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जैनपुस्तकप्रशस्तिसंग्रह-प्रथम भाग
चित्रकलाकी दृष्टिसे ताडपत्रीय पुस्तकोंका आकर्षण । ६२७. पुरातन इतिहासके उपादानकी दृष्टिसे इन ताडपत्रीय पुस्तकोंका क्या महत्त्व है यह तो संक्षेपमें हमने ऊपर बताया ही है । इसके सिवा एक और, सांस्कृतिक उपादानकी, दृष्टिसे मी कुछ ताडपत्रीय पुस्तकोंका अधिक आकर्षण है। वह है चित्रकलाकी दृष्टि । ताडपत्रीय पुस्तकोंमसे हुए उपलब्ध होते हैं । यद्यपि इन चित्रोंमें विशेष करके तो जैन उपास्यदेव तीर्थंकरोंके प्रतिबिम्ब होते हैं। पर सायमें कुछ और और दृश्योंके मी चित्र कहीं कहीं मिल आते हैं । ऐसे दृश्योंमें, प्रधामंतया जैनाचार्योंकी धर्मोपदेशकके खरूपको अवस्थाका आलेखन किया हुआ मिलता है। इस आलेखनमें आचार्य सभापीठ पर बैठे हुए धर्मोपदेश करते बतलाये जाते हैं और उनके सम्मुख श्रावक और श्राविकागण भावभक्ति पूर्वक उपदेश श्रवण करते दिखाये जाते हैं। कहीं कुछ ऐसे ही और भी अन्याय प्रसंगोचित दृश्य अंकित किये हुए दृष्टिगोचर होते हैं । गुफाओंके भित्तिचित्रोंके अतिरिक्त, ऐसे छोटे परंतु विविध रंगोंसे सजित, इतने पुराने चित्र हमारे देशमें और कोई नहीं मिलते । इसलिये चित्रकलाके इतिहास और अध्ययनकी दृष्टिसे ताडपत्रके ये सचित्र पुस्तक बडे मूल्यवान् और आकर्षणीय वस्तु हैं । ताडपत्रके ये चित्र कैसे होते हैं इसका कुछ दिग्दर्शन करानेके हेतु, हमने इस पुस्तकके प्रारंभमें कुछ फोटो-ब्लाक दिये हैं। पाठक इनको देख कर इन चित्रोंके आकार-प्रकारका प्रत्यक्ष ज्ञान कर सकेंगे।
उपसंहार। २८. इस तरह जैन भण्डारोंमें संरक्षित यह ताडपत्रीय पुस्तकोंका प्राचीन और अमूल्य संग्रह मारतवर्षका एक बहुमूल्य निधि है । इनके सिवाय, भारत में अन्यत्र कहीं भी- एक नेपाल को छोड कर-ऐसा प्राचीन पुस्तकसंग्रह विधमान नहीं है । हमारी यह साहित्यिक संपत्ति ऐसी अमूल्य है कि इसकी तुलनामें लाखों-करोडोंकी संपत्ति भी तुच्छ मालूम देती है। सोना - चांदी और हीरा - माणिक आदि जैसी जड संपत्ति तो हमें पग पग पर दिखाई देती है और उसे तो हम अपने उद्योग और पुरुषार्थ द्वारा अपरिमित रूपमें, चाहें जब प्राप्त कर सकते हैं। पर इस प्राचीन पुस्तकखरूप अपूर्व संपत्तिको, जो हमारे पूर्वजोंने, हमारे कल्याणके लिये संचित की हैं, और जो कालके नाशकृत् प्रवाहमें बहुत कुछ नष्ट होती हुई, दर्शनीयमात्र रूपमें, अब हमारे पास विद्यमान है । इसके नष्ट होने पर, फिर इसकी प्राप्ति तो किसी तरह हमें साध्य नहीं हो सकती । अतः हमारा कर्तव्य है कि जिस तरह हो सके हमें इस संपत्तिका ययाशक्य संरक्षण करना चाहिए और इसका ज्ञान प्राप्त करना चाहिए । समाजको ऐसी ज्ञानप्राप्ति करानेके निमित्त ही यह प्रस्तुत प्रयत किया जा रहा है । इसका लाभ सब कोई प्राप्त करें यही मात्र हमारी हार्दिक आकांक्षा है- तथास्तु ।
विजयादशमी । वि.सं. १९९९ (गौर्जरीय) ।
जिन विजय मुनि
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