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प्रास्ताविक विचार इस प्रकार इन दो बडी प्रशस्तियोंका जो उक्त परिचयात्मक वर्णन दिया गया है इससे पाठकोंको इस प्रकारकी और समी प्रशस्तियोंकी विशेषता, उपयोगिता आदिका ठीक आकलन हो सकेगा। हमारी इच्छा तो थी कि हम इसके साथ, इन सभी प्रशस्ति-लेखोंका इसी तरहका पूरा सार मी, हिन्दीमें दे दें, जिससे जिज्ञासुओंको प्रत्येक प्रशस्तिका ठीक परिचय इस प्रस्तवनाके पढनेहीसे हो जाय । पर, वैसा करना हमारे लिये अमी शक्य नहीं हैएक तो अमी कागजोंका बड़ा भारी अभाव हो रहा है और दूसरा, प्रन्थमालामें अन्यान्य जो अनेक ग्रन्थ छप रहे हैं उनके संपादनमें सतत व्यस्त होनेसे इसके लिये इतना समय प्राप्त करना कठिन हो रहा है । इसलिये दिग्दर्शनरूप इतना वर्णन दे करके ही हम इस संग्रहको पाठकोंके हाथमें समर्पण करते हैं।
प्रस्तुत संग्रहमें सब ताडपत्रीय पुस्तकोंके लेख है। ६१७. जैसा कि इस पुस्तकके मुखपृष्ठसे ज्ञात होता है, यह इस प्रकारके प्रशस्ति-संग्रहका पहला भाग है। इस पहले भागमें जितने प्रशस्ति-लेख प्रकट किये जा रहे हैं ये सब ताडपत्रीय पुस्तकोंके हैं। कागज पर लिखे. गये पुस्तकका एक मी लेख इसमें नहीं दिया गया है। वे सब लेख क्रमशः अगले भागोंमें प्रकाशित किये जायेंगें । ताडपत्रीय पुस्तक, जो कागजके पुस्तकोंकी अपेक्षा अधिक पुराने हैं, संख्यामें अब बहुत थोडे बच रहे हैं। कागजोंके पुस्तकोंकी संख्या तो शायद लाखोंसे गिनी जाने जैसी बडी है, पर ताडपत्रकी पुस्तकोंकी गिनती तो अब इनेगिने सौ ही में मर्यादित रह गई हैं।
ताडपत्रका कुछ परिचय । ६१८. पाठक जानते ही होंगे कि प्राचीन कालमें हमारे देशमें कागजका प्रचार बिल्कुल ही नहीं था। कागज भारत वर्ष में बहारसे मध्य एशिया से आया है। मुसलमानोंके आगमनके साथ भारत में कागजका मी आगमन शुरु हुआ और उनके यहां पर स्थायी निवास करनेके साथ कागजका मी स्थायी एवं अधिक प्रचार और व्यापक उपयोग होना शुरु हुआ । उसके पहले इस देशमें पुस्तकें लिखनेका मुख्य और व्यापक साधन ताडपत्र था । काश्मीर में भूर्जपत्र (भोजपत्र) पर मी बहुतसी पुस्तकें लिखी जाति थीं-क्यों कि उस देशमें भूर्जपत्रकी उत्पत्ति खूब अच्छी तादादमें होती है और वह वहां पर बहुत सुलभ वस्तु है । पर काश्मीर के बहार भूर्जपत्रका उपयोग अधिक तर चिट्ठीपत्री लिखनेके रूपमें किया जाता था और पुस्तकोंके लिखनेके लिये प्रायः ताडपत्र ही काममें लाये जाते थे।
ताडपत्रों पर वाङ्मयको लिपिबद्ध करनेकी दो पद्धतियां भारतमें प्रचलित हैं, जिनमें एक तो उत्तर भारतकीशाहीसे पत्तों पर लिखनेकी पद्धति, और दूसरी, दक्षिण भारतकी-पत्तों पर बारीक नोंकवाले सूयेसे अक्षर खोदनेकी पद्धति । दक्षिण भारतमें प्रायः जितनी ताडपत्रीय पुस्तकें मिलती हैं वे सब सूयेसे खोदे हुए अक्षरोंसे अंकित हैं और उत्तर भारतकी सब शाहीसे लिपीकृत है । पुस्तकें लिखनेकी ये दोनों पद्धतियां हमारे देशमें बहुत प्राचीन कालसे चली आती मालूम देती हैं। क्यों कि इन दोनों पद्धतियोंके निर्वाचक दो भिन्न शब्द हमारे प्राचीन साहित्यमें व्यवहृत होते चले आते हैं। ये दो शब्द है-लेख और लिपि । लेख शब्द लिख धातुसे बना है. और लिपि लिप् धातुसे । इसलिये लेखका असली अर्थ है खोदना-उत्कीर्ण करना; और लिपिका मौलिक अर्थ है लीपना-लेप करना । शाहीसे जो लिखना होता है वह पत्ते पर खोदना नहीं परंतु लेप करना है-शाही पत्तेपर लींपी जाती है। इसके विपरीत सूयेसे जो पत्ते पर खोदना है वह, लिपीकरण-लेपन करना नहीं, लेकिन लेखन करना हैउत्कीर्ण करना है । इसीलिये इन दोनों पद्धतियोंके सूचक ये दो भिन्न शब्द इस क्रियाके लिये प्राचीन कालसे व्यवहारमें प्रयुक्त हैं। परंतु इन क्रियाओंका उद्देश्य एक ही होनेसे ये दोनों शब्द बहुत कालसे प्रायः समान अर्थमें ही प्रयुक्त होते चले आये हैं, और इसलिये शाहीसे लिखी गई या सूयेसे खोदी गई दोनों प्रकारकी ताडपत्रीय पुस्तकोंके लिये लिखित या लिपीकृत शब्दका समान रूपसे प्रयोग किया जाता है । पर वास्तवमें इन दोनों पद्धतियोंमें उक्त प्रकारका मौलिक मेद है और उसी भेदके सूचक ये दोनों शब्द निर्मित हुए हैं।
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