए । तीसरें स्तंभमें पत्रांक दिये गये हैं।
२ रे परिशिष्टमें, लिखित पुस्तकोंके अन्तमें जिन जिन ग्रन्थकारोंके नाम उपलब्ध होते हैं उनके नाम दिये गये हैं।
३रे परिशिष्टमें, उन पुस्तकोंके लिखनेवाले. अर्थात् प्रतिलिपि - नकल करनेवाले लिपिकारोंके. (लहियोंके)
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