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________________ जैनपुस्तकाशस्तिसंग्रह प्रथम भाग १९. जैसा कि हमने ऊपर सूचित किया है कि मुसलमानोंके आगमनके बाद भारत में कागजका स्थायी और व्यापक प्रचार होना शुरु हुआ, तब मी दक्षिण भारत में प्रायः पुस्तकलेखन के निमित्तं ताडपत्रका: वैसा ही क्यवहार होता रहा जैसा कागजके आनेके पहले था; और आज मी थोडा बहुत प्रचार इसका चालू ही है । परंतु उत्तर भारत में इसका प्रचार और व्यवहार प्रायः सर्वथा ही बन्ध हो गया । आज तो उत्तर भारतमें ताडपत्र परपुस्तक लिखनेकी कोई कल्पना भी नहीं कर सकता । उत्तरमें इसका यह व्यवहार सेंकडों वर्षोंसे लुप्त हो गया है। प्रायः वि. स. १५०० के बाद, उत्तर भारत में ताडपत्रीय पुस्तकलेखन एकदम अदृश्य हो गया । इसका कारण एक तो यह कि उत्तर भारत में ताडपत्रकी कोई वैसी पैदायश नहीं है। जो थोडे : बहुत कहीं ताडके माद इस प्रदेशमें दिखाई देते हैं उनके पत्ते, लिखने योग्य नहीं होते। दक्षिणमें जो ताडपत्रः अमी तक लिखनेके काममें लाया जाता है उसका मुख्य कारण तो यह है कि उस प्रदेशमें उस झाडकी बहुत बड़ी पैदायश है और उसमें कुछ जाति ऐसी मिलती हैं जिनके पत्तोंपर सूयेसे अक्षर अच्छी तरह खोदे जाते हैं । इधर गुजरात-राजपूताना आदि पश्चिम भारतीय देशोंमें पहले जो ताइपत्र आते थे वे मला या आदि सुदूर विदेशोंसे आते थे । वहाँके ताडके वृक्षोंके पत्ते बहुत मुलायम हो कर बडे चिकने और टिकाऊ होते हैं । उनको 'श्रीताड' के नामसे पहचानते हैं । दक्षिणका जो ताड है उसे 'खरताड' कहा जाता है । मला.या आदि पूर्वीय देशोंसे यह ताडपत्र पहले सामुद्रिक मार्गसे मला बार पहुंचता था और फिर वहांसे या तो समुद्रके रास्तेसे अथवा तो भूमिमार्गसे गुजरात में पंहुचता था और यहांसे फिर वह उत्तर भारत के अन्यान्य प्रदेशोंमें जाता था। इस कारण गुजरात में इस पुस्तकोपयोगी ताडपत्रको 'म ल बारी' ताडपत्र भी कहा करते थे । पाटण में हमें एक ऐसे कोरे ताडपत्रका नमूना मिलाथा जिस पर किसीने अपनी स्मृतिके लिये लिख रखा था कि इतने 'मलबारीय' ताडपत्रोंका यह संचय अमुक समयमें किया गया, इत्यादि । ६२०. पुस्तक-लेखनके लिये हमारे पूर्वजोंने ताडपत्रका उपयोग करना कबसे शुरु किया ? ताडपत्र पर लिखी हुई कितनी पुस्तकें हमारे देशमें मिलती हैं ! ताडपत्र पर लिखनेके लिये क्या क्या क्रियायें करनी पडती हैं ! उसके लिये किस प्रकारकी शाहीकी आवश्यकता रहती है ? ताडपत्रका आकार प्रकार कैसा रहता है ! ताडपत्रीय पुस्तकोंकी किस प्रकार दीर्घकाल तक रक्षा की जा सकती है ! जैन समाजने अर्थात् जैन साधुसंघने कबसे इस पुस्तक-लेखनका अवलंबन किया और पूर्वकालमें कहाँ कहाँ इस पुस्तक-लेखनका कार्य विशिष्ट रूपसे संपन्न होता रहा- इत्यादि बहुतसी ऐसी बाते हैं जो यहां पर, इस प्रसंगमें हमें लिखने जैसी आवश्यक प्रतीत होती हैं और जिनके जाननेसे पाठकोंको बहुत कुछ भारतीय पुस्तक-लेखनके विकासका उपयुक्त इतिहास ज्ञात होने जैसा है; पर उसी ऊपर लिखे हुए कारणवश हमें इस इच्छाका भी यहां संवरण करना पडता है । हो सका तो इस संग्रहके दूसरे भाग उसे विस्तारके साथ लिखनेका मनोरथ है । इस विषयको जरा विशिष्ट रूपसे पल्लवित कर आलेखित करनेके निमित्त हमने कई प्राचीन दर्शनीय ताडपत्रों के ब्लॉक आदि भी बनवा रखे हैं और कई बिरंगे चित्र बनानेके लिये वैसे दर्शनीय पत्रोंको अन्यत्र भेज भी रखे हैं; पर वर्तमान युद्धकी भीषण परिस्थितिके कारण, इन सब वस्तुओंको योग्य रूपमें प्राप्त करना बहुत कठिन है और इसलिये अभी हम यहां पर, इस विषयमें इतना ही खल्प वर्णन दे कर, सन्तुष्ट रहना चाहते हैं । कागजके पुस्तकोंका लेखन प्रचार। ६.२१. ताडके पत्रों परं पुस्तकें लिखनेकी अपेक्षा कागजके पन्नों पर पुस्तकें लिखनी सुलभ मालूम दी और फिर कागजका इस देशमें सब जगह बनना शुरु हो कर, उसका सर्वत्र मिलना भी सुलभ हो गया; तब फिर जैनाचार्योंने ताडपत्रके बदले कागजका व्यवहार करना शुरु किया । विक्रम संवत् १३५० के बाद धीरे धीरे कागजका व्यवहार बढ़ने लगा और ताडपत्रका व्यवहार घटने लगा। पन्दरहवीं शताब्दीके मध्य भागमें इसमें बड़ी उत्क्रान्ति हुई । इस समय हजारों पुस्तक कागज पर लिखे गये । पुराने ग्रन्थ जो ताडपत्र पर लिखे हुए थे उन सबकी प्रायः इस कालमें कागज Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002781
Book TitleJain Pustak Prashasti Sangraha 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvijay
PublisherSinghi Jain Shastra Shiksha Pith Mumbai
Publication Year1943
Total Pages218
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size14 MB
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