Book Title: Dashvaikalik Ek Samikshatmak Adhyayan
Author(s): Tulsi Acharya, Nathmalmuni
Publisher: Jain Shwetambar Terapanthi Mahasabha
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ TOSAAHIDATE Receii HOMERATHE JUDEL BRATED प ESARILA BHARTICENSURALIANP INDE FEANISORRENNE HAPARENTIALA A MERING HREERSIRLIEFERETIT HALISA MANAGE MARATHI PEOPHARASHTRA PRADEEMALSSIR LOREA IMAGDIEDERARELete NALEELINAMA TAMATTERJI CAREERING S ERISERATECE PAALAMNUARMATLATERTAINMAHall LNIL TABLICHRISHAILE MANANTERNANDS KARTICLESTERNET E N HAL SLEADLI M RAKAR TALE CAREE USHAIROINDERE SSAPRILDIN E U LI TRANSACTIONETIC EDISTRATICARSHA TAINMEINGMTARAMILDROIRRIMURTOURNANDED PARTICIDESTORE AdidiNNARENTS EKSATTorred DELETTES INSPIRATIO ANANTARNALAN HELLS HARDOIHAR MILARAKER ALLILAR SHORTHANA JAISAL MENT SIKHISAIRATE POES STOREITA K HAAREE GAN OREGETARIA FRELEANLINEEOSRANA2 EMANDADAR HALENLODSANILE MARAHTHANICHE HERE काचदा प्रमुख CASTE TALE AANTEGRESE RRENEET FADITTERTISEMICERITADIONARRORENSE SEEDOASARAHESARLSHREE LICENSECONDORE HAR ASHAILER AIMERA KERNET RELA CONDOMINDIRAL NGARAA ARTH ANTARBAR DAANEL HEALER THISGARSA TRA R 1NGLISTRICT HITERESTROLOUSE SEE EARNA HAPER NER CHANNEPARAN Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवकालिक : एक समीक्षात्मक अध्ययन वाचना प्रमुख आचार्य तलसी Page #3 -------------------------------------------------------------------------- _ Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्वेताम्बर तेरापन्थी महासभा आगम-अनुशीलन ग्रन्थ-माला ग्रन्य-१ Page #5 -------------------------------------------------------------------------- _ Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिक : एक समीक्षात्मक अध्ययन वाचना प्रमुख आचार्य तुलसी * विवेधक और सम्पादक मुनि नथमल प्रकाशक जैन श्वेताम्बर तेरापन्थी महासभा आगम-साहित्य प्रकाशन समिति . 3, पोर्चुगीज चर्च स्ट्रीट, कलकत्ता-१ Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रबन्ध-व्यवस्थापक: श्रीचन्द रामपुरिया, बी० कॉम, बी० एल० संयोजक : आगम-साहित्य प्रकाशन समिति जैन श्वेताम्बर तेरापन्थी महासभा धारक : आदर्श साहित्य संघ चूरू ( राजस्थान) आर्थिक-सहायक : सरावगी चेरिटेबिल फण्ड 7, राऊन रोड, कलकत्ता प्रकाशन तिथि : माघ महोत्सव मार्गशीर्ष शुक्ला, सप्तमी 2023 प्रति संख्या : पृष्ठांक: 260 मूल्य: मुद्रक : रोशन आर्ट प्रिन्टिग प्रेस, कलकत्ता Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्रन्धानुक्रम 1. समर्पण . 2. अन्तस्तोष 3. प्रकाशकीय 4. सम्पादकीय 5. विषयानुक्रम 6. समीक्षात्मक अध्ययन परिशिष्ट 1. चूर्णि की परिभाषाएँ 2. प्रयुक्त ग्रन्थ-सूची Page #9 -------------------------------------------------------------------------- _ Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समर्पण विलोडियं आगम दुद्ध मेव, जिसने आगम-दोहन कर कर, लखं सुलद्धं गवणीय मच्छं। पाया प्रवर प्रचुर नवनीत / सज्झाय-सज्झाण-रयस्स निच्चं, . श्रुत-सदध्यान लीन चिर चिन्तन, जयस्स तस्स प्पणिहाण पुव्वं // जयाचार्य को विमल भाव से // विनयावनत आचार्य तुलसी Page #11 -------------------------------------------------------------------------- _ Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अन्तस्तोष अन्तस्तोष अनिर्वचनीय होता है, उस माली का जो अपने हाथों से उप्त और सिंचित द्रुम-निकुंज को पल्लवित, पुष्पित और फलित हुआ देखता है, उस कलाकार का जो अपनी तूलिका से निराकार को साकार हुआ देखता है और उस कल्पनाकार का जो अपनी कल्पना को अपने प्रयत्नों से प्राणवान् बना देखता है / चिरकाल से मेरा मन इस कल्पना से भरा था कि जैन-आगमों का शोध-पूर्ण सम्पादन हो और मेरे जीवन के बहुश्रमी क्षण उसमें लगें / संकल्प फळवान् बना और वैसा हो हुआ / मुझे केन्द्र मान मेरा धर्म-परिवार उस कार्य में संलग्न हो गया / अत: मेरे इस अन्तस्तोष में मैं उन सबको समभागी बनाना चाहता हूँ, जो इस प्रवृत्ति में संविभागी रहे हैं। विवेचक और सम्पादक मुनि नथमल सहयोगी : मुनि दुलहराज - संविभाग हमारा धर्म है / जिन-जिन-ने इस गुरुतर प्रवृत्ति में उन्मुक्त भाव से अपना संविभाग समर्पित किया है, उन सबको मैं आशीर्वाद देता हूँ और कामना करता हूँ कि उनका भविष्य इस महान कार्य का भविष्य बने। -आचार्य तुलसी Page #13 -------------------------------------------------------------------------- _ Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशकीय "दशवकालिक : एक समीक्षात्मक अध्ययन"-'पागम-अनुशीलन ग्रन्थ-माला' के प्रथम ग्रन्थ के रूप में पाठकों के हाथों में है। इस ग्रन्थ-माला में एक के बाद एक सभी आगमों के समीक्षात्मक अध्ययन प्रकाशित करने की योजना है / आगम एवं उनके व्याख्या ग्रन्थों के गम्भीर अध्ययन से भारतीय आध्यात्मिक-स्तर, संस्कृति, इतिहास, पुरातत्त्व आदि की जो बहुमूल्य सामग्री उपलब्ध होती है, उसका यह नन्थ एक नमूना है। मागम-साहित्य प्रकाशन की विस्तृत योजना में ऐसे संस्करणों का अपना एक अतुपम स्थान है, इसे कोई अस्वीकार नहीं कर सकता। विद्वज्जन एवं साधारण जनता को लक्ष्य में रखते हुए आगम-साहित्य संशोधन कार्य को छः ग्रन्थ-माला के रूप में नथित करने का उपक्रम वाचना प्रमुख आचार्य श्री तुलसी ने अपने बलिष्ठ हाथों में लिया है। नन्य-मालाओं की परिकल्पना निम्न प्रकार है : १-आगम-सुत्त ग्रन्थ-माला-इस ग्रन्थ-माला में आगमों के मूलपाठ, पाठान्तर, शब्दानुक्रम आदि होंगे। २-आगम-ग्रन्थ-माला- इस ग्रन्थ-माला में प्रागमों के मूलपाठ, पाठान्तर, संस्कृत-छाया, हिन्दी अनुवाद, पद्यानुक्रम या सूत्रानुक्रम आदि होंगे। ३-आगम-अनुसन्धान ग्रन्थ-माला-इस ग्रन्थ-माला में आगमों के टिप्पण होंगे। ४-आगम-अनुशीलन ग्रन्थ-माला--इस ग्रन्थ-माला में आगमों के समीक्षात्मक अध्ययन होंगे। ५-आगम-कथा प्रन्थ-माला-इस ग्रन्थ-माला में आगमों से सम्बन्धित कथाओं का संकलन होगा। ६-वर्गीकृत-आगम ग्रन्थ-माला-इस ग्रन्थ-माला में आगमों के वर्गीकृत और * संक्षिप्त संस्करण होंगे। परम श्रद्धेय आचार्य श्री तुलसी और उनके विद्वान साधु-साध्वी गण अजस्र अथक परिश्रमशीलता और संशोधक वृत्ति से योजना की परिपूर्ति में जुटे हुए हैं। ___ इस योजना की परिसीमा में दशवकालिक ( भाग-२ ) संशोधित मूलपाठ, संस्कृतछाया, हिन्दी अनुवाद और विस्तृत टिप्पणियों सहित डबल डिमाई , साइज के 800 पृष्ठों के बृहदाकार में प्रकाशित किया जा चुका है। आज तक प्रकाशित दशवकालिक के संस्करणों में जैन-अजैन विद्वानों ने उसे मुक्त रूप से सर्वोच्च कोटि का स्वीकार किया है। वाचना प्रमुख आचार्य श्री की देख-रेख में होने वाले कार्य की महत्ता इसी से ऑकी जा सकती है। Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खे . दशवकालिक : एक समीक्षात्मक अध्ययन अन्य ग्रन्थ, जो इसके साथ ही प्रकाशित हो रहे हैं, निम्न प्रकार हैं: १-दशवेआलियं तह उतरज्झयणाणि (पागम-सुत्त ग्रन्थ-माला का प्रथम ग्रन्थ ) २-धर्म-प्रज्ञप्ति, खण्ड-१ : दशवकालिक वर्गीकृत ( वर्गीकृत-आगम ग्रन्थ-माला का प्रथम ग्रन्थ ) निम्नलिखित ग्रन्थ मुद्रण में हैं :१-उत्तरज्झयण : मूल, संस्कृत-छाया, हिन्दी अनुवाद आदि युक्त संस्करण / (पागम-ग्रन्थ-माला का प्रथम ग्रन्थ ) २-आयारो : ( आगम-सुत्त ग्रन्थ-माला का द्वितीय ग्रन्थ.) . पाण्डुलिपि प्रणयन : प्रस्तुत ग्रन्थ की पाण्डुलिपि का प्रणयन आदर्श साहित्य संघ द्वारा हुआ है / पाण्डु प्रति महासभा को प्रकाशनार्थ प्रदान कर संघ ने जिस उदारता का परिचय दिया है, उसके लिए आगम-साहित्य प्रकाशन समिति अपनी हार्दिक कृतज्ञता ज्ञापित करती है। आर्थिक योग-दान : इस ग्रन्थ के मुद्रण-खर्च का भार श्री रामकुमारजी सरावगी की प्रेरणा से श्री सरावगी चेरिटेबल फण्ड, कलकत्ता, जिसके श्री प्यारेलालजी सरावगी, गोविन्दलालजी सरावगी, सज्जनकुमारजी सरावगी एवं कमलनयनजी सरावगी ट्रष्टी हैं, ने वहन किया है। श्री सरावगी चेरिटेबल फण्ड का यह आर्थिक अनुदान स्वर्गीय स्वनामधन्य श्रावक महादेवलालजी सरावगी एवं उनके सुयोग्य दिवंगत पुत्र पन्नालालजी सरावगी ( सदस्य भारतीय लोक सभा) की स्मृति में प्राप्त हुआ है। स्व० महादेवलालजी सरावगी तेरापंथ-सम्प्रदाय के एक अग्नगण्य श्रावक थे और कलकत्ता के प्रसिद्ध अधिष्ठान महादेव रामकुमार से सम्बन्धित थे। स्व० पन्नालालजी सरावगी महासभा एवं साहित्य प्रकाशन समिति के बड़े उत्साही एवं प्राणवान् सदस्य रहे / आगम-प्रकाशन योजना में उनकी आरम्भ से ही अभिरुचि रही। __ उक्त योगदान के प्रति हम उक्त फण्ड के ट्रस्टीगण के प्रति हार्दिक कृतज्ञता प्रगट करते हैं। प्रागम-साहित्य प्रकाशन की व्यवस्था के लिए महासभा द्वारा सन् 1965 में सर्वश्री मदनचन्दजी गोठी, मोहनलालजो बाँठिया 'चंवल', गोविन्दरामजी सरावगी, खेमचन्दजी सेठिया एवं श्रीचन्द रामपुरिया की आगम-पाहित्य प्रकाश समिति गठित की गई थी, जिसकी अवधि पाँच वर्ष की रखी गई। हमें लिखते हुए परम खेद हो रहा है कि हमारे अन्य साथी एवं परामर्शक श्री मदनचरजो गोठी हमारे बीच नहीं Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशकीय रहे। इस अवसर पर हम उनकी अपूर्व सेवाओं को याद किये बिना नहीं रह सकते। उनकी स्मृति से आज भी हृदय में बल का संचार होता है। ___इस ग्रन्थ के सम्पादन में जिन-जिन विद्वानों अथवा प्रकाशन-संस्थाओं के ग्रन्थ तथा प्रकाशनों का उपयोग हुआ है, उन सबके प्रति हम हार्दिक कृतज्ञता प्रगट करते हैं। 15, नूरमल लोहिया लेन, कलकत्ता-७ 8-2,67 श्रीचन्द रामपुरिया संयोजक आगम-साहित्य प्रकाशन समिति Page #17 -------------------------------------------------------------------------- _ Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्पादकीय सम्पादन का कार्य सरल नहीं है-यह उन्हें सुविदित है, जिन्होंने इस दिशा में कोई प्रयत्न किया है। दो-ढाई हजार वर्ष पुराने ग्रन्थों के सम्पादन का कार्य और भी जटिल है, जिनकी भाषा और भाव-धारा आज की भाषा और भाव-धारा से बहुत व्यवधान पा चुकी है / इतिहास की यह अपवाद-शून्य गति है कि जो विचार या आचार जिस आकार में आरब्ध होता है, वह उसी आकार में स्थिर नहीं रहता। या तो वह बड़ा हो जाता है या छोटा। यह ह्रास और विकास की कहानी ही परिवर्तन की कहानी है। और कोई भी आकार ऐसा नहीं है, जो कृत है और परिवर्तनशील नहीं है। परिवर्तनशील घटनाओं, तथ्यों, विचारों और प्राचारों के प्रति अपरिवर्तन-शीलता का अाग्रह मनुष्य को असत्य की ओर ले जाता है। सत्य का केन्द्र-बिन्दु यह है कि जो कृत है, वह सब परिवर्तनशील है। अकृत या शाश्वत भी ऐसा क्या है, जहाँ परिवर्तन का स्पर्श न हो। इस विश्व में जो है, वह वही है, जिसकी सत्ता शाश्वत और परिवर्तन की धारा से सर्वथा विभक्त नहीं है। . शब्द की परिधि में बंधने वाला कोई भी सत्य क्या ऐसा हो सकता है, जो तीनों कालों में समान रूप से प्रकाशित रह सके ? शब्द के अर्थ का उत्कर्ष या अपकर्ष होता है-भाषा शास्त्र के इस नियम को जानने वाला यह आग्नह नहीं रख सकता कि दो हजार वर्ष पुराने शब्द का आज वही अर्थ सही है, जो आज प्रचलित है / 'पाषण्ड' शब्द का जो अर्थ आगम-ग्रन्थों और अशोक के शिला-लेखों में है, वह आज के श्रमण-साहित्य में नहीं है। आज उसका अपकर्ष हो चुका है। आगम-साहित्य के सैकड़ों शब्दों की यही कहानी है कि वे आज अपने मौलिक अर्थ का प्रकाश नहीं दे रहे हैं। इस स्थिति में हर कोई चिन्तनशील व्यक्ति अनुभव कर सकता है कि प्राचीन साहित्य के सम्पादन का काम कितना दुरूह है। __ मनुष्य अपनी शक्ति में विश्वास करता है और अपने पौरुष से खेलता है, अतः वह किसी भी कार्य को इसलिए नहीं छोड़ देता कि वह दुरूह है। यदि यह पलायन की प्रवृत्ति होती तो प्राप्य की सम्भावना नष्ट ही नहीं हो जाती किन्तु आज जो प्राप्त है वह अतीत के किसी भी क्षण में विलुप्त हो जाता। आज से हजार वर्ष पहले नवांगी टोकाकार ( अभयदेव सूरि ) के सामने अनेक कठिनाइयाँ थीं। उन्होंने उनकी चर्चा करते हुए लिखा है : Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवकालिक : एक समीक्षात्मक अध्ययन सत्सम्प्रदायहीनत्वात्, सदूहस्य वियोगतः। सर्वस्वपरशास्त्राणामदृष्टेरस्मृतेश्च मे // 1 // वाचनानामनेकत्वात्, पुस्तकानामशुद्धितः / सूत्राणामतिगाम्भीर्यान्मतभेदाच्च कुत्रचित् // 2 // (स्थानाङ्ग वृत्ति, प्रशस्ति) 1. सत् सम्प्रदाय (अर्थ-बोध की सम्यक गुरु-परम्परा) प्राप्त नहीं है। 2. सत् ऊह ( अर्थ की आलोचनात्मक कृति या स्थिति ) प्राप्त नहीं है। 3. स्वकीय और परकीय सर्व शास्त्रों को मैंने न देखा है और जिन्हें देखा है उनकी __भी अविकल स्मृति नहीं है। 4. अनेक वाचनाएँ ( आगमिक अध्यापन की पद्धतियाँ ) हैं। 5. पुस्तके अशुद्ध हैं। 6. कृतियाँ सूत्रात्मक होने के कारण बहुत गम्भीर हैं। 7. अर्थ-विषयक मतभेद भी हैं। इन सारी कठिनाइयों के उारान्त भी उन्होंने अपना प्रयत्न नहीं छोड़ा और वे कुछ कर गए। कठिनाइयाँ आज भी कम नहीं हैं। किन्तु उनके होते हुए भी आचार्य श्री तुलसी ने आगम-सम्पादन के कार्य को अपने हाथों में ले लिया। उनके शक्ति-शाली हाथों का स्पर्श पाकर निष्प्राण भी प्राणवान् बन जाता है तो भला आगम-साहित्य जो स्वयं प्राणवान् है, उसमें प्राण-संचार करना क्या बड़ी बात है ? बड़ी बात यह है कि आचार्य श्री ने उसमें प्राण-संचार मेरी और मेरे सहयोगी साधु-साध्वियों की असमर्थ अंगुलियों द्वारा कराने का प्रयत्न किया है / सम्पादन कार्य में हमें आचार्य श्री का आशीर्वाद ही प्राप्त नहीं है किन्तु मार्ग-दर्शन और सक्रिय योग भी प्राप्त है। आचार्यवर ने इस कार्य को प्राथमिकता दी है और इसकी परिपूर्णता के लिए पर्याप्त समय दिया है। उनके मार्ग-दर्शन, चिन्तन और प्रोत्साहन का सम्बल पा हम अनेक दुस्तर धारामों का पार पाने में समर्थ हुए हैं। आगम-सम्पादन की रूप-रेखा आगम-साहित्य के अध्येता दोनों प्रकार के लोग हैं-विद्वद्-वर्ग और जनसाधारण। दोनों को दृष्टि में रख कर हमने इस कार्य को छः ग्रन्थ-मालाओं में प्रथित किया है। उसका आकार यह है : १-आगम-सुत्त-ग्रन्थ-माला-इस ग्रन्थ-माला में प्रागमों के मूलपाठ, पाठान्तर, शब्दानुक्रम आदि होंगे। २-आगम ग्रन्थ-माला-इस ग्रन्थ-माला में आगमों के मूलयाठ, पाठान्तर, संस्कृत-छाया, अनुवाद, पद्यानुक्रम या सूत्रानुक्रम आदि होंगे। Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्पादकीय तीन ४-आगम-अनुसन्धान ग्रन्थ-माला-इस ग्रन्थ-माला में आगमों के टिप्पण होंगे। ५-आगम-अनुशीलन ग्रन्थ-माला-इस ग्रन्थ-माला में आगमों के समीक्षात्मक अध्ययन होंगे। ६-आगम-कथा ग्रन्थ-माला-इस ग्रन्थमाला में सभी आगमों से सम्बन्धित कथाओं का संकलन होगा। ७-वर्गीकृत-आगम ग्रन्थ-माला...- इस ग्रन्थ-माला में आगमों के वर्गीकृत और संक्षिप्त संस्करण होंगे। प्रस्तुत पुस्तक आगम-अनुशीलन ग्रन्थ-माला का प्रथम नन्थ है। इसमें दशवकालिक का समीक्षात्मक अध्ययन प्रस्तुत किया गया है। समीक्षा का पहला सूत्र है तटस्थता / आचार्य श्री के सत्य-स्पर्शी अन्त:करण ने हमें तटस्थता के प्रति दृष्टि दी है। हमने उसी से समन-कृति को देखा है। छद्मस्थ-मनुष्य अपने अपूर्ण-दर्शन का भागी है इसलिए वह यह गर्व नहीं कर सकता कि उसने हर तथ्य को परिपूर्ण दृष्टि से देखा है। हमे भी छद्मस्थ हैं, इसलिए हम परिपूर्ण दर्शन की दुहाई नहीं दे सकते / पर हमने हर शब्द और उसके अर्थ को तटस्थता की दृष्टि से देखने का विनम्र प्रयत्न किया है, यह कहना सत्य को अनावृत करना है। शोधपूर्ण सम्पादन में जहाँ लाभ है, वहाँ कठिनाइयाँ भी कम नहीं है। मेरे मतानुसार शोध के चार मान-दण्ड हो सकते हैं : : १-सर्वागत: नई स्थापना / २--एकांगतः नई स्थापना / ३-पूर्व स्थापना में संशोधन / ४-पूर्व स्थापना में विकास / आगम-साहित्य के सम्पादन में हमें नई स्थापना या पूर्व स्थापना में संशोधन या विकास नहीं करना है / वह हमारी स्वतंत्र मेधा का परिणाम है। इस समय तो हमें अतीत का अनुसन्धान करना है / हमारा कार्य शोधात्मक होने की अपेक्षा अनुसन्धानात्मक अधिक है। दो हजार वर्ष को अवधि में जो विस्मृत या अपरिचित हो गया, उसका पुनः सन्धान करने में हमें स्थान-स्थान पर शोधात्मक दृष्टि का भी सहारा लेना होता है। इसीलिए इस कार्य को हम शोध-पूर्ण सम्पादन की भी संज्ञा दे देते हैं / कृतज्ञता मैं आचार्य श्री के प्रति कृतज्ञ हूँ, इन शब्दों में जितना व्यवहार है, उतनी सचाई नहीं है। सचाई यह है कि मेरी हर कृति उनकी प्रेरणा-रेखाओं का संकलन है। कृतज्ञ शब्द में इतनी सामर्थ्य नहीं कि मैं इसके द्वारा मन की सारी सचाई को प्रकट कर दूं। Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चार . दशवकालिक : एक समीक्षात्मक अध्ययन प्रस्तुत पुस्तक के सम्पादन में मुझे अपने अभिन्न सहयोगी मुनि दुलहराजजी का पूर्ण सहयोग रहा है पर वे नहीं चाहते कि मैं उनके प्रति अपनी कृतज्ञता ज्ञापित करूं। मुनि ताराचन्दजी तथा साध्वी मंजुलाजी ने भी यत्र-तत्र मेरा हाथ बँटाया है। . नियुक्ति काल से लेकर अब तक को उपलब्ध-साधन-सामग्रो से हमें दृष्टियाँ प्राप्त हुई हैं, हमारा कार्य-पथ सरल हुआ है, इसलिए मैं उसके प्रणेता आचार्यों व मनीषियों के प्रति हार्दिक कृतज्ञता ज्ञापित करता हूँ। सं० 2023, भाद्रवी पूर्णिमा -मुनि नथमल बीदासर। Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयानुक्रम पृ०३ प्रथम अध्याय दशवैकालिक का बहिरंग परिचय १-जैन आगम और दशवकालिक आगम की परिभाषा आगम के वर्गीकरण में दशवकालिक का स्थान नामकरण उपयोगिता और स्थापना २–दशवकालिक के कर्ता और रचनाकाल रचनाकार का जीवन-परिचय निर्वृहण या लघुकरण रचना का उद्देश्य . .रचनाकाल ३-रचना-शैली ४-व्याकरण-विमर्श संधि कारक वचन समास प्रत्यय लिङ्ग क्रिया और अर्द्धक्रिया क्रिया-विशेषण आर्ष-प्रयोग विशेष-विमर्श क्रम-भेद ५-भाषा की दृष्टि से . ६-शरीर-परामर्श . ७-छन्द-विमर्श Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८-उपमा और दृष्टान्त ६-परिभाषाएँ १०-चूलिका ११-दशवकालिक और प्राचारांग-चूलिका (दशवैकालिक और आचारांग चूलिका के तुलना-स्थल) १२-दशवकालिक का उत्तरवर्ती साहित्य पर प्रभाव १३–तुलना ( जैन, बौद्ध और वैदिक ) द्वितीय अध्याय दशवकालिक का अन्तरंग परिचय १-साधना समनदर्शन साधना के उत्कर्ष का दृष्टिकोण २-साधना के अंग अहिंसा का दृष्टिकोण संयमी जीवन की सुरक्षा का दृष्टिकोण प्रवचन गौरव का दृष्टिकोण परीषह-सहन का दृष्टिकोण निषेध-हेतुओं का स्थूल विभाग विनय का दृष्टिकोण 114 तृतीय अध्याय महाव्रत १-जोवों का वर्गीकरण २-संक्षिप्त व्याख्या अहिंसा और समता पृथ्वी जगत् और अहिंसक निर्देश अपकाय-बल अपजगत् और अहिंसक निर्देश तेजस जगत् और अहिंसक निर्देश वायु जगत् और अहिंसक निर्देश वनस्पति Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २–संक्षिप्त व्याख्या वनस्पति जगत् और अहिंसक निर्देश त्रस जगत् और अहिंसक निर्देश सत्य अचौर्य ब्रह्मचर्य 125 128 126 132 अपरिग्रह चतुर्थ अध्याय - चर्या-पथ १-चर्या और विहार २-वेग-निरोध ३-इर्यापथ कैसे चले ? . कैसे बैठे ? कैसे खड़ा रहे ? ४-वाक-शुद्धि कैसे बोले ? ५-एषणा भिक्षा की एषणा क्यों और कैसे ? भिक्षा कैसे ले ? कैसे खाये? * ६-इन्द्रिय प्रौर मनोनिग्रह ७-स्थिरीकरण ८-किस लिए ? 8-विनय १०-पूज्य कौन ? ११-भिक्षु कौन ? १२--मुनि के विशेषण १३-मोक्ष का क्रम 136 142 143 144 146 147 148 146 150 Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ مه पंचम अध्याय व्याख्या-ग्रन्थों के सन्दर्भ में १-परिचय और परम्परा २-व्याख्यागत प्राचीन परम्पराएँ 3- आहार-चर्या 4- मुनि कैसा हो ? ५-निक्षेप पद्धति 155 158 س س 161 عمر 174 धर्म अर्थ अपाय उपाय आचार पद काय 162 ६-निरुक्त . ७-एकार्थक ८-सभ्यता और संस्कृति 198 203 उपकरण भोजन फल शाक खाद्य चूर्ण और मंथु पुष्प आभूषण प्रसाधन आमोद-प्रमोद तथा मनोरंजन विश्वास रोग और चिकित्सा उपासना Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 3 ) ८-सभ्यता और संस्कृति यज्ञ दण्ड-विधि शिक्षा सम्बोधन . राज्य व्यवस्था जनपद शस्त्र याचना और दान भोज मनुष्य का स्थान कर्तव्य और परम्परा व्यापार यात्रा पुस्तक धातु श्रमण व्यक्ति सिक्का Page #27 -------------------------------------------------------------------------- _ Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवकालिक : एक समीक्षात्मक अध्ययन Page #29 -------------------------------------------------------------------------- _ Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवकालिक : एक समीक्षात्मक अध्ययन अन्याय 1 बहिरंग परिचय Page #31 -------------------------------------------------------------------------- _ Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १-जैन आगम और दशवैकालिक आगम की परिभाषा : ज्ञान के अनेक वर्गीकरण मिलते हैं। वे समय-समय पर हुए हैं। उनमें से तीन प्रमुख इस प्रकार हैं 1. प्रथम वर्गीकरण के अनुसार ज्ञान के पाँच प्रकार हैं-(१) मति, (2) श्रुत, (3) अवधि, (4) मनःपर्याय और (5) केवल / ' यह प्राचीनतम ( ई० पू० 5-6 शताब्दी ) प्रतीत होता है। . 2. प्रमाण की मीमांसा प्रारम्भ हुई तब ( ई० 5 शताब्दी ) ज्ञान का दूसरा वर्गीकरण हुआ। उसके अनुसार ज्ञान के दो प्रकार हैं-(१) प्रत्यक्ष और (2) परोक्ष / 3. न्यायशास्त्र के विकास काल ( ई० 7-8 शताब्दी ) में ज्ञान का तीसरा वर्गीकरण हुआ। उसके अनुसार प्रमाण के दो प्रकार हैं-(१) प्रत्यक्ष और (2) परोक्ष / प्रत्यक्ष के दो प्रकार हैं-(१) सांव्यवहारिक और (2) पारमार्थिक / 4 परोक्ष के पाँच प्रकार हैं-(१) स्मृति, (2) प्रत्यभिज्ञा, (3) तर्क, (4) अनुमान और (5) आगम।" १-उत्तराध्ययन 28 / 4 : तत्य पंचविहं नाणं सुयं आभिनिबोहियं / . . ओहिनाणं तु तइयं मणनाणं च केवलं // २-नंदी, सूत्र 2 : - तं समासओ दुविहं पण्णत्तं, तंजहा–पञ्चक्खं च परोक्खं च / ३-प्रमाणनयतत्त्वालोक 231 : तद् द्विभेदं प्रत्यक्षं च परोक्षं च / ४-वही, 204: तद् द्विप्रकारम् सांव्यवहारिकं पारमार्थिकं च / ....५-वही, 32: स्मरणप्रत्यभिज्ञातर्वानुमानागमभेदतस्तत्पञ्चप्रकारम् / Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ok दशवकालिक : एक समीक्षात्मक अध्ययन प्रथम और द्वितीय वर्गीकरण में आगम का उल्लेख नहीं है। तृतीय वर्गीकरण में उसका परोक्ष के एक प्रकार के रूप में उल्लेख हुआ है। द्वितीय वर्गीकरण की व्यवस्था हुई तब पाँच ज्ञानों को दो भागों में विभक्त किया गया—मति और श्रुत—परोक्ष' तथा अवधि, मनःपर्याय और केवल प्रत्यक्ष / 2 तृतीय वर्गीकरण पूर्णतः न्यायशास्त्रीय था, इसलिए उसमें ज्ञान का विभाजन विशुद्ध प्रमाण-मीमांसा की दृष्टि से किया गया। किन्तु उसका आधार वही प्राचीन वर्गीकरण था। तृतीय वर्गीकरण के परोक्ष का प्रथम वर्गीकरण में समवतार किया जाय तो स्मृति, प्रत्यभिज्ञा, तर्क और अनुमान-मतिज्ञान में तथा आगम-श्रुत-ज्ञान में समवतरित होता है। इस प्रकार तीनों वर्गीकरणों में प्रकारभेद होने पर भी तात्पर्य-भेद नहीं है / प्रथम दो वर्गीकरणों और तृतीय वर्गीकरण से भी यह स्पष्ट फलित होता है कि आगम श्रुत काही विशिष्ट या उत्तरकालीन रूप है। श्रुत का अर्थ है-शब्द से होने वाला ज्ञान। आगम का अर्थ भी यही है। इस समानता के आधार पर ही श्रुत और आगम को एकार्थवाची कहा गया।४ किन्तु श्रुत और आगम सर्वथा एकार्थवाची नहीं हैं। श्रुत एक सामान्य और व्यापक शब्द है। आगम का अपना विशिष्ट अर्थ है / भगवती, स्थानांग और व्यवहार सूत्र में पाँच प्रकार के व्यवहार बतलाए गए हैं५-. (1) आगम, (2) श्रुत, (3) आज्ञा, (4) धारणा और (5) जीत। इनमें पहला आगम और दूसरा श्रुत है। केवलज्ञानी, मनःपर्यायज्ञानी, अवधिज्ञानी, चतुर्दशपूर्वी और दशपूर्वी को आगम कहा गया है। इनमें प्रथम तीन प्रत्यक्षज्ञानी और अंतिम दो १-नंदी, सूत्र 24 : परोक्खनाणं दुविहं पन्नत्तं, तंजहा—आभिणिबोहियनाण-परोक्खं च, सुयनाण परोक्खं च। २-वही, सूत्र 5: नोइं दिय-पञ्चक्खं तिविहं पण्णत्तं, तंजहा—ओहिनाण-पच्चक्खं, मणपज्जवनाण पञ्चक्खं, केवलनाण-पच्चक्खं / ३-तत्त्वार्थ सूत्र, 1113 : मतिः स्मृतिः संज्ञा चिन्ताऽभिनिबोध इत्यनर्थान्तरम् / ४-अनुयोगद्वार, सूत्र 51 / ५-(क) भगवती 88 / 339 : पंचविहे ववहारे पन्नत्ते, तंजहा—आगमे, सुए, आणा, धारणा, जीए / (ख) स्थानांग, 5 / 2 / 421 / (ग) व्यवहार 10 / 3 / Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .1. बहिरङ्ग परिचय : जैन आगम और दशवकालिक 5 परोक्षज्ञानी अर्थात् श्रुतज्ञानी हैं। इसके आधार पर आगम की परिभाषा यह बनती हैप्रत्यक्ष या प्रत्यक्ष जैसा अविसंवादी ज्ञान आगम है। श्रुत विसंवादी भी हो सकता है पर आगम विसंवादी नहीं होता। आगम और श्रुत को भिन्न मानने का यह पुष्ट आधार है। ___ कई आचार्यों ने नवपूर्वी को भी आगम माना है / 1 किन्तु उन्हीं के अनुसार चतुर्दशपूर्वी और सम्पूर्ण दशपूर्वी का श्रुत सम्यक् ही होता है और नवपूर्वी का श्रुत मिथ्या भी हो सकता है / आचार्य मलयगिरि ने इसे स्पष्ट करते हुए लिखा है "दशपूर्वी नियमतः सम्यकदृष्टि होते हैं। नवपूर्वी सम्यकदृष्टि और मिथ्यादृष्ठि दोनों हो सकते हैं। इसलिए दशपूर्वी का श्रुत सम्यक् ही होता है और नवपूर्वी का श्रुत मिथ्या भी हो जाता है। जयाचार्य ने सम्पूर्ण दशपूर्वी द्वारा रचित शास्त्र का ही प्रामाण्य स्वीकार किया है।४ . नवपूर्वी की प्रामाणिकता असंदिग्ध नहीं हो सकती, इसलिए आगम-पुरुष पाँच–केवली, अवधिज्ञानी, मनःपर्यायज्ञानी, चतुर्दशपूर्वी और दशपूर्वी ही होने चाहिए। उनका ज्ञान नियमतः अविसंवादी होता है, इसलिए वे अनुपचरित दृष्टि से आगम हैं। १-(क) व्यवहारभाष्य, 135 : आगमसुयववहारी आगमतो छव्विहो उ ववहारो। केवलि मणोहि चोद्दस-दस-नव-पुव्वी उ नायव्वो॥ (ख) भगवती 8 / 8 / 339, वृत्ति : तत्र आगम्यन्ते परिच्छिद्यन्ते अर्था अनेनेत्यागमः केवलमनःपर्यायावधिपूव चतुर्दशकदशकनवकरूपः। २-नंदी, सूत्र 42 : इच्चेइयं दुवालसंगं गणिपिडगं चौद्दसपुव्विस्स सम्मसुयं, अभिण्णदसपुव्विस्स सम्मसुयं तेण परं भिण्णेसु भयणा / ३-नंदी, सूत्र 42, वृत्ति : सम्पूर्णदशपूर्वधरत्वादिकं हि नियमतः सम्यग्दृष्टेरेव न मिथ्यादृष्टेः..... ततः सम्पूर्णदशपूर्वधरत्वात्पश्चानुपूर्व्याः परं भिन्नेषु दशसु पूर्वेषु भजना-विकल्पना कदाचित्सम्यक्श्रुतं कदाचिन् मिथ्याश्रुतमित्यर्थः / ४-प्रश्नोत्तर तत्त्वबोध, 18 // 12 : सम्पूर्ण दश पूर्वधर, चउदश पूरवधार / तास रचित आगम हुवे, वारुं न्याय विचार // Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिक : एक समीक्षात्मक अध्ययन आगम मुमुक्षु की प्रवृत्ति और निवृत्ति के निर्देशक होते हैं। उनके अभाव में मुमुक्षु को व्यवहार का निर्देश श्रुत से मिलता है / आगम की विद्यमानता में श्रुत का स्थान गौण होता है। किन्तु उनकी अनुपस्थिति में व्यवहार का मुख्य प्रवर्तक श्रुत बन जाता है।' दशवैकालिक श्रुत है, इसलिए जैन साहित्य में इसका महत्वपूर्ण स्थान है। इस समय आगम-पुरुष कोई नहीं है। जम्बू स्वामी ( वीर निवाण की पहली शताब्दी ) अंतिम केवली थे। अंतिम मनःपर्यायज्ञानी और अवधिज्ञानी कौन हुए, इसका उल्लेख नहीं मिलता। स्थूलभद्र ( वीर निर्वाण की 2-3 शताब्दी ) अंतिम चतुर्दशपूर्वधर थे। वज्र स्वामी ( वीर निर्वाण की छठी शताब्दी ) दश-पूर्वधरों में अंतिम थे। दिगम्बर-परम्परा के अनुसार अंतिम दश-पूर्वधर धर्मसेन (वीर-निर्वाण की चौथी शताब्दी) थे।२ आगम-पुरुष की अनपस्थिति में इनका स्थान श्रत को मिला। आगम-पुरुषों की अनुपस्थिति में उनकी रचनाओं ( सम्यक्-श्रुत ) को भी आगम कहा जाने लगा। अनुयोगद्वार में द्वादशांगी के लिए आगम शब्द का प्रयोग हुआ है। नंदी में द्वादशांगी के लिए सम्यक्-श्रुत का प्रयोग मिलता है। इस प्रकार उत्तरकाल में सम्यक्-श्रुत और आगम पर्यायवाची बन गए। दशवैकालिक सम्यक्-श्रुत है और साथसाथ आगम-पुरुष की कृति होने के कारण आगम भी है। .. - न्यायशास्त्रों में श्रुत या शब्द-ज्ञान के स्थान में आगम का प्रयोग मुख्य हो गया / न्याय -शास्त्रीय परिभाषा के अनुसार आप्त-वचन से होने वाला अर्थ-संवेदन आगम है।५ उपचार-दृष्टि से आप्त-वचन को भी आगम कहा जाता है / 6 इस न्याय-शास्त्रीय आगम का वही अर्थ है, जो प्राचीन परम्परा में सम्यक्-श्रुत का है। १-भगवती 88 / 339 / २-जयधवला, प्रस्तावना, पृष्ठ 49 / ३-(क) अनुयोगद्वार, सूत्र 702 : से किं तं आगमे ? आगमे दुविहे पण्णत्ते, तंजहा लोइए य लोउत्तरिए य / (ख) वही, सूत्र 704: से किं तं लोउत्तरिए ? लोउत्तरिए जण्णं इमं अरिहंतेहिं भगवंतेहिं उप्पण्णणाणदंसणधरेहिं तीयपच्चुप्पण्णमणागयजाणएहिं तिल्लुक्कवहिअ महिअपूइएहिं सव्वण्णू हिं सव्वदरसीहिं पणीअं दुवालसंगं गणिपिडगं / ४-नंदी, सूत्र 42 : से किं तं सम्मसुयं ? सम्मसुयं .... 'दुवालसंगं गणिपिडगं / ५-प्रमाणनयतत्त्वालोक, 4.1 : आप्त-वचनादाविर्भूतमर्थ-संवेदनमागमः / ६-वही, 412 : उपचारादाप्तवचनं च / Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1. बहिरङ्ग परिचय : जैन आगम और दशवकालिक 7 शब्द-ज्ञान की प्रामाणिकता और अप्रामाणिकता वक्ता पर निर्भर है। आप्त का वचन विसंवादी नहीं होता, इसलिए उसका प्रामाण्य होता है। वेदान्त के आचार्यों ने इसे इस रूप में प्रतिपादित किया है कि जिस वाक्य का तात्पर्यार्थ प्रमाणान्तर से बाधित नहीं होता, वह वाक्य प्रमाण होता है / 1 प्रमाणान्तर से वही वाक्य बाधित नहीं होता, जो आप्त-पुरुष ( या आगम-पुरुष ) द्वारा प्रतिपादित होता है। इस प्रकार आगम और आप्त-पुरुष सम-रेखा में स्थित हो जाते हैं। आगम और श्रुत के अर्थ में 'सूत्र' शब्द का प्रयोग भी हुआ है / 2 श्रुत, सूत्र, ग्रन्थ, सिद्धान्त, शासन, आज्ञा, वचन, उपदेश, प्रज्ञापना और आगम इन्हें एकार्थवाची कहा गया है। सूत्र का प्रयोग आगम के विशेषण के रूप में भी होता है। इसका सम्बन्ध प्रधानतया संकलना से है। भगवान् महावीर ने जो उपदेश दिया ( अथवा जो विस्तार है ) वह अर्थागम और गणधरों ने उसे गम्फित किया ( अथवा जो संक्षेप है ) वह 'सूत्रागम' और इन दोनों का समन्वित रूप 'तदुभयागम कहलाता है। दोनों आगमों में प्राप्त अन्तर का अध्ययन करने के बाद भी आचारांग की प्रथम चूला की पिण्डैषणा और भाष्यगत के निर्माण में दशवकालिक का योग है—इस अभिमत को अस्वीकार नहीं किया जा सकता। दशवकालिक की रचना आचारांग चूला से पहले हो चुकी थी, इसका पुष्ट आधार प्राप्त होता है / प्राचीनकाल में आचारांग ( प्रथम श्रुतस्कंध ) पढ़ने के बाद उत्तराध्ययन पढ़ा जाता था, किन्तु दशवकालिक की रचना के पश्चात् वह दशवकालिक के बाद पढ़ा जाने लगा। १-वेदान्त परिभाषा, आगम परिच्छेद, पृष्ठ 108 : यस्य वाक्यस्य तात्पर्य विषयीभूतसंसर्गो मानान्तरेण न बाध्यते तद् वाक्यं प्रमाणम् / २-दशवकालिक चूलिका, 2011 : सुत्तस्स मग्गेण चरेज्ज भिक्खू / ३-(क) अनुयोगद्वार, सूत्र 51 : सुयसुत्तगंथसिद्धंत सासणे आण वयण उवएसे / पन्नवण आगमेवि य एगट्ठा पज्जवा सुत्ते॥ (ख) विशेषावश्यक भाष्य, गाथा 897 / ४-अनुयोगद्वार, सूत्र 704 : अहवा आगमे तिविहे पण्णत्ते, तंजहा—सुत्तागमे अत्थागमे तदुभयागमे / Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिक : एक समीक्षात्मक अध्ययन प्राचीन काल में 'आमगंध' (आचारांग 1 / 2 / 5) का अध्ययन कर मुनि पिण्डकल्पी ( भिक्षाग्नही ) होते थे। फिर वे दशवकालिक की 'पिण्डषणा' के अध्ययन के पश्चात् पिण्डकल्पी होने लगे। यदि आचारांग चूला की रचना पहले हो गई होती तो दशवकालिक को यह स्थान प्राप्त नहीं होता। इससे भी यह प्रमाणित होता है कि आचारांग चूला की रचना दशवकालिक के बाद हुई है। आगम के वर्गीकरण में दशवैकालिक का स्थान : आगमों के मुख्य वर्ग दो हैं—अंग प्रविष्ट और अंग-बाह्य / ' बारह आगम अंगप्रविष्ट कहलाते हैं—आचार, सूत्रकृत, स्थान, समवाय, विवाह-प्रज्ञप्ति, ज्ञाताधर्मकथा, उपासक-दशा, अन्तकृत्-दशा, अनुत्तरोपपातिक-दशा, प्रश्नव्याकरण, विपाकश्रुत और दृष्टिवाद / 2 अंग-बाह्य के दो प्रकार हैं—आवश्यक और आवश्यक-व्यतिरिक्त। आवश्यकव्यतिरिक्त के दो प्रकार हैं--कालिक और उत्कालिक / 4 उत्कालिक के अन्तर्गत अनेक आगम हैं। उनमें पहला नाम दशवकालिक का है।५ दशवकालिक आगम-पुरुष की रचना है, इसलिए यह आगम है। गणधर-रचित आगम ही अंग-प्रविष्ट होते हैं और यह स्थविर-रचित है इसलिए अंग-बाह्य है। कालिक-आगम दिन और रात के प्रथम और १-नंदी, सूत्र 67 : अहवा तं समासओ दुविहं पन्नत्तं, तंजहा—अंगपविटुं अंगबाहिरं च / २-वही, सूत्र 74 : से किं तं अंगपविटुं ? अंगपविटुं दुवालसविहं पष्णतं, तंजहा–आयारो 1, सूयगडो 2, ठाणं 3, समवाओ 4, विवाहपन्नत्ती 5, नायाधम्मकहाओ 6, उवासगदसाओ 7, अंतगडदसाओ 8, अगुत्तरोववाइयवसाओ 9, पण्हावागर णाई 10, विवागसुयं 11, दिट्ठिवाओ 12 / ३-वही, सूत्र 68: से किं तं अंगबाहिरं ? अंगबाहिरं दुविहं पण्णत्तं, तंजहा—आवस्सयं च, आवस्सयवइरित्तं च / ४-वही, सूत्र 70 : से किं तं आवस्सयवइरित्तं ? आवस्सयवइरित्तं दुविहं पण्णतं, तंजहा–कालियं उक्कालियं च / ५-वही, सूत्र 71: से किं तं उक्कालियं ? उक्का लियं अरोगविहं पण्णत्तं, तंजहा–दसवेयालियं...। Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .1. बहिरङ्ग परिचय : जैन आगम और दशवकालिक परम प्रहर में ही पढ़े जा सकते हैं। किन्तु दशवकालिक उत्कालिक आगम है इसलिए यह थस्वाध्यायी के अतिरिक्त सभी प्रहरों में पढ़ा जा सकता है। व्याख्या की दृष्टि से आगम चार भागों में विभक्त किए गए हैं--- १-चरणकरणानुयोग ३-गणितानुयोग २-धर्मकथानुयोग ४-द्रव्यानुयोग भगवान् महावीर से लेकर आर्यरक्षित से पहले तक यह विभाग नहीं था। पहले एक साथ चारों अनुयोग किए जाते थे। आर्यरक्षित ने बुद्धि-कौशल की कमी देख अनुयोग के विभाग कर दिए। उसके बाद प्रत्येक अनुयोग को अलग-अलग निरूपण करने की परम्परा चली। इस परम्परा के अनुसार दशवकालिक का समावेश चरणकरणानुयोग में होता है। इसमें चरण ( मूलगण ) और करण ( उत्तरगण 3 ) इन दोनों का अनुयोग है। आगे चलकर आगमों का और वर्गीकरण हुआ। उसके अनुसार अंग-प्रविष्ट और अंग-बाह्य के अतिरिक्त मूल और छेद ----ये दो वर्ग और किए गए / दशवकालिक 'मूल' आगम सूत्र माना जाता है।४ . १-अगस्त्य चूर्णिः उद्दिट्ठ-समुद्दिटु-अगुण्णा तस्स अगुयोगो भवति तेण अहिगारो। सो चउब्विहो, तंजहा–चरणकरणाणुओगो सो य कालिय सुयादि 1, धम्मणुओगो इसिभासियादि 2, गणियाणुओगो सूरपण्णत्तियादि 3, दवियाणुओगो दिढवादो 4, स एव समासओ दुविहो पुहत्ताणुओगो अपुहत्ताणुओगो य। जं एकत्तपट्टवित्ते चत्तारि वि भासिज्जंति एतं अमहत्तं, तं पुण भट्टारगाओ जाव अज्जवइरा। ततो आरेण पृहत्तं जत्थ पत्तेयं पभासिज्जत्ति। भासणाविहिपहत्तकरणं अज्जर क्खिय पूस भित्ततिकविंझादिविसेसत्ता झण्णति / इह चरणकरणाणुओगेण अधिकारो। * '२-प्रवचनसारोद्धार, गाथा 552 : चरणं मूलगुणाः / वय समण-धम्म संयम, वेयावच्चं च बंभगुत्तीओ। णाणाइतियं तव, कोहनिग्गहाई चरणमेयं // ३-वही, गाथा 563 : करणं उत्तरगुणाः / पिंडविसोही समिई, भावण पडिमा इ इंदियनिरोहो। पडिलेहण गुत्तीओ, अभिग्गहा चेव करणं तु // ४-देखो-'दसवेआलिय तह उत्तरायणाणि' की भूमिका, पृ० 1-9 / Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवकालिक : एक समीक्षात्मक अध्ययन नामकरण : प्रस्तुत आगम के दो नाम उपलब्ध होते हैं—दसवेयालिय' ( दशवकालिक ) और दसकालिय२ ( दशकालिक ) / यह नाम 'दस' और 'वैकालिक' या 'कालिक' इन दो पदों से बनता है। दस (दश) शब्द इसके अध्ययनों की संख्या का सूचक है। इनकी पूर्ति विकाल-वेला में हुई इसलिए इसे वैकालिक कहा गया। सामान्य विधि के अनुसार आगम-रचना पूर्वाह्न में की जाती है किन्तु मनक को अल्पायु देख आचार्य शय्यम्भव ने तत्काल—अपराह्न में ही इसका उद्धरण शुरू किया और यह विकाल में पूरा हुआ। ___ स्वाध्याय का काल चार प्रहर—दिन और रात के प्रथम और अंतिम प्रहर—का है। यह स्वाध्याय-काल के बिना ( विकाल में ) भी पढ़ा जा सकता है, इसलिए इस आगम का नाम 'दशवैकालिक' रखा गया है। यह चतुर्दश-पूर्वी-काल से आया हुआ है अथवा काल को लक्ष्य कर किया हुआ हैं, इसलिए इसका नाम 'दशवैका लिक' रखा गया है। इसका दसवाँ अध्ययन वैतालिक नाम के वृत्त में रचा हुआ है, इसलिए इसका नाम 'दसवैतालिय' हो सकता है। ये अगस्त्य चूर्णि के अभिमत हैं / 3 . १-(क) नंदी, सूत्र 46 / (ख) दशवैकालिक नियुक्ति, गाथा 6 / २-दशवैका लिक नियुक्ति, गाथा 1,7,12,14,15 / ३-अगस्त्य चूर्णि : : उभयपद निप्फण्णं नामं दसकालियं / तत्थ कालादागयं विसेसिज्जति चोहसपुस्विकालाता भगवतो वा पंचमातो पुरिसजुगातो, 'तत आगतः' (पाणि 4 / 3 / 74 ) इति उप्रत्ययः, कालं व सव्वपज्जाहिं परिहीयमाणमभिक्खकयं एत्थ 'अधिकृत्य कृते ग्रन्थे' (पाणि 4 / 3 / 87 ) स एव उप्रत्ययः तस्य इय आदेशः, दशकं अज्झयणाणं कालियं निरुत्तेण विहिणा ककारलोपे कृते दसकालियं / अहया वेकालियं मंगलत्थं पुव्वण्हे सत्यारंभो भवति, भगवया पुण अज्जसेज्जभवेणं कहमवि अवरोहकाले उवयोगो कतो, कालातिवाय विग्घपरिहरणाय निज्जूटमेव अतो विगते काले विकाले दसकमज्झयणाणं कतमिति दसवेकालियं चउपोरिसितो सज्झायकालो तम्मि विगते वि पदिज्जतीति विगय कालियं दसवेकालियं / दसमं वा वेता लियोपजातिवृत्तेहिं णियमितमझयणमिति दसवेतालियं। Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .. 1. बहिरङ्ग परिचय : जन आगम और दशवकालिक 11 इनमें 'दसवेयालिय' और 'दसकालिय' प्रसिद्ध नाम हैं और जहाँ तक हम जानते हैं 'दसवेतालिय' का प्रयोग अगस्त्यसिंह मुनि के सिवाय अन्य किसी ने नहीं किया है / नियुक्तिकार ने स्थान-स्थान पर 'दसकालिय' शब्द का प्रयोग किया है। और कहीं-कहीं 'दसवेयालिय' का भी / 2 जिनदास महत्तर ने केवल 'दसवेयालिय' शब्द की व्याख्या की है। हरिभद्र सूरि ने 'दशकालिक' और 'दशवैकालिक' इन दोनों शब्दों का उल्लेख किया है। प्रश्न यह होता है कि आगमकार ने इसका नामकरण किया या नहीं ? यदि किया तो क्या ? मूल आगम में 'दशवकालिक' या 'दशकालिक' नाम का उल्लेख नहीं है। इसकी रचना तात्कालिक उद्देश्य की पूर्ति के लिए हुई थी। मनक के देहावसान के बाद शय्यम्भव इसे जहाँ से उद्धत किया, वहीं अन्तर्निविष्ट कर देना चाहते थे। इसलिए सम्भव है, रचना के लिए कोई नाम न रखा हो। जब इसे स्थिर रूप दिया गया, तब आगमकार के द्वारा ही इसका नामकरण किया जाना सम्भव है। उपयोगिता और स्थापना : मनक ने छह मास में दशवकालिक पढ़ा और वह समाधिपूर्वक इस संसार से चल बसा। वह श्रुत और चारित्र की सम्यक् आराधना कर सका, इसका आचार्य को हर्ष हुआ। आँखों में आनन्द के आँसू छलक पड़े। यशोभद्र ( जो उनके प्रधान शिष्य थे ) ने बड़े आश्चर्य के साथ आचार्य को देखा और विनयावनत हो इसका कारण पूछा / आचार्य ने कहा- "मनक मेरा संसारपक्षीय पुत्र था, इसलिए कुछ स्नेह-भाव उमड़ आया। वह आराधक हुआ, यह सोच मन आनन्द से भर गया। मनक की आराधना के लिए मैंने इस आगम ( दशवैकालिक ) का निर्वृहण किया। वह आराधक हो गया। अब इसका क्या किया जाय?' आचार्य के द्वारा प्रस्तुत प्रश्न पर संघ ने विचार किया और आखिर यही निर्णय हुआ कि इसे यथावत् रखा जाय / यह मनक जैसे अनेक मुनियों की आराधना १-दशवैकालिक नियुक्ति, गाथा 1,7,12,14,15 / २-वही, गाथा 6 / ३-जिनदास चूर्णि, पृष्ठ 5 / ४-दश० हारिभद्रीय टीका, पत्र 12 / Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12 दशवैकालिक : एक समीक्षात्मक अध्ययन का निमित्त बनेगा, इसलिए इसका विच्छेद न किया जाय / / इस निर्णय के पश्चात् दशवैकालिक का वर्तमान रूप अध्ययन-क्रम में जोड़ा गया। महानिशीथ ( अध्ययन 5, दुःषमारक प्रकरण ) के अनुसार पाँचवें आरे ( दुःषमकाल ) के अन्त में जब अंग-साहित्य विच्छिन्न हो जाएगा, तब दुष्पसह मुनि केवल दशवकालिक के आधार पर संयम की आराधना करेंगे। १-दश० हारिभद्रीय टीका, पत्र 284 : आणंदअंसुपायं कासी सिज्जंभवा तहिं थेरा। जसभहस्स य पुच्छा कहणा अविआलणा संघे // 371 // "विचारणा संघ" इति शय्यम्भवेनाल्पायुषमेनमवेत्य मयेदं शास्त्रं नियुढे किमत्र युक्तमिति निवेदिते विचारणा संघे—कालह्रासदोषात् प्रभूतसत्त्वानामिदमेवोपकारकमतस्तिष्ठत्वेतदित्येवंभूता स्थापना। Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २-दशवकालिक के कर्त्ता और रचनाकाल रचनाकार का जीवन-परिचय : राजगृह में शय्यम्भव नाम का ब्राह्मण रहता था। वह अनेक विद्याओं का पारगामी विद्वान् था / प्रभव स्वामी ने अपने दो साधुओं को उसकी यज्ञशाला में भेजा / साधु वहाँ पहुंचे और धर्म-लाभ कहा। आचार्य की शिक्षा के अनुसार वे बोले- "अहो कष्टमहो कष्टं, तत्वं न ज्ञायते परम् / " शय्यम्भव ने यह सुना और सोचा-ये उपशान्त तपस्वी असत्य नहीं बोलते / अवश्य ही इसमें रहस्य है। वह उठा और अपने अध्यापक के पास जाकर बोला- “कहिए तत्त्व क्या है ?" अध्यापक ने कहा-"तत्त्व वेद हैं।" शय्यम्भव ने तलवार को म्यान से निकाला और कहा--"या तो तत्त्व बतलाइए अन्यथा इसी तलवार से सिर काट डालूंगा।" अध्यापक ने सोचा अब समय आ गया है। वेदार्थ की परम्परा यह है कि सिर काट डालने का प्रसंग आए तब कह देना चाहिए। अब यह प्रसंग उपस्थित है, इसलिए मैं तत्त्व बतला रहा हूँ। अध्यापक ने कहा-"तत्त्व आईत्-धर्म है।" वह आगे बढ़ा और यूप के नीचे जो अरिहंत की प्रतिमा थी उसे निकाल शय्यम्भव को दिखाया। वह उसे देख प्रतिबुद्ध हो गया / ' शय्यम्भव ने अध्यापक के चरणों में वन्दना की और संतुष्ट होकर 'यज्ञ की सारी सामग्नी उसे भेंट में दे दी। वह चला और मुनि-युगल को खोजते-खोजते वहीं जा पहुंचा, जहाँ उसे पहुँचना था। अपनी गर्भवती युवती पत्नी को छोड़ 28 वर्ष की अवस्था में उसने प्रभव स्वामी के पास प्रव्रज्या ले ली। दशवैकालिक की व्याख्याओं में उनके जीवन का यह परिचय मिलता है / 2 परिशिष्ट-पर्व ( सर्ग 5 ) में भी लगभग यही वर्णन है। इस वर्णन के कुछेक तथ्यों के आधार पर उनके पूर्ववर्ती जीवन की स्थूल-रूपरेखा हमारे सामने आ जाती है। १-दशवकालिक नियुक्ति, गाथा 14 / २-दश० हारिभद्रीय टीका, पत्र 10,12 / Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिक : एक समीक्षात्मक अध्ययन निर्यहण या लघुकरण : प्रस्तुत आगम के कर्ता शय्यम्भव सूरि माने जाते हैं।' नियुक्तिकार के अनुसार यह उनकी स्वतंत्र रचना नहीं, किन्तु संकलना है। संकलना के बारे में दो विचार मिलते हैं। पहले के अनुसार प्रस्तुत सूत्र का विषय पूर्वो से उद्धृत कर संकलित किया गया है / 2 दूसरी धारणा के अनुसार यह द्वादशांगी से उद्धृत हुआ है। इन दोनों विचारधाराओं के स्रोत की जानकारी का कोई साधन प्राप्त नहीं है। नियुक्ति में इन दोनों का उल्लेख है और शेष व्याख्याकारों ने उसी का अनुगमन किया है। शय्यम्भव सूरि 'चतुर्दश पूर्वधर थे, इसलिए उनकी रचना को आगम माना जाता है। जयाचार्य के अनुसार चतुर्दशपूर्वी और दशपूर्वी की वही रचना आगम हो सकती है, जो केवलज्ञानी के समक्ष की जाए। इसके आधार पर उनकी कल्पना यह है कि पूर्वो के आधार पर रचित दशवैकालिक का बृहत् कलेवर था, उसका शय्यम्भव सूरि ने लघुकरण किया है। इस कल्पना का कोई स्पष्ट साहित्यिक आधार प्राप्त नहीं है। किन्तु दशवकालिक के नियत और . अनियत रूप की चर्चा से उक्त कल्पना की पुष्टि होती है। भगवान् महावीर के चौदह १-दशवैकालिक नियुक्ति, गाथा 14 : सेज्जभवं गणधरं जिणपडिमादसणेण पडिबुद्धं / मणगपिअरं दसका लियस्स निज्जूहगं वंदे // २-वही, गाथा 16,17 : आयप्पवायपुवा निज्जूढा होइ धम्मपन्नती।' कम्मप्पवायपुव्वा पिंडस्स उ एसणा तिविहा // सच्चप्पवाय पुव्वा निज्जूढा होइ वक्कसुद्धी' उ / अवसेसा निज्जूढा नवमस्स उ तइयवत्यूओ // ३—वही, गाथा 18: (क) बीओऽवि अ आएसो गणिपिडगाओ दुवालसंगाओ। ___ एवं किर णिज्जूढं मणगस्स अणुग्गहट्टाए // (ख) अगस्त्य चूर्णि: बितियादेसो बारसंगातो जं जतो अगुरूवं / ४–प्रश्नोत्तर-तत्त्वबोध, 1939,10 / ५-(क) वही, 8 / 21,22 / (ख) भगवती की जोड़, 25 // 3 ढाल 438 का वार्तिक / ' Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1. बहिरङ्ग परिचय : दशवैकालिक के कर्ता और रचना-काल 15 हजार प्रकीर्णककार साधु थे और उन्होंने चौदह हजार प्रकीर्णकों की रचना की।' मलयगिरि ने 'एवमाइयाई' (नन्दी सूत्र 46) की व्याख्या में उत्कालिक और कालिक—दोनों प्रकार के आगमों को प्रकीर्णक माना है / 2 उत्कालिक सूत्रों की गणना में दशवैकालिक का स्थान पहला है। इसके आधार पर यह अनुमान किया जा सकता है कि भगवान् महावीर के समय दशवकालिक नाम का कोई प्रकीर्णक रहा हो और शय्यम्भव सूरि ने प्रयोजनवश उसका रूपान्तर किया हो। टीका में भी इसके नियत और अनियत रूप की चर्चा का उल्लेख मिलता है। किसी ने पूछा-दशवकालिक नियत-श्रुत है ? कारण कि ज्ञात-धर्मकथा के उदाहरणात्मक अध्ययन, ऋषि-भाषित और प्रकीर्णक श्रुत अनियत होता है। शेष सारा श्रुत प्रायः नियत होता है / दशवैकालिक नियत-श्रुत है। उसमें राजीमती और रथनेमि का अभिनव उदाहरण क्यों ? इसके समाधान में टीकाकार ने लिखा है कि नियत-श्रुत का विषय प्रायः नियत होता है; सर्वथा नहीं। इसलिए इस अभिनव उदाहरण का समावेश आपत्तिजनक नहीं है / इस प्रमाण के आधार पर जयाचार्य की कल्पना को महत्त्व दिया जा सकता है। इसका फलित यह होगा कि शय्यम्भव सूरि ने दशवकालिक के बृहत् रूप का लघुकरण किया है। तालार्य की दृष्टि से देखा जाए तो इन तीनों मान्यताओं के फलितार्थ में कोई अन्तर नहीं है / शय्यम्भव सूरि ने चाहे चौदह पूर्वो से या द्वादशांगी से इसे उद्धृत किया हो, चाहे इसके बृहत् रूप को लघु रूप दिया हो, इसकी प्रामाणिकता में कोई बाधा नहीं आती। निर्ग्रहण ( उद्धरण ) और लघकरण ये दोनों रूपान्तर हैं। प्रामाणिकता की दृष्टि से इन दोनों प्रक्रियाओं में कोई अन्तर नहीं है। प्रयोजनवश आगम-पुरुष को ऐसा अधिकार भी है। १-नन्दी, सूत्र 46 : चोद्दस-पइन्नगसहस्साई भगवओ वद्वमाणसाभिस्स / .. २-वही, सूत्र 46 वृत्ति : प्रकीर्ण करूपाणि चाययनानि कालिकोत्कालिकभेद भिन्नानि / ३-दश० हारिभद्रीय टीका, पत्र 99 : अपरस्त्वाह---दशवैकालिकं नियतश्रुतमेव, यत उक्तम्णायझयणाहरणा, इसिभासियाओ पइन्नयसुया य / एस होति अणियया, णिययं पुण सेसभुवस्सन्नं // तत्कथमभिनवोत्पन्न मिदमुदाहरणं युज्यते इति ?, उच्यते, एवम्भूताथस्यैव नियत श्रुतेऽपि भावाद्, उत्सन्नग्रहणाच्चादोषः, प्रायो नियतं, न तु सर्वथा नियतमेवेत्यर्थः। Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 16 दशवकालिक : एक समीक्षात्मक अध्ययन रचना का उद्देश्य : शय्यम्भव सूरि भगवान् महावीर के चतुर्थ पट्टधर थे। वे पत्नी को गर्भवती छोड़ कर दीक्षित हुए / पुत्र का जन्म हुआ। उसका नाम मनक रखा गया। वह आठ वर्ष का हो गया। एक दिन उसने अपनी माँ से पिता के बारे में पूछा। माँ ने बताया- "बेटा ! तेरे पिता मुनि बन गए। वे अब आचार्य हैं और अभी-अभी चम्पा नगरी में विहार कर रहे हैं।" मनक ने माँ से अनुमति ली और चम्पा नगरी जा पहुंचा। आचार्य शौच जाकर आ रहे थे, बीच में ही मनक मिल गया। आचार्य के मन में कुछ स्नेह का भाव जागा और पूछा-"तू किसका बेटा है ?" "मेरे पिता का नाम शय्यम्भव ब्राह्मण है", मनक ने प्रसन्न मुद्रा में कहा / आचार्य ने पूछा-"अब तेरे पिता कहाँ हैं ?" मनक ने कहा-“वे अब आचार्य हैं और इस समय चम्पा में हैं।" आचार्य ने पूछा- "तू यहाँ क्यों आया ?" मनक ने उत्तर दिया-“मैं भी उनके पास प्रव्रज्या लूँगा" और उसने पूछा-"क्या तुम मेरे पिता को जानते हो ?" आचार्य ने कहा- "मैं केवल जानता ही नहीं हूँ किन्तु वह मेरा अभिन्न ( एक शरीरभूत ) मित्र है / तू मेरे पास ही प्रव्रजित हो जा।" उसने यह स्वीकार कर लिया। संभव है कि शय्यम्भव ने सारा रहस्य उसे समझा दिया और पिता-पुत्र के सम्बन्ध को प्रकट करने का निषेध कर दिया। आचार्य स्थान पर चले आए। उसे प्रव्रजित किया। आचार्य ने विशिष्ट ज्ञान से देखा-"यह अल्पायु है। केवल छह मास और जीएगा / मुझे इससे विशिष्ट आराधना करानी चाहिए”—यह सोच उन्होंने मनक के लिए एक नए आगम का निर्माण करना चाहा। विशेष प्रयोजन होने पर चतुर्दश-पूर्वी और अपश्चिम दशपूर्वी निर्वहण कर सकते हैं। आचार्य ने सोचा-'मेरे सम्मुख यह विशेष प्रयोजन उपस्थित हुआ है। इसलिए मुझे भी निर्वृहण करना चाहिए।"५ यही प्रेरणा दशवकालिक के वर्तमान रूप का निमित्त बनी। रचना-काल : . भगवान् महावीर के निर्वाण के पश्चात् सुधर्मा स्वामी बीस वर्ष तक जीवित रहे / 2 उनके उत्तराधिकारी जम्बू स्वामी थे। उनका आचार्य-पद चौवालीस वर्ष रहा। तीसरे १-दश० हारिभद्रीय टीका, पत्र 12 : तं चउद्दसमुवी कम्हिवि कारणे समुप्पन्ने णिज्जूहति, दसपुन्वी पुण अपच्छिनो अवस्समेव णिज्जूहइ, ममंपि इमं कारणं समुप्पन्नं तो अहमवि णिज्जूहामि, ताहे आढत्तो णिज्जहिउं..........। २-पट्टावलि समुच्चय ( तपागच्छ पट्टावली ), पृष्ठ 42 : श्री वीराविंशत्या वर्षेः सिद्धिं गतः। ३-वही, पृष्ठ 42 : श्रीवरात् चतुःषठिवः सिद्धः / Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1. बहिरङ्ग परिचय : दशवकालिक के कर्ता और रचनाकाल 17 आचार्य प्रवर स्वामी हुए। उनका आचार्य-काल ग्यारह वर्ष का है। प्रभव स्वामी ने एक दिन अपने उत्तराधिकारी के बारे में सोचा। अपने गण और संघ को देखा तो कोई भी शिष्य आचार्य-पद के योग्य नहीं मिला। फिर गृहस्थों की ओर ध्यान दिया। राजगृह में शय्यम्भव ब्राह्मण को यज्ञ करते देखा। वे उन्हें योग्य जान पड़े। आचार्य राजगृह आए / शय्यम्भव के पास साधुओं को भेजा। उनसे प्रेरणा पा वे आचार्य के पास आए, सम्बुद्ध हुए और प्रवजित हो गए। प्रभव स्वामी का आचार्य-काल ग्यारह वर्ष का है' और शय्यम्भव के मुनि-जीवन का काल ग्यारह वर्ष का है। वे अठाईस वर्ष तक गृहस्थ-जीवन में रहे, ग्यारह वर्ष मुनिजीवन में रहे, तेईस वर्ष आचार्य या युग-प्रधान रहे। इस प्रकार 62 वर्ष की आयु पाल कर वीर-निर्वाण सं० 68 में दिवंगत हुए।२ उक्त विवरण से जान पड़ता है कि प्रभव स्वामी के आचार्य होने के थोड़े समय पश्चात् ही शय्यम्भव मुनि बन गए थे, क्योंकि उनका आचार्य-काल और शय्यम्भव का मुनि-काल समान है—दोनों की अवधि ग्यारह-ग्यारह वर्ष की है। वीर-निर्वाण के 36 वें वर्ष में शय्यम्भव का जन्म हुआ और 64 वें वर्ष तक घर में रहे। मुनि होने के 8 या 81 वर्ष के पश्चात् मनक के लिए दशवकालिक का निर्वृहण किया। इस प्रकार दशवकालिक का रचना-काल वीर-निर्वाण सम्वत् 72 के आसपास उपलब्ध होता है और यह प्रभव स्वामी की विद्यमानता में निर्मूढ किया गया, यह उक्त काल-गणना से स्पष्ट है। - दशवकालिक का रचना-काल डा० विन्टरनित्ज ने वीर-निर्वाण के 18 वर्ष बाद माना है। प्रो० एम० वी० पटवर्धन का भी यही मत रहा है। किन्तु यह काल-निर्णय पट्टावली के कालानुक्रम से नहीं मिलता। १-पट्टावलि समुच्चय ( प्र०मा ) ( तपागच्छ पट्टावली ), पृष्ठ 43 : व्रतपर्याये एकादश युगप्रधानपर्याये चेति / . २-वही, पृष्ठ 43 : स चाष्टाविंशतिवर्षाणि गृहस्थपर्याये, एकादश व्रते, त्रयोविंशतियुगप्रधानपर्याये चेति सर्वायुर्द्विषष्ठिवर्षाणि परिपाल्य श्रीवीरादष्टनवतिवर्षा तिक्रमे स्वर्गभाक् / ३-हारिभद्रीय टीका, पत्र 11,12 : जया सो अट्ठवरिसो जाओ ताहे सो मातरं पुच्छइ को मम पिओ ?, सा भणइ तव पिओ पव्वइओ, ताहे सो दारओ णासिऊणं पिउसगासं पढिओ... सो पव्वइओ। 4-A History of Indian Literature, Vol. II, page 47, F. N. 1. 4-The Dasavaikalika Sutra : A Study, page 9. Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३-रचना-शैली दशवैकालिक रचना की दृष्टि से वास्तव में ही सूत्र है / पारिभाषिक शब्दों में अर्थ को बहुत ही संक्षेप में गूंथा गया है। मनक को थोड़े में बहुत देने के उद्देश्य से इसकी रचना हुई, उसमें रचनाकार बहुत ही सफल हुए हैं। विषय के वर्गीकरण की दृष्टि से भी इसका रचनाक्रम बहुत प्रशस्त है। आदि से अन्त तक धर्म और धार्मिक की विशेषता का निरूपण है। उसे पढ़ कर यह सहजतया बुद्धिगम्य हो सकता है कि धार्मिक धर्म का स्पर्श कैसे करे और अधर्म से कैसे बचे ? इसका अधिकांश भाग पद्यात्मक है और कुछ भाग गद्यात्मक / गद्य भाग के प्रारम्भ में उत्तराध्ययन की शैली का अनुसरण है। गद्य-भाग के बीच-बीच में गद्योक्त विषय का संग्रह पद्यों में किया है / 2 ऐसी शैली उपनिषदों में रही है। १-(क) उत्तराध्ययन, 29 / 1:.. ....सुयं मे आउसं! तेणं भगवया एवमक्खायं-इह खलु सम्मत्तपरक्कमे नाम अज्झयणे समणेणं भगवया महावीरेणं कासवेणं पवेइए। . (ख) दशवैकालिक, 4 / सूत्र 1: / सुयं मे आउसं ! तेणं भगवया एवमक्खायं- इह खलु छज्जीवणिया नामज्झयणं समणेणं भगवया महावीरेणं कासवेणं पवेइया सुयक्खाया सुपन्नत्ता। (ग) उत्तराध्ययन, 16 / सूत्र 1 : ... सुयं मे आउसं ! तेणं भगवया एवमक्खायं-इह खलु थेरेहिं भगवन्तेहि दस बम्भचेरसमाहिठाणा पन्नत्ता। ... (व दशवकालिक, 9 / 4 / सूत्र 1: : सुयं मे आउसं ! तेगं भगवया एवमक्खायं-इह खलु थेरेहिं भगवंतेहिं चतारि 'विणयसमाहिट्ठाणा पन्नत्ता। .... २-दशकालिक, 9 / 4 / ३-श्नोपनिष र, 6 / 5,6 :.. स एषोऽकलोऽमृतो भवति तदेष श्लोकःअरा इव . रथनाभौ कला यस्मिन्प्रतिष्ठिता। तं वेद्य पुरुषं वेद ( यथा ) मा वो मृत्युः परिव्यथा इति // ...... Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ---- 1. बहिरङ्ग परिचय : रचना-शैली 16 विषय को स्पष्ट करने के लिए उपमाओं का भी यथेष्ट प्रयोग किया है। रथनेमि और राजीमती की घटना के सिवाय अन्य किसी घटना का इसमें स्पष्ट उल्लेख नहीं है। कहीं-कहीं घटना के संकेत अवश्य दिए हैं। 5 / 2 / 5 में क्रिया व पुरुष का आकस्मिक परिवर्तन पाठक को सहसा विस्मय में डाल देता है। यदि चूर्णिकार ने इस श्लोक की पृष्ठभूमि में रही हुई घटना का उल्लेख न किया होता, तो यह श्लोक व्याकरण की दृष्टि से अवश्य ही विमर्शनीय बन जाता। ___ इसी प्रकार 114 में हुआ उत्तमपुरुष का प्रयोग भी सम्भव है किसी घटना से सम्बद्ध हो, पर किसी भी व्याख्या में उसका उल्लेख नहीं है। अनुष्टुप् श्लोक वाले कुछ अध्ययनों के अंत भाग में उपजाति आदि वृत्त रख कर आचार्य ने इसे महाकाव्य की कोटि में ला रखा ( देखिए अध्ययन 6,7 और 8 ) / कहींकहीं प्रश्नोत्तरात्मक-शैली का भी प्रयोग किया गया है ( देखिए 47.8 ) / परन्तु ये प्रश्न आगमकर्ता ने स्वयं उपस्थित किए हैं या किसी दूसरे व्यक्ति ने, इसका कोई समाभान नहीं मिलता / बहुत सम्भव है कि मुमुक्षु कैसे चले ? कैसे खड़ा रहे ? कैसे बैठे ? कैसे सोए ? कैसे खाए और कैसे बोले ?–ये प्रश्न आचार्य के सामने आते रहे हों और रचना के प्रसंग आने पर आचार्य ने उनका स्थायी समाधान किया हो। गृहस्थ और मुनि के चलने-बोलने आदि में अहिंसा की मर्यादा का बहुत बड़ा अन्तर होता है, इसलिए प्रव्रज्या ग्रहण के अनन्तर आचार्य नव-दीक्षित श्रमण को चलनेबोलने आदि की विधि का उपदेश देते हैं। भगवान महावीर ने महाराज श्रेणिक के पुत्र मेघकुमार को दीक्षित कर आचार-गोचर और विनय का उपदेश देते हुए कहा"देवानुप्रिय ! अब तुम श्रमण हो, इसलिए तुम्हें युग-मात्र भूमि को देख कर चलना चाहिए ( तुलना कीजिए 5 / 1 / 3.) ; निर्जीव-भूमि पर कायोत्सर्ग की मुद्रा में खड़ा रहना चाहिए; (मिलाइए 8 / 11, 13) ; जीव-जन्तु रहित भूमि को देख कर, प्रमार्जित कर बैठना चाहिए ( तुलना कीजिए 8 / 5,13 ) ; जीव-जन्तु रहित भूमि पर सामायिक या चतुर्विंशस्तव का उच्चारण और शरीर का प्रमार्जन कर सोना चाहिए ( मिलाइए 8 / 13 ) : साधर्मिकों को निमन्त्रण दे समभाव से खाना चाहिए ( तुलना कीजिए 5 / 1 / 64-66; 106 ) ; हित, मित और निरवद्य भाषा बोलनी चाहिए ( देखिए 7 वाँ अध्ययन) और संयम में सावधान रहना चाहिए। इसमें थोड़ा भी प्रमाद नहीं होना चाहिए।' 1 १-ज्ञाताधर्मकथा, 1 / सू०३०ः तए णं समणे भगवं महावीरे मेहं कुमारं सयमेव पवावेइ सयमेव आयार जाव धम्माइक्खई, एवं देवा गुपिया ! गंत चिट्ठियन्वं णिसीयत्वं तुयट्टियव्वं मुंजियव्वं भासियव्वं एवं उट्टाय उट्टाय पाणेहिं भूएहिं जीवेहिं सत्तेहिं संजमेण संजमियव्वं अस्सिंच ण अटे नो पमादेयव्वं / Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिक : एक समीक्षात्मक अध्ययन . आचार्य शय्यम्भव ने इस सूत्र के द्वारा मनक को वही उपदेश दिया, जो भगवान् ने मेघकुमार को दिया था। दूसरे शब्दों में यों कहा जा सकता है कि भगवान् महावीर नव-दीक्षित श्रमणों को जो प्रारम्भिक उपदेश देते थे, उसे आचार्य शय्यम्भव ने प्रशस्त शैली में संकलित कर दिया। उक्त श्लोकों के अगले अध्ययनों में आचार-संहिता की आधारभूत इन्हीं ( चलने-बोलने आदि को ) प्रवृत्तियों का विस्तार है। उत्तराध्ययन,' धम्मपद,२ महाभारत आदि के लक्षण-निरूपणात्मक-अध्यायों में व्यवस्थित शैली का जो रूप है, वह दशवकालिक में भी उपलब्ध होता है ( देखिए 6 / 3 में. पूज्य और १०वें में भिक्षु के लक्षणों का वर्गीकरण ) / इसकी रचना प्रायः सूत्र रूप है, पर कहीं-कहीं व्याख्यात्मक भी है / अहिंसा, परिग्रह आदि की बहुत ही नपे-तुले शब्दों में परिभाषा और व्याख्या यहाँ मिलती है ( देखिए 6 / 8 ; 6 / 20) / कहीं-कहीं अनेक श्लोकों का एक श्लोक में संक्षेप. किया गया है। इसका उदाहरण आठवें अध्ययन का 26 वाँ श्लोक है कण्णसोक्खेहिं सद्दे हिं पेमं नाभिनिवेसए / दारुणं कक्कसं फासं काएण अहियासए / यहाँ आदि और अन्त का अर्थ प्रतिपादित किया गया है। पूर्ण रूप में उसका प्रतिपादन पाँच श्लोकों के द्वारा हो सकता है। निशीथभाष्य चूर्णि तथा बृहद्कल्पभाष्य वृत्ति५ में इस आशय का उल्लेख और पाँच श्लोक मिलते हैं--- कण्णसोक्खेहिं सद्देहि पेम्म णाभिणिवेसए / दारुणं कक्कसं सद्द सोएणं. अहियासए / चक्खुकतेहिं स्वेहिं पेम्मं णाभिणिवेसए। दारुणं कक्कसं रूवं चक्खुणा अहियासए / घाणकतेहिं गंधेहिं पेम्म णाभिणिवेसते / दारुणं कक्कसं गंध घाणेणं अहियासए / 1-15 वें में भिक्षु और 25 वें में ब्राह्मण के लक्षणों का निरूपण / २-बाह्मण वर्ग। यह मौलिक नहीं, किन्तु संकलित है। ३-शान्ति पर्व, मोक्षधर्म, अध्याय 245 / ४-निशीथभाज्य चूर्णि, भाग 3, पृष्ठ 483 / ५-बृहद्कल्प, भाग 2, पृष्ठ 273,274 / Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1. बहिरङ्ग परिचय : रचना-शैली 21 जीहकतेहिं रसेहिं पेम्म णाभिणिवेसते / दारुणं कक्कसं रसं जीहाए अहियासए / / सुहफासेहि कतेहिं पेम्म णाभिणिवेसए / दारुणं कक्कसं फासं काएणं अहियासए / यद्यपि आप्त-पुरुष की वाणी में विधि-निषेध के प्रयोजन का निरूपण आवश्यक नहीं होता, उसका क्षेत्र तर्कवाद है, किन्तु प्रस्तुत आगम में निषेध के कारणों को बहुत सूक्ष्म दृष्टि से समझाया गया है ( देखिए अध्ययन 5,6 और 10) / ___ थोड़े में इसकी शैली न तो गद्य-पद्यात्मक रचना-काल जैसी प्राचीन, संक्षिप्त और रूपक-मय है और न पूर्ण आधुनिक ही। मध्य-कालीन आगमों की रचना-शैली से कुछ भिन्न होते हुए भी अधिकांश में अभिन्न है / Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४-व्याकरण-विमर्श आगमिक प्रयोगों को व्याकरण की कसौटी से कसा जाय तो वे सब के सब खरे नहीं उतरेंगे / इसीलिए प्राकृत-व्याकरणकारों ने आगम के अलाक्षणिक प्रयोगों को आर्ष-प्रयोग कहा है / ' प्रस्तुत आगम में अनेक अलाक्षणिक प्रयोग हैं। परन्तु एक अक्षम्य भूल से बचने के लिए हमें एक महत्त्वपूर्ण विषय पर ध्यान देने की आवश्यकता है / वह यह है कि उत्तर-कालीन व्याकरण की कसौटी से पूर्ववर्ती प्रयोगों को कसने की मनोवृत्ति निर्दोष नहीं है / भाषा का प्रवाह और उसके प्रयोग कालपरिवर्तन के साथ-साथ परिवर्तित होते रहते हैं। उन्हें कोई भी एक व्याकरण बांध नहीं सकता / आगमिक प्रयोगों का मुख्य आधार पूर्वान्तर्गत शब्द-शास्त्र रहा है। उसके कुछ एक संकेत आज भी आगमों में मिलते हैं। स्थानांग में शुद्ध-वचन-अनुयोग के दस प्रकार बतलाए हैं। उन पर ध्यान देने से पता चलता है कि जिन आगमिक प्रयोगों को उत्तरकालीन व्याकरण की दृष्टि से अलाक्षणिक प्रयोग कहते हैं. उन्हें आगमकार शद्ध-वाकअनुयोग कहते हैं। 'वत्थगन्धमलंकार' (२।२)की व्याख्या में हरिभद्र सूरि ने 'मलंकार' के 'म' को अलाक्षणिक माना है। किन्तु मकरानुयोग की दृष्टि से यह प्रयोग आगमिक व्याकरण या तात्कालिक प्रयोग-परिपाटी से सम्मत है, इसलिए अलाक्षणिक नहीं है।' इसी प्रकार विभक्ति और वचन का संक्रमण भी सम्मत है।५ पाणिनि और हेमचन्द्र ने इस व्यत्यय को अपने व्याकरणों में भी स्थान दिया है।६ आगमिक प्रयोगों में विभक्ति रहित भी प्रयोग मिलते हैं---'गिण्हाहि साहुगुण मुंचऽसाहू" ( ६।३।११)—यहाँ गुण शब्द १-हेमशब्दानुशासन, आर्षम् 8 / 1 / 3 २-स्थानांग, 101744 : दसविधे सुद्धवाताणुओगे पन्नत्ते तंजहा—चंकारे (1), मंकारे (2), पिंकारे (3), सेतंकारे (4), सातंकारे (5), एगत्ते (6), पुधत्ते (7), संजूहे (8), संका मिते (9), मिन्ने (10) / ३-हारिभद्रीय टीका, पत्र 91 : अनुस्वारोऽलाक्षणिकः / ४-स्थानांग, 10744 / ५-दशवकालिक, भाग 2 ( मूल, सार्थ, सटिप्पण ) पृष्ठ २७,टिप्पण 11 / ६-हेमशब्दानुशासन, 8 / 4 / 447 : बन्धोन्धाः। Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1. बहिरङ्ग परिचय : व्याकरण-विमर्श द्वितीया का बहुवचन है ( गृहाण साधुगुणान ) पर इसकी विभक्ति का निर्देश नहीं है। आचार्य मलय गिरि ने इस प्रकार के विभक्ति-लोप को 'आर्ष' कहा है। .... देशी शब्दों के प्रयोग भी यत्र-तत्र हुए हैं। हमने उनकी संस्कृत छाया नहीं की है। कहीं-कहीं टिप्पणियों में तदर्थक संस्कृत शब्द का उल्लेख किया है। ... जिस प्रकार वैदिक प्रयोग लौकिक संस्कृत से भिन्न रहे हैं, उसी प्रकार आगमिक प्रयोग भी लौकिक प्राकृत से भिन्न रहे हैं। उन्हें सामयिक प्रयोग कहा जा सकता है / मलयगिरि के अनुसार जो शब्द अन्वर्थ-रहित और केवल समय ( आगम ) में ही प्रसिद्ध हो, वह सामयिक कहलाता हैं / 2 प्रस्तुत आगम में 'पिण्ड' और 'परिहरन्ति' 4 आदि सामयिक शब्दों का प्रयोग हुआ है, जिनका यथास्थान उल्लेख किया गया है। सामयिक नाम का आधार सम्भवतः स्थानांग का सामयिक व्यवसाय है। वहाँ व्यवसाय के तीन प्रकार किए हैं—लौकिक, वैदिक और सामयिक / 5 व्याकरण की दृष्टि से मीमांसनीय शब्दों को हमने ग्यारह भागों में विभक्त किया है—संधि, कारक, वचन, समास, प्रत्यय, लिंग, क्रिया और अर्द्ध-क्रिया, क्रिया-विशेषण, आर्ष-प्रयोग, विशेष विमर्श तथा क्रम-भेद / उनका क्रमशः विवरण इस प्रकार है : १-सन्धि एमए (13) .. ___इसमें ‘एवं' और 'एते'—ये दो शब्द हैं / अगस्त्य चूर्णि के अनुसार श्लोक-रचना की दृष्टि से 'एव' के 'व' का लोप हुआ है। प्राकृत व्याकरण के अनुसार 'एवमेव' रूप ‘एमेव बनता है। संभव है 'एमेव' ही आगे चल कर 'एमए' बन गया हो। ... १-पिण्ड नियुक्ति, गाथा 1 वृत्ति : इंगालधमकारण-सूत्रे च विभक्तिलोप आर्षत्वात् / २-वही, गाथा 6 वृत्ति : गोण्णं समयकयंवा—तथा समयजं यदन्वर्थरहितं समय एव प्रसिद्धं यथौदनस्य प्राभृतिकेति। ३-दशवकालिक, भाग 2 ( मूल, सार्थ, सटिप्पण ) पाँचवें अध्ययन का आमुख, ___193,195-196 / . ४-दशवकालिक 6 / 19 / / ५-स्थानांग, 3 // 3 // 185 : ___तिविहे ववसाए पन्नत्ते तंजहा–लोइए वेइए सामइए / ६-अगस्त्य चूर्णि : वकार लोपो सिलोगपायाणुलोमेणं / ७-हेमशब्दानुशासन, 8 / 1 / 271 : . यावत्तावज्जीवितावर्तमानावटप्रावारक-देवकुलैवमेवेवः / .. Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवकालिक : एक समीक्षात्मक अध्ययन बीयं (8 / 31) ___प्राकृत में कहीं-कहीं एक पद में भी संधि हो जाती है। इसी के अनुसार यहाँ 'बिइओ' का 'बीओ' बना है।' ह्रस्व का दीर्धीकरणअन्नयरामवि (6 / 18) . इसमें रकार दीर्घ है / बहुनिवट्टिमा फला (7 // 33) इसमें मकार दीर्घ है। २-कारक मच्छन्दा (2 / 2) इसका प्रयोग कर्तृवाचक बहुवचन में हुआ है, पर उसे कर्मवाचक बहुवचन में भी माना जा सकता है। इस स्थिति में वह वस्त्र आदि वस्तुओं का विशेषण होगा। मज्झयणं धम्मपन्नत्ती (4 / सूत्र१) ___ अध्ययन होने से—अध्ययन की प्राप्ति के द्वारा चित्त-विशुद्धि का हेतु होने से, धर्मप्रज्ञप्ति होने से—धर्म की प्रज्ञापना के द्वारा चित्त-विशुद्धि का हेतु होने से ये दोनों हेतु हैं। निमित्त, कारण और हेतु में प्रायः सभी विभक्तियाँ होती हैं, इसलिए यहाँ दोनों शब्दों में हेतु में प्रथमा विभक्ति है। अन्नत्य सत्यपरिणएणं (4 / सूत्र४) अन्यत्र शब्द के योग में पंचमी विभक्ति होती हैं / जैसे—अन्यत्र भीष्माद् गांगेयाद्, अन्यत्र च हनूमतः / अतः इसका संस्कृत रूप होगा-अन्यत्रशस्त्रपरिणतात् / तस्स (4 / सूत्र१०) यहाँ सम्बन्ध या अवयव अर्थ में षष्ठी विभक्ति है / १-हेमशब्दानुशासन, 8 / 115 : पदयोः सन्धिर्वा। २-दशवकालिक, भाग 2 ( मूल, सार्थ, सटिप्पण), पृष्ठ 26 ३-हारिभद्रीय टीका, पत्र 138 : निमित्तकारणहेतुषु सर्वासां ( विभक्तीनां ) प्रायो दर्शन मिति वचनात् हेतौ प्रथमा। ४-वही, पत्र 144 : सम्बन्धलक्षणा अवयवलक्षणा वा षष्ठी। Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . 1. बहिरङ्ग परिचय : व्याकरण-विमर्श 25 विभक्ति-विहीनइन्वेव (2 / 4) यहाँ ‘एवं' शब्द के अनुस्वार का लोप हुआ है / 1 . कारणमुप्पन्ने (5 / 2 / 3) यहाँ कारण में विभक्ति का निर्देश नहीं है। सप्तमी के स्थान में मकार अलाक्षणिक है। व्यत्ययइच्चेसिं छण्हं जीवनिकायाणं (४।सूत्र 2) यहाँ सप्तमी के अर्थ में षष्ठी विभक्ति है / अन्लेन मग्गेण (5 / 1 / 6) ____ यहाँ सप्तमी के अर्थ में तृतीया विभक्ति है / बीएसु हरिएसु (5 / 1 / 57) के अर्थ में सप्तमी विभक्ति है। महिं (6 / 24) .. यहाँ सप्तमी के अर्थ में द्वितीया विभक्ति है। पीढए (7 / 28) - यहाँ चतुर्थी के अर्थ में प्रथमा विभक्ति है। भोगेसु (8 / 34) यहाँ पंचमी के अर्थ में सप्तमी विभक्ति है।४ १-हेमशब्दानुशासन, 8.1029 : ___मांसादेर्वा अनेन ‘एवं' शब्दस्य अनुस्वारलोपः / २-हारिभद्रीय टीका, पत्र 143 : सुपा सुपो भवन्तीति सप्तम्यर्थे षष्ठी। ३-वही, पत्र 164 : छान्दसत्वात् सप्तम्यर्थे तृतीया। .. ४-वही, पत्र 233 : भोगेभ्यो बन्धैकहेतुभ्यः / Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशकालिक : एक साक्षात्मक अध्ययन बुद्ध वयणे (10 / 6) यहाँ तृतीया के अर्थ में सप्तमी विभक्ति है / / तस्स (चू०२।३) यहाँ पंचमी के अर्थ में षष्ठी विभक्ति है / / गुणओ समं (चू०२।१०) * यहाँ तृतीया के अर्थ में पंचमी विभक्ति है। किं मे कडं (चू०२।१२) यहाँ 'मे' में तृतीया के अर्थ में षष्ठी विभक्ति का प्रयोग हुआ है। ३-वचन जे न भुंजन्ति न से चाइ त्ति वुच्चइ (2 / 2) _ 'भुंजन्ति' बहुवचन है और 'से चाइ' एकवचन / टीकाकार बहुवचन एकवचन की असंगति देख कर उसका स्पष्टीकरण करते हुए लिखते हैं-सूत्र की गति-रचना विचित्र प्रकार की होने से तथा मागधी का संस्कृत में विपर्यय भी होता है, इसलिए ऐसा हुआ है।" . 'से चाइ' यहाँ बहुवचन के स्थान में एकवचन का प्रयोग हुआ है यह व्याख्याकारों का अभिमत है। अगस्त्यसिंह स्थविर ने बहुवचन के स्थान में एकवचन का आदेश माना है।६ जिनदास महत्तर ने एकवचन के प्रयोग का हेतु आगमा रचना-शैली का वैचित्र्य १-हारिभद्रीय टीका, पत्र 266 : __बुद्धवचन इति तृतीयार्थे सप्तमी / २-वही, पत्र 279 : तस्येति पञ्चम्यर्थे षष्ठी। ३-वही, पत्र 282 : ___ गुणतः समं वा तृतीयार्थे पंचमी गुणैस्तुल्यं वा / .. ४-वही, पत्र 283 : 'sp किं मे कृतमिति छान्दसत्वात् तृतीयार्थे षष्ठी : ५-वही पत्र 91 : किं बहुवचनोद्देशेऽप्येकवचन निर्देश : ?, विचित्रत्वात्सूत्रगतेविर्ययश्च भवत्येवेति कृत्वा। ६-अगस्त्य चूर्णि: बहुवयणस्सत्थाणे एगवयणमादिटुं / Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 27 1. बहिरङ्ग परिचय : व्याकरण-विमर्श सुखमुखोच्चारण और ग्रन्थ-लाघव माना है। हरिभद्र ने वचन-परिवर्तन का कारण रचनाशैली की विचित्रता के अतिरिक्त विपर्यय और माना है / प्राकृत में विभक्ति और वचन का विपर्यय होता है। अभिहडाणि (3 / 2) यह शब्द बहुवचनांत है। अभिहृत के स्वग्राम-अभिहृत, परग्राम-अभिहृत आदि प्रकारों की सूचना देने के लिए ही बहुवचन का प्रयोग किया गया है / गिम्हेसु (3 / 12) ग्रीष्म-ऋतु में यह कार्य ( आतापना ) प्रति वर्ष करणीय है, इसलिए इसमें बहुवचन है।' . .. मन्ने (6 / 18) प्राकृत शैली से यहाँ बहुवचन में एकवचन का प्रयोग है और साथ-साथ पुरुषपरिवर्तन भी है। इसिणा (6 / 46) चूर्णिद्वय के अनुसार यह तृतीया का एकवचन है / 6 टीकाकार के अनुसार षष्ठी का बहुवचन / " .. १-जिनदास चूर्णि, पृष्ठ 82 : विचित्तो सुत्तनिबंधो भवति, सुहमुहोच्चारणत्थं गंथलाघवत्थं च। २-हारिभद्रीय टीका, पत्र 91 : __देखिए पृ० 26 पा०टि०५ / 3. वही, पत्र 116 : अभ्याहृतानि बहुवचनं स्वग्रामपरग्रामनिशीथादिभेदख्यापनार्थम् / ४-वही, पत्र 119 : ग्रीष्मादिषु बहुवचनं प्रतिवर्षकरणज्ञापनार्थम्। ५-वही, पत्र 198 : 'मन्ये' मन्यन्ते प्राकृतशैल्या एकवचनम्, एवमाहुस्तीर्थकरगणधराः / ६-(क) अगस्त्य चूर्णि : इसिणा–साधुणा। (ख) जिनदास चूर्णि, पृष्ठ 227 : इसिणा णाम साधुणा। ७-हारिभद्रीय टीका, पत्र 203 : - ऋषीणां साधूनाम् / Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 28 दशवकालिक : एक समीक्षात्मक अध्ययन ४-समास पंचासवपरिमाया (3 / 11) ___ संस्कृत में इसके दो रूप बनते हैं—'पञ्चाश्रवपरिज्ञाताः' और 'परिज्ञातपञ्चाश्रवाः' / टीकाकार का अभिमत है कि 'आहितान्यादेः' यह आकृति गण है और इसमें निष्ठा-प्रत्यय का पूर्व निपात नहीं होता। अतः प्रथम रूप निष्पन्न होता है। दूसरा रूप सर्वसम्मत परीसहरिऊवंता (3 / 13) __प्राकृत में पूर्वापरपद-नियम की व्यवस्था नहीं है। संस्कृत में इसके दो रूप बनते हैं—'परीषहरिपुदान्ताः' और 'दान्तपरीषहरिपवः' / 'आहिताम्यादेः'—इसमें निष्ठा-प्रत्यय का पूर्वनिपात नहीं होता। अत: प्रथम रूप निष्पन्न होता है और पूर्व-निपात करने पर दूसरा रूप / ५-प्रत्यय कीयगडं (3 / 2) यहाँ 'कीय' शब्द में भाव में निष्ठा प्रत्यय है / अयंपिरो (5 / 1 / 23) शीलाद्यर्थस्येर:४—इस सूत्र से 'इर' प्रत्यय हुआ है। संस्कृत में इसके स्थान पर 'तृन्' प्रत्यय होता है। हरिभद्र सूरि ने इसका संस्कृत रूप 'अजल्पन्' दिया है / आहारमइयं (8 / 28) यहाँ 'मइय' मयट प्रत्यय के स्थान में है।" १.-हारिभद्रीय टीका, पत्र 118, पञ्चाश्रवाः परिज्ञाता यैस्ते पञ्चाश्रवपरिशाताः, आहितान्यादराकृतिगणत्वान्न निष्ठायाः पूर्वनिपात इति समासो युक्त एव, परिज्ञातपञ्चाश्रवा इति वा। २-वही, पत्र 119 : परीषहाः एव रिपवः, वान्ताः यैस्ते परीषहरिपुदान्ताः, समासः पूर्ववत् न प्राकृते पूर्वापरपदनियमव्यवस्था। ३-वही, पत्र 96 : क्रीतकृतं-क्रयणं-क्रीतं, भावे निष्ठा प्रत्ययः / ४-हेमशब्दानुशासनः 8 / 2 / 145 / ५-पाइयसद्दमहण्णव, पृष्ठ 818 / Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1. बहिरङ्ग परिचय : व्याकरण-विमर्श 26 ६-लिङ्ग पंचनिग्गहणा धीरा (3 / 11) निग्गहणा' इसमें ल्युट (अनट ) प्रत्यय कर्ता में हुआ है, अतः यह पुल्लिङ्ग है। लिङ्ग-व्यत्ययजेण (8 / 47) यहाँ स्त्रीलिङ्ग 'यया' के स्थान पर पुल्लिङ्ग 'येन' है / मयाणि सव्वाणि (10 / 19) यहाँ पुल्लिङ्ग के स्थान पर नपुसंक लिङ्ग है। ७-क्रिया और अर्द्धक्रिया लज्मामो' "उवहम्मई (1 / 4) यहाँ पहली क्रिया का प्रयोग भविष्यत् काल और दूसरी का वर्तमान काल में किया गया है। उससे उस त्रैकालिक नियम की सूचना दी गई है कि मुनि को सर्वदा यथाकृत भोजन लेना चाहिए / अइवाएज्जा (4 सू०११) प्राकृत शैली के आधार पर टीकाकार ने यहाँ पुरुष का व्यत्यय माना है-प्रथमपुरुष के स्थान में उत्तमपुरुष माना है / मुंजमाणाणं (5 / 1 / 38) भुंज् धातु के दो अर्थ हैं-पालना और खाना। प्राकृत में धातुओं के परस्मै और आत्मने पद की व्यवस्था नहीं है, इसलिए संस्कृत में 'भुंजमाणाण' शब्द के संस्कृत रूपान्तर दो बनते हैं:-(१) मुंजतोः' और (2) 'भुंजानयोः' / १-हारिभद्रीय टीका, पत्र 119 : कर्तरि ल्युट्। २-वही, पत्र 72 : वर्तमानष्यत्कालोपन्यासस्त्रैकालिकन्यायप्रदर्शनार्थः / ३-वही, पत्र 145 : प्राकृतशैल्या छान्दसत्वात् 'तिडां तिङो भवन्तीति न्यायात् नैव स्वयं प्राणिनः अतिपातयामि। Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 30 दशवकालिक : एक समीक्षात्मक अध्ययन सिया (6 / 18) ___ अगस्त्यसिंह स्थविर ने 'सिया' को क्रिया माना है / ' जिनदास महत्तर और हरिभद्र ने 'सिया' का अर्थ कदाचित् किया है / 2 धारंति परिहरंति (6 / 16) ये दोनों सामयिक ( आगम-प्रसिद्ध ) धातुएँ हैं / परिग्गहे (6 / 21) चूर्णिकार ने 'परिग्गहे' को क्रिया माना है / टीकाकार ने इसे सप्तमी विभक्ति का रूप माना है।४ छन्नति (6 / 51.) ___ चूर्णिद्वय के अनुसार वह धातु 'क्ष्णु हिंसायाम्' है।५ टीकाकार ने 'छिप्पंति' पाठ मान कर उसके लिए संस्कृत धातु 'क्षिपंनज् प्रेरणे' का प्रयोग किया है।६ . गच्छामो (76) यहाँ 'वर्तमानसामीप्ये वर्तमानवद्वा'—इस सूत्र के अनुसार निकट भविष्य के अर्थ में वर्तमान विभक्ति है। १-अगस्त्य चूर्णि : . सियादिति भवेत् भवेज्ज / २-(क) जिनदास चूर्णि, पृष्ठ 220 : सिया कदापि। . (ख) हारिभद्रीय टीका, पत्र 198 : यः स्यात् यः कदाचित् / ३-जिनदास चूर्णि, पृष्ठ 222 : ___ 'संरक्षण परिग्गहो' नाम संजमरक्खणणिमित्तं परिगिण्हंति / ४-हारिभद्रीय टीका, पत्र 199 / ५-(क) अगस्त्य चूर्णि : छन्नंति क्ष्णु हिंसायामिति हिंसिज्जति / (ख) जिनदास चूर्णि, पृष्ठ 228 : छण्णसद्दो हिंमाए वट्टइ। ६-हारिभद्रीय टीका, पत्र 204 : .. क्षिप्यन्ते--हिंस्यन्ते। ७-भिक्षुशब्दानुशासन, 4 / 4 / 76 / Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1. बहिरङ्ग परिचय : व्याकरण-विमर्श लq (8 / 1) - ; अगस्त्य चूर्णि-और टीका के अनुसार यह पूर्वकालिक क्रिया' ( क्त्वा प्रत्यय ) का और जिनदास चर्णि के अनुसार यह 'तुम्' प्रत्यय का रूप है / 2 अहिट्ठए (8 / 61) टीका में 'अहिटुए' का संस्कृत रूप 'अधिष्ठाता' है। किन्तु 'तव' आदि कर्म है, इसलिए यह 'अहिट्ठा' धातु का रूप होना चाहिए / ८-क्रिया-विशेषण जयं (5 / 1 / 6) यह 'परक्कमे' क्रिया का विशेषण है / ' निउणं (68) __ अगस्त्य चूणि के अनुसार 'निउणं' शब्द 'दिट्ठा' क्रिया का विशेषण है / 4 जिनदास चूर्णि'" और टीका के अनुसार 'निउणा' मूल पाठ है और वह ‘अहिंसा' का विशेषण है। 6. आर्ष-प्रयोग वत्थगंधमलंकारं (2 / 2) यहाँ गंध का अनुस्वार अलाक्षणिक है / " १-(क) अगस्त्य चूर्णि : लद्धं पाविऊण। (ख) हारिभद्रीय टीका, पत्र 227 : लब्ध्वा प्राप्य / २.-जिनदास चूर्णि, पृष्ठ 271 : (लब्धं) प्राप्तये / 3. हारिभद्रीय टीका, पत्र 164 : ‘यत मिति क्रियाविशेषणम्। 4. अगस्त्य चूर्णि : 'निपुणं सव्वपाकारं सव्वसत्तगता इति / ५-जिनदास चूर्णि, पृष्ठ 217 : अहिंसा जिणसासणे 'निउणा......। .. ६-हारिभद्रीय टीका, पत्र 196 : निपुणा आधाकर्माद्यपरिभोगतः कृतकारितादिपरिहारेण सूक्ष्मा। ७-वही, पत्र 91 : ... अनुस्वारोऽलाक्षणिकः। . निउणा....... . Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिक : एक समीक्षात्मक अध्ययन परिव्वयंतो (2 / 4) ___ अगस्त्यसिंह स्थविर ने 'परिव्वयंतो' के अनुस्वार को अलाक्षणिक माना है।' वैकल्पिक रूप में इसे मन के साथ जोड़ा है / जिनदास महत्तर 'परिव्ययंतो' को प्रथमा का एकवचन मानते हैं और अगले चरण से उसका सम्बन्ध जोड़ने के लिए 'तस्स' का अध्याहार करते हैं / कडुअं (4 / 1-6) यहाँ अनुस्वार अलाक्षणिक है।४ लाममट्टिओ (5 / 1 / 64) यहाँ मकार अलाक्षणिक है / विउलं (5 / 2 / 43) अगस्त्य चूणि के अनुसार यहाँ मकार अलाक्षणिक है। एसमाघाओ (6 / 34) यहाँ मकार अलाक्षणिक है। आहारमाईणि (6 / 46) यहाँ मकार अलाक्षणिक है। एयमढें (6 / 52) यहाँ मकार अलाक्षणिक है। मंचमासालएसु (6 / 53) यहाँ मकार अलाक्षणिक है। बुद्धवुत्तमहिढगा (6 / 54) यहाँ मकार अलाक्षणिक है। १-अगस्त्य चूर्णि : वृत्तमंगभयात् अलक्खणो अनुस्सारो। २-वही : अहवा तदेव मणोऽभिसंबज्झति / 3. जिनदास चूर्णि, पृ० 84 : परिव्वयंतो नाम गामणगरादीणे उवदेसेणं विचरतो'त्ति वुत्तं भवइ तस्म / ४-हारिभद्रीय टीका, पत्र 140, 156 : लाक्षणिकः। Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1. बहिरङ्ग परिचय : व्याकरण-विमर्श असिणाणमहिटगा (6 / 62) यहाँ मकार अलाक्षणिक है। समत्तमाउहे (8 / 61) यहाँ मकार अलाक्षणिक है / वयणंकरा (9 / 2 / 12) ___ यहाँ मकार अलाक्षणिक है / उवहिणामवि (6 / 2 / 18) यहाँ मकार अलाक्षणिक है / निक्खम्म-माणाए (10 / 1) यहाँ मकार अलाक्षणिक है। १०-विशेष-विमर्श धिरत्थु ते जसोकामी ( 2 / 7) / चूर्णिकार और टीकाकार ने 'जसोकामी' की 'यशःकामिन्' और अकार लोप मान कर 'अयशःकामिन्'-इन दो रूपों में व्याख्या की है। छत्तस्स य धारणट्ठाए (3 / 4) ____टीकाकार लिखते हैं अनर्थ—बिना मतलब अपने या दूसरे पर छत्र का धारण करना अनाचार है / 2 आगाढ़ रोगी आदि के द्वारा छत्र-धारण अनाचार नहीं है। प्रश्न हो सकता है कि टीकाकार अनर्थ छत्र-धारण करने का अर्थ कहाँ से लाए ? इसका स्पष्टीकरण स्वयं टीकाकार ने ही कर दिया है। उनके मत से सूत्र-पाठ अर्थ की दृष्टि से 'छत्तस्स य धारणमणट्ठाए' है। किन्तु पद-रचना की दृष्टि से प्राकृत-शैली के अनुसार, अकार और नकार का लोप करने से, 'छत्तस्स य धारणट्ठाए' ऐसा पद शेष रहा है। साथ ही वह कहते हैं--परम्परा से ऐसा ही पाठ मान कर अर्थ किया जा १-(क) 'जिनदास चूर्णि, पृष्ठ 88 / (ख) हारिभद्रीय टीका, पत्र 96 / २-हारिभद्रीय टीका, पत्र 117 : छत्रस्य च लोकप्रसिद्धस्य धारणमात्मानं परं वा प्रति अनर्थाय इति, आगाढग्लानाद्यालम्बनं मुक्त्वाऽनाचरितम् / Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 34 दशवैकालिक : एक समीक्षात्मक अध्ययन रहा है। अतः श्रुत-प्रमाण भी इसके पक्ष में है। इस तरह टीकाकार ने 'अट्टाए' के स्थान में 'अणट्ठाए' शब्द ग्रहण कर अर्थ किया है।' पाणहा ( 3 / 4 ) यह प्राकृत शब्द 'उवाहणा' का संक्षिप्त रूप है। धूवणेत्ति ( 3 / 6) ___ इस शब्द की व्याख्या 'धूपनमिति' और 'धूमनेत्र' इन दो रूपों में की गई है। धूमनेत्र का अर्थ है–धुआँ पीने की नली। जे य कीडपयंगा, जा य कुंथुपिवीलिया ( 4 / 06 ) यहाँ उद्देश का व्यत्यय है। कीट द्वीन्द्रिय, पतंग 'चतुरिन्द्रिय और कुंथु तथा पिपीलिका त्रीन्द्रिय है। इनका क्रमशः उल्लेख होना चाहिए था, परन्तु सूत्र की गति विचित्र होती है और उसका क्रम अतंत्र होता है-तंत्र से नियंत्रित नहीं होता, इसलिए यहाँ ऐसा हुआ है, यह टीकाकार का अभिमत है।3. ___ किन्तु हमारे अभिमत में इस व्यत्यय का कारण छन्दोबद्धता है / सम्भवतः ये दोनों किसी गाथा के चरण हैं, जो ज्यों के त्यों उद्धृत किए गए हैं / से सुहुमं ( ४ासू०११) 'से' शब्द मगध देश में प्रसिद्ध 'अथ' शब्द का वाचक है / / ओग्गहंसि अजाइया (5 / 1 / 18) यह पाठ दो स्थानों पर है—यहाँ और 6 / 13 में। पहले पाठ की टीका १-हारिभद्रीय टीका, पत्र 117 : प्राकृतशैल्या चात्रानुस्वारलोपोऽकारनकारलोपौ च द्रष्टव्यौ, तथा श्रुति प्रामाण्यादिति। २-वही, पत्र 118 : प्राकृतशैल्या अनागतव्याधिनिवृत्तये धूमपानमित्यन्ये व्याचक्षते / ३-वही, पत्र 142 : ये च कीटपतङ्गा इत्यादावुद्देशव्यत्ययः किमर्थम्? उच्यते 'विचित्रा सूत्र गतिरतंत्रः क्रम' इति ज्ञापनार्थम् / ४-वही, पत्र 145 : से शब्दो मागधदेशप्रसिद्धः अथ शब्दार्थः। Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1. बहिरङ्ग परिचय : व्याकरण-विमर्श 'अवग्रहमयाचित्वा' और दूसरे पाठ की टीका-'अवग्नहे यस्य तत्तमयाचित्वा' है / ' 'ओग्गहंसि' को सप्तमी का एकवचन माना जाए तो इसका संस्कृत-रूप 'अवनहे' बनेगा और यदि 'ओग्गहंसि' ऐसा पाठ मान कर 'ओग्गह' को द्वितीया का एकवचन तथा 'से' को षष्ठी का एकवचन माना जाए तो इसका संस्कृत-रूप 'अवग्रहं तस्य' होगा। अझोयर ( 5 / 1155) _____टीकाकार 'अज्झोयर' का संस्कृत-रूप 'अध्यवपूरक' करते हैं। यह अर्थ की दृष्टि से सही है पर छाया की दृष्टि से नहीं, इसलिए हमने इसका संस्कृत-रूप 'अध्यवतर' किया है। सन्निहीकामे (6 / 18 ) चूर्णिकारों ने 'सन्निधिकाम' यह एक शब्द माना है / 2 टीकाकार ने 'कामे' को क्रिया माना है। उनके अनुसार 'सन्निहिं कामे' ऐसा पाठ बनता है / अहिज्जगं ( 8 / 46) ___ इसका संस्कृत-रूप 'अधीयानम्' किया गया है। चूर्णि और टीका का आशय यह है कि जो सम्पूर्ण दृष्टिवाद को पढ़ लेता है, वह भाषा के सब प्रयोगों से अभिज्ञ हो जाता है, इसलिए उसके बोलने में लिङ्ग आदि की स्खलना नहीं होती और जो वाणी के सब प्रयोगों को जानता है, उसके लिए कोई शब्द अशब्द नहीं होता। वह अशब्द को भी सिद्ध कर देता है। स्खलना प्रायः वही करता है, जो दृष्टिवाद का अध्ययन पूर्ण १-हारिभद्रीय टीका : (क) पत्र, 167 / (ख) पत्र, 197 // २-(क) अगस्त्य चूर्णि: .. सण्णिधी भणितो, तं कामयतीति—सण्णिधीकामो। (ख) जिनदास चूर्णि, पृष्ठ 220 : . सण्णिहिं कामयतीति सन्निहिकामी। ३-हारिभद्रीय टीका, पत्र 198 : अन्यतरामपि स्तोकामपि 'यः स्यात्' यः कदाचित्संनिधिं 'कामयते' सेवते / ४-(क) अगस्त्य चूर्णि : दिट्टिवादमधिज्जगं—दिद्विवादमज्झयणपरं / (ख) हारिभद्रीय टीका, पत्र 236 : दृष्टिवादमधीयानं प्रकृतिप्रत्ययलोपागमवर्णविकारकालकारकादिवेदिनम् / Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिक : एक समीक्षात्मक अध्ययन नहीं कर पाता / दृष्टिवाद को पढ़ने वाला बोलने में चूक सकता है, लेकिन जो उसे पढ़ चुका, वह नहीं चूकता-इस आशय को ध्यान में रख कर चूर्णिकार और टीकाकार ने इसे 'अधीयान' के अर्थ में स्वीकृत किया है। किन्तु इसका संस्कृत-रूप 'अभिज्ञक' होता है। 'अधीयान' के प्राकृत रूप–'अहिज्जंत' और 'अहिज्जमाण' होते हैं / 2 . तमेव (8 / 60) . अगस्त्य चूर्णि और टीका के अनुसार यह श्रद्धा का सर्वनाम. है और जिनदास चूर्णि के अनुसार पर्याय-स्थान का / आचारांग वृत्ति में इसे श्रद्धा का सर्वनाम माना है। चंदिमा ( 8 / 63) ___इसका अर्थ व्याख्याओं में चन्द्रमा है। किन्तु व्याकरण की दृष्टि से चन्द्रिका होता है।५ मय (6 / 1 / 1) मूल शब्द 'माया' है। छन्द-रचना की दृष्टि से 'मा' को 'म' और 'या' को 'य' किया गया है। १-(क) अगस्त्य चूर्णि : अधीतसव्ववातोगत विसारदस्स नत्यि खलितं / (ख) जिनदास चूर्णि, पृष्ठ 289 : अधिज्जियगहणेण अधिज्जमाणस्स वयणखलणा पायसो भवइ, अधिज्जिए पुण निरवसेसे दिद्विवाए सव्वपयोयजाणगत्तणेण अप्पमत्तणेण य वति विक्खलियमेव नत्थि, सव्ववयोगतवियाणया असद्दमवि सदं कुज्जा। २-पाइयसद्दमहण्णव, पृष्ट 121 / . ३-(क) अगस्त्य चूर्णि : तं सद्धं पवज्जासमकालिणिं अगुपालेज्जा। (ख) हारिभद्रीय टीका, पत्र 238 : तामेव श्रद्धामप्रतिपत्तितया प्रवर्द्धमानामनुपालयेत् / ४-अगस्त्य चूर्णि : चन्दिमा चन्द्रमाः। ५.-हेमशब्दानुशासन, 8 / 1 / 185 : चन्द्रिकायां मः / ६-(क) अगस्त्य चूर्णि : मय इति मायातो इति एत्थ आयारस्स ह्रस्सता। सहस्सता य लक्खणविज्जाए अत्थि जधा-ह्रस्वो णपुंसके प्रातिपदिकस्य पराते विसेसेण जधा एत्य 'व' 'वा' सहस्स। (ख) जिनदास चूर्णि, पृष्ठ 301: मयगहगेण मायागहणं मयकारहस्सत्तं बंधाणुलोमकयं / (ग) हारिभद्रीय टीका, पत्र 242 : मायातो-निकृतिरूपायाः। Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1. बहिरङ्ग परिचय : व्याकरण-विमर्श 37 सिग्धं ( 6 / 2 / 2) प्राकृत में श्लाघ्य के 'सग्घ' और 'सिग्घ' दोनों रूप बनते हैं। यह श्रुत का विशेषण है / अगस्त्यसिंह स्थविर ने 'सग्घं' का प्रयोग किया है। सूत्रकृतांग ( 3 / 2 / 16 ) में भी 'सग्छ' रूप मिलता है-'भुंज भोगे इमे सग्धे' / सुयत्थधम्मा ( 6 / 2 / 23) इसकी दो व्युत्पत्तियाँ-'जिसने अर्थ-धर्म सुना है' अथवा 'धर्म का अर्थ सुना है जिसने'—मिलती हैं। मुंचऽसाहू ( 6 / 3 / 11) ____ यहाँ 'असाहू' शब्द के अकार का लोप किया गया है। अगस्त्यसिंह स्थविर ने यहाँ समान की दीर्घता न कर कितंत ( कृत्तान्त—कृतो अन्तो येन ) की तरह 'पररूप' ही रखा है। जिनदास महत्तर ने ग्रन्थ-लाघव के लिए अकार का लोप किया है-ऐसा माना है।४ टीकाकार ने प्राकृतशैली के अनुसार 'अकार' का लोप माना है।" यहाँ 'गुण' शब्द का अध्याहार होता है-'मुंचसाधुगुणा' अर्थात् असाधु के गुणों को छोड़ / 6 वियाणिया ( 6 / 3 / 11) टीकाकार ने 'वियाणिया' का संस्कृत-रूप 'विज्ञापयति' किया है किन्तु इसका संस्कृत-रूप जो ‘विज्ञाय' होता है, वह अर्थ की दृष्टि से सर्वथा संगत है। १-(क) अगस्त्य चूर्णि : __ सुत्तं च सग्धं साघणीयमविगच्छति। (ख) हारिभद्रीय टीका, पत्र 247 : श्रुतम् अंगप्रविष्टादि श्लाध्यं प्रशंसास्पदभतम् / २-जिनदास चूर्णि, पृष्ठ 317 : सुयोत्यथम्मो जेहिं ते सुतत्थधम्मा गीयत्यित्ति वुत्तं भवइ, अहवा सुओ अत्यो धम्मस्स जेहिं ते सुतत्थधम्मा। ३-अगस्त्य चूर्णि : एत्थ ण समाणदीर्घता 'किन्तु पररूवं कतंत वदिति। ४-जिनदास चूर्णि, पृष्ठ 322 : गंथलाघवत्थमकारलोवं काऊण एवं पढिज्जइ जहा मुंच साधुत्ति / ५-हारिभद्रीय टीका, पत्र 254 / ६-अगस्त्य चूर्णि: . मुंचासाधु गुणा इति वयण सेसो। Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवकालिक : एक समीक्षात्मक अध्ययन ११-क्रम-भेद जा य बुद्धेहिंणाइन्ना ( 7 / 2 ) ___ श्लोक के इस चरण में असत्याऽमृषा का प्रतिपादन है। वह क्रम-दृष्टि से 'जा य सच्चा अवत्तव्वा' के बाद होना चाहिए था, किन्तु पद्य-रचना की अनुकूलता की दृष्टि से विभक्ति-भेद, वचन-भेद, लिङ्ग-भेद, क्रम-भेद हो सकता है, इसलिए यहाँ क्रम-भेद किया गया है। तरित्तु ते ओहमिणं दुरुत्तरं ( 6 / 2 / 23) यह पद 'खवित्त कम्म' के पश्चात् होना चाहिए था। किन्तु यहाँ पश्चाद्दीपक सूत्र रचना-शैली से उसका पहले उपन्यास किया गया है, इसलिए यह निर्दोष है / 2 १-(क) जिनदास चूर्णि, पृष्ठ 244 : चउत्थीवि जा अ बुद्धेहिं णाइनागहणणं असच्चामोसावि गहिता, उक्कमकरणे मोसावि गहिता एवं बन्धानुलोमत्यं, इतरहा सच्चाए, उवरि'मा भाणियब्वा, गंथाणुलोमताए विभत्तिभेदो होज्जा वयणभेदो वसु(थी) पुमलिंगभेदो व होज्जा अत्थं अमुचंतो। (ख) हारिभद्रीय टीका, पत्र 213 : या च 'बुद्धः' तीर्थकरगणधरैरनाचरिता असत्यामृषा आमंत्रण्याज्ञापन्या दिलक्षणा। २-जिनदास चूर्णि, पृष्ठ 317 : 'पुट्विं खवित्त कम्ममिति' वत्तव्वे कहं तरित्तु ते ओहमिणं दुरुत्तरंति पुव्वभणियं ? आयरिओ आह—पच्छादीवगो णाम एस सुत्तबंधोत्तिकाऊण न दोसो भवइ। Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५-भाषा की दृष्टि से . इसमें अर्धमागधी और जैन-महाराष्ट्रो आदि के संवलित प्रयोग हैं। 'हत्थं सि वा', 'पायंसि वा' ( ४।सू० 23 ) में अर्धमागधी के प्रयोग हैं। प्राकृत में सप्तमी के एकवचन के दो रूप बनते हैं—हत्थे, हत्थम्मि / ' 'हत्थंसि' यह अर्धमागधी में बनता है। 'जे' (2 / 3 ), 'करेमि' ( ४।सू०१० )-इनमें 'ओकार' के स्थान में जो ‘एकार' है वह अर्धमागधी का लक्षण है / मणसा ( 8 / 3), जोगसा ( 8 / 17 )- ये अर्धमागधी के प्रयोग हैं। प्राकृत में ये नहीं मिलते। बहवे ( 748 ), 'बहु' शब्द का प्रथमा का बहुवचन, जसोकामी ( 27 ), दोच्चे (४।सू० 12 ), तच्चे ( ४।सू० 13), सोच्चा (4 / 11), लभ्रूण ( 5 / 2 / 47 ), ऊसढं ( 5 / 2 / 25 ), संवुड ( 5 / 1 / 83 ), परिवुड (6 / 1 / 15 ), कड (4 / 20), कटु ( चू०१।१४ ) आदि-आदि तथा मकार के अलाक्षणिक प्रयोग, जिनका यथास्थान निर्देश किया गया है, ये सब अर्धमागधी के प्रयोग हैं, जिन्हें हेमचन्द्र ने अपने प्राकृतव्याकरण में आर्ष-प्रयोग कहां है। हियट्टयाए ( ४सू०१७ )—यहाँ स्वार्थ में 'या' और 'य' के स्थान में 'एकार' का प्रयोग है, जो प्राकृत-सिद्ध नहीं है। 'तेइंदिया' में 'ति' का 'ते' हुआ है / यह अर्धमागधी का प्रयोग है / कहीं शौरसेनी के लक्षण भी मिलते हैं, जैसे—अत्तवं (आत्मवान्) (8 / 48) यहाँ 'न' को 'म' किया है, जो शौरसेनी में होता है / 4 देशी या अपभ्रंश शब्दों के प्रयोग भी प्रचुर हैं। गावी (5 / 1 / 12) को पतञ्जलि 'गो' शब्द का अपभ्रंश बतलाते हैं। आचार्य हेमचन्द्र ने प्राकृत-भाषा-विशेष के शब्दों को 'देशी' माना है।६ 1. हेमशब्दानुशासन, 8 / 3 / 11 : डे म्मि / २-वही, 8 / 4 / 287 : अत एत्सौ पुसि मागध्याम् / ३-प्राकृत भाषाओं का व्याकरण, पैरा 438, पृष्ठ 651 / ४-हेमशब्दानुशासन, 8 / 4 / 264 : ___ मो वा। ५-पातञ्जल महाभाष्य, पस्पशाह्निक : एकस्यैव गोशब्दस्य गावी-गोणी-गोता-गोपोतलिकेत्यादयोऽनेकेऽपशब्दाः / ६-देशीनाममाला, 14 : देसविसेसपसिद्धीइ भण्णमाणा अणन्तया हुन्ति / तम्हा अणाइपाइयपयट्टभासाविसेसओ देसी // . Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६-शरीर-परामर्श दशवकालिक के दश अध्ययन हैं। उनमें पाँचवे के दो और नर्वे के चार उद्देशक हैं, ष अध्ययनों के उद्देशक नहीं हैं। चौथा और नवाँ अध्ययन गद्य-पद्यात्मक है, शेष सब पद्यात्मक हैं। उनका विवरण इस प्रकार है: अध्ययन श्लोक १-द्रुमपुष्पिका २–श्रामण्य-पूर्वक 11 ३–शुल्लकाचार ४-धर्म-प्रज्ञप्ति या षड्-जीवनिका 28 ५-पिण्डषणा ६-महाचार 7- वाक्यशुद्धि ८-आचार-प्रणिधि . ६-विनय-समाधि १०–सभिक्षु चूलिका १–रतिवाक्या २-विविक्तचर्या 16 . चूर्णिकार और टीकाकार पद्य-संख्या के बारे में एक मत नहीं हैं। नियुक्तिकार ने जैसे अध्ययनों के नाम, उनके विषय और अधिकारों का निरूपण किया है, वैसे ही इनकी श्लोक-संख्या का परिमाण बताया होता तो चर्णिकार और टीकाकार की दिशाएँ इतनी भिन्न नहीं होती। टीकाकार के अनुसार दशवैकालिक के पद्यों की संख्या 506 और चूलिकाओं की 34 है। जबकि चूर्णिकार के अनुसार क्रमशः 536 और 33 होती हैं। बहुत अन्तर पाँचवें और सातवें अध्ययन में है। पाँच अध्ययन के पहले उद्देशक की पद्यसंख्या 130, दूसरे की 48; सातवें अध्ययन की 56 और पहली चूलिका की 17 है / शास्त्रों के नाम निर्देश्य और निर्देशक दोनों के अनुसार होते हैं / ' दशवैकालिक के अध्ययनों के नाम प्राय: निर्देश्य के अनुसार हैं। इसलिए अध्ययन के नाम से ही विषय १-आवश्यक नियुक्ति, गाथा 141, वृत्ति पत्र 149 : निद्देश्यवशानिर्देशकवशाच्च द्विप्रकारमपि नैगमनयो निर्देशमिच्छति / ...... लोकोत्तरेऽपि निद्देश्यवशाद्, यथा-षड्जीवनिका तत्र हि षट्-जीवनिकाया निद्देश्याः। xxurr. 15. 0 5.9 Deo Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . 1. बहिरङ्ग परिचय : शरीर-परामर्श का बोध हो जाता है। नियुक्ति के अनुसार पहले अध्ययन ( द्रुमपुष्पिका ) का विषय ( अर्थाधिकार ) धर्म-प्रशंसा है। धर्म का पालन धृति के द्वारा ही किया जा सकता है, यह दूसरे अध्ययन ( श्रामण्य-पूर्वक ) का विषय है। तीसरे अध्ययन ( क्षुल्लकाचार ) में आचार का संक्षिप्त वर्णन है। चौथे अध्ययन (धर्म-प्रज्ञप्ति या षड्-जीवनिका ) में आत्मसंयम के उपाय और जीव-संयम का निरूपण है। पाँचवें अध्ययन ( पिण्डैषणा ) में भिक्षा की विशुद्धि, छठे ( महाचार कथा ) में विस्तृत आचार, सातवें ( वाक्य-शुद्धि ) में वचनविभक्ति, आठवें ( आचार-प्रणिधि ) में प्रणिधान, नवे ( विनय-समाधि ) में विनय और दसवें ( सभिक्षु ) में भिक्षु के स्वरूप का वर्णन है। जिसका चिन्तन संयम से डिगते हुए भिक्षु का आलम्बन बन सके, यह पहली चूलिका ( रतिवाक्या ) का विषय है। संयम में रत रहने से होने वाली गण-वृद्धि और धर्म के प्रयास का फल दूसरी चूलिका ( विविक्तचर्या ) में बतलाया है।' ___ व्याख्याकारों के अभिमत में अध्ययनों का क्रम विषय-क्रम के अनुसार हुआ है / नव-दीक्षित भिक्षु को धर्म में सम्मोह न हो, इसलिए उसे धर्म का महत्त्व बतलाना चाहिए—यह इस आगम का ध्रुव-बिन्दु है। धर्म का आचरण धृति-पूर्वक ही किया जा सकता है; धृति आचार में होनी चाहिए; आचार का स्वरूप२ षटकाय के जीवों की दया और पाँच महावत हैं—यह क्रमशः दूसरे, तीसरे और चौथे अध्ययन के क्रम का हेतु है। धर्माचरण का साधन शरीर है। वह खान-पान के बिना नहीं टिकता। आधार की आराधना करने वाला हिंसक पद्धति से न खाए, इसलिए धर्म-प्रज्ञप्ति के बाद पिण्डैषणा का १-दशवकालिक नियुक्ति, गाथा 20-24 : पढमे धम्मपसंसा सो य इहेव 'जिणसासणम्मित्ति / बिइए धिइए सक्का काउं जे एस धम्मोत्ति // तइए आयारकहा उ खुड्डिया आयसंजमोवाओ। तह जीवसंजमोऽवि य होइ चउत्थं मि अज्झयणे // भिक्ख विसोही तवसंजमस्स गुणकारिया उ पंचमए / छठे आयारकहा महई जोग्गा महयणस्स // वयण विभत्ती पुण-सत्तमम्मि पणिहाणमट्ठमे भणियं / णवमे विणओ दसमे समाणियं एस भिक्खुत्ति // दो अज्झयणा चूलिय विसीययंते थिरीकरणमेगं / बिइए विवित्तचरिया असीयणगुणाइरेगफला // २-अगस्त्य चूर्णि आयारो छक्कायदया पंचमहत्वयाणि / Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवकालिक : एक समीक्षात्मक अध्ययन क्रम प्राप्त होता है। पाँच महाव्रत मूल गुण हैं। उनकी सुरक्षा के लिए उनके बाद उत्तर गुण बतलाए गए हैं / ' पिण्डषणा के लिए जाने पर आचार के बारे में पूछा जा सकता है। आचार-निरूपण के लिए वचन-विभक्ति का ज्ञान आवश्यक है। वचन का विवेक आचार में प्रणिहित ( समाधियुक्त ) भिक्षु के ही हो सकता है। आचार में जो प्रणिहित होता है, वह विनययुक्त ही होता है—यह छठे से नवें तक का क्रम है। पूर्ववर्ती अध्ययनों में वर्णित गुणों से सम्पन्न व्यक्ति ही भिक्षु होता है, इसलिए सबके अन्त में 'सभिक्षु' अध्ययन है / 2 कर्मवश संयम में अस्थिर बने भिक्षु का पुनः स्थिरीकरण और उसका फल ये दो चूलिकाओं का क्रम है। इस प्रकार यह आगम 'धर्म उत्कृष्ट मंगल है' ( धम्मो मंगलमुक्किट्ठ-११) इस वाक्य से शुरू होता है और 'धर्म से सुरक्षित आत्मा सब दुःखों से मुक्त हो जाता है' ( सुरक्खिओ सव्वदुहाण मुच्चइ-चूलिका 2 / 16 ) इस वाक्य में पूर्ण होता है। १-अगस्त्य चूर्णि : तदणु धम्मे धितिमतो आयारट्टियस्स छक्कायदयापरस्स णासरीरो धम्मो भवति, पहाणं च सरीरधारणं पिंडोत्ति पिंडेसणावसरो। अहवा छज्जीवणियाए पंचमहन्वया भणिता ते मूलगुणा, उत्तरगुणा पिंडेसणा, कहं ? "पिंडस्स जा 'विसोधी०" ( व्य० भा० उ० गा०२८९) अतो छज्जीवणिकायाणंतरं पिंडेसणा पाणातिवातरक्खणं ताव . "उदओल्लेण हत्थेण दव्वीए भायणे" (अ०५, उ०१, गा०३३ ) एवमादि, मुसावदे "तबतेग वतितेण" ( अ०५, उ०२, गा०४४ ) अदिण्ण दागे "कवाडं णो पणोल्लेज्जा, ओग्गहंसे अजातिया" ( अ०५, उ०१, गा०१८ ) मेहुगे “ण चरेज वेससामंते" ( अ०५, उ०१, गा०९) पंचमे "अमुच्छितो भोयणम्मी" ( अ०५, उ०२, गा० 25 ) मुच्छा परिग्गहो सो निवारिज्जति। २-वही : सभिक्खुयं न केवल मणंतरेण णवहिं वि अज्झयणेहिं अभिसंबज्झति, कहं ? जो धम्मे धितिसंपण्णे आयारत्यो छक्कायदयावरो एसणासुद्धभोगी आयारकहणसमत्थो विचारियविसुद्धवक्को आयारेपणिहितो विणयसमाहियप्पा सभिक्खुत्ति सभिक्खुयं / Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1. बहिरङ्ग परिचय : शरीर-परामर्श दिगम्बर-परम्परा के साहित्य में दशवकालिक का विषय 'साधु के आचार-गोचर की विधि का वर्णन' बतलाया है।' १-(क) जयधवला, पृष्ठ 120 : साहूणमायारगोयरविहिं दसवेयालियं वण्णेदि। (ख) धवला, सत्प्ररूपणा (13131), पृष्ठ 97 : दसवेयालियं आयार-गोयर-विहिं वण्णेइ। (ग) अंगपण्णत्ति चूलिका, गाथा 24 : जदि गोचरस्स विहिं पिंडविसुद्धिं च जं परुवेदि / दसयालिय सुतं दहकाला जत्य संवुत्ता // Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७-छन्द-विमर्श __कुछ आधुनिक विद्वानों ने दशवकालिक का पाठ-संशोधन किया, उसके साथ-साथ छन्द की दृष्टि से भी पाठ-संशोधन कर डाला। अनुष्टुप् श्लोक के चरणों में सात या नौ अक्षर थे, वहाँ पूरे आठ कर दिए। डा० ल्यूमेन ने ऐसा प्रयल बड़ी सावधानी से किया है, पर मौलिकता की दृष्टि से यह न्याय नहीं हुआ। छन्दों के प्रति आज का दृष्टिकोण जितना सीमित है, उतना पहले नहीं था। वैदिक-काल में छन्दों के एक-दो अक्षर कम या अधिक भी होते थे। किसी छन्द के चरण में एक अक्षर कम होता तो उसके पहले 'निवृत्' और यदि एक अक्षर अधिक होता तो उसके साथ “भूरिक' विशेषण लगा दिया जाता। किसी छन्द के चरण में दो अक्षर कम होते तो उसके साथ 'विराज' और दो अक्षर अधिक होते तो 'स्वराज्य' विशेषण जोड़ दिया जाता / 2 आगम-काल में भी छन्दों के चरणों में अक्षर न्यूनाधिक होते थे। प्रस्तुत आगम में भी ऐसा हुआ है। अगस्त्यसिंह मूलपाठ के पूर्व श्लोक, वृत्त, सुत्त, इन्द्रवज्रा, उपेन्द्रवज्रोपजाति, इन्द्रोपवज्रा, वैतालिक और गाथा का उल्लेख करते हैं। _अनुष्टुप् के प्रत्येक चरण में आठ-आठ अक्षर होते हैं किन्तु इसके अनुष्टुप् श्लोकों के चरण सात, आठ, नौ और दस अक्षर वाले भी हैं। ____ अगस्त्यसिंह मुनि के अनुसार इसमें द्वयर्ध-श्लोक भी हैं। उन्होंने इसके समर्थन में लौकिक मत का उल्लेख किया है। धम्म-पद का प्रारम्भ द्वयर्ध-श्लोक से ही होता है। वैदिक-काल में भावों पर छन्दों का प्रतिबन्ध नहीं था। भावानुकूल 2, 3, 4, 5, 6, 7 और 8 चरणों के छन्दों का भी निर्माण हुआ है।४ / / १-ऋक् प्रातिशाख्य, पाताल 7 : ____एतन्न्यूनाधिका सैव निचूदूनाधिका भूरिक् / २-शौनक, ऋक् प्रातिशाख्य, पाताल 1712 : विराजेस्तूत्तरस्याहुाभ्यां या विषये स्थिताः / स्वराज्य एवं पूर्वस्य याः काश्चैवं गता ऋचः // ३-देखो-दशवकालिक (भा० 2) 5 // 2 // 15 का टिप्पण, पृष्ठ 302 / ४-आधुनिक हिन्दी-काव्य में छन्द-योजना, पृष्ठ 75 / Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1. बहिरङ्ग परिचय : छन्द-विमर्श इस सूत्र के दस अध्ययन तथा दोनों चूलिकाओं के सम्मिलित श्लोक 514 हैं / प्रत्येक श्लोक के चार-चार चरण हैं। चरणों की कुल संख्या 2056 हैं। इनमें अधिकांश चरण (लगभग 80 प्रतिशत) अनुष्टुप् छन्द के हैं और शेष अन्यान्य छन्दों के। अनुष्टुप् छन्दों के निबद्ध चरणों में भी एकरूपता नहीं है। कहीं अक्षरों की अधिकता है और कहीं न्यूनता / __ कई चरणों में एक अक्षर अधिक है, जैसे—१।२।२, 1 / 4 / 2, 4 / 26 / 1 / कई चरणों में दो अक्षर अधिक हैं, जैसे-६।२७।३, 8 / 5 / 1, 8 / 14 / 1 / कई चरणों में तीन अक्षर कम है, जैसे-८।२।१ आदि-आदि। कई चरणों में एक अक्षर कम है, जैसे३।४।१, 8 / 31 / 1 / कई चरणों में दो अक्षर कम है, जैसे-५।१।१२।१ / अनुष्टुप् छन्द के अतिरिक्त इस सूत्र में जाति, त्रिष्टुप् , जगती, वैतालिक, मधुमति, कामदा आदि छन्दों का प्रयोग भी हुआ है। १-विशेष विवरण के लिए देखो : * The Dasavaikalika Sutra : A Study, pp. 20-27 and pp. 101-106 Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८-उपमा और दृष्टान्त 1 // 3 218 29 जैन-आगम उपमाओं और दृष्टान्तों से भरे पड़े हैं / व्याख्या-ग्रन्थों में भी ये व्यवहृत हुए हैं। देश, काल, क्षेत्र, सभ्यता और संस्कृति के अनुरूप अनेक उपमाएँ और दृष्टान्त प्रचलित होते हैं। इनके व्यवहार से कथा-वस्तु में प्राण आ जाते हैं और वह सहजतया हृदयंगम हो जाती है। इस सूत्र में अनेक उपमाएँ और दृष्टान्त हैं। वे अनेक तथ्यों पर प्रकाश डालते हैं। उनका समग्न.संकलन इस प्रकार है : १-विहंगमा व पुप्फेसु २-पुप्फेसु भमरा जहा 14 ३-महुकारसमा 165 ४—मा कुले गंधणा होमो ५–वायाइद्धो व्व हडो ६–अंकुसेण जहा नागो 2 / 10 ७-महु-घयं व 5 / 1167 ८-निच्चुब्विग्गो जहा तेणो 5 / 2 / 36 ६-उउप्पसन्ने विमले व चंदिमा . 6068 १०—कुम्मो व्व अल्लीणपलीणगुत्तो 8 / 40 ११–भक्खरं पिव 8154 १२–विसं तालउडं जहा 8.56 १३—सूरे व सेणाए समत्तमाउहे 8 / 61 १४–रुप्पमलं व जोइणा 8.62 १५–कसिणब्भपुडावगमे व चंदिमा 8 / 63 १६-फलं व कीयस्स वहाय होइ 6 / 11 १७–सिहिरिव भास कुज्जा 6 / 1 / 3 १८-जो पावगं जलियमवक्कमेज्जा आसीविसं वा वि हु कोवएज्जा। जो वा विसं खायइ जीवियट्ठी एसोवमासायणया गुरूणं // 16 १६—जो पव्वयं सिरसा भेत्तुमिच्छे सुत्त व सीहं पडिबोहएज्जा। जो वा दए सत्तिअग्गे पहारं एसोवमासायणया गुरूणं // 1 / 8 Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . 1. बहिरङ्ग परिचय : उपमा और दृष्टान्त २०-कटं सोयगयं जहा २१–जलसित्ता इव पायवा २२–अग्गिमिवाहियगी २३-जत्तेण कन्नं व निवेसयंति २४-हयरस्सि-गयंकुस-पोयपडागाभूयाई २५-इंदो वा पडिओ छमं 26- देवया व चुया ठाणा २७–राया व रज्जपब्भट्ठो २८-सेट्ठि व्व कब्बडे छूढो २६-मच्छो व्व गले गिलित्ता ३०-हत्थी व बंधणे बद्धो ३१-पंकोसन्नो जहा नागो ३२–दाढद्धियं घोरविसं व नागं ३३-उवेतवाया व सुदंसणं गिरि ३४–आइन्नओ खिप्पमिव क्खलीणं ३५-जहा दुमस्स पु फेसु भमरो आवियइ रसं / न य पुप्फ किलामेइ सो य पीणेइ अप्पयं // एमए समणा मुत्ता... ३६–जहा कुक्कुडपोयस्स निच्चं कुललओ भयं / एवं खु बंभयारिस्स इत्थीविग्गहओ भयं // 37- जे यावि नागं डहरं ति नच्चा आसायए से अहियाय होइ / एवायरियं पि हु हीलयंतो नियच्छई जाइपहं खु मंदे // ३८–जहाहियग्गी जलणं नमसे नाणाहुईमंतपयाभिसित्तं / ___ एवायरियं उवचिट्ठएज्जा अणंतनाणोवगओ वि संतो॥ ३६-जहा निसंते तवणच्चिमाली पभासई केवलभारहं तु / ____ एवायरिओ सुयसीलबुद्धिए विरायई सुरमज्ञ व इंदो॥ ४०–जहा ससी कोमुइजोगजुत्तो नक्खत्ततारागणप रिवुडप्पा / खे सोहई विमले अब्भमुक्के एवं गणी सोहइ भिक्खुमज्झे // 2 / 3 6 / 2 / 12 6 / 3 / 1 6 / 3 / 13 चू०१।सू०१ चू० 112 चू० 1 / 3 चू० 1 / 4 चू० 115 चू० 16 चू० 17 चू० 18 चू० 1112 चू० 1117 चू० 2 / 14 m mm 1 / 2,3 8 / 53 114 1 / 11 1 / 14 1 / 15 Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवकालिक : एक समीक्षात्मक अध्ययन ४१-मूलाओ खंघप्पभवो दुमस्स खंधाओ पच्छा समुर्वेति साहा / साहप्पसाहा विरुहंति पत्ता तओ से पुष्पं च फलं रसो य // एवं धम्मस्स विणओ मूलं परमो से मोक्खो। ४२–दुग्गओ वा पओएणं चोइओ वहई रहं / एवं दुबुद्धि किच्चाणं वुत्तो वृत्तो पकुव्वई // 6 / 21,2 6 / 2 / 16 Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ह-परिभाषाएँ इस शीर्षक के अन्तर्गत मल आगम में प्रतिपादित परिभाषाओं को एकत्रित किया गया है / कई परिभाषाएँ स्पष्ट हैं और कई अस्पष्ट / वे अस्पष्ट परिभाषाएँ भी विषय की भावना को वहन करती हैं, अतः इन्हें छोड़ा नहीं जा सकता। दशवैकालिक में आई हुई परिभाषाएँ ये हैं : (1) अत्यागी वत्थगन्धमलंकारं इत्थीओ सयणाणि य। अच्छन्दा जे न भंजन्ति न से चाइ ति बुच्चइ // 212 (2) त्यागी जे य कन्ते पिए भोए लद्धे विपिढिकुम्वई / साहीणे चयइ भोए से हु चाइ त्ति वुच्चइ // 2 // 3 (3) त्रस जेसिं केसिंचि पाणाणं अभिक्कतं पडिक्कतं संकुचियं पसारियं रुयं भंतं तसियं पलाइयं आगइगइविनाया। 4 सू०९ (4) समुदान . समुयाणं चरे भिक्खू कुलं उच्चावयं सया। नीयं कुलमइक्कम्म ऊसढं नाभिधारए // 5 // 2 / 25 (5) अहिंसा ___अहिंसा निउणं दिवा सव्वभूएसु संजमो // 68 (6) गृही जे सिया सन्निहीकामे गिही पव्वइए न से // 6 // 18 (7) परिग्रह . मुच्छा परिग्गहो वुत्तो / 6 / 20 (8) संसार और मोक्ष . अगुसोओ संसारो पडिसोओ तस्स उत्तारो // चूलिका 213 () विहारचर्या अणिएयवासो समुयाणचरिया अन्नायउंछं पइरिक्कया य / अप्पोवही कलहविवज्जणा य विहारचरिया इसिणं पसत्था // चूलिका 2 / 5 (१०)प्रतिबुद्धजीवी जस्से रिसा जोग जिइंदियस्स धिइमओ सप्पुरिसस्स निच्चं / ___तमाहु लोए पडिबुद्धजीवी सो जीवइ संजमजीविएणं ॥चूलिका 2015 Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०-चूलिका - चूलिका का अर्थ शिखा या चोटी है। छोटी चूला ( चूड़ा ) को चूलिका कहा जाता है / यह इसका सामान्य शब्दार्थ है। साहित्य के क्षेत्र में इसका अर्थ मूल शास्त्र का उत्तर-भाग होता है। इसलिए चूलिका द्वय को 'दशवैकालिक' का 'उत्तर-तंत्र' कहा गया है / 2 तंत्र, सूत्र और ग्रन्थ ये एकार्थक शब्द हैं। आजकल सम्पादन में जो स्थान परिशिष्ट का है, वही स्थान प्राचीन काल में चूलिका का रहा है। मूल सूत्र में अवर्णित अर्थ का और वर्णित अर्थ का स्पष्टीकरण करना इसकी रचना का प्रयोजन है। अगस्त्यसिंह ने इसकी व्याख्या में इसे उक्त और अनुक्त दोनों प्रकार के अर्थों का संग्राहक लिखा है।५ टीकाकार ने संग्रहणी का अर्थ किया है-शास्त्र में उक्त और अनुक्त अर्थ का संक्षेप / शीलाङ्क सूरि चूलिका को अग्र बतलाते हैं / अग्न का अर्थ वही है जो 'उत्तर' १-अगस्त्य चूर्णि : अप्पाचूला चूलिया। २-(क) अगस्त्य चूर्णि : तं पुण चूलिका दुतं उत्तर तंतं जधा आयारस्स पंचचूला उत्तरमिति जं उवरिसत्थस्स। (ख) जिनदास चूर्णि, पृष्ठ 349 : तं पुण चूलियदुगं उत्तरं तंतं नायव्वं, जहा आयारस्स उत्तरं तंतं पंच चूलाओ, ___ एवं दसवेयालियस्स दोण्णि चूलाओ उत्तरं तंतं भवइ / ३-जिनदास चूर्णि, पृष्ठ 349 : . तंतंति वा सुत्तो 'त्ति वा गंथो त्ति वा एगट्ठा। ४-दशवैकालिक नियुक्ति, गाथा 359 : तं पुण उत्तरतंतं सुअगहिअत्थं तु संगहणी // ५-अगस्त्य चूणि : जं अवण्णितोव संगहत्थं सुतगहितत्थं—सुते जे गहिता अत्था तेसिं कस्सति फुडीकरणत्थं संगहणी। ६-हारिभद्रीय टीका, पत्र 269 : संग्रहणी तदुक्तानुक्तार्थसंक्षेपः / ७-आचारांग 21 वृत्ति, पत्र 289 : अनभिहितार्थाभिधानाय संक्षेपोक्तस्य च प्रपञ्चाय तवनभूताश्चतस्रश्चूडा उक्तानुक्तार्थसंग्राहिकाः प्रतिपाद्यन्ते / Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 51 1. बहिरङ्ग परिचय : चूलिका का है। आचारांग की व्याख्या में दशवकालिक की और दशवकालिक की व्याख्या में आचारांग की चूलिका का उल्लेख हुआ है / ' आगमों से सम्बन्ध रखने वाली चूलिकाएँ और संग्रहणी ग्रन्थ अनेक हैं / मूल आगम और संग्रहणी व चूलिका के कर्ता एक नहीं रहे हैं। संग्रहणी व चूलिका बहुधा भिन्नभिन्न कर्तृक प्रतीत होती हैं फिर भी मूल शास्त्र की जानकारी के लिए अत्यन्त उपयोगी होने के कारण उनको आगम के अंग रूप में स्वीकार किया गया है। परिशिष्ट-पर्व के अनुसार नन्द-साम्राज्य के प्रधान मंत्री शकडाल के द्वितीय पुत्र श्रीयक जैन मुनि बने / सम्वत्सरी पर्व आया / उस दिन उपवास करना जैन मुनि के लिए अनिवार्य है / वे उपवास करने में असमर्थ थे। उनकी बहिन यक्षिणी, जो साध्वी थी, को इसका पता चला। वह भाई के पास आई और ज्यों-त्यों प्रयत्न कर उनसे उपवास करवाया। श्रीयक उपवास में चल बसे। बहिन के मन में सन्देह हो गया कि वह मुनिघातिका है। आचार्य ने कहा-"तुम घातिका नहीं हो। तुमने समझाया था, किन्तु बलप्रयोग नहीं किया था।" फिर भी सन्देह नहीं मिटा। उस समय शासन-देवी उसे महाविदेह क्षेत्र में सीमंधर स्वामी के पास ले गई। सीमंधर स्वामी ने उसे निर्दोष बताया। केवली के मुख से अपने को निर्दोष सुन वह निःशंक हो गई। वहाँ से लौटते समय भगवान् सीमंधर ने उसे चार अध्ययन दिए। वह वापस अपने क्षेत्र में आई / श्रीसंघ ने उनमें से पिछले दो अध्ययन दशवकालिक के साथ जोड़ दिए।२ नियुक्ति की एक गाथा में इसका उल्लेख मिलता है। चूर्णिकार इसके बारे में मौन हैं। टीकाकार ने दूसरी १-(क) आचारांग 21 वृत्ति, पत्र 289 : ... यथा दशवैकालिकस्य चूडे / . (ख) हारिभद्रीय टीका, पत्र 269 : आचारपञ्चचूडावत् / २-परिशिष्ट-पर्व, 9 / 9 / 83-100 / ३-दशवकालिक नियुक्ति, गाथा 447 : आओ दो चूलियाओ आणीया जक्खिणीए अज्जाए। .सीमंधरपासाओ भवियाणविबोहणढाए // Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 52 दशवकालिक : एक समीक्षात्मक अध्ययन चूलिका के पहले श्लोक की व्याख्या में उक्त घटना का संकेत किया है।' किन्तु; उन्होंने नियुक्ति की उक्त गाथा का अनुसरण नहीं किया। इससे इस गाथा की मौलिकता संदिग्ध हो जाती है। १-हारिभद्रीय टीका, पत्र 278-279 : एवं च वृद्धवादः–कयाचिदार्ययाऽसहिष्णुः कुरगडुक प्रायः संयतश्चातुर्मासिकादावुपवासं कारितः, स तदाराधनया मृत एव, ऋषिघातिकाऽहमित्युद्विग्ना सा तीर्थकरं पृच्छामीति गुणावर्जितदेवतया नीता श्रीसीमन्धरस्वामिसमीपं, पृष्टो भगवान्, अदुष्टचित्ताऽघातिकेत्यभिधाय भगवतेमां चूडां माहितेति / Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११-दशवकालिक और आचारांग-चूलिका ___जिस प्रकार दशवकालिक के अन्त में दो चूलिकाएँ हैं, उसी प्रकार आचारांग के साथ पाँच चूलिकाएँ जुड़ी हुई हैं।' चार चूलिकाओं का एक स्कन्ध है / यही आचारांग का द्वितीय श्रुत-स्कन्ध कहलाता है। पाँचवीं चूलिका का नाम 'निशीथ' है / 2 नियुक्तिकार के अनुसार प्रथम चार चूलिकाएँ आचारांग के अध्ययनों से उद्धृत की गई हैं और 'निशीथ' प्रत्याख्यान-पूर्व की तृतीय वस्तु के आचार नामक बीसवें प्राभृत से उद्धृत की गयी है। दशवकालिक और आचारांग-चूलिका में विषय और शब्दों का बहुत ही साम्य है। संभव है इनका उद्धरण किसी एक ही शास्त्र से हुआ हो। दशवकालिक नियुक्ति के अनुसार धर्म-प्रज्ञप्ति ( चतुर्थ अध्ययन ) आत्म-प्रवाद ( सातवें ) पूर्व से, पिण्डैषणा ( पाँचवाँ अध्ययन ). कर्म-प्रवाद ( आठवें ) पूर्व से, वाक्यशुद्धि ( सातवाँ अध्ययन ) १-आचारांग नियुक्ति, गाथा 11 : णवबंभचेरमइओ अट्ठारसपयसहस्सिओ वेओ। हवइ य सपंचचूलो बहुबहुतरओ पयग्गेणं // . २-वही, गाथा 347 : आयारस्स' भगवओ चउत्थचलाइ एस निज्जुत्ती। पंचम चूल निसीहं तस्स य उवरि भणीहामि // ३-वही, गाथा 288-291 : बिइअस्स य पंचमए अट्ठमगस्स बिइयंमि उद्देसे / भणिओ पिण्डो सिज्जा वत्थं पाउग्गहो चेव // पंचमगस्स चउत्थे इरिया वणिजई समासेणं / छठुस्स य पंचमए भासजायं वियाणाहि // सत्तिक्कगाणि सत्तवि निज्जूढाई महापरिन्नाओ। सत्थपरिन्ना भावण निज्जूढाओ धुयविमुत्ती // आयारपकप्पो पुण पच्चक्खाणस्स तइयवत्यूओ / आयारनामधिजा वीसइमा पाहुडच्छेया // Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 54 दशवकालिक : एक समीक्षात्मक अध्ययन सत्य-प्रवाद ( छठे) पूर्व से और शेष सब अध्ययन प्रत्याख्यान ( नवे ) पूर्व की तीसरी वस्तु से उद्धृत किए गए हैं।' इस प्रकार नियुक्तिकार के अभिमत से दशवकालिक के तीन अध्ययनों को छोड़ शेष सभी अध्ययनों और निशीथ का निर्यहण नवें पूर्व की तीसरी वस्तु से हुआ है। दशवकालिक में आचार का निरूपण है और निशीथ में आचार-भंग की प्रायश्चित्त-विधि है। दोनों का विषय आपस में गुंथा हुआ है। पिण्डषणा और भाषाजात का समावेश आचारांग की पहली चूला में होता है / आचारांग के दूसरे अध्ययन ( लोक-विजय ) के पाँचवें उद्देशक और आठवें ( विमोह ) १-दशवकालिक नियुक्ति, गाथा 16,17 : (क) आयप्पवायपुव्वा निज्जूढा होइ धम्मपन्नत्ती। कम्मप्पवायपुव्वा पिंडस्स उ एसणा तिविहा॥ सच्चप्पवायपुव्वा निज्जूढा होइ वक्कसुद्धी उ। अवसेसा निज्जूढा नवमस्स उ तइयवत्थूओ // (ख) अगस्त्य चुर्णि : आयप्पवाय पुव्वा गाहा। सच्चप्पवात। बितिओ विय आदेसो। आयप्पवाय पुव्वातो धम्मपण्णत्ती निज्जूढा, सा पुण छ जीवणिया। कम्मप्पवायपुवाओ पिण्डेसणा। आह चोदगो कम्मप्पवायपुव्वे कम्मे वणिज्जमाणे को अवसरो पिण्डेसणाए ? गुरवो आणवेंति असुद्ध पिण्डपरिभोगो कारणं कम्मबंधस्स, एस अवकासो। भणियं च पण्णत्तीए"आहाकम्भ णं भंते ! भुंजमाणे कतिकम्म" (भग० 1 / 9 / 79) सुत्तालावओ विभासितव्वो // 5 // सच्चपवायाओ वक्कसुद्धी। अवसेसा अझयणा पच्चक्खाणस्स ततियवत्यूता। २-आचारांग नियुक्ति, गाथा 11, वृत्ति : . तत्र प्रथमा-"पिण्डेसण सेज्जिरिया, भासज्जाया य वत्थपाएसा / " उग्गहपडिमत्ति सप्ताध्ययनात्मिका, द्वितीया सत्तसत्तिक्काया, तृतीया भावना, चतुर्थी विमुक्तिः, पंचमी निशीथाध्ययनम् / Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1. बहिरङ्ग परिचय : दशवकालिक और आचारांग-चूलिका 55 अध्ययन के दूसरे उद्देशक से पिण्डैषणा अध्ययन उद्धृत किया गया है। छठे ( धूत ) अध्ययन के पाँचवें उद्देशक से भाषा-जात का निर्वृहण किया गया है।' दशवकालिक के पिण्डैषणा ( पाँचवें अध्ययन ) और वाक्यशुद्धि ( सातवें अध्ययन ) में तथा आचारांग-चूला के पिण्डैषणा ( प्रथम अध्ययन ) और भाषाजात ( चौथे अध्ययन ) में शाब्दिक और आर्थिक-दोनों प्रकार की पर्याप्त समता है। उसे देखकर सहज ही यह कल्पना हो सकती है कि इनका मूल स्रोत कोई एक है। इन दोनों आगमों की नियुक्तियों के कर्ता एक ही व्यक्ति हैं / 2 उनके अनुसार इनके मूल स्रोत भिन्न हैं / भाचारांग-चूला के अध्ययनों का स्रोत आचारांग और दशवकालिक के अध्ययनों का मोत पूर्व है। किन्तु नियुक्तिकार ने दशवकालिक के निर्वृहण के बारे में जो संकेत किया है, वह भी कम महत्त्वपूर्ण नहीं है। यदि उस दूसरे विकल्प को स्वीकार किया गाय तो दशवकालिक के इन दो अध्ययनों का स्रोत वही हो सकता है, जो आचारांगचूला के पिण्डैषणा और भाषाजात का है। पूर्व अभी उपलब्ध नहीं हैं, इसलिए निर्यहण के पहले पक्ष के बारे में कुछ कहा नहीं जा सकता है। दूसरे पक्ष की दृष्टि से परामर्श किया जाए तो दशवकालिक का अधिकांश भाग उपलब्ध अंगों व अन्य आगमों में प्राप्त हो सकता है। कुछ आधुनिक विद्वानों ने आचारांग-चूला के पिण्डैषणा और भाषाजात १-आचारांग नियुक्ति, गाथा 288-289 : बिइअस्स य पंचमए अट्ठमगस्स बिइयंमि उद्देसे / मणिओ पिण्डो ' // ................ छटस्स य पंचमए भासज्जायं वियाणाहि // ( विशेष जानकारी के लिए इन गाथाओं की वृत्ति देखें।) २-आवश्यक नियुक्ति, गाथा 84-86 : आवस्सयस्स दसकालियस्स तह उत्तरज्झमायारे / सूयगडे निज्जुत्तिं वोच्छामि तहा दसाणं च // कप्पस्स य निज्जुत्तिं ववहारस्सेव परमनिउणस्स। सूरिअपण्णत्तीए वोच्छं इसिमासिआणं च // एएसिं 'निज्जुत्तिं वोच्छामि अहं जिणोवएसेणं / आहरण हेउ- कारण- पय-निवहमिणं समासेणं // Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 56 दशवकालिक : एक समीक्षात्मक अध्ययन की रचना का आधार दशवकालिक को माना है और कुछ विद्वान् दशवकालिक के पिण्डैषणा और वाक्यशुद्धि की रचना का आधार आचारांग-चूला को मानते हैं / किन्तु नियुक्तिकार के मत से दोनों आधुनिक मान्यताएँ त्रुटि-पूर्ण हैं। उनके अनुसार आचार-चूला आचारांग के अर्थ का विस्तार है। विस्तार करने वाले आचार्य का नाम सम्भवत: उनको भी ज्ञात नहीं था। इसीलिए उन्होंने आचारांग-चूला को स्थविर-कर्तृक बताया है / 2 दशवैकालिक के निर्वृहक आचार्य शय्यम्भव भी चतुर्दशपूर्वी थे और आचारांग-चूला के कर्ता भी चतुर्दशपूर्वी थे।3।। भगवान् महावीर के उत्तरवर्ती आचार्यों में प्रभव, शय्यम्भव, यशोभद्र, सम्भूतविजय, भद्रबाहु और स्थूलिभद्र-ये छः आचार्य चतुर्दशपूर्वी हैं। इनमें आगमकर्ता के रूप में शय्यम्भव और भद्रबाहु-ये दो ही आचार्य विश्रुत हैं। शय्यम्भव दशवैकालिक के और भद्रबाहु छेद-सूत्रों के कर्ता माने जाते हैं। निशीथ आचारांग की पाँच चूलाओं में से एक है। इसलिए पाँचों चूलाओं का कर्ता एक ही होना चाहिए। चार चूलाओं को एक क्रम में पढ़ा जा सकता है। निशीथ को परिपक्व बुद्धि वाले को ही पढ़ने का अधिकार है।४ इसलिए सम्भव है कि प्रथम चार चूलाओं की एक श्रुत-स्कन्ध के रूप में और निशीथ की स्वतंत्र आगम के रूप में योजना की गई। , . १-देखिये-एनेल्स ऑफ भाण्डारकर ओरिएण्टल रिसर्च इन्स्टीच्युट, जिल्द 17, 1936 में प्रकाशित डॉ० ए० एम० घाटगे का "ए फ्यु पैरेलल्स इन जैन एण्ड बुद्धिस्ट वर्क्स" शीर्षक लेख। २-आचारांग नियुक्ति, गाथा 287 : थेरेहिष्णुग्गहट्ठा सीसहिअं होउ पागडत्थं च / आयारो अत्थो आयारंगेसु पविभत्तो॥ ३-वही गाथा, 287 वृत्ति : 'स्थविरैः' श्रुतवृद्धश्चतुर्दशपूर्वविद्भिर्नियूढानीति / ४-निशीथ-भाष्य चूर्णि, प्रथम विभाग, पीठिका, पृष्ठ 3 : आइल्लाओ चत्तारिचूलाओ कमेणेव अहिज्झति, पंचमी चूला आयारपकप्पो 'ति-वास-परियागस्स आरेण ण विज्जति, ति-वास-परियागस्स वि अपरिणामगस्स अतिपरिणामगस्स वा न विज्जति आधारपकज्यो पुण परिणामगस्स दिज्जति / Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1. बहिरङ्ग परिचय : दशवकालिक और आचारांग-चूलिका 57 पंचकल्प भाष्य और चूला के अनुसार निशीथ के कर्ता चतुर्दशपूर्वी भद्रबाहु हैं।' इसलिए आचाराङ्ग ( चार चूलाओं ) के कर्ता भी वे ही होने चाहिए। यदि हमारा यह अनुमान ठीक है तो आचाराङ्ग का द्वितीय श्रुतस्कन्ध दशवकालिक के बाद की रचना है / आचार्य भद्रबाहु ने, निक्तिकार के अनुसार, आचाराङ्ग के आधार पर प्रथम चार चूलाओं की रचना की है। किन्तु प्रथम चूला के दो अध्ययनों ( पिण्डैषणा और भाषाजात ) की रचना में दशवकालिक का अनुसरण किया है अथवा यों भी माना जा सकता है कि दोनों आचार्यों ने एक ही स्थान ( नवें पूर्व के आचार प्राभृत ) से इन अध्ययनों का विषय चुना, इसलिए इनमें इतना शाब्दिक और आर्थिक साम्य है। इस कल्पना के लिए कुछ आधार भी हैं। दोनों आगमों के इन अध्ययनों में विषय का निर्वाचन न्यूनाधिक मात्रा में हुआ है। आचाराङ्ग की पिण्डषणा में 'संखडि' का एक लम्बा प्रकरण है किन्तु दशवकालिक की पिण्डषणा में उसका उल्लेख तक नहीं है। इसी प्रकार वाक्यशुद्धि अध्ययन में भी बहुत अन्तर है / दोनों आगमों में प्राप्त अन्तर का अध्ययन करने के बाद भी आचाराङ्ग की प्रथम चूला के प्रथम पिण्डैषणा और भाषाजात के निर्माण में दशवकालिक का योग है—इस अभिमत को अस्वीकार नहीं किया जा सकता। दशवकालिक की रचना आचाराङ्ग-चूला से पहले हो चुकी थी, इसका पुष्ट आधार प्राप्त होता है। प्राचीन काल में आचाराङ्ग ( प्रथम श्रुतस्कन्ध ) पढ़ने के बाद उत्तराध्ययन पढ़ा जाता था, किन्तु दशवकालिक की रचना के पश्चात् वह दशवैकालिक के बाद पढ़ा जाने लगा। ... प्राचीन काल में 'आमगंध' ( आचाराङ्ग 1 / 2 / 5 ) का अध्ययन कर मुनि पिण्डकल्पी ( भिक्षाग्राही) होते थे। फिर वे दशवकालिक के पिण्डैषणा के अध्ययन के पश्चात् पिण्डकल्पी होने लगे। यदि आचाराङ्ग-चूला की रचना पहले हो गई होती तो दशवकालिक को यह * स्थान प्राप्त नहीं होता। इससे यह प्रमाणित होता है कि आचाराङ्ग-चूला की रचना दशवकालिक के बाद हुई है। १-(क) पंचकल्प भाज्य, गाथा 23 : आयार दसा कप्पो, ववहारो णवम पुव्वणीसंदो। चारित्त रखणट्ठा, सूयकडस्सुवरि ठवियाई॥ (ख) पंचकल्प चूर्णि: तेण भगवता आयारपकप्प दसाकल्प ववहारा य नवमपुत्व नीसंदभूता निज्जूढा। Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिक : एक समीक्षात्मक अध्ययन - दशवकालिक और आचरांग-चूलिका के तुलना-स्थल : शब्द और भाव-साम्य दशवकालिक आचारांग-चूलिका एगंतमवक्कमित्ता ...एगंतमवक्कमेत्ता तओ संजयामेव . अचित्तं पडिलेहिया। परिखावेज्जा। ... जयं परिटुवेज्जा, . (2 / 1 / 1 / 4) ........... / (5 / 1 / 81) छिवाडि, . तरुणियं व आमियं भज्जियं देंतियं न मे कप्पइ .'तरुणियं वा छिवाडि अणभिक्कंतभज्जियं पेहाए, अफासुयं अणेसणिज्जति मण्णमाणे लाभे संते णो पडिगाहेजा। : (2 / 1 / 1 / 5) पडियाइक्खे, तारिसं // (5 / 2 / 20) जं पुण जाणिज्जा, असणं वा (4) बहवे...... समणमाहणअतिहिकिवणवणीमए पगणिय पगणिय समुद्दिस्स पाणाई वा (4) जाव समारब्भ आसेवियं वा अफासुयं अणेसणिज्जति मण्णमाणे लाभे संते जाव णो पडिगाहिज्जा। (2 / 1 / 1 / 15) असणं पाणगं वा वि, खाइमं साइमं तहा। जं जाणेज्ज सुणेज्जा वा, दाणट्ठा पगडं इमं // पुण्णट्ठा , , // वणिमट्ठा , // समणट्ठा पगडं इमं // तं भवे भत्तपाणं तु, संजयाण अकप्पियं / दंतियं पडियाइक्खे, न मे कप्पइ तारिसं // (5 / 1 / 47,46,51,53,54) Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1. बहिरङ्ग परिचय : दशवकालिक और आचारांग-चूलिका 56 उद्देसियं कीयगडं, आहाकम्मियं वा, उद्देसियं वा, मीसजायं पूईकम्मं च आहडं। वा, कीयगडं वा, पामिच्चं वा, अच्छेज्जं वा, अज्झोयर पामिच्चं, ___ अणिसट्ठ वा, अभिहडं वा, आहट्टु दिज्ज माणं भुजेज्जा णो अभिसंधारिज्जा मीसजायं वज्जए॥ गमणाए। (5 // 1 / 55) (2 / 1 / 2 / 27) न चरेज्ज वासे . वासंते, महियाए व पडतीए। . महावाए व वायंते, तिरिच्छसंपाइमेसु वा / / (5 / 1 / 8) तिव्वदेसियं वासं वासमाणं पेहाए... णो..... पविसिज्ज वा णिक्खमिज्ज वा गामाणुगाम दूइज्जेज्जा। (2 / 1 / 3 / 38) ओवायं विज्जलं संक्रमेण विज्जमाणे विसमं . खा, परिवज्जए। न गच्छेज्जा, . परक्कमे // (5 / 1 / 4) ओवाओ वा, खाणू वा, कंटए वा, घसी वा, भिलूगा वा, विसमे वा, विज्जले... णो उज्जुयं गच्छेज्जा। (3 / 1 / 5 / 51) साणीपावारपिहियं अप्पणा __नावपंगुरे / कवाडं नो पणोल्लेज्जा, ओग्गहंसि अजाइया // (5 / 1 / 18) गाहावइकुलस्स दुवारबाहं कंटकबोंदियाए परिपिहियं पेहाए तेसिं पुवामेव उग्गहं अणणुन्नविय अपडिले हिय अपमज्जिय णो अवंगुणिज्ज वा, पविसिज्ज वा, णिक्खमिज्ज वा। (2 / 1 / 5 / 52) Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवकालिक : एक समीक्षात्मक अध्ययन समणं माहणं वा वि, समणं वा, माहणं वा, गामपिंडोलगं किविणं वा वणीमगं / वा, अतिहिं वा, पुव्वपविट्ठ पेहाए णो ते उवसंकमंतं भत्तट्ठा, उवाइक्कम्म पविसेज्ज वा ओभासेज्ज वा से पाणट्ठाए व संजए॥ तमायाय एगंतमवक्कमेज्जा अणावायमसंलोए (5 / 2 / 10) चिठ्ठज्जा, अह पुण एवं जाणेज्जातं अइक्कमित्तु न पविसे, पडिसेहिए वा दिन्ने वा तओ तंमि न चिट्ठ चक्खु-गोयरे / णियत्तिए संजयामेव पविसेज्ज वा ओभाएगतमवक्कमित्ता सेज्ज वा। तत्य चिट्ठज्ज संजए / (2 / 1 / 5 / 58) (5 / 2 / 11) पडिसेहिए व. दिन्ने वा, तओ तम्मि नियत्तिए / उवसंकमज्ज भत्तट्ठा, पाणट्ठाए व संजए / (5 / 2 / 13) नो गाहावइकुलस्स दुवारसाहं अवलंबिय 20 चिठ्ठज्जा.........णो गाहावइकुलस्स सिणाणस्स वा वच्चस्स वा संलोए सपडिदुवारे चिठ्ठज्जा णो गाहावइकुलस्स आलोयं वा थिग्गलं वा संधि वा दगभवणं वा बाहाउ पगिज्झिय......। (2 / 1 / 6 / 56) तत्थेव अग्गलं फलिहं दारं, कवाडं वा वि संजए। अवलंबिया न चिट्ठज्जा, गोयरग्गगओ मुणी // (5 / 2 / 6) पडिलेहेज्जा, भूमिभागं वियक्खणो। सिणाणस्स य वच्चस्स, संलोगं . परिवज्जए॥ (5 / 1 / 05) आलोयं थिग्गलं दारं, संधि दगभवणाणि य। चरंतो न विणिज्झाए, संकट्टाणं विवज्जए॥ (5 / 1 / 15) . Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1. बहिरङ्ग परिचय : दशवकालिक और आचारांग-चूलिका 61 पुरेकम्मेण हत्थेण, तहप्पगारेण पुरेकम्मकएणं हत्थेण वा दव्वीए भायणेण वा। (4) असणं वा (4) अफासुयं अणेसणिज्जं देंतियं पडियाइक्खे, जाव णो पडिगाहेज्जा, अह पुण एवं जाणेज्जा णो उदउल्लेणं..... एवं न मे कप्पइ तारिसं // ससरक्खे, मट्टिया, उसे, हरियाले, हिंगुलए, (5 / 1 / 32) मणोसिला, अंजणे, लोणे, गेरुय, वन्निय, (एवं) उदओल्ले ससिणिद्धे, सेढिय, सोरठिय, पिठ्ठ, कुक्कुस, उक्कुट्ठ ससरक्खे मट्टिया ऊसे। संस?ण / हरियाले हिंगुलए, (2 / 1 / 6 / 63) मणोसिला अंजणे लोणे // . (5 // 1 // 33) गेरुय वणिय सेडिय, सोरट्ठिय पिट्ठ कुक्कुस कए य। उक्कट्ठमसंसट्ठ संस? चेव - बोधव्वे // (5 / 1 / 34) अह पुण एवं जाणेज्जा, णो असंस?, संसट्ठ। तहप्पगारेण संस?ण हत्थेण वा ( 4 ) असणं वा ( 4 ) फासुयं जाव पडिगाहेज्जा। (2 / 1 / 6 / 64) असंसट्ठण हत्थेण, दव्वीए भायणेण' वा। दिज्जमाणं न इच्छेज्जा, पच्छाकम्मं जहिं भवे / / (5 / 1 / 35) संस?ण हत्थेण, दव्वीए भायणेण वा। दिज्जमाणं पडिच्छेज्जा, जं तत्थेसणियं भवे / / (5 / 1 / 66) Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 11.1 ttle दशवकालिक : एक समीक्षात्मक अध्ययन निस्सेणिं फलगं पीढं, से भिक्खू वा (2) जाव समाणे से ज्जं उस्सवित्ताणमारुहे / पुण जाणेज्जा असणं का (4) खंधसिं वा, मंचं कीलं च पासायं, थंभंसि वा, मंचंसि वा, मालंसि वा, पासा यंसि वा, हिम्मियतलंसि वा. अन्नयरंसि वा, समणट्ठाए व .. दावए / तहप्पगारं सि अन्तलिक्खजायंसि उवणिक्खित्ते (5 / 1 / 67) सिया, तहपगारं मालोहडं असणं वा (4) दुरूहमाणी पवडेज्जा, अफासुयं जाव णो पडिगाहिज्जा। . . . हत्यं पायं व लूसए। ___केवली बूया “आयाणमेयं"- अस्संजए पुढविजीवे वि हिसेज्जा, भिक्खुपडियाए पीढं वा, फलगं वा, णिस्सेणिं जे य तन्निस्सिया जगा॥ वा, उद्हलं वा, अवहट्ट उस्सविय आरुहेज्जा, (5 / 1 / 68) से तेत्थ दुरुहमाणे, पयलेज्ज वा पवडेज्ज वा, से तत्थ पयलमाणे वा पवडमाणे वा, हत्थं एयारिसे महादोसे, वा, पायं वा, बाहुं वा, ऊरु वा, उदरं वा, जाणिऊण महेसिणो। सीसं वा, अण्णयरं वा कायंसि इन्दियजायं तम्हा मालोहडं भिक्खं, लूसिज्ज वा, पाणाणि वा, भूयाणि वा, न पडिगेण्हंति संजया // जीवाणि वा सत्ताणि वा. अभिहणिज्ज वा. (5 / 1166) वत्तेज्ज वा, लेसिज्ज वा, संघसेज्ज वा, संघट्ट ज्ज वा, परियावेज्ज वा, किलामेज्ज वा,ठाणाओ ठाणं संकामेज्ज वा, तं तहप्पगारं मालोहडं असणं वा (4) लाभे संते णो पडिगाहेज्जा। __ (2 / 17 / 71,72) दगवारएण पिहियं, ...... मट्टियाओलित्तं तहप्पगारं असणं वा नीसाए पीढएण वा। (4) जाव लाभे संते णो पडिगाहेज्जा... लोढेण वा वि लेवेण, ......उभिदमाणे...णो पडिगाहेज्जा...। सिलेपेण व केणई॥ (2 / 17 / 74,75) तं च उभिदिया देज्जा , समणट्ठाए व दावए / पडियाइक्खे, न मे कप्पइ तारिसं // (5 / 1145,46) एण देंतियं Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1. बहिरङ्ग परिचय : दशवकालिक और आचारांग-चूलिका 63 असण पाणगं वा वि, से जं पुण जाणिज्जा, असणं वा (4) आउखाइमं साइमं तहा। कायपइठ्ठियं चेव एव अगणिकायपइठ्ठियं उदगम्मि होज निक्खित्तं, लाभे संते णो पडिगाहेज्जा, 'केवली बूया'उत्तिगपगगेसु वा॥ "आयाणमेयं' अस्संजए भिक्खूपडियाए (5 / 1156) अगणिं ओसक्किय 2 णिसिक्किय 2 ओहतं भवे भत्तपाणं तु, रिय 2 आहटु, दलएज्जा। अह भिक्खूणं संजयाण अकप्पियं। पुवोवदिट्ठा जाव णो पडिगाहेज्जा / देंतियं पडियाइक्खे, (2 / 11777) न मे कप्पइ तारिसं / / (5 / 1 / 60) असणं पाणग वा वि, खाइमं साइमं तहा। तेउम्मि होज निक्खित्तं, तं च संघट्टिया दए / (5 / 1 / 61) तं भवे भत्तपाणं तु, संजयाण अकप्पियं / देंतियं पडियाइक्खे, न मे कप्पइ तारिसं / (5 / 1 / 62) (एवं) उस्सक्किया ओसक्किया, उज्जालिया पज्जालिया निव्वाविया। उस्सिचिया - निस्सिचिया, ओवत्तिया ओयारिया दए / (1 / 63) तहेवुच्चावयं पाणं, ... . 'तंजहा उस्सेइमं वा, संसेइमं वा, अदुवा वारधोयणं। चाउलोदगं वा, अण्णयरं वा तहप्पगारं संसेइमं चाउलोदगं, पाणगजायं, अहुणाधोयं, अणंबिलं, अवोक्कंतं, विवज्जए॥ अपरिणयं.. णो पडिगाहेज्जा। (5 / 1175) (2 / 17 / 81) अहुणाधोयं Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिक : एक समीक्षात्मक अध्ययन जं जाणेज्ज चिराधोयं, ...."अह पुण एवं जाणेज्जा, चिराधोयं, मईए दसणेण वा। अंबिलं, वुक्कंतं, परिणयं, विद्धत्थं, फासुयं पडिपुच्छिऊण सोच्चा वा, जाव पडिगाहेज्जा। ज च निस्संकियं भवे // (2 / 17 / 82) (5 / 1 / 76) सालुयं वा विरालियं, ___ ......से ज्जं पुण जाणेज्जा, सालुयं वा, कुमुदुप्पलनालियं विरालियं, सासवणालियं वा, अण्णतरं वा मुणालियं सासवनालियं, तहप्पगारं आमगं, असत्यपरिणयं, अफासुर्य उच्छुखंडं अनिव्वुडं // जाव णो पडिगाहेज्जा। (5 / 2 / 18) (2 / 18 / 88) तरुणगंवा पवालं, रुक्खस्स तणगस्स वा। अन्नस्स वा वि हरियस्स, आमगं परिवज्जए / (5 / 2 / 16) ...... सिंगबेरं वा सिंगबेरचुनं वा अण्णंतरं ........................................ / वा तहप्पगारं आमगं असत्थपरिणयं अफासुयं ...............सिंगबेरं च, जाव णो पंडिगाहेज्जा। आमगं परिवज्जए॥ __ (2 / 1 / 8 / 86) (5 / 1170) ....से जं पुण जाणिज्जा, उप्पलं वा, उप्पलं पउमं वा वि, उप्पलं नालं वा, भिसं वा, भिसमुणालं वा, कुमुयं वा मगदंतियं / पोक्खलं वा, पोक्खलविभंगं वा, अण्णतरं अन्नं वा पुप्फ सच्चित्तं, वा तहप्पागारं जाव णो पडिगाहेज्जा। तं च संलुचिया दए / (2 / 1 / 8 / 66) (5 / 2 / 14) तं भवे भत्तपाणं तु, संजयाण अकप्पियं। देंतियं पडियाइक्खे, न मे कप्पइ तारिसं / / (5 / 2 / 15) ....................................... Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1. बहिरङ्ग परिचय : दशवैकालिक और आचारांग-चूलिका तहा कोलमणुस्सिन्नं, . . . . . से जं पुण जाणिज्जा, अत्थियं वा, वेलुयं कासवनालियं / कुंभिपक्कं, तिंदुगं वा, वेलुयं वा, कासवणालियं वा, तिलपप्पडगं नीम, अण्णतरं वा आमं असत्थपरिणयं जाव णो आमगं परिवज्जए॥ पडिगाहेज्जा। (5 / 2 / 21) (2 / 1 / 8 / 100) तहेव चाउलं पिट्ठ, वियडं वा तत्तनिव्वुडं / तिलपिट्ठ पूइ पिन्नागं, आमगं परिवज्जए / (5 / 2 / 22) तहेव फलमंथूणि, बीयमंथूणि जाणिया। बिहेलगं पियालं च, . आमगं परिवज्जए॥ __ (5 / 2 / 24) सिया एगइओ लद्धं, लोभेण विणिगृहई / मा मेयं दाइयं संतं, 'दंठ्ठणं .. सयमायए / (5 / 2 / 31) . . . . . से जं पुण जाणिज्जा, कणं वा कणकुंडगं वा, कणपूयलियं वा, चाउलं वा, चाउलपिठं वा, तिलं वा, तिलपिठ्ठ वा, तिलपप्पडगं वा, अन्नतरं वा, तहप्पगारं आमं असत्थपरिणयं जाव लाभे संते णो पडिगाहेज्जा। (2 / 1 / 8 / 101) ......से जं पुण मंथुजायं जाणिज्जा, तंजहाउंबरम, वा, णग्गोहम, वा, पिलुक्खुम) वा, आसोत्थमं| वा अण्णयरं वा तहप्पगारं मंथुजायं आमयं दुरुक्कं साणुवीयं अफासुयं णो पडिगाहेज्जा। (2 / 1 / 8 / 63) .....'मामेयं दाइयं संतं, दळूणं सयमायए, आयरिए वा जाव......णो किंचिवि णिगृहेज्जा। __ (2 / 1 / 10 / 113) सिया विविहं * भद्दगं - विवण्णं एगइओ लद्धं पाणभोयणं / भद्दगं भोच्चा, विरसमाहरे // (5 / 2 / 33) से एगइओ अण्णतरं भोयणजायं पडिगाहेत्ता, भद्दयं भद्दयं भोच्चा, विवन्नं विरसमाहरइ माइट्ठाणं सफासे, णो एवं करेज्जा। (2 / 1 / 10 / 114) Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिक : एक समीक्षात्मक अध्ययन बहु-अट्ठियं पुग्गलं, ....... से जं पुण जाणेज्जा, बहुअट्ठियं वा अणिमिसं वा बहु-कंटयं / मंसं वा, मच्छ वा बहुकंटयं अस्सि ‘खलु पडिगाहियंसि अप्पेसिया भोयणजाए बहुअत्थिय तिदुयं बिल्लं, उज्झियधम्मिए–तहप्पगारं बहुअट्ठियं वा उच्छ-खंड व सिंबलिं // मंसं वा, मच्छं वा बहुकंटगं लाभे संते जाव . (5 / 1 / 73) णो पडिगाहेज्जा। * अप्पे सिया भोयणजाए - (2 / 1 / 10 / 116) बहु - उभिय - धम्मिए। देतियं पडियाइक्खे, न मे कप्पइ तारिसं // ___ (5 / 1 / 74) चउण्हं खलु भासाणं. परिसंखाय पन्नवं / दोण्हं तु विणयं सिक्खे, दो न भासेज्ज सव्वसो॥ (71) अह भिक्खू जाज्जा चत्तारि भासज्जायाई तंजहा—सच्चमेगं पढमं भासजायं, बीयं मोसं, तइयं सच्चामोसं, जंणेव सच्चं णेव मोसं नेव सच्चामोसं असच्चामोसं णाम तं चउत्थं भासजातं / (2 / 4 / 17) जा य सच्चा अवत्तव्वा, सच्चामोसा य जा मुसा। जा य बुद्धेहिंऽणाइन्ना, न तं भासेज्ज पन्नवं // ....... 'जा य भासा सच्चा, जा य भासा __ मोसा....."तहप्पगारं भासं सावज्ज सकिरियं......णो भासेज्जा। (2 / 4 / 1 / 10) (7 / 2) तहेव काणं काणे त्ति, . पंडगं पंडगे त्ति वा। वाहियं वा वि रोगि त्ति, तेणं चोरे त्ति नो वए॥ (712) ....'णो एवं वएज्जा, तंजहा—गडी गंडी ति वा, कुट्ठी कुट्ठी ति वा,:." (2 / 4 / 2 / 16) Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1. बहिरङ्ग परिचय : दशवैकालिक और आचारांग-चूलिका 67 अज्जिए पज्जिए वा वि, ......'इत्थिं आमतेमाणे आमंतिए य अपडिअम्मो माउस्सिय त्ति य। सुणेमाणी नो एवं वएज्जा होली वा पिउस्सिए भाइणेज त्ति, गोली वा इत्थीगमेणं णेतव्वं / (2 / 4 / 1 / 14) धूए नत्तुणिए त्ति य॥ (15) हले हले त्ति अन्ने त्ति, भट्ट सामिणि गोमिणि / होले गोले वसुले त्ति, इत्थियं नेवमालवे // (16) नामधिज्जेण णं बूया, इत्थियं आमंतेमाणे आमंतिए य अपडिइत्थीगोत्तेण वा पुणो। सुणेमाणी एवं वएज्जा,—आउसो ति वा जहारिहमभिगिज्झ , भगिणि ति वा भगवइ ति वा..... आलवेज्ज लवेज्ज वा / / (2 / 4 / 1 / 15) (17) अज्जए पज्जए वा वि, बप्पो चुल्लपिउ ति य। माउला भाइणेज्ज त्ति, पुत्ते नत्तुणिय त्ति य॥ .......पुमं आमंतेमाणे आमंतिते वा अपडिसुणेमाणे णो एवं वएज्जा--होले ति वा गोले ति वा वसुले ति वा...... (2 / 4 / 1 / 12) ____ (718) हे हो हले त्ति अन्ने त्ति, भट्टा सामिय गोमिए। * होल गोल वसुले त्ति, पुरिसं नेवमालवे / / (716) Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 68 ___दशवकालिक : एक समीक्षात्मक अध्ययन नामधेज्जेण णं बूया, ..... "पुमं आमंतेमाणे आमंतिए वा अपडिपुरिसगोत्तेण वा पुणो। सुरेमाणे एवं वएज्जा अमुगे ति वा जहारिहमभिगिझ , आउसो ति वा आउसंतो ति वा......। आलवेज्ज लवेज्ज वा // (2 / 4 / 1 / 13) . (7 / 20) .....: 'णो एवं वएज्जा, णभोदेवे ति वा गज्जदेवे ति वा विज्जुदेवे ति वा पवुठ्ठदेवे ति वा निवुठ्ठदेवे ति वा... (2 / 4 / 1 / 16) तहेव मेहं व नहं व माणवं, न देव देव त्ति गिरं वएज्जा / सम्मुच्छिए उन्नए वा पओए, वएज्ज वा वुट्ठ बलाहए त्ति / / (752) अंतलिक्खे ति णं ब्या, गुज्माणुचरिय त्ति य। रिद्धिमंतं नरं दिस्स, रिद्धिमंतं ति आलवे // (753) ..... अंतलिक्खे ति वा गुज्झाणुचरिए ति वा संमुच्छिए ति वा णिवइए ति वा पओएवएज्ज वा वुठूबलाहगे ति वा.......। (2 / 4 / 1 / 17) सुकडे त्ति सुपक्के त्ति, सुछिन्ने सुहडे मडे। सुनिट्टिए सुलझें त्ति, सावज्जं वज्जए मुणी॥ (41) ..... 'णो एवं वएज्जा, तंजहा—सुकडे ति वा सुळुकडे ति वा साहुकडे ति वा कल्लाणे ति वा करणिज्जे ति वा एयप्पगारं भासं सावज्जं जाव णो भासेज्जा। (2 / 4 / 2 / 23) तहेव मणुस्सं पसुं, पक्खि वा वि सरीसिवं / थूले पमेइले वझे, पाइमे त्ति य नो वए / (7122) मणुस्सं वा गोणं वा महिसं वा मिगं वा पसुं वा पक्खिं वा सरीसिवं वा जलयरं वा से तं परिवूढ़कायं पेहाए णो एवं वएज्जा-थूले ति वा पमेइले ति वा वट्ठ ति वा वज्झे ति वा...... (2 / 4 / 2 / 25) Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1. बहिरङ्ग परिचय : दशवैकालिक और आचारांग-चूलिका 66 परिवुड्डू ति णं बूया, मणुस्सं जाव जलयरं वा से तं परिवूढकायं बूया उवचिए ति य। पेहाए एवं वएज्जा तं जहा परिवूढकाए ति संजाए पीणिए वा वि, वा, उवचियकाए ति वा..... चियमंस सोणिए ति वा...... महाकाए त्ति आलवे // (2 / 4 / 2 / 26) (723) तहेव गाओ दुज्झाओ, दम्मा गोरहग त्ति य। वाहिमा रहजोग त्ति, नेवं भासेज्ज पन्नवं / (724) __जुवं गवे त्ति णं बूया, धेj रसदय ति य। रहस्से महल्लए वा वि, वए संवहणे त्ति य॥ (7125) ....' 'गाओ पेहाए णो एवं वएज्जा , तंजहा—गाओ दोज्झाओ ति वा दम्मे ति वा गोरह ति वा वाहिम ति वा रहजोग्ग ति वा एयप्पगारं भासं सावज्जं जाव णो भासेज्जा। (2 / 4 / 2 / 27) ..... 'गाओ पेहाए एवं वएज्जा तंजहा -जुवंगवे ति वा घेणु ति वा रसवइ ति वा हस्से ति वा महल्लए ति वा महव्वए ति वा संवहणे त्ति वा एयपप्पगारं भासं असावज जाक अभिकंख भासेज्जा....... (2 / 4 / 2 / 28) ..... तहेव गंतुमुज्जाणाई पव्वयाई वणाणि य रुक्खा महल्ला पेहाए णो एवं वएज्जा, तंजहा–पासायजोग्गा ति वा गिहजोग्गा ति वा तोरणजोग्गा ति वा...। (2 / 4 / 2 / 29) तहेव गंतमुज्जाणं, पव्वयाणि वणाणि य। रुक्खा महल्ल पेहाए, * नेवं भासेज्ज पन्नवं / / (726) अल पासायखंभाणं, तोरणाणं गिहाण य। फलिहग्गल नावाणं उदगदाणणं / / (7 / 27) . . अल Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स दशवकालिक : एक समीक्षात्मक अध्ययन तहेव. गंतुमुज्जाणं, ...तहेव गंतुमुज्जाणाइ पव्वयाणि वणाणि पव्वयाणि वणाणि य। य रुक्खा महल्ला पेहाए एवं वएज्जा, रुक्खा महल्ल पेहाए, तंजहा-जातिमंता इवा दीहवट्टा ति वा पयायसाला ति वा विडिमसाला ति वा / एवं भासेज्ज पन्नवं // (2 / 4 / 2 / 30) (7 / 30) जाइमंता इमे रुक्खा , दीहवट्टा महालया। पयायसाला विडिमा, वए दरिसणि त्ति य / (131) तहा फलाइं पक्वाई, पायखज्जाइं नो वए। वेलोइयाइं टालाइं, वेहिमाइ त्ति नो वए / (7 / 32) ...... बहुसंभूया वणफला पेहाए तहावि ते णो एवं वएज्जा तंजहा—पक्का ति वा पायक्खज्जाति वा वेलोचिया ति वा टाला ति वा वेहिया ति वा एयपगारं भासं सावज्जं जाव णो भासेज्जा। (2 / 4 / 2 / 31) असंथडा बहुनिवट्टिमा वएज्ज भूयरूव त्ति इमे अंबा, फला। बहुसंभूया, वा पुणो / (7133) ..... . . . बहुसंभूया वणफला अंबा पेहाए एवं वएज्जा, तंजहा—असंथडा ति वा बहुणिवट्टिमफला ति वा बहुसंभूया ति वा भूयरुवि ति वा एयप्पगारं भासं असावज्ज जाव भासेज्जा। (2 / 4 / 2 / 32) ....... बहुसंभूयाओ ओसहीओ पेहाए तहावि ताओ णो एवं वएज्जा, तंजहापक्का ति वा नीलिया ति वा छवीया ति वा लाइमा ति वा भज्जिमा ति वा बहुखज्जा ति वा...... (2 / 4 / 2 / 33) तहेवोसहीओ पक्काओ, नीलियाओ छवीइय। लाइमा भज्जिमाओ त्ति, पिहुखज्ज त्ति नो वए। (7 / 34) Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1. बहिरङ्ग परिचय : दशवैकालिक और आचारांग-चूलिका 71 रूढा बहुसम्भूया, ....बहुसंभूयाओ ओसहीओ पेहाए थिरा ऊसढा वि य। तहावि एवं वएज्जा, तंजहा–रूढा ति वा गब्भियाओ पसूयाओ, बहुसंभूया ति वा थिरा ति वा ऊसढा ति वा गब्भिया ति वा पसूया ति वा ससारा ससाराओ त्ति आलवे / / ति वा... (7:5) (2 / 4 / 2 / 34) कोहं च माणं च मायं च लोभं च अणुवीइ णिट्ठाभासी णिसम्म भासी अतुरियभासी विवेगभासी.......। (2 / 4 / 2 / 38) तहेव सावज्जणुमोयणी गिरा, ओहारिणी जाय परोवघाइणी। से कोह लोह भयसा व माणवो, न हासमाणो वि मिरं वएज्जा। (754) सवक्कसुद्धिं समुपेहिया मुणी, गिरं च दुट्ठ परिवज्जए सया। मियं अदुट्ठ अणुवीइ भासए, सयाण मज्झे लहई पसंसणं / / (755) Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२-दशवकालिक का उत्तरवर्ती साहित्य पर प्रभाव दशवकालिक का उल्लेख श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों परम्पराओं में है। नंदी के अतिरिक्त तत्त्वार्थ भाष्य और गोम्मटसार में इसे अंग-बाह्य श्रुत कहा है। जयधवला के अनुसार यह सातवाँ अंग-बाह्य श्रुत है / सर्वार्थसिद्धि के अनुसार वक्ता तीन प्रकार के होते है–तीर्थंकर, गणधर और आरातीय आचार्य.। काल-दोष से आयु, मति और बल न्यून हुए, तब शिष्यों पर अनुग्रह कर आरातीय आचार्यों ने दर्शवकालिक आदि आगम रचे / घड़ा क्षीर-समुद्र के जल से भरा हुआ है, उसमें घड़े का अपना कुछ नहीं है, जो कुछ है वह क्षीर-समुद्र का ही है, इसलिए उस घड़े के जल में वही मिठास मिलती है जो क्षीर-समुद्र में होती है। इसी प्रकार जो आरातीय आचार्य किसी प्रयोजनवश पूर्वी या अंगों से किसी अंग-बाह्य श्रुत की रचना करते हैं, उसमें उनका अपना नया तत्त्व कुछ भी नहीं होता, जो कुछ होता है वह अंगों से गृहीत होता है इसलिए वह प्रामाणिक माना जाता है। दशवकालिक के श्लोकों का उत्तरवर्ती साहित्य में प्रचुर मात्रा में प्रयोग हुआ है। यापनीय संघ में दशवकालिक का अध्ययन होता था और वे इसे प्रमाण भी मानते थे। यापनीय संघ के आचार्य अपराजित सूरि ने भगवती आराधना की वृत्ति ( विजयोदया ) में दशवकालिक का प्रयोग किया है।४ १-(क) तत्त्वार्थ भाष्य, 1220 / (ख) गोम्मटसार (जीवकाण्ड), गाथा 367 : दसवेयालं च उत्तरायणं / २-कषायपाहुड (जयधवला सहित) भाग 1, पृष्ठ 53 / 25 : ३-सर्वार्थसिद्धि, श२० : आरातीयैः पुनराचार्यः कालदोषात्संक्षिप्तायुर्मतिबलशिष्यानुग्रहार्थ दशवै कालिकाद्युपनिबद्धम्। तत्प्रमाणमर्थतस्तदेवेदमिति क्षीरार्णवजलं घटगृहीतमिव। ४-मूलाराधना, आश्वास 4, श्लोक 333, वृत्ति, पत्र 611 / (क) दशवकालिकायाम् उक्तं णग्गणस्स य मुण्डस्स य दीहलोमणखस्स य / मेहुणादो विरत्तस्स किं विभूसा करिस्सदि // (ख) आचारप्रणिधौ भणितं प्रतिलिखेत् पात्रकम्बलं ध्रुवमिति / असत्सु पात्रादिषु कथं प्रतिलेखना ध्रुवं क्रियते। Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1. बहिरङ्ग परिचय : दशवकालिक का उत्तरवर्ती साहित्य पर प्रभाव 73 आवश्यक नियुक्ति, निशीथचूर्णि, उत्तराध्ययन बृहद्वृत्ति तथा उत्तराध्ययन चूर्णि में दशवकालिक की गाथाओं का उद्धरण अथवा उसका उपयोग विविध प्रसंगों पर हुआ है। उनमें से कुछ का दिग्दर्शन नीचे कराया जाता है : १-आवश्यक नियुक्ति, गाथा 141, वृत्ति पत्र 149 में दशवैकालिक के चतुर्थ अध्ययन “छज्जीवणिया" का "षड्जीवनिका" के रूप में उल्लेख हुआ है देखिए पृष्ठ 40 की पाद-टिप्पणी। २-निशीथ चूर्णि : दशवैकालिक के स्थल विभाग 52 / 5 पृष्ठ 1 111 518 106 163 125 126 <<<<<Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 7Y पृष्ठ W0 दशवकालिक : एक समीक्षात्मक अध्ययन ४-उत्तराध्ययन चूर्णि : दशवकालिक के स्थल . 1 // 34 चूर्णि 40 5 / 1124 2041 चर्णि 83 चू०१शसू०१८ 5 // 18 चूर्णि 137 5 // 1494 आदि-आदि। शय्यम्भव से पहले उत्तराध्ययन आचारांग के पश्चात् पढ़ा जाता था किन्तु दशवैकालिक की रचना के पश्चात् इस क्रम में परिवर्तन हुआ और वह दशवकालिक के पश्चात् पढ़ा जाने लगा। तेरापंथ-संघ में नव-दीक्षित मुनि को प्रारम्भ में यहीं सूत्र पढ़ाया जाता है। अन्य सम्प्रदायों में भी यही प्रथा है। दिगम्बर-सम्प्रदाय के अनुसार दशवकालिक आरातीय आचार्य-कृत अंग-बाह्य श्रुत है। परन्तु माना जाता है कि वह आज उपलब्ध नहीं है और जो उपलब्ध है, वह अप्रमाण है / १-(क) उत्तराध्ययन नियुक्ति, गाथा 3 / (ख) उत्तराध्ययन चूर्णि, पृष्ठ 2: / उत्तरझयणा पुव्वं आयारस्सुवरि आसि, तत्थेव तेसिं उवोद्घात संबंधाभिवत्थाणं, ताणि पुण जप्पभिई अज्जंसेज्जंभवेण मणगपितुणा मणगहियत्थाए णिज्झहियाणि दस अज्झयणाणि दसवियालिय मित्ति, तम्मि चरणकरणाणुयोगो वणिज्जति, तप्पभिई च तस्सुवरि ठवित्ताणि। . (ग) उत्तराध्ययन बृहद् वृत्ति, पत्र 5 : आचारस्योपर्यव–उत्तरकालमेव 'इमानी'ति हृदि विपरिवर्तमानतया प्रत्यक्षाणि, पठितवन्त इति गम्यते, 'तुः' विशेषणे, विशेषश्चायं यथा- शय्यम्भवं यावदेष क्रमः, तदाऽऽस्तु दशवैकालिकोत्तरकालं पठ्यन्त इति / २-जैन साहित्य का इतिहास, पृष्ठ 53 / Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३-तुलना ( जैन, बौद्ध और वैदिक ) ___ भारतीय जन-मानस जैन, बौद्ध और वैदिक–तीनों धाराओं से अभिषिक्त रहा है। इन तीनों में अत्यन्त नैकट्य न भी रहा, तो भी उनके अन्तर्दर्शन में अत्यन्त दूरी भी नहीं रही। यही कारण है कि उन तीनों में एक दूसरे का प्रतिबिम्ब मिलता है। कौन किस का ऋणी है, यह सहजतया नहीं कहा जा सकता। सत्य की सामान्य अभिव्यक्ति सब में है और इसी को हम तुलनात्मक अध्ययन कहते हैं। सत्य एक है। उसकी किसी के साथ तुलना नहीं होती। उसकी शब्दों में जो समान अभिव्यक्ति होती है, उसी की तुलना होती है। इस सूत्र के कतिपय पद्यों की बौद्ध तथा वैदिक साहित्य के पद्यों से तुलना होती है। कहीं-कहीं शब्दसाम्य और कहीं-कहीं अर्थसाम्य भी है। वह यों है-. धम्मो मंगलमुक्किट्ठ, यम्हि सच्चं च धम्मो च, अहिंसा संजमो तवो। अहिंसा संयमो दमो। . देवा वि तं नमसंति, स वे वंतमलो धीरो, सो थेरोति पवुच्चति // जस्स धम्मे सया मणो॥ (धम्मपद 16 / 6) (1 / 1) 'जहा दुमस्स पुप्फेसु, भमरो आवियइ रसं। न य पुष्पं किलामेइ, * सो य पीणेइ अप्पयं / / यथापि भमरो पुप्फं, वण्ण-गंधं अहेठयं / पलेति रसमादाय, एवं गामे मुनी चरे // (धम्मपद 4 / 6 ) (12) कहं नु कुज्जा सामण्णं, जो कामे न निवारए। पए पए विसीयंतो, संकप्पस्स वसं गओ / / (2 / 1) कतिहं चरेय्य सामनं, वित्तं चे न निवारए / पदे पदे विसीदेय्य, सङ्कप्पानं वसानुगो / ( संयुत्तनिकाय 1 / 1 / 17) Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 76 दशवकालिक : एक समीक्षात्मक अध्ययन धिरत्थु ते जसोकामी, धिरत्यु तं विसं वन्तं, जो तं जीवियकारणा। यमहं जीवितकारणा / वन्तं वन्तं इच्छसि पच्चावमिस्सामि, आवेडे, मतम्मे जीविता वरं // सेयं ते मरणं भवे / / (217) ( विसवन्त जातक 66) केश-रोम-नख-श्मश्रु-मलानि बिभृयाद् दतः / न धावेदप्सु मज्जेत त्रिकाले स्थण्डिलेशयः // ( भागवत 11 / 18 / 3) उद्देसियं . कीयगडं, नियागमभिहडाणि य। राइभत्ते सिणाणे य, गंधमल्ले य वीयणे // सन्निही गिहिमत्ते य, रायपिंडे किमिच्छए / संबाहणा दंतपहोयणा य, संपुच्छणा देहपलोयणा य // (32,3) धूवर्गत्ति वमणे य, वत्थीकम्म विरेयणे। अंजणे दंतवणे य, गायाभंगविभूसणे // (36) * अञ्जनाभ्यञ्जनोन्मर्दस्त्र्यवलेखामिषं मधु / स्रग्गन्धलेपालंकाराँस्त्यजेयुर्ये धृतव्रताः // ( भागवत 7 / 12 / 12) Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1. बहिरङ्ग परिचय : तुलना ( जैन, बौद्ध और वैदिक) 77 आयावयंति गिम्हेसु, ग्रीष्मे पंचतपास्तु स्याद्, वर्षास्वभावकाशिकः / हेमंतेसु अवाउडा। आर्द्रवासास्तु हेमन्ते, क्रमशो वर्धयंस्तपः // वासासु ( मनुस्मृति 6 / 23) पडिसंलीणा, संजया सुसमाहिया / / (3 / 12) स्थितप्रज्ञस्य का भाषा, समाधिस्थस्य केशवः / स्थितधीः किं प्रभाषेत, किमासीत व्रजेत किम्॥ (गीता 2 / 54) कहं चरे ? कहं चिट्टे, ? कहमासे ? कहं सए ? / कहं भुंजन्तो भासन्तो, ? पावं कम्मं न बंधई ? // (47) जयं चरे जयं चिठे, जयमासे जयं सए। जयं भुजन्तो भासन्तो, पावं कम्मं न बंधई / / यतं चरे यतं ति? यतं अच्छे यतं सये / यतं सम्मिञ्जये भिक्खू, यतमेनं पसारए / ( इतिवृत्तक 12) .. . (48) सव्वभूयप्पभूयस्स सम्मं भूयाइ पिहियासवस्स पावं कम्मं न पासओ। दंतस्स, बंधई // योगयुक्तो विशुद्धात्मा, विजितात्मा जितेन्द्रियः / सर्वभूतात्मभूतात्मा कुर्वन्नपि न लिप्यते // .. . (गीता 57) . .. (46) Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 78 दशवैकालिक : एक समीक्षात्मक अध्ययन पढमं नाण तओ दया, न हि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते / एवं चिट्ठइ सव्वसंजए। (गीता 4 / 38) अन्नाणी किं काही ? किं वा नाहिइ छेय पावगं ? // (4 / 10) कालेण निक्खमे भिक्खू, कालेण य पडिक्कमे / अकालं च विवज्जेत्ता, काले कालं समायरे // (5 / 2 / 4) काले / निक्खमणा साधु, नाकाले * साधु निक्खमो। अकालेनहि निक्खम्म, एककंपि बहूजनो // ___. ( कोशिक जातक 226 ) . सव्वे जीवा वि इच्छन्ति, जीविडं न मरिज्जिउं। तम्हा पाणवहं घोरं, निग्गंथा बज्जयंति णं॥ (6 / 10) सब्बा दिसा अनुपरिगम्म चेतसा, नेवज्झगा पियतरमत्तना क्वचि / एवं पियो पुथु अत्ता परेसं, तस्मा न . हिंसे परमत्तकामो // ( संयुत्तनिकाय 1 / 3 / 8 ) उवसमेण हणे कोहं, अक्कोधेन जिने कोधं / (धम्मपद 17 / 3) (8 / 38) थंभा व कोहा व मयप्पमाया, गुरुस्सगासे विणयं न सिक्ख / सो चेव उ तस्स अभूइभावो, फलं व कायस्स वहाय होइ / / . (11) यो सासनं अरहतं अरियानं धम्मजीविनं / पटिक्कोसति दुम्मेधो दिढेि निस्साय पापिकं / फलानि कट्टकस्सेव अत्तघाय फुल्लति // (धम्मपद 12 / 8 ) Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1. बहिरङ्ग परिचय : तुलना (जैन, बौद्ध और वैदिक) 76 तहेव असणं पाणगं वा, अन्नानमथो पानानं, विविहं खाइमसाइमं लभित्ता। खादनीयानमथो पि वत्थानं / होही अट्टो सुए परे वा, लद्धा न सन्निधिं कयिरा, न च परित्तसे तानि अलभमानो // तं न निहे न निहावए जे (सुत्तनिपात 52 / 10) स भिक्खू // (108) न य बुग्गहियं कहं कहेज्जा, न य कुप्पे निहुइंदिए पसंते। संजमधुवजोगजुत्ते , उवसंते अविहेडए जे स भिक्खू // .(10 / 10) न च कत्थिता सिया भिक्खू, न च वाचं पयुतं भासेय्य / पागन्भियं न सिक्खेय्य, कथं विग्गाहिकं न कथयेय्य // ( सुत्तनिपात 52 / 16) : जो सहइ हु गामकंटए, अक्कोसपहारतज्जणाओ य / भयभेरवसद्दसंपहासे , समसुहदुक्खसहे य जे . स भिक्खू // (10 / 11) भिक्खुनो विजिगुच्छतो, भजतो रित्तमासनं / रुक्खमूलं सुसानं वा, पब्बतानं गुहासु वा // उच्चावचेसु, सयनेसु, कीवन्तो तत्थ भेरवा / ये हि भिक्खु न वेधेय्य, निग्घोसे सयनासने // ( सुत्तनिपात 54 / 4,5) हत्थसंजए पायसंजए, वायसंजए संजइंदिए / अज्झप्परए सुसमाहियप्पा, सुत्तत्थं च वियाणई जे स भिक्खू // (10 / 15) हत्थसयतो . पादसंयतो, वाचाय संयतो संयतुत्तमो / अज्झत्तरतो समाहितो, एको सन्तुसितो तमाहु भिक्खू // (धम्मपद 25 // 3) Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 80 दशवकालिक : एक समीक्षात्मक अध्ययन अलोल भिक्खू न रसेसू गिद्धे, चक्खूहि नेव. लोलस्स, उंछं चरे जीविएनाभिकखे। गामकथाय आवरये सोतं / / रसे . च नानुगिज्झेय्य, इड्ढि च सक्कारण पूयणं च, न च ममायेथ किंचि लोकस्मि / चए ठियप्पा अणिहे जे ( सुत्तनिपात 52 / 8) स भिक्खू // (10 / 17) Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवकालिक : एक समीक्षात्मक अध्ययन अध्याय 2 अन्तरंग परिचय Page #111 -------------------------------------------------------------------------- _ Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १-साधना समग्र-दर्शन : ___ नियुक्ति आदि व्याख्याओं के अनुसार हम दशकालिक के विषय की मीमांसा कर चुके हैं। अब स्वतंत्र दृष्टि से इस पर विचार करेंगे। परिच्छेदों के क्रम से यह अनेक भागों में बँटा हुआ है। पर समग्र-दृष्टि से देखा जाए तो यह अहिंसा का अखण्ड दर्शन है। अहिंसा परम धर्म है। शेष सब महाव्रत उसी के प्रकार हैं। भगवान् महावीर के आचार का केन्द्र-बिन्दु अहिंसा है। उन्होंने भिक्षु के लिए आचार और अनाचार, विधि और निषेध तथा उत्सर्ग और अपवाद का जो रूप स्थिर किया, उसका मौलिक आधार अहिंसा है / कुछ विधि-निषेध संयमी जीवन की सुरक्षा और कुछ प्रवचन-गौरव ( संघीय महत्त्व ) की दृष्टि से भी किए गए हैं, किन्तु वे भी अहिंसा की सीमा से परे नहीं हैं। जो निषेध अहिंसा की दृष्टि से किए गए हैं, उनका विधान नहीं किया, उनको अनाचार की कोटि में ही रखा। किन्तु जिनका निषेध तितिक्षा की दृष्टि से किया, उनका विशेष स्थिति में विधान भी किया। ___अहिंसा धर्म का एक रूप है और उसका दूसरा रूप है परीषह-सहन / दूसरे रूप की अभिव्यक्ति 'देहे दुक्खं महाफलं' ( 8 / 27 )—देह में दुःख उत्पन्न होता है, उसे सहन करना महान् फलदायी है—इन शब्दों में हुई है। स्वीकृत मार्ग से. च्युत न होने और संचित कर्म-फल को नष्ट करने के लिए भगवान ने परीषह-सहन का उपदेश दिया / " १-अगस्त्य चूर्णि : अहिंसा परमो धम्मो, सेसाणि महत्वताणि एतस्सेव अत्थविसेसगाणि / २-दशवकालिक, 5 // 2 // 3 / ३-वही, 5 / 2 / 12 / ४-सूत्रकृतांग, 112 / 1 / 14 वृत्ति : अविहिंसामेव पव्वए, अणुधम्मो मुणिणा पवेदितो // अनुगतो—मोक्षं प्रत्यनुकूलो धर्मोऽनुधर्मः असावहिंसालक्षणः, परीषहोपसर्गसहनलक्षणश्च धर्मो 'मुनिना' सर्वज्ञेन 'प्रवेदितः' कथित इति / ५-तत्त्वार्थसूत्र, 9 / 8 : मार्गाच्यवननिर्जरार्थं परिसोढव्याः परीषहाः / Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवकालिक : एक समीक्षात्मक अध्ययन विनय के बिना ज्ञान, दर्शन और चारित्र की आराधना सम्पन्न नहीं हो सकती और धर्म-शासन की व्यवस्था नहीं बन सकती, इसलिए भगवान् ने विनय को धर्म का मूल कहा है।' साधना का उत्कर्ष अप्रमाद से होता है। अप्रमाद के मुख्य साधन हैं—स्वाध्याय और ध्यान / नींद, अट्टहास और काम-कथा—ये उनके बाधक हैं, इसलिए भगवान् ने कहा-नींद को बहुमान मत दो, अट्टहास मत करो और काम-कथा मत करो। निष्कर्ष की भाषा में—(१) अहिंसा और उसके विविध पहलू सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह आदि ; (2) संयमी जीवन की सुरक्षा ; ( 3 ) प्रवचन-गौरव ; (4) परीषह-सहन ; (5) विनय और (6) साधना का उत्कर्ष—ये मूलभूत दृष्टियाँ हैं। इनके द्वारा भगवान महावीर के आचार-निरूपण की यथार्थता देखी जा सकती है। सारे विधि-निषेधों को एक दृष्टिकोण से देखने पर जो असमंजसता आती है, वह समग्र-दृष्टि से देखने पर नहीं आती। आचार-दर्शन की ये दृष्टियाँ वे रेखाएँ हैं, जिनका एकीकरण निग्रन्थ के जीवन का सजीव चित्र बन जाता है। साधना के उत्कर्ष का दृष्टिकोण : ___ साधना का उत्कर्ष पाए बिना साध्य नहीं सधता। सिद्धि का मतलब है साधना का उत्कर्ष। आत्मार्थी का साध्य मोक्ष होता है। उसका साधन है धर्म / उसकी साधना के तीन अंग हैं-अहिंसा, संयम और तप। इनसे तादात्म्य पाने का नाम 'योग' है। आचार्य हरिभद्र ने मोक्ष से जोड़ने वाले समूचे धर्म-व्यापार को योग माना है। आचार्य हेमचन्द्र में मोक्ष के उपायभूत सम्यक ज्ञान, दर्शन और चारित्र को योग कहा है। १-दशवकालिक, 9 / 2 / 2 : एवं धम्मस्स विणओ मूलं / २-वही, 8141 / ३-योगबिन्दु, 31 : मोक्खेण जोयणाओ, जोगो सव्वो वि धम्म-वावारो।" ४-(क) योगशास्त्र : मोक्षण योजनाद् योगः / (ख) अभिधानचिंतामणि, 1177 : मोक्षोपायो योगो ज्ञानश्रद्धानचरणात्मकः / Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . 2. अन्तरङ्ग परिचय : साधना 85 योग शब्द युज धातु से बनता है। उसके दो अर्थ हैं—जोड़ना और समाधि / पहले सम्बन्ध होता है फिर समाधि। मन आत्मा के साथ जुड़ता है, फिर स्थिर होता है। इसीलिए कहा है—मन, वाणी और कर्म को श्रमण-धर्म से जोड़ो। जो श्रमण-धर्म से युक्त है, उसे अनुत्तर-अर्थ ( समाधि ) की प्राप्ति होती है। महर्षि पतंजलि ने योग के आठ अंगों का निरूपण किया है / 2 जैन-परम्परा में प्राणायाम को चित्त-स्थिरता का हेतु नहीं माना गया है। इसके अतिरिक्त शेष सात अंग अपनी पद्धति से मान्य रहे हैं। श्रमण-धर्म की साधना का प्रारम्भ पाँच महाव्रतों के अंगीकार से होता है। उनका चौथे अध्ययन में व्यवस्थित निरूपण हुआ है। पतंजलि के शब्दों में ये यम हैं। शौच, सन्तोष, तप, स्वाध्याय और आत्मप्रणिधान का आठवें अध्ययन में बड़ी सूक्ष्म-दृष्टि से निरूपण हुआ है।५ जैन-दृष्टि भाव-शौच को ही प्रधानता देती है और बाह्य-शौच वही मान्य है, जो भाव-शौच के अनुकूल हो / 6 इसी प्रकार उसे आत्मा और १-दशवैकालिक, 8 / 42 / २--पातंजल योगदर्शन, 2029 : यमनियमासनप्राणायामप्रत्याहारधारणाध्यानसमाधयोऽष्टावङ्गानि / ३-(क) पातंजल योगदर्शन, 1134 यशोविजयजी कृत वृत्ति : अनेकान्तिकमेतत्, प्रसह्य ताभ्यां मनो व्याकुलीभावात् 'ऊसासं ण णिरुंभई' इत्यादि पारमर्षेण तन्निषेधाच्च, इति / (ख) योगशास्त्र, 6 / 4.: तन्नाप्नोति मनः स्वास्थ्य, प्राणायामैः कदर्थितम् / प्राणस्यायमने पीडा, तस्यां स्यात् चित्तविप्लवः // (ग) आवश्यक नियुक्ति, गाथा 1520 वृत्ति : भगवत्प्रवचने तु व्याकुलताहेतुत्वेन निषिद्ध एव श्वासप्रश्वासरोधः... प्राणारोध पलिमन्थस्यानतिप्रयोजनत्वात् तदुक्तं—'ऊसासं ण णिरंभई' / ४-पातंजल योगदर्शन, 2 // 30,31: तत्राहिंसासत्यास्तेयब्रह्मचर्यापरिग्रहा यमाः। जातिदेशकालसमयानवच्छिन्ना सार्वभौमा महाव्रतम् / ५-वही, 2 // 32 : शौचसन्तोषतपःस्वाध्यायेश्वरप्रणिधानानि नियमाः / ६-वही, 2032 यशोविजयजी कृत वृत्ति : . मावशौचानुपरोध्येव द्रव्यशौचं बाह्यमादेयमिति तत्त्वदर्शिनः / Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिक : एक समीक्षात्मक अध्ययन ईश्वर का मौलिक भेद मान्य नहीं है / आत्मा का विकसित रूप ही परमात्मा है। जो आत्मा का प्रणिधान है, वही ईश्वर-प्रणिधान है। ध्यान करने के लिए काय-व्यत्सर्ग ( शरीर के स्थिरीकरण ) को प्रमुखता दी है। आसन करना जैन-परम्परा को इष्ट रहा है। पतंजलि जिसे 'प्रत्याहार' कहते हैं, उसे जैनागम की भाषा में इन्द्रिय-निग्रह कहा गया है / 2 धारणा का व्यापक रूप यतना है।3 संयम के लिए जो प्रवृत्ति की जाए, उसी में उपयुक्त (तच्चित्त) होना, दूसरे सारे विषयों से मन को हटा कर उसी में लगा देना यतना है।४ जैन-साहित्य में समाधि शब्द का प्रयोग प्रचुर मात्रा में हुआ है। किन्तु उसका अर्थ पतंजलि के समाधि शब्द से भिन्न है।" उसकी तुलना शुक्ल-ध्यान से होती है। समाधि या ध्यान का चरम रूप शैलेशी अवस्था है।६ इस प्रकार प्रस्तुत आगम में योग के बीज छिपे पड़े हैं। आत्म-विकास के लिए इन्हें विकसित करना आवश्यक है। जो श्रमण इस ओर ध्यान नहीं देता, उसके विशिष्ट ज्ञान का उदय होते-होते रुक जाता है / जो श्रमण बार-बार स्त्री, भक्त, देश और राज-सम्बन्धी कथा करता है, विवेक और व्युत्सर्ग से आत्मा को भावित नहीं करता, रात के पहले और पिछले प्रहर में धर्म-जागरिका नहीं करता और शुद्ध भिक्षा की सम्यक गवेषणा नहीं करता, उसके विशिष्ट ज्ञान का उदय होते-होते रुक जाता है / " विशिष्ट ज्ञान का लाभ उसे होता है, जो विकथा नहीं करता, विवेक और व्युत्सर्ग से आत्मा को भावित करता है तथा पूर्व-रात्रि और अपर-रात्रि में धर्म-जागरण पूर्वक जागता है और शुद्ध भिक्षा की सम्यक् गवेषणा करता है। प्रस्तुत आगम में इस भावना का बहुत ही सूक्ष्मता से निरूपण हुआ है। इसके लिए पाद-टिप्पण में निर्दिष्ट स्थल द्रष्टव्य हैं। १-समाधिशतक, 31 : . यः परात्मा स एवाहं योऽहं स परमस्ततः / अहमेव मयोपास्यो नान्यः कश्चिदिति स्थितिः // २-दशवकालिक, 3 / 11 / ३-वही, 4 / 8 / ४-पातंजल योगदर्शन, 331 : देशबन्धश्चित्तस्य धारणा। ५-वही, 3 / 3 : तदेवार्थमात्रनिर्भासं स्वरूपशून्य मिव समाधिः / ६-दशवैकालिक, 4 / 24 / ७-स्थानांग, 4 / 2 / 284 / ८-वही, 4 / 2 / 284 / / ९-दशवकालिक ( भा० 2 ), पाँचवाँ अध्ययन ; 8 / 14; तथा चूलिका 2212 / Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २-साधना के अंग अहिंसा का दृष्टिकोण : ___ निनन्थ के साधनामय जीवन का प्रारम्भ महाव्रत के स्वीकार से होता है। वे पाँच हैं--अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह / अहिंसा शाश्वत धर्म है। भगवान् महावीर ने इसका निरूपण किया, इससे पहले अतीत के तीर्थकर इसका निरूपण कर चुके थे और भविष्य के तीर्थकर भी इसका निरूपण करेंगे।' संक्षेप में यही महाव्रत है। विस्तार की ओर चलें तो अहिंसा और अपरिग्रह महाव्रत के ये दो रूप बन जाते हैं।' अहिंसा, सत्य और बहिस्तात्-आदान–यह तीन महाव्रतों का निरूपण है। प्राणातिपात-विरमण, मृषावाद-विरमण, अदत्तादान-विरमण और बहिस्तात्-आदानविरमण—यह चातुर्याम धर्म है।' अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह-ये पाँच महाव्रत हैं / 5 रात्रि-भोजन-विरति छठा व्रत है / 6 जैन आगमों के अनुसार बाईस तीर्थंकरों के समय चातुर्याम धर्म रहा है और * पहले (ऋषभदेव) तथा चौबीसवें तीर्थंकर (महावीर) के समय पंचमहाव्रतात्मक धर्म रहा। एक, दो और तीन महाव्रतों की परम्परा रही या नहीं, यह निश्चयपूर्वक नहीं कहा जा सकता। किन्तु हिंसा और परिग्रह पर स्थानांग' आदि में अधिक प्रहार किया गया है, इससे लगता है कि असंयम १-आचारांग, 1 / 4 / 11127 / २-सूत्रकृतांग, 2 // 1 // ३-आचारांग, 18 / 1 / 197 : - जामा तिण्णि उदाहिया। ४-स्थानांग, 4 / 1 / 266 / ५-उत्तराध्ययन, 21 / 12 / -दशवकालिक, ४ासूत्र 17 / ७-उत्तराध्ययन, 23 / 23,24 / ८-स्थानांग, 201164 / Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 88 दशवकालिक : एक समीक्षात्मक अध्ययन का मूल इन्हीं को माना गया। अहिंसा ही धर्म है, शेष महाव्रत उसकी सुरक्षा के लिए हैं—यह विचार आगम के उत्तरवर्ती-साहित्य में बहुत दृढ़ता से निरूपित हुआ है। धर्म का मौलिक रूप सामायिक-चारित्र-समता का आचरण है। इसके अखण्ड रूप को निश्चय-दृष्टि से अहिंसा कहा जा सकता है और व्यवहार-दृष्टि से उसे अनेक भागों में बाँटा जा सकता है। आचारांग के नियुक्तिकार ने संयम का सामान्यतः एक रूप माना है और भेद करते-करते वे उसे अठारह हजार की संख्या तक ले गए हैं। उन्होंने निरूपण, विभाजन और जानकारी की दृष्टि से पाँच महाव्रत की व्यवस्था को सरलतम माना है। - पाँच महाव्रतों को दशवकालिक की आत्मा माने तो शेष विषय को उसका पोषकतत्त्व कहा जा सकता है। महाव्रतों की भावनाएँ: पाँच महाव्रतों की सुरक्षा के लिए पचीस भावनाएँ हैं 14 नीचे बाई ओर प्रश्न १-(क) पंचसंग्रह : एक्कं चिय एकवयं, निद्दिटुं जिणवरेहिं सव्वेहिं / पाणाइवायविरमण, सव्वसत्तस्स रक्खट्टा // (ख) हारिभद्रीय अष्टक, 16 / 5 : अहिंसैषा मता मुख्या, स्वर्गमोक्षप्रसाधनी। एतत्संरक्षणार्थ च, न्याय्यं सत्यादिपालनम् // (ग) हारिभद्रीय अष्टक, 16 // 5 वृत्ति : अहिंसाशस्यसंरक्षणे वृतिकल्पत्वात् सत्यादिवतानाम् / २-आचारांग नियुक्ति, गाथा 293, 294 / ३-वही, गाथा 295 / ४-(क) आचारांग नियुक्ति, गाथा 296 : तेसिं च रक्खणट्ठाय, भावणा पंच पंच इक्विक्के / (ख) तत्त्वार्थसूत्र, 7 / 3 : तत्स्थैर्यार्थ भावनाः पंच पंच। Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . 2. अन्तरङ्ग परिचय : साधना के अंग व्याकरण से एवं दाहिनी ओर आचारांग से प्रत्येक महाव्रत की भावनाएँ दी जा रही है : १-अहिंसा महाव्रत की भावनाएँ १-ईया-समिति १-ईर्या समिति २–अपाप-मन ( मन-समिति )2 २-मन-परिज्ञा ३-अपाप-वचन ( वचन-समिति ) ३-वचन-परिज्ञा ४-एषणा-समिति४ ४-आदान-निक्षेप-समिति ५-आदान-निक्षेप-समिति५ ५.-आलोकित-पान-भोजन २-सत्य महाव्रत की भावनाएँ १-अनुवीचि-भाषण १-अनुवीचि-भाषण २-क्रोध-प्रत्याख्यान . २-क्रोध-प्रत्याख्यान १-प्रश्नव्याकरण, संवरद्वार 1 : ठाणगमणपुणजोगजुंजणजुगंतरणिवाइयाए दीट्ठिएई रियव्वं / मिलाइए—दशवकालिक, 5 // 113 / २-वही. संवरतार 1: ण कयावि मणेण पावएणं पावगं किंचि वि झायव्वं / मिलाइए–दशवैकालिक, 8 / 62 / ३-वही, संवरद्वार 1: . वइए पावियाए पावगं ण किंचि वि भासियव्वं / मिलाइए–दशवैकालिक, 7456 / ४-वही, संवरद्वार 1: आहारएसणाए सुद्धं उञ्छं गवेसियव्वं—अहिंसए संजए सुसाहू। मिलाइए--पाँचवाँ अध्ययन (विशेषतः भोगेषणा का प्रकरण)। ५-बही, संवरद्वार 1: अप्पमत्तेण होइ सययं णिक्खियव्वं य गिणिहयव्वं / मिलाइए-दशवकालिक, 5 // 1185,86 / ६-आचारांग, 2 // 3 // 15 : अणुवीइभासी से निगथे। मिलाइए-दशवकालिक, 7355 / ७-वही, 2 // 3 // 15: कोहं परियाणइ से निगथे। मिलाइए–दशवकालिक, 7.54 / Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवकालिक : एक समीक्षात्मक अध्ययन ३-लोभ-प्रत्याख्यान ४--अभय ( भय-प्रत्याख्यान ) ५-हास्य-प्रत्याख्यान ३-लोभ-प्रत्याख्यान ४-अभय ५-हास्य-प्रत्याख्यान ३-अचौर्य महाव्रत की भावनाएँ १--विविक्तवास-वसति४ १-अनुवीचि-मितावग्रह-याचन २-अभीक्ष्ण-अवग्रह-याचन५ २-अनुज्ञापित-पान-भोजन ३.-शय्या-समिति ३-अवग्रह का अवधारण १-आचारांग, 2 // 3 // 15 : लोभं परियाणइ से निग्गंथे। मिलाइए-दशवैकालिक, 754 / २-वही, 2 // 3 // 15 : नो भयभीरुए सिया। 'मिलाइए—दशवैकालिक, 7 / 54 / ३.-वही, 2 // 3 // 15: हासं परियाणइ से निगंथे। मिलाइए-दशवकालिक, 7 // 54 / ४-प्रश्नव्याकरण, संवरद्वार 3 : अंतो बहिं च असंजमो जत्य वड्ढती संजयाण अट्ठा वज्जेयन्वो हु उवस्सओ से तारिसए सुत्तपडिकुठे। एवं विवित्तवासवस हिसमितिजोगेण भावितो भवति अंतरप्पा। मिलाइए—दशवैकालिक, 8151,52 / ५-वही, संवरद्वार 3 : जे हणि हणि उग्गहं अणुनविवय गिव्हियव्वं / मिलाइए–दशवकालिक, 6 / 13;8 / 5 / 6- वही, संवरद्वार 3 : पीढफलगसेज्जासंथारगट्टयाए रुक्खो न छिदियव्वो न छेदणेण भेयणेण सेज्जा कारेयव्वा जस्सेव उवस्सते वसेज्ज सेज्जं तत्थेव गवेसेज्जा, न य विसमं समं करेज्जा / भिलाइए-दशवकालिक 8 / 51 / Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . 2. अन्तरङ्ग परिचय : साधना के अंग ४-साधारण-पिंड-पात्र लाभ ५-विनय-प्रयोग ४-अभीक्ष्ण-अवग्रह-याचन ५-साधार्मिक के पास से अवग्रह-याचन ४-ब्रह्मचर्य महाव्रत की भावनाएँ १-असंसक्त-वास-वसति १-स्त्रियों में कथा का वर्जन २-स्त्री-जन में कथा-वर्जन २-स्त्रियों के अंग-प्रत्यंगों के अवलोकन का वर्जन ३-स्त्रियों के अंग-प्ररंग और चेष्टाओं के ३-पूर्व-मुक्त-भोग की स्मृति का वर्जन अवलोकन का वर्जन५ . १-प्रश्नव्याकरण, संवरद्वार 3 : . साहारणपिण्डपातलामे भोत्तव्वं संजएण समियं न सायसूपा हिकं, न खलु न वेगितं, न तुरियं, न चवलं, न साहसं, न य परस्स पीलाकर सावज्जं तह भोत्तव्वं जह से ततियवयं न सीदति / मिलाइए--दशवकालिक, अध्ययन 5 / २-वही, संवरद्वार 3 : साहम्मिए विणओ पउजियव्वो, उवकरण पारणासु विणयो पउंजियव्वो दाणगहणपुच्छणासु विणओ पउंजियव्वो, निक्खमणपवेसणासु विणओ पउंजियन्वो, अन्नेसु य एवमादिसु बहुसु कारणसएसु विणओ पउंजियव्वो, विणओवि तवो तवोविधम्मो तम्हा विणओ पउंजियव्वो, गुरुसु साहूसु तवस्सीमु य, विणवो पउंजियव्वो। मिलाइए–दशवैकालिक, अध्ययन 9 / ३-वही, संवरद्वार 4 : इत्थिसंसत्तसंकिलिट्ठा अण्णे वि य उवमाइ अवगासा ते हु वज्जणिज्जा। मिलाइए-दशवैकालिक, 8 / 51,52 / ४-वही, संवरद्वार 4 : णारीजणस्स मज्झे ण कहियव्वा कहा। मिलाइए-दशवैकालिक, 8.52 / ५-वही, संवरद्वार 4 : णारीणं हसिय भणियं ... 'ण चक्खुसा ण मणसा वयसा पत्थेयन्वाई।। मिलाइए.-- दशवैकालिक, 8.53,54,57 / / Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 92 दशवैकालिक : एक समीक्षात्मक अध्ययन ४–पूर्व-मुक्त-भोग की स्मृति का वर्जन' ४–अतिमात्र और प्रणीत पान-भोजन का वर्जन ५-प्रणीत-रस-भोजन का वर्जन ५-स्त्री आदि से संसक्त शय्यासन का वर्जन ५-अपरिग्रह महाव्रत की भावनाएँ 1 -- मनोज्ञ और अमनोज्ञ शब्द में समभाव १–मनोज्ञ और अमनोज्ञ शब्द में समभाव ,, ,, ,, रूप , , 2-, , , रूप , 3-, ,, ,, गन्ध ,, , 3-, , , गन्ध , , 4-,, , , रस ,, 4- , , , रस , , 5-,, , . , स्पर्श ,, , 5-,, ,, ,, स्पर्श ,, ,, भावनाओं की पूरी शब्दावलि की दशवकालिक के साथ तुलना की जाए तो इसका बहुत बड़ा भाग महाव्रतों की तुलना करते दिखाई देगा। इस दृष्टि से कहा जा सकता है कि दशवकालिक पाँच महाव्रत और उनकी पचीस भावनाओं की व्याख्या है। संयमी जीवन की सुरक्षा का दृष्टिकोण : . शिष्य ने पूछा- “भगवन् ! यह लोक छह प्रकार के जीव-निकायों से लबालब भरा हुआ है फिर अहिंसा पूर्वक शरीर धारण कैसे हो सकता है ? उसके लिए जाना, खड़ा होना, बैठना, खाना और बोलना—ये आवश्यक हैं। ये किए जाएँ तो हिंसा होती है, इस स्थिति में श्रमण क्या करे ?. वह कैसे चले, खड़ा रहे, बैठे, सोए, खाए और बोले ? यह प्रश्न अहिंसा और जीवन-व्यवहार के संघर्ष का है। समग्र दशवकालिक में इसी का समाधान है। संक्षेप में शिष्य को बताया गया कि यतनापूर्वक चलने, खड़ा रहने, बैठने, सोने, खाने और बोलने वाला अहिंसक रह सकता है। यतना कैसे की जाए इसकी व्याख्या ही दशवकालिक का विस्तार है। यह सत्प्रवृत्ति और निवृत्ति के संयम का दृष्टिकोण है। आत्मस्थ होने के लिए निवृत्ति, उसकी प्राप्ति में आने १.-प्रश्नव्याकरण, संवरद्वार 4: पुव्वरय पुव्वकीलिय विरइ समिइ जोगेण भाविओ भवइ अंतरप्पा। २-वही, संवरद्वार 4 आहारपणीयसिद्धभोयणविवज्जए। मिलाइए-दशवकालिक, 8 / 56 / 3- आचारांग, 2 / 3 / 15 / Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___63 2. अन्तरङ्ग परिचय : साधना के अग वाली बाधाओं को पार करने और केवल उसी के निमित्त शरीर-धारण करने के लिए सत्प्रवृत्ति आवश्यक है—यह जैन दर्शन का धार्मिक दृष्टिकोण है। इसके अनुसार हिंसा मात्र, भले फिर वह प्रयोजनवश की जाए या निष्प्रयोजन ही - असत्प्रवृत्ति है। धार्मिक दृष्टिकोण से वह सर्वथा अमान्य है। इसीलिए साधना की विशेष भूमिका में निवृत्ति और सत्प्रवृत्ति ही मान्य हुई है। सत्प्रवृत्ति के द्वारा निवृत्ति के चरम शिखर पर पहुँचने के लिए शरीर-धारण आवश्यक है, इसलिए सत्प्रवृत्तिमय ( संयममय ) शरीर-धारण के लिए भी इसमें पर्याप्त विधि-निषेध किए गए हैं। प्रवचन-गौरव का दृष्टिकोण : भगवान महावीर ने केवली होने के अनन्तर तीर्थ का प्रवर्तन किया। उसके चार अंग बनें-साधु, साध्वी, श्रावक और श्राविका। वैयक्तिक साधना में लोक-व्यवहार की दृष्टि से विचार करना आवश्यक नहीं होता। संघ की स्थिति इससे भिन्न होती है। वहाँ लोक-दृष्टि की सर्वथा उपेक्षा नहीं होती। इसलिए धर्म-विरुद्ध आचरण की भाँति लोक-विरुद्ध आचरण भी किसी सीमा तक निषिद्ध माना गया है। प्रतिक्रुष्ट कुल से भिक्षा लेने के निषेध का कारण संघ की लघुता न हो, यही है / 2 . इस प्रकार के और भी अनेक नियम हैं, जिनके निर्माण का मूल लोक-दृष्टि की सापेक्षता है। जहाँ तक साधना की मौलिकता का प्रश्न है, वहाँ लोक-दृष्टि को महत्त्व नहीं दिया जा सकता किन्तु जहाँ सत्य की बात नहीं हो, वहाँ लोकमत की सर्वथा उपेक्षा भी नहीं करनी चाहिए। आगम-काल से लेकर व्याख्या-काल तक जैन-परम्परा का यह स्पष्ट अभिमत रहा है। १-प्रशमरति प्रकरण 131,132: / लोकः खल्वाधारः सर्वेषां ब्रह्मचारिणां यस्मात् / तस्माल्लोकविरुद्ध धर्मविरुद्धं च संत्याज्यम् // देहो न साधनको लोकाधीनानि साधनान्यस्य / सद्धर्मानुपरोघात् तस्माल्लोकोऽभिगमनीयः // मिलाइए --- दज्ञवैकालिक, 5 // 1 // 18 / २-हारिभद्रीय टीका, पत्र 166 : प्रतिक्रुष्टकुलं द्विविधम्-इत्वरं यावत्कथिकं च / इत्वरं—सूतकयुक्तं, यावत्कथिकम् अभोज्यम् / एतन्न प्रविशेत् शासनलघुत्वप्रसंगात् / Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवकालिक : एक समीक्षात्मक अध्ययन परीपह-सहन का दृष्टिकोण : __साधना के क्षेत्र में काय-क्लेश बहुत ही विवादास्पद रहा है। कहीं इसका ऐकान्तिक समर्थन मिलता है, कहीं इसके संयत-प्रयोग का समर्थन मिलता है तो कहीं इसका अनावश्यक विरोध भी मिलता है। भागवत और मनुस्मृति में वानप्रस्थ और संन्यासी के लिए जिस आचार का विधान किया है, उसमें जितना आग्रह कोरे कष्ट-सहन का है, उतना अहिंसा का नहीं है / वानप्रस्थ की ऋतुचर्या का उल्लेख करते हुए कहा गया है“वह ग्रीष्म-ऋतु में पंचामि तपे ; वर्षा ऋतु में खुले मैदान में रह कर वर्षा की बौछार सहे ; जाड़े के दिनों में गले तक जल में डूबा रहे। इस प्रकार घोर तपस्यामय जीवन व्यतीत करे।"१ जैन-परम्परा अहिंसा-प्रधान रही, इसलिए वहाँ श्रमण की ऋतुचर्या का इन शब्दों में वर्णन किया गया है- “सुसमाहित निग्रन्थ ग्रीष्म में सूर्य की आतापना लेते हैं, हेमन्त में खुले वदन रहते हैं और वर्षा में प्रतिसंलीन-एक स्थान में रहने वाले होते हैं।"२ जैन-परम्परा ने सुखवाद का खण्डन किया और अहिंसा का आग्रह रखते हुए यथाशक्ति कष्ट-सहन का समर्थन किया। सुख से सुख मिलता है"-इस मान्यता के अनुसार चलने वाले अहिंसा का आग्रह नहीं रख सकते। वे थोड़ी-सी बाधा होने पर कतरा जाते हैं। 'आत्म-हित दुःख से मिलता है इसका तात्पर्य यह नहीं कि कष्टसहन से आत्म-हित होता है, किन्तु यहाँ बताया गया है कि आत्म-हित कष्ट-साध्य है। कष्ट-सहन आत्म-हित का एक साधन है और इसलिए कि अहिंसा की साधना करने वाला कष्ट आ पड़ने पर उससे विचलित न हो जाए।" अत: * कहा गया है कि परीषह से १-क) भागवत, 11 / 18 / 4 : ग्रीष्मे तप्येत पंचाग्नीन् , वर्षास्वासारषाड् जले। आकण्ठमग्नः शिशिरे, एवं वृत्तस्तपश्चरेत् // (ख) मनुस्मृति, 6 / 23 : ग्रीष्मे पंचाग्नितापः स्याद्, वर्षास्वभ्रावका शिकः / आर्द्र वासास्तु हेमन्ते, क्रमशो वर्धयंस्तपः // २-दशवैकालिक, 3 / 12 / ३-सूत्रकृतांग, 1 / 3 / 4 / 6-8 : इहमेगे उ भासंति मेहुणे य परिग्गहे / ४-वही, 1 / 2 / 2 / 30 : अत्तहियं खु दुहेण लब्भइ। ५-वही, 112 / 1 / 14: अविहिंसामेवपव्वए, अणुधम्मो मुणिणा पवेदितो॥ Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1. अन्तरङ्ग परिचय : साधना के अंग 95 स्पृष्ट होने पर मुनि उनसे पराजित न हो—अनाचार का सेवन न करे। साधना में चलते-चलते जो कष्ट आ पड़ते हैं, उन्हें सम्यक्-भाव से सहन करने वाले को निर्जरा (कर्मक्षय) होती है / मांस और रक्त के उपचय से मैथुन संज्ञा उत्पन्न होती है। इसलिए कहा है कि अनशन के द्वारा शरीर को कृश करो।४ शरीर के प्रति जिनका अत्यन्त वैराग्य हो जाता है, जो पौद्गलिक पदार्थों को आत्मा से सर्वथा पृथक् करने के लिए चल पड़ते हैं, वे तपस्वी विशुद्ध तपस्या के द्वारा संचित कर्म-मल को धो डालते हैं / कष्ट-सहन जैन-परम्परा का लक्ष्य नहीं रहा है। वह केवल साधन रूप से स्वीकृत है।६ जैन-परम्परा में तप का अर्थ कोरा कष्ट-सहन करना नहीं है / आत्म-शुद्धि के दो साधन हैं....संवर और तप। संवर के द्वारा आगामी कर्म का निरोध और तप के द्वारा पूर्व-संचित कर्म का क्षय होता है / " भगवान् महावीर ने कर्म-क्षय के समस्त माधनों को तप कहा है और उन्हें बाह्य और आभ्यन्तर- इन दो भागों में बाँटा है। देह को अधिक कष्ट देने से अधिक कर्म-क्षय होता है-ऐसा अभिमत नहीं है। १-उत्तराध्ययन, 2046 : (क) एए परिसहा सव्वे, कासवेण पवेइया / __ जे भिक्खू न विहन्नेज्जा, पृट्ठो केणइ कण्हुई // (ख) सूत्रकृतांग, 1 / 2 / 1 / 13 : से पुढे अहियासए। - २-स्थानांग, 5 // 1 // 409 : सम्म सहमाणस्स जाव अहियासेमाणस्स किं मन्ने कज्जति ? एगंतसो मे णिज्जरा कज्जति / ____३-स्थानांग, 4 / 4 / 356 / ४-सूत्रकृतांग, 1 / 2 / 1 / 14 वृत्ति : किसए देहमणासणाइहिं—अनशनादिभिर्देहं 'कर्शयेत्'—अपचितमांसशोणितं विदध्यात् / ५-सूत्रकृतांग, 1 / 2 / 1 / 15 / ६-जसट्टाए कीरति नग्गभावे..... 'अंतं करेंति / ७-उत्तराध्ययन, 30 / 1-6 / Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिक : एक समीक्षात्मक अध्ययन गौतम ने पूछा- "भगवन् ! (1) महावेदना और महानिर्जरा, (2) महावेदना और अल्पनिर्जरा, (3) अल्पवेदना और महानिर्जरा, (4) अल्पवेदना और अल्पनिर्जरा-क्या ये विकल्प हो सकते हैं ?" भगवान् ने कहा-'हाँ गौतम ! हो सकते हैं।' 1 यहाँ दो विकल्प-दूसरा और तीसरा ध्यान देने योग्य हैं। भगवान् ने अनशन, काय-क्लेश आदि को बाह्य-ता और स्वाध्याय, ध्यान आदि को आभ्यन्तर-तप कहा है / 2 वे आत्मिक पवित्रता के लिए जैसे आभ्यन्तर-तप को आवश्यक मानते थे, वैसे ही इन्द्रिय और मन को समाहित रखने के लिए बाह्य-तप को भी आवश्यक मानते थे। भगवान् ने छह कारणों से आहार करने की अनुमति दी, वैसे ही छह कारणों से आहार न करने की आज्ञा दी। इस विचारधारा में संयत काय-क्लेश और ध्यान दोनों का समन्वय है, इसलिए यह तप और ध्यान के ऐकान्तिक आग्रह के बीच का मार्ग है-मध्यम मार्ग है।४ भगवान् ने अहिंसा का विवेक किये बिना तप तपने वालों को इहलोक-प्रत्यनीक ( वर्तमान जीवन का शत्रु ) कहा है / १-भगवती, 6 / 1 / २-उत्तराध्ययन, 307,8,30 / ३-वही, 26 // 31-34 : छण्हं अन्नयरागंमि कारणंमि समुट्ठिए / वेयणवेयावच्चे इरियट्ठाए य संजमट्ठाए। तह पाणवत्तियाए छठें पुण धम्मचिन्ताए // निग्गंयो घिइमन्तो निग्गंथी वि न करेज्ज छहिं चेव / ठाणेहिं तु इमेहिं अणइक्कमणा य से होइ॥ आयके उवसग्गे तितिक्खया बंभचेरगुत्तीसु। पाणिदया तवहेउं सरीरवोच्छेयणट्ठाए ४-दशवकालिक, 8162 : सज्झायसझाणरयस्स ताइणो अपावभावस्स तवे रयस्स / विसुज्झई जं सि मलं पुरेकडं समीरियं रुप्पमलं व जोइणा // ५-भगवती, 88 वृत्ति : इहलोगपडिणीए-इह लोकस्य प्रत्यक्षस्य मानुषत्वलक्षणपर्यायस्य प्रत्यनीक इन्द्रियार्थप्रतिकूलकारित्वात् पंचाऽग्नितपस्विवदिह लोकप्रत्यनीकः / Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2. अन्तरङ्ग परिचय : साधना के अंग 17 भगवान् की दृष्टि में बाह्य-तप की अपेक्षा मानसिक आर्जव अधिक महत्त्वपूर्ण था। उन्होंने कहा—“कोई तपस्वी नग्न रहता है, शरीर को कृश करता है और एक महीने के बाद भोजन करता है किन्तु मायाचार को नहीं त्यागता, वह अन्त-काल तक संसार से मुक्ति नहीं पाता।" __भगवान् ने चमत्कार-प्रदर्शन और पौद्गलिक सुख की प्राप्ति के उद्देश्य से किए जाने वाले तप का विरोध किया। उनका यह आग्रह था कि तप केवल आत्म-शुद्धि के उद्देश्य से ही किया जाय / 2 " निन्य का आचार भीम है, अन्यत्र ऐसे परम दुश्चर आचार का प्रतिपादन नहीं है"3—यह जो कहा है, उसके पीछे कठोर चर्या की दृष्टि नहीं है। इसे अहिंसा की सूक्ष्म-दृष्टि से परम दुश्चर कहा है। समूचा छठा अध्ययन इसी दृष्टिकोण को स्पष्ट करने वाला है। सूत्रकृनांग (1 / 11 / 5) में अहिंसात्मक मार्ग को महाघोर कहा है। गीता में श्रद्धापूर्वक, फल की आकांक्षा से रहित किए गए तप को सात्विक, सत्कार आदि के उद्देश्य और दम्भ से किए गए तप को राजस तथा दूसरे का विनाश करने के लिए अविवेकपूर्ण निश्चय से शरीर को पीड़ा पहुँचाकर किए गए तप को तामस कहा है। .महात्मा गौतम बुद्ध ने काय-क्लेश को अनावश्यक बतलाया। उन्होंने कहा-“साधु को यह दो अतियाँ सेवन नहीं करनी चाहिए। कौनसी दो ? (1) जो यह हीन, ग्राम्य, अनाड़ी मनुष्यों के (योग्य), अनार्य (-सेवित) अनर्थों से युक्त, कामवासनाओं में लिप्त होना है, और ; (2) जो दुःख (-मय), अनार्य (-सेवित) अनर्थों से युक्त आत्म-पीड़ा में लगना है। भिक्षुओ! इन दोनों ही अतियों में न जाकर, तथागत ने मध्यम-मार्ग खोज निकाला है, (जोकि) आँख-देनेवाला, ज्ञान-करानेवाला, शान्ति के लिए, अभिज्ञा के लिए, परिपूर्णज्ञान के लिए और निर्वाण के लिए है।"५ १-सूत्रकृतांग, 112 / 1 / 9 / २-दशवैकालिक, 9 / 4 / सू० 6 / ३-वही, 6 / 4 / - ४-गीता, 1717-19 : श्रद्धया परया तप्तं तपस्तत्रिविधं नरैः / अफलाकांक्षिभियुक्तैः सात्त्विकं परिचक्षते // सत्कारमानपूजार्थं . तपो दम्भेन चैव यत् / क्रियते तदिह प्रोक्तं राजसं चलमधू वम् // मूढग्राहेणात्मनो यत् पीडया क्रियते तपः / परस्योत्सादनार्थं वा तत्तामसमुदाहृतम् // ५-विनय-पिटक, पृष्ठ 80-81 / Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवकालिक : एक समीक्षात्मक अध्ययन महात्मा बुद्ध ने काय-क्लेश का विरोध किया पर वह मात्रा-भेद से साधना के क्षेत्र में आवश्यक होता है, इसलिए उसका पूर्ण बहिष्कार भी नहीं कर सके / काश्यप के प्रश्न का उत्तर देते हुए महात्मा बुद्ध ने कहा- "काश्यप ! जो लोग ऐसा कहते हैं'श्रमण गौतम सभी तपश्चरणों की निन्दा करता है, सभी तपश्चरणों की कठोरता को बिल्कुल बुरा बतलाता है'—ऐसा कहने वाले मेरे बारे में ठीक से कहने वाले नहीं हैं, मेरी झूठी निन्दा करते हैं। काश्यप ! मैं विशुद्ध और अलौकिक दिव्य-चक्षु से किन्हींकिन्हीं कठोर जीवन वाले तपस्वियों को काया छोड़ मरने के बाद नरक में उत्पन्न और दुर्गति को प्राप्त देखता हूँ। काश्यप ! मैं किन्हीं-किन्हीं कठोर जीवन वाले तपस्वियों को मरने के बाद स्वर्गलोक में उत्पन्न और सुगति को प्राप्त देखता हूँ। किन्हीं-किन्हीं कम कठोर जीवन वाले तपस्वियों को मरने के बाद नरक में उत्पन्न और दुर्गति को प्राप्त देखता हूँ। काश्यप ! किन्हीं-किन्हीं कम कठोर जीवन वाले तपस्वियों को मरने के बाद स्वर्गलोक में उत्पन्न सुगति को प्राप्त देखता हूँ। "जब मैं काश्यप ! इन तपस्वियों की इस प्रकार की अगति, गति, च्युति (मृत्यु) और उत्पत्ति को ठीक से जानता हूँ फिर मैं कैसे सब तपश्चरणों की निन्दा करूँगा ? सभी कठोर जीवन वाले तपस्वियों की बिल्कुल निन्दा, शिकायत करूँगा ?"1 साध्य की प्राप्ति के लिए महात्मा बुद्ध ने जो सम्यक् व्यायाम का निरूपण किया है, वह कठोर चर्या का ज्वलंत रूप है। ___ "और भिक्षुओ, अनुरक्षण-प्रयत्न क्या है ? एक भिक्षु प्रयत्न करता है, जोर लगाता है, मन को काबू में रखता है कि जो अच्छी बातें उस (के चरित्र) में आ गई हैं वे नष्ट न हों, उत्तरोत्तर बढ़े, विपुलता को प्राप्त हों। वह समाधि निमित्तों की रक्षा करता है। भिक्षुओ, इसे अनुरक्षण-प्रयत्न कहते हैं। _ "(वह सोचता है)- चाहे मेरा मांस-रक्त सब सूख जाये और बाकी रह जायें केवल त्वक् , नसें और हड्डियाँ, जब तक उसे जो किसी भी मनुष्य के प्रयत्न से, शक्ति से पराक्रम से प्राप्य है, प्राप्त नहीं कर लूँगा, तब तक चैन नहीं लूँगा। भिक्षुओ, इसे सम्यक-प्रयत्न (व्यायाम) कहते हैं / "2 / परीषह-सहन का जो दृष्टिकोण भगवान् महावीर का रहा है, उसे महात्मा बुद्ध ने स्वीकार नहीं किया, यह नहीं कहा जा सकता। उन्होंने कहा है : १-दीघ-निकाय, पृष्ठ 61 / २-बुद्ध-वचन, पृष्ठ 37 / Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ RE 2. अन्तरङ्ग परिचय : साधना के अंग "भिक्षुओ, जिसने कायानुस्मृति का अभ्यास किया है, उसे बढ़ाया है, उस भिक्षु को दस लाभ होने चाहिएँ / कौन से दस ? ___ १–वह अरति-रति-सह ( उदासी के सामने डटा रहने वाला) होता है। उसे उदासी परास्त नहीं कर सकती। वह उत्पन्न उदासी को परास्त कर विहरता है। २—वह भय-भैरव-सह होता है। उसे भय-भैरव परास्त नहीं कर सकता। वह उत्पन्न भय-भैरव को परास्त कर विहरता है। __ ३-शीत, उष्ण, भूख-प्यास, डंक मारने वाले जीव, मच्छर, हवा, धूप, रेंगनेवाले जीवों के आघात; दुरुक्त, दुरागत वचनों, तथा दुःखदायी, तीव्र, कटु, प्रतिकूल, अरुचिकर, प्राण-हर शारीरिक पीड़ाओं को सह सकने वाला होता है।" 1 भगवान महावीर अज्ञान-कष्ट का विरोध और संयम-पूर्वक कष्ट-सहन का समर्थन करते हैं। इन दोनों के पीछे हिंसा और अहिंसा की दृष्टियाँ हैं, इसलिए इनमें कोई असंगति नहीं है। महात्मा बुद्ध भी कष्ट-सहन का विरोध और समर्थन दोनों करते हैं किन्तु उनके पीछे हिंसा और अहिंसा के स्थिर दृष्टिकोण नहीं हैं, इसलिए उनके विरोध और समर्थन का आधारभूत कारण नहीं मिलता। दीघनिकाय (पृ०६२-६३) में जिन नियमों को झूठा शारीरिक तप कहा गया है, उनमें बहुत कुछ ऐसे नियम हैं जिनका निर्माण अहिंसा और अपरिग्रह के सूक्ष्म चिन्तन के बाद हुआ है। नग्न रहना, बुलाई भिक्षा का का त्याग२, अपने लिए लाई भिक्षा का त्याग3, अपने लिए पकाए भोजन का त्याग निमंत्रण का त्याग, दो भोजन करने वालों के बीच से लाई भिक्षा का त्याग, गर्भिणी स्त्री द्वारा लाई भिक्षा का त्याग, दूध पिलाती स्त्री द्वारा लाई भिक्षा का त्याग", वहाँ से भी नहीं (लेना) जहाँ कोई कुत्ता खड़ा हो', न मांस, न मछली, न सुरा, न कच्ची १-बुद्ध-वचन, पृष्ठ 41 / २-मिलाइए-दशवकालिक, 6 / 48,49 / * 3- , .. वही, 6 / 49 / 6 / 48,49 / 5 / 1 / 37 / 5 // 1 // 39,40,41 / 5 // 1142,43 / 5 / 1 / 12,22 / चूलिका 27 / 5 // 2 // 36 // Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 100 दशवकालिक : एक समीक्षात्मक अध्ययन शराब, न चावल की शराब (=तुषोदक) ग्रहण करता है। वह एक ही घर से जो भिक्षा मिलती है लेकर लौट जाता, एक ही कौर खाने वाला होता है, दो घर से जो भिक्षा०, दो ही कौर खाने वाला, सात घर 0 सात कौर 0 / वह एक ही कलछी खाकर रहता है, दो०, सात० / वह एक-एक दिन बीच दे करके भोजन करता है, दो दो दिन०, सात सात दिन० / इस तरह वह आधे-आधे महीने पर भोजन करते हुए विहार करता है। जैन-परम्परा में ये नियम अहिंसा व अपरिग्रह की सूक्ष्म दृष्टि से ही स्वीकृत हैं। * तीसरे अध्ययन में कुछ शारीरिक परिकर्मो को अनाचार कहा है। उसके पीछ भी अहिंसा, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह और देहासक्ति के दृष्टिकोण हैं। ये उस समय की सभी श्रमण और ब्राह्मण परम्पराओं में न्यूनाधिक मात्रा में स्वीकृत रहे हैं। स्नान : महात्मा बुद्ध ने आध-मास से पहले नहाने वाले भिक्षु को प्रायश्चित्त का भागी कहा है। “जो कोई भिक्षु सिवाय विशेष अवस्था के आध-मास से पहले नहाये तो पाचित्तिय है। विशेष अवस्था यह है— ग्रीष्म के पीछे के डेढ़ मास और वर्षा का प्रथम मास, यह ढाई मास और गर्मी का समय, जलन होने का समय, रोग का समय, काम ( =लीपने-पोतने आदि का समय ), रास्ता चलने के समय तथा आँधी-पानी का समय / "2 भगवान् महावीर ने संघ की आचार-व्यवस्था को नियंत्रित किया, महात्मा बुद्ध ने वैसा नहीं किया। फलस्वरूप संघ के भिक्षु मनचाहा करते और लोगों में उनका अपवाद होता तब बुद्ध को भाँति-भाँति के नियम बनाने पड़ते। स्नान के सम्बन्ध में ऐसे कई नियम हैं। ___ उस समय बुद्ध भगवान् राजगृह में विहार करते थे। उस समय षड्वर्गीय भिक्षु नहाते हुए वृक्ष से शरीर को रगड़ते थे, जंघा को, बाहु को, छाती को, पेट को भी। लोग खिन्न होते, धिक्कारते थे—'कैसे यह शाक्य-पुत्रीय श्रमण नहाते हुए वृक्ष से deg , जैसे कि मल्ल (=पहलवान) और मालिश करने वाले' / ...... / भगवान् ने भिक्षुओं को संबोधित किया—“भिक्षुओ ! नहाते हुए भिक्षु को वृक्ष से शरीर न रगड़ना चाहिए, जो रगड़े उसको 'दुष्कृत' की आपत्ति है।" उस समय षड्वर्गीय भिक्षु नहाते समय खम्भे से शरीर को भी रगड़ते थे० / बुद्ध ने कहा- "भिक्षुओ ! नहाते समय भिक्षु को खम्भे से शरीर को न रगड़ना चाहिए, जो रगड़े उसको दुक्कट (दुष्कृत) की आपत्ति है।"४ १-दीघ-निकाय, पृष्ठ 62-63 / २-विनय-पिटक, पृष्ठ 27 / ३,४-वही, पृष्ट 418 / Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2. अन्तरङ्ग परिचय : साधना के अंग 101 छाता, जूता : जो भिक्षुणी नोरोग होते हुए छाते-जूते को धारण करे, उसे बुद्ध ने पाचित्तिय कहा है।' जूते, खड़ाऊँ और पादुकाओं के विविध विधि-निषेधों के लिए विनय-पिटक (पृष्ठ 204-208) द्रष्टव्य है। भगवान् महावीर ने सामान्यत: जूते पहनने का निषेध किया और स्थविर के लिए चर्म के प्रयोग की अनुमति दी, वैसे ही महात्मा बुद्ध जूता पहने गाँव में जाने का निषेध और विधान दोनों करते हैं। __उस समय षड्वर्गीय भिक्ष जूता पहने गाँव में प्रवेश करते थे। लोग हैरान...... होते थे(०) जैसे काम-भोगी गृहस्थ / बुद्ध ने यह बात कही-"भिक्षुओ ! जूता पहने गाँव में प्रवेश नहीं करना चाहिए। जो प्रवेश करे, उसे दुक्कट का दोष हो।" उस समय एक भिक्षु बीमार था और वह जूता पहने बिना गाँव में प्रवेश करने में असमर्थ था। बुद्ध ने यह बात कही-"भिक्षुओ ! अनुमति देता हूँ बीमार भिक्षु को जूता पहन कर गाँव में प्रवेश करने की।" 3 जैन-परम्परा की भाँति बौद्ध-परम्परा में भी छाते का निषेध और विधान—दोनों मिलते हैं। गन्ध, माल्य आदि : महात्मा बुद्ध माला, गंध, विलेपन, उबटन तथा सजने-धजने से विरत रहते थे।" स्मृतिकार, पुराणकार और धर्मसूत्रकार ब्रह्मचारी के लिए गंध, माल्य, उबटन, अंजन, जूते और छत्र-धारण का निषेध करते हैं / भागवत में वानप्रस्थ के लिए दातुन करने का निषेध किया गया है।" १-विनय-पिटक, पृष्ठ 57 / २,३-वही, पृष्ठ 211 / .. ' ४-वहीं, पृष्ठ 438 / ५-दीघ-निकाय, पृष्ठ 3 / 177-179 / (ख) भागवत, 7 / 12 / 12H अञ्जनाभ्यञ्जनोन्मर्दस्त्र्यवलेखामिषं मधु / स्रग्गन्धलेपालंकारांस्त्यजेयुर्ये धृतव्रताः॥ ७-भागवत, 11 / 18 / 3: केशरोमनखश्मश्रुमलानि बिभृयादतः / न धावेदप्सु मज्जेत, त्रिकालं स्थण्डिलेशयः॥ Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 102 दशवकालिक : एक समीक्षात्मक अध्ययन - इस प्रकार हम देखते हैं कि श्रमण या संन्यासी के लिए कष्ट-सहन और शरीरपरिकर्म के त्याग की पद्धति लगभग सभी परम्पराओं में रही है। ब्राह्मण-परम्परा ने शारीरिक शुद्धि को प्रमुख स्थान दिया है। जैन-परम्परा ने उसे प्रमुखता नहीं दी / अहिंसा और देह-निर्ममत्व की दृष्टि से शरीर-शुद्धि को प्रमुखता न देना कोई बुरी बात नहीं है / साधना की भूमिका का विकास शरीर-शुद्धि से नहीं किन्तु चारित्रिक निर्मलता से होता है। अणु आभा वैज्ञानिक डॉ० जे०सी० ट्रस्ट ने इस विषय का बड़े वैज्ञानिक ढंग से स्पर्श किया है। वे लिखती हैं—“कई बार मुझे यह देखकर आश्चर्य होता था कि अनेक अशिक्षित लोगों के अणुओं में प्रकाश-रसायन विद्यमान थे। साधारणतः लोग उन्हीं को सच्चरित्र तथा धर्मात्मा मानते हैं, जो ऊँचे घरानों में जन्म लेते हैं, गरीबों में धन आदि बाँटते हैं तथा प्रातः-सायं उपासनादि नित्य-कर्म करते हैं परन्तु मुझे बहुत से ऐसे लोग मिले हैं जो देखने पर बड़े धर्मात्मा और स्वच्छ वस्त्रधारी थे परन्तु उनके अन्दर काले अणुओं का बाहुल्य था। इसके विपरीत कितने ही ऐसे अपढ़, गँवार तथा बाह्य रूप से भद्दे प्रतीत होने वाले लोग भी देखने को मिले, जिन्हें किसी प्रकार कुलीन नहीं कहा जा सकता। परन्तु उस समय मेरे आश्चर्य की कोई सीमा नहीं रही जब मैंने उनके प्रकाशाणुओं की थरथरियों को उनकी आभा में स्पष्ट रूप से देखा। आश्चर्य का कारण यह था कि प्रकाशाणुओं का विकास कई वर्ष के सतत परिश्रम और इन्द्रियों के अणुओं के नियंत्रण के पश्चात् हो पाता है, परन्तु इन लोगों ने अनजाने ही प्रकाशाणुओं को प्राप्त कर लिया था। उन्होंने कभी स्वप्न में भी प्रकाशाणुओं के विकास के विषयों में न सोचा होगा। उपर्युक्त घटनाओं के वर्णन से मैं आपको यह बताना चाहती हूँ कि यह आवश्यक नहीं कि शिक्षित तथा कुलीन प्रतीत होने वाले लोग धर्मात्मा हों और अशिक्षित तथा निर्धन और बाह्य रूप से अस्वच्छ रहने वाले पापी। वास्तव में प्रकाश का सम्बन्ध शरीर से नहीं अपितु आत्मा से है; अतः प्रकाश की प्राप्ति के लिए शरीर की शुद्धि को इतनी आवश्यकता नहीं, जितनी आत्मा की निर्मलता की। बाह्य शरीर तो आत्मा के निवास के लिए भवन के समान है।" 1 आयुर्वेद में स्वस्थ वृत्त के जो आवश्यक कृत्य बताए हैं, उन्हें आगमकार श्रमण के लिए अनाचार कहते हैं। यहाँ सहज प्रश्न उठता है कि स्वास्थ्य श्रमण के लिए भी अपेक्षित है फिर आगमकार ने इन्हें अनाचार क्यों माना ? यह ठीक है कि स्वास्थ्य से श्रमण मुक्त नहीं है किन्तु उसका मुख्य लक्ष्य है-आत्म-रक्षा। "अप्पाहु खलु सययं रक्खियव्वो, सव्विदिएहिं सुसमाहिएहिं"-श्रमण सब इन्द्रियों को विषयों से निवृत्त कर १-अणु और आभा, पृष्ठ 160-161 / Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . 2. अन्तरङ्ग परिचय : साधना के अग 103 आत्मा की रक्षा करे। आगमकार के सामने आत्म-रक्षा की दृष्टि मुख्य थी। जबकि आयुर्वेद के सम्मुख देह-रक्षा का प्रश्न प्रमुख था, इसीलिए वहाँ कहा गया है कि नगरी नगरस्येव, रथस्येव रथी सदा। स्वशरीरस्य मेधावी. कृत्येष्ववहितो भवेत् // -नगर रक्षक नगर के तथा गाड़ीवान् गाड़ी के कार्यो में (उसकी रक्षा के लिए) सदा सावधान रहता है, वैसे ही बुद्धिमान् मनुष्यों को चाहिए कि वे सदा अपने शरीर के कृत्यों में सावधान रहें। चरक के अनुसार स्वास्थ्य-रक्षा के लिए किए जाने वाले स्वस्थवृत्त के आवश्यक कृत्य ये है : सौवीरांजन-काला सुरमा आंजना / नस्य कर्मनाक में तेल डालना / दन्त पवन–दतौन करना। जिह्वानिर्लेखन-शलाका से जीभ के मैल को खुरचकर निकालना। अभ्यंग-तेल का मर्दन करना / शरीर-परिमार्जन--कपड़े या स्पञ्ज आदि द्वारा मैल उतारने के लिए रगड़ना अथवा - उबटन लगाना, स्नान करना। गन्धमाल्य-निषेवण—चन्दन, केसर आदि सुगन्धित द्रव्यों का अनुलेपन करना तथा . सुगन्धित पुष्पों की मालाओं को धारण करना / रत्नाभरण धारण-रत्न-जटित आभूषण धारण करना / शौचाधान—पैर तथा मलमार्गों (नाक, कान, गुदा, उपस्थ आदि) को प्रतिदिन ___ बार-बार धोना। सम्प्रसाधन—केश आदि कटवाना तथा कंघी करना / धूम्रपान--धूम्रपान करना। पादत्र-धारण-जूते धारण करना। छत्र-धारण-छत्ता धारण करना। दण्ड-धारण-दण्ड (छड़ी) धारण करना। इनमें से अधिकांश का अनाचार प्रकरण में और कुछेक का अन्यत्र निषेध मिलता है। इसका कारण है—आत्म-रक्षा। इन्द्रियों की समाधि और ब्रह्मचर्य के बिना आत्म-रक्षा हो नहीं पाती। उपर्युक्त कृत्य ब्रह्मचर्य और इन्द्रिय-समाधि में बाधक बनते हैं। स्वयं आयुर्वेद के ग्रन्थ-निर्माताओं की दृष्टि में भी ये वृष्य (वीर्यवर्धक), पुंस्त्व १-चरक, सूत्र-स्थान, अध्ययन 5 // 100 / Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 104 दशवकालिक : एक समीक्षात्मक अध्ययन वर्षक और कामाग्नि-सन्दीपक हैं। स्नान को चरक संहिता में वृष्य कहा है।' पवित्रं वृष्यमायुष्यं, श्रमस्वेदमलापहम् / शरीर-बलसंधानं, स्नानमोजस्करं परम् // इसकी व्याख्या में सुश्रुत का श्लोक उद्धृत है, उसमें इसे पुंस्त्व-वर्द्धन कहा है तन्द्रापापोपशमनं, तुष्टिदं पुंस्त्ववर्द्धनम् / रक्तप्रसादनं चापि, स्नानमग्नेश्च दीपनम् // ... उसी प्रकरण में तन्त्रान्तर का श्लोक भी उद्धृत है। उसमें स्नान को कामाग्निसन्दीपन कहा है। प्रातः स्नानमलं च पापहरणं दुःस्वप्नविध्वंसनं, शौचस्यायतनं मलापहरणं संवर्धनं तेजसाम् / रूपद्योतकरं शरीरसुखदं कामाग्निसंदीपनं, स्त्रीणां मन्मथगाहनं श्रमहरं स्नाने दशैते गुणाः // चरक संहिता के सूत्र-स्थान में गन्ध-माल्य-निषेवण (5 / 63), संप्रसाधन (5 / 66) और पादत्र-धारण (5 / 67) को भी वृष्य कहा गया है। ... इसी तरह और भी शरीर की सार-संभाल के लिए किए जाने वाले कृत्य ब्रह्मचर्य में साधक नहीं बनते, इसलिए भगवान् महावीर ने इन्हें भी अनाचार माना है। परीषह-सहन की दृष्टि से भगवान् महावीर ने जो आचार-व्यवस्था स्वीकृत की, वह निग्नन्थ-परम्परा में उनसे पहले भी रही है। बुद्ध ने बुद्धत्व प्राप्ति से पहले की अपनी कठोर-चर्या का जो वर्णन किया है, उसकी तुलना प्रस्तुत आगम के तीसरे अध्ययन में वर्णित आचार-व्यवस्था से होती है। इसके आधार पर यह माना जाता है कि महात्मा बुद्ध ने भ० पार्श्वनाथ की परम्परा स्वीकार की थी। इससे यह सहज हो जाना जा सकता है कि भावी तीर्थङ्करों की आचार-व्यवस्था में भी परीषह-सहन का स्थान होगा। इसका निरूपण भगवान महावीर ने अपने प्रवचन में किया है। भगवान् ने कहा ___ "अज्जो ! यह मगधाधिपति श्रेणिक पहले नरक से निकल कर जब महापद्म नामक पहले तीर्थङ्कर होंगे, तब वे मेरे समान ही आचार-धर्म का निरूपण करेंगे। "अज्जो ! जैसे मैंने छह जीव-निकाय का निरूपण किया है, वैसे ही महापद्म भी छह जीव-निकाय का निरूपण करेंगे। १-चरक, सूत्र-स्थान, अध्ययन 592 / २–मज्झिम-निकाय, महासीहनादसुत्त, पृष्ठ 48-52 / ३-पार्श्वनाथ का चातुर्याम धर्म, पृष्ठ 24-26 / Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . 2. अन्तरङ्ग परिचय : साधना के अंग 105 _ "अज्जो ! जैसे मैंने पाँच महाव्रतों का निरूपण किया है, वैसे ही महापद्म भी पाँच महाव्रतों का निरूपण करेंगे। "अज्जो ! जैसे मैंने श्रमण-निग्रन्थों के लिए नग्नभाव, मुण्ड-भाव, अस्नानस्नान न करना, अदन्तवण—दतौन आदि न करना, अछत्र—छत्र धारण न करना, अनुपानक—जते न पहनना, भूमिशय्या, फलकगय्या, काष्ठ-शय्या, केश-लोच, ब्रह्मचर्य-वास, पर-गृह-प्रवेश, आदर या अनादर पूर्वक लब्ध भिक्षा का ग्रहण-इनका निरूपण किया है, वैसे ही महापद्म भी इनका निरूपण करेंगे। "अज्जो ! जैसे मैंने आधार्मिक, औद्देशिक, मिश्रजात, अध्यवतर, क्रीत, प्रामित्य, आछेद्य, अनिसृष्ट, अभिहृत, कान्तार-भक्त, दुर्भिक्ष-भक्त, ग्लान-भक्त, बाई लिका-भक्त, प्राघूर्ण-भक्त, मूल-भोजन, कन्द-भोजन, फल-भोजन, बीज-भोजन, हरित-भोजन—इनका प्रतिषेध किया है, वैसे ही महापद्म भी आधार्मिक यावत् हरित-भोजन का प्रतिषेध करगे। __"अज्जो ! जैसे मैंने शय्या-पिण्ड और राज-पिण्ड का प्रतिषेध किया है, वैसे ही महापद्म भी इनका प्रतिषेध करेंगे।'' सूत्रकृतांग में परिज्ञातव्य-प्रत्याख्यानात्मक कर्मो की लम्बी तालिका है। जम्बू के प्रश्न पर सुधर्मा स्वामी ने भगवान महावीर के धर्म का मर्म-स्पर्शी वर्णन किया है। वहाँ बहुत सारे परिज्ञातव्य-कर्म ऐसे हैं, जो दशवकालिक के इस अध्ययन में नहीं हैं। प्रस्तुत अध्ययन के अनाचारों से जिनकी तुलना होती है, वे ये हैं : (1) वस्तिकर्म, (2) विरेचन, (3) वमन, (4) अंजन, (5) गंध, (6) माल्य, (7) स्नान, (8) दंत-प्रक्षालन, (6) औद्देशिक, (10) क्रीत-कृत, (11) आहृत, (12) कल्क-उद्वर्तन, (13) सागारिक-पिण्ड, (शय्यातर-पिण्ड), (14) अष्टापद, (15) उपानत्, (16). छत्र, (17) नालिका, (18) बाल-वीजन, (16) पर-अमत्र (गृहि-अमत्र), (20) आसन्दी-पर्यक, (21) गृहान्तर-निषद्या, (22) संप्रच्छन्न, . (23) स्मरण-आतुर-स्मरण और (24) अन्नपानानुप्रदान—गृहि वैयावृत्त्य / आचाराङ्ग में भगवान के साधना-काल का अत्यन्त प्रामाणिक विवरण है। वहाँ बताया गया है कि भगवान् गृहस्थ का वस्त्र नहीं पहनते थे, गृहस्थ के पात्र में खाते भी १-स्थानांग, 9 / 3 / 693 / २-सूत्रकृतांग, 1 / 9 / 12,13 से 18,20,21,23,29 / Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 106 दशवकालिक : एक समीक्षात्मक अध्ययन नहीं थे। और वे संशोधन-विरेचन, वमन, गात्राभ्यंग, स्नान, संबाधन, मर्दन, दन्तप्रक्षालन (दतौन के द्वारा दन्त-प्रक्षालन) नहीं करते थे। सूत्रकृतांग में दन्त-प्रक्षालन, अंजन, वमन, धूप और धूम्र-पान का निषेध मिलता है। वृत्तिकार ने इन्हें उत्तर गुण कहा है। भगवान महावीर के आचार-धर्म का आधार अहिंसा है और अनाचार का आधार हिंसा है। भगवान् ने हिंसा का सामान्य निषेध किया और हिंसा के उन प्रसंगों का भी निषेध किया, जिनका आसेवन उनके समकालीन अन्य श्रमण और परिव्राजक करते थे। महात्मा बुद्ध अपने लिए बनाया हुआ भोजन लेते थे, निमन्त्रण भी स्वीकार करते थे। वैदिक-संन्यासियों व सांख्य-परिव्राजकों में कन्द-मूल-भोजन का बहुत प्रचलन था। भगवान महावीर ने इन सबका निषेध किया। निषेध का हेतु है—हिंसा का परिहार / सांख्य व वैदिक संन्यासियों में शौच का प्राधान्य था। भगवान् ने विनय-आचार को प्रधान माना, इसलिए वे शौच को वह स्थान न दे सके, जो उन्होंने विनय को दिया / स्नान के निषेध की पृष्ठभूमि में अहिंसा का विचार है।४ अपरिग्रह की दृष्टि से उन्होंने शरीर-निरपेक्षता पर बल दिया। शरीर परिग्रह है।" उसकी साज-सज्जा आसक्ति उत्पन्न करती है, इसलिए उन्होंने उद्वर्तन, अभ्यंग आदि का निरोध किया। कुछ निषेधों में ब्रह्मचर्य को सुरक्षा का दृष्टिकोण भी रहा है। शंख-लिखित ने प्रोषितभर्तृका कुल-स्त्री के लिए कुछ निषेध बतलाए हैं। वे इन्हीं के समान हैं। उसके मतानुसार प्रेखा (दोला) तांडव, विहार, चित्र-दर्शन, अंगराग, उद्यानयान, विवृतशयन, उत्कृष्ट पान तथा भोजन, कंदुक-क्रीडा, धूम्र, गंध, माल्य, अलंकार, दंतधावन, अंजन, आदर्शन, प्रसाधन आदि अस्वतंत्र प्रोषित-भर्तृका कुल-स्त्री को नहीं करना चाहिए / १-आचारांग, 119 / 1 / 19 : णो सेवइ य परवत्यं, परपाए वि से न मुंजित्था। २-वही, 119 / 4 / 2 : संसोहणं च वमणं च गायब्भंगणं च सिणाणं च / संबाहणं च न मे कप्पे दंतपक्खालणं च परिम्नाय // ३-सूत्रकृतांग, 2 / 1 / 15, वृत्ति पत्र 299 : णो दंतपक्खालणेणं दंते पक्खालेज्जा, णो अंजणं, णो वमणं, णो धूवणे जो तं परिआविएज्जा—इह पूर्वोक्तमहाव्रतपालनार्थमनेनोत्तरगुणाः प्रतिपाद्यन्ते / ४-देखो-दशवकालिक, 660-62 / ५-स्थानांग, 3 / 11138 : 'तिविहे परिगहे प० तं०-कम्मपरिमाहे सरीरपरिग्गहे बाहिरभंडमत्तपरिगहे। ६-हिन्दी साहित्य का बृहत् इतिहास, पृष्ठ 151 / Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2. अन्तरङ्ग परिचय : साधना के अंग 107 निषेध-हेतुओं का स्थूल विभाग : क्रीतकृत और सन्निधि का निषेध अपरिग्रह की दृष्टि से है। संबाधन, दंतप्रधावन, संप्रोञ्छन, देह-प्रलोकन, छत्र, चैकित्स्य, उपानत्, उद्वर्तन, वमन, वस्तिकर्म, विरेचन, अंजन, दंतवण, अभ्यंग और विभूषा--इनका निषेध देह-निर्ममत्व और ब्रह्मचर्य की दृष्टि से है। ब्रह्मचर्य की सुरक्षा के लिए भगवान ने जो प्रवचन किया, उससे इस तथ्य की पुष्टि होती है। जो भिक्षु ब्रह्मचर्य का आचरण करता है, उसके लिए अभ्यंग, अंग-प्रक्षालन, संबाधन, उपलेप, धूपन, शरीर-मण्डन, स्नान, दंत-धावन आदि निषेध बतलाए हैं। 1 जैन-परम्परा में स्नान का निषेध दशवकालिक (6 / 60-62) के अनुसार अहिंसा की दृष्टि से है और प्रश्नव्याकरण के उक्त संन्दर्भ के अनुसार ब्रह्मचर्य की दृष्टि से है / अष्टापद ( द्यत ) का निषेध क्रीड़ा-रहित मनोभाव से सम्बन्धित है आजीव-वृत्तिता का निषेध एषणा-शुद्धि की दृष्टि से है / आतुर-स्मरण का निषेध इंद्रिय-विजय, ब्रह्मचर्य आदि कई दृष्टियों से है / शेष सब निषेवों की पृष्ठभूमि अहिंसा है। ___ अगस्त्यसिंह स्थविर ने औद्देशिक आदि अनाचरणीयता के कारणों का उल्लेख किया है। उनमें जीव-वध, अधिकरण, विभूषा, उड्डाह-अपवाद, एषणा-घात, ब्रह्मचर्यबाधा, गर्व, सूत्रार्थ-बाधा, अनिस्संगता, पापानुमोदन आदि मुख्य हैं / १-प्रश्नव्याकरण, चतुर्थ संवरद्वार, सूत्र 27 : जो सुद्धं चरति बंभचेरं, इमं च रतिरागदोसमोहपवड्ढणकरं किंमज्झपमायदोसपासत्थसीलकरणं अब्भंगणाणि य तेल्लमज्जणाणि य अभिक्खणं कक्खसीस-कर - चरण-वदण-धोवण-संबाहण - गायकम्म-परिमद्दणाणुलेवण-चुन्नवासधूवण - सरीरपरिमंडण - बाउसिकहसिय-भणिय-नट्टगीयवाइयनडनट्टकजल्लमल्ल पेच्छणवलंबक जाणि य सिंगारागाराणि य अन्नाणि य एवमादियाणि तवसंजमबंभचेरघातोपघातियाइं अणुचरमाणेणं बंभचेरं वज्जयव्वाई सन्वकालं, भावेयव्वो भवइ य अंतरप्पा इमेहिं तवनियमसीलजोगेहिं निच्चकालं, किं ते ? अण्हाणगअदंतधावणसेयमलजल्लधारणंमूणवयकेसलोए य खम-दम-अचेलगखुप्पिवास-लाघव-सीतोसिण-कट्ठसेज्जा-भूमिनिसेजा परघरपवेस-लद्धावलद्धमाणावमाण निंदण-दंसमसग-फास-नियम-तव-गुण-विणयमादिएहिं जहा से थिरतरकं होइ दंभचेरं। इमं च अबंभचेरविरमणपरिरक्खणट्टयाए पावयणं भगवया सुकहियं / २-वही, चतुर्थ संवरद्वार। ३-देखो-दशवकालिक, (भा०२), पृष्ठ 43-46 / Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 108 दशवैकालिक : एक समीक्षात्मक अध्ययन विनय का दृष्टिकोण : विनय तप है और तप धर्म है, इसलिए धार्मिक को विनीत होना चाहिए-विनय करना चाहिए। जिस संघ में आचार्य और दीक्षा-पर्याय में बड़े श्रमणों के साथ विनम्र व्यवहार नहीं किया जाता, वह प्रवचन की भावना नहीं कर सकता। विनय कषाय-त्याग से उत्पन्न होता है। आचार्य से नीचे आसन पर बैठना, उनके पीछे चलना, चरण-स्पर्श करना और हाथ जोड़कर वन्दन करना (दश०६।२।१७)--यह सारा व्यावहारिक विनय है किन्तु जिसका कषाय प्रबल है, वह ऐसा नहीं कर सकता। विनय का दूसरा रूप अनुशासन है। भगवान् महावीर ने अनुशासन को साध्य-सिद्धि का बहत बडा साधन माना है। यही कारण था कि उनके जैसा सुव्यवस्थित संघ उनके किसी भी सम-सामयिक आचार्य का नहीं बना / उन्होंने कहा- “जो मुनि, बच्चे, बूढ़े, रानिक अथवा सम-वयस्क के हितानुशासन को सम्यक् भाव से स्वीकार नहीं करता और भूल को फिर न दोहराने का संकल्प नहीं करता, वह अपने साध्य की आराधना नहीं कर सकता। आचार्य का अनुशासन कौन-सी बड़ी बात है, हित का अनुशासन एक घटदासी दे, वह भी मानना चाहिए। (सूत्रकृतांग 1 / 1 / 4 / 7-8). ... विनय का तीसरा रूप है अनाशातना—किसी भी रूप में अवज्ञा न करना। इसमें छोटे-बड़े का कोई प्रश्न नहीं है। जो किसी एक मुनि की आशातना करता है, वह सबकी आशातना करता है। वह उस व्यक्ति की आशातना नहीं किन्तु ज्ञान आदि गुणों (जो उसमें, अपने में और सब में हैं ) की आशातना करता है / 2 विनय का चौथा रूप है भक्ति / बड़ों के आने पर खड़ा होना, आसन देना, सामने जाना, पहुँचाने जाना आदि-आदि सेवा-कर्म भक्ति कहलाते हैं। आन्तरिक भावना के सम्बन्ध को बहुमान कहा जाता है। यह विनय का पाँचवाँ प्रकार है। वर्ण-संज्वलन का अर्थ है सद्भूत गुणों की प्रशंसा करना। यह विनय का छठा प्रकार है / गुण-सम्वर्धन की दृष्टि से यह बहुत ही महत्त्वपूर्ण है / विनय के ये सभी प्रकार प्रस्तुत आगम में यत्र-तत्र बिखरे पड़े हैं। नवे अध्ययन की रचना इन्हीं के आधार पर १-प्रश्नव्याकरण, संवरद्वार 3 : विणओ वि तवो, तवो वि धम्मो तम्हा विणओ पउंजियन्वो। २-द्वात्रिंशद् द्वात्रिंशिका, 269 : एकस्याशातनाऽप्यत्र, सर्वेषामेव तत्त्वतः / अन्योन्यमनुविद्धा हि, तेषु ज्ञानादयो गुणाः॥ Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवकालिक : एक समीक्षात्मक अध्ययन अध्याय 3 महाव्रत Page #139 -------------------------------------------------------------------------- _ Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १-जीवों का वर्गीकरण अध्यात्म का सीधा सम्बन्ध आत्मा से है। आत्मा को जानना, देखना और पाना यही उसका आदि, मध्य और अन्त है / जो एक को जानता है, वह सबको जानता है और जो सबको जानता है, वह एक को जानता है / जो अध्यात्म को जानता है, वह बाह्य को जानता है और जो बाह्य को जानता है, वह अध्यात्म को जानता है / 2 इस सिद्धान्त की भाषा में यही तथ्य निहित है कि आत्मा को जाने बिना कोई अनात्मा को नहीं जान सकता और अनात्मा को जाने बिना कोई आत्मा को नहीं जान सकता / इन दोनों को जाने बिना कोई आत्मा को नहीं पा सकता। दशवकालिककार ने इस सत्य का उद्घाटन इन शब्दों में किया है- . जो जीवे वि न याणाइ, अजीवे वि न याणई / जीवाजीवे अयाणंतो, कहं सो नाहिइ संजमं ? // जो जीवे वि वियाणाइ, अजीवे वि वियाणई / जीवाजीवे वियाणतो, सो हु नाहिइ संजमं // 4 / 12,13 जैन-साहित्य में जीव-विज्ञान और अजीव-विज्ञान की बहुत विशद चर्चा है। दशवकालिक का जीव विभाग उतना विशद नहीं है, पर संक्षेप में उसकी रूप-रेखा का बोध कराया गया है। जन-दर्शन विश्व के समस्त जीवों को छह निकायों में वर्गीकृत करता है:१-पृथ्वीकायिक-खनिज जीव / २-अप्कायिक-जल जीव / ३—तेजस्कायिक-अग्नि जीव / * 4-- वायुकायिक -वायु जीव / ५--वनस्पतिकायिक हरित जीव / -- ३–त्रसकायिक–गतिशील जीव / -१-आचारांग, 113 / 4 / 123 : जे एगं जाणइ, से सव्वं जाणइ, जे सव्वं जाणइ से एगं जाणइ / २-वही, 1111757 : जे अज्झत्थं जाणइ से बहिया जाणइ, जे बहिया जाणइ से अज्झ जाणइ / ३-दशवकालिक, 4 // सू० 3-9 / Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 112 दशवकालिक : एक समीक्षात्मक अध्ययन इनके अवान्तर प्रकारों का भी संक्षिप्त उल्लेख मिलता है : १-पृथ्वी-भित्ति, शिला, लेष्टु / ' २-अप-ओस, हिम, महिका, करक (ओला), हरतनुक, शुद्ध-उदक / 2 ३-तेजस-अंगार, मुरमुर, अर्चि, ज्वाला, अलात्, शुद्ध-अग्नि, उल्का / 3 ४–वायु-पंखे की हवा, पत्र की हवा, शाखा की हवा, मोरपिच्छी की हवा, ___ वस्त्र की हवा, हाथ की हवा, मुँह की हवा। ५-वनस्पति—अग्नबीज, पर्वबीज, स्कन्धबीज, बीजरुह, सम्मूच्छिम, तृण-लता।" ६-त्रस—अण्डज, पोतज, जरायुज, रसज, संस्वेदज, सम्मूच्छिम, उद्भिज्ज, औपपातिक / प्रथम पाँच निकाय के जीव स्थावर होते हैं। उनका ज्ञान सर्वाधिक निम्न कोटि का होता है। अतः वे इच्छापूर्वक आ-जा नहीं सकते। उन्हें केवल एक स्पर्शन इन्द्रिय का ज्ञान प्राप्त होता है। अतः वे सब एकेन्द्रिय होते हैं / ज्ञान के विकासक्रम की दृष्टि से जीवों का विभाजन इस प्रकार होता है : १-एकेन्द्रिय, २-द्वीन्द्रिय, ३–त्रीन्द्रिय, ४-चतुरिन्द्रिय और ५–पञ्चेन्द्रिय-असंज्ञी पञ्चेन्द्रिय-तिर्यञ्च व सम्मूञ्छिम-मनुष्य, वाणव्यन्तर देव, भवनवासी देव, ज्योतिष्क देव और वैमानिक देव (कल्पोपपन्न, कल्पातीत, वेयक और अनुत्तर विमान के देव ) / द्वीन्द्रिय से लेकर पञ्चेन्द्रिय तक के सभी जीव त्रस हैं / जिन प्राणियों में सामने १-दशवैकालिक, 4 // सू० 18 / २-वही, ४ासू० 19 / ३-वही, ४ासू० 20 / ४-वही, ४।सू० 21 / ५-वही, ४।सू० 8 / ६-वही, ४।सू० 9 / ७-इनमें उत्तरोत्तर ज्ञान विकसित होता है। देखो वशवकालिक ( भा० 2), पृष्ठ 135, पाद-टिप्पण 4 / Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 3. महाव्रत : जीवों का वर्गीकरण 113 जाना, पीछे हटना, संकुचित होना, फैलना, शब्द करना, इधर-उधर जाना, भय-भीत होना, दौड़ना-ये क्रियाएँ हैं और जो आगति एवं गति के विज्ञाता हैं, वे त्रस कहलाते हैं / (4 / सू०६) ___आठवें अध्ययन (श्लोक 13-16) में आठ सूक्ष्म बतलाए गए हैं : (1) स्नेह-सूक्ष्मओस आदि, (2) पुष्प-सूक्ष्म-बरगद आदि के फूल, (3) प्राण-सूक्ष्म-कुन्थु आदि सूक्ष्म अन्तु, (4) उत्तिंग सूक्ष्म-कीडीनगरा, (5) पनक-सूक्ष्म-पंच वर्ण वाली काई, (6) बीज-सूक्ष्म-सरसों आदि के मुँह पर होने वाली कणिका, (7) हरित-सूक्ष्म-तत्काल उत्पन्न अंकुर ओर (8) अण्ड-सूक्ष्म-मधुमक्खी, कीडी, मकड़ी, ब्राह्मणी और गिरगिट के अण्डे / ' त्रस जीव हमारे प्रत्यक्ष हैं। वनस्पति को भी जीव मानने में उतनी कठिनाई नहीं है जितनी शेष चार निकायों को मानने में है। पृथ्वी, जल, अग्नि और वायु में जीव नहीं किन्तु ये स्वयं जीव हैं-यह धातुवादी बौद्धों और भूतवादी नैयायिकों को ही अमान्य नहीं किन्तु वर्तमान विज्ञान को भी अमान्य है। जैन-दर्शन के अनुसार सारा दृश्य-जगत् या तो सजीव है या जीव का परित्यक्त शरीर। इस विश्व में जितना कठोर द्रव्य है वह सब सजीव है। विरोधी शस्त्र से उपहत होने पर वह निर्जीव हो जाता है। इसका तात्पर्य है कि प्रारम्भ में सारी पृथ्वी सजीव होती है, फिर जल आदि विरोधी द्रव्यों के योग से वह निर्जीव हो जाती है। इस प्रकार पृथ्वी की दो अवस्थाएँ बनती हैं : शस्त्र से अनुपहत-सजीव और शस्त्र से उपहत-निर्जीव / इसी प्रकार जितना द्रव, जितना उष्ण, जितना स्वतः तिर्यग् गतिशील और जितना चय-अपचयशील द्रव्य होता है, वह सब प्रारम्भ में सजीव ही होता है। इन छहों निकायों का विवरण इस प्रकार है : जीवनिकाय लक्षण शस्त्र से अनुपहत शस्त्र से उपहत (1) पृथ्वी कठोरता सजीव निर्जीव * (2) अप द्रवता (3) तेजस् उष्णता (4) वायु स्वतः तिर्यग् गतिशीलता , (5) वनस्पति चय-अपचयधर्मता (6) त्रस चय-अपचयधर्मता इस प्रकार षट् जीवनिकाय का संक्षिप्त वर्णन इस आगम में मिलता है। (4 / सू० 4-6) १-देखो-दशवैका लिक (भाग-२), पृष्ठ 420-21, श्लोक 15 के टिप्पण। Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २-संक्षिप्त व्याख्या 1. अहिंसा अहिंसा और समता : भगवान् महावीर समता-धर्म के महान् प्रवर्तक थे। उन्होंने कहा—''मेरी वाणी में आस्था रखने वाला भिक्षु छहों निकायों को अपनी आत्मा के समान माने।"'' इस आत्म-साम्य की भूमिका से उन्होंने अपने भिक्षुओं को अनेक निर्देश दिए। आत्मौपम्य की कसौटी पर उन्हें कसा जाता है तो वे शत-प्रतिशत खरे उतरते हैं। निरे बुद्धिवादी दृष्टिकोण से देखने पर वे कुछ स्वाभाविक लगते हैं, कुछ अस्वाभाविक भी। किन्तु सम्यग् दृष्टिकोण होने पर वे अस्वाभाविक नहीं लगते। भगवान् के निर्देशों का सार इस प्रकार है : पृथ्वी-जगत् और अहिंसक निर्देश : __मुनि सजीव पृथ्वी को न कुरेदे और न उसका भेदन करे / 2 सजीव मिट्टी, क्षार, हरिताल, हिंगुल, मैनशिल आदि से लिप्त हाथ व कड़छी से भिक्षा न ले। शुद्ध-पृथ्वी और मिट्टी के रजकणों से भरे हुए आसन पर न बैठे।४ गात्र की उष्मा से पृथ्वी के जीवों की विराधना होती है, इसलिए शुद्ध-पृथ्बी ( शस्त्र से अनुपहत पृथ्वी ) पर नहीं बैठना चाहिए। इसका दूसरा अर्थ यह भी हो सकता है-शुद्ध-पृथ्वी पर नहीं बैठना चाहिए अर्थात् निर्जीव पृथ्वी पर भी कंबल आदि बिछाए बिना नहीं बैठना चाहिए, क्योंकि शुद्ध-पृथ्वी पर बैठने से उसके निम्न भाग में रहे हुए जीवों की विराधना होती है / 5 खाने-पीने के अयोग्य वस्तु को निर्जीव पृथ्वी पर डाले / मल, १-दशवकालिक, 10 / 5 / २-वही, ४।सू० 18 ; 8 / 4 / मिलाइए-अष्टाङ्गहृदय, सूत्र-स्थान, 2 // 36 : नाकस्माद् विलिखेद् भुवम् / ३-वही, 5 // 1 // 33-35 / ४-वही, 8.5 / ५-वही, (भाग-२), पृष्ठ 416, श्लोक 5 के टिप्पण। ६-वही, 5 // 180-81 / Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 3. महाव्रत :संक्षिप्त व्याख्या 115 मूत्र, श्लेष्मादि का उत्सर्ग भी अचित्त पृथ्वी पर करे।' पृथ्वी का खनन न करे / ' पृथ्वी की किसी भी प्रकार से हिंसा न करे / अपूकाय (जल): आयुर्वेद साहित्य में जल के दो विभाग वर्णित हैं—(१) आन्तरिक्ष और (2) भौम / आन्तरिक्ष जल चार प्रकार का होता है : (1) धार- धार बन्ध बरसा हुआ जल / (2) कार- ओले का जल / (3) तौषार- तुषार-जल / (4) हैम- हिम-जल। भौम जल सात प्रकार का होता है : (1) कौप- कुएँ का जल। . (2) नादेय- नदी का जल / (3) सारस- सरोवर का जल / (4) ताडाग- तालाब का जल / (5) प्राश्रवण- झरने का जल / (6) औद्भिद्- पृथ्वी फोड़ कर निकला हुआ जल। (7) चौण्ट्य- बिना बन्धे हुए कुएँ का जल / दशवैकालिक के कर्ता ने जल के मुख्य दो विभाग किए हैं—(१) उदक-भूमि-जल और (2) शुद्धोदक–अन्तरिक्ष-जल / ओस, हिम, महिका, ( तुषार ), करक (ओले)-ये अन्तरिक्ष-जल के प्रकार हैं। हरतनुक औद्भिद् जल-यह भूमि-जल का प्रकार है / कुएँ आदि का पानी भी उदक शब्द के द्वारा संगृहीत है। इस प्रकार जल का विभाग वैसा ही है, जैसा आयुर्वेद-जगत् में सम्मत है / १-दशवकालिक, 8 / 18 / २-वही, 10 / 2 / -३-वही, 6 / 26,29 / ४-सुश्रुत, सूत्र-स्थान, 457 / Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 116 दशवकालिक : एक समीक्षात्मक अध्ययन अप-जगत् और अहिंसक निर्देश : मुनि सजीव जल का स्पर्श न करे। सजीव जल से भीगे हुए वस्त्र या शरीर का न स्पर्श करे, न निचोड़े, न झटके, न सुखाए और न तपाए।' जल की किसी भी प्रकार से हिंसा न करे। शीतोदक का सेवन न करे / तप्तानिवृत–तप्त होने पर जो निर्जीव हो गया हो, वैसा जल ले। ___तप्त और अनिवृत-इन दो शब्दों का समास मिश्र (सचित्त-अचित्त) वस्तु'का अर्थ जताने के लिए हुआ है। जितनी दृश्य वस्तुएँ हैं वे पहले सचित्त होती हैं। उनमें से जब जीव च्युत हो जाते हैं, केवल शरीर रह जाते हैं, तब वे वस्तुएं अचित्त बन जाती हैं। जीवों का च्यवन काल-मर्यादा के अनुसार स्वयं होता है और विरोधी पदार्थ के संयोग से काल-मर्यादा से पहले भी हो सकता है। जीवों की मृत्यु के कारण-भूत विरोधी पदार्थ शस्त्र कहलाते हैं। मिट्टी, जल, वनस्पति और त्रस जीवों का शस्त्र अग्नि है। जल और वनस्पति सचित्त होते हैं। अग्नि से उबालने पर ये अचित्त ही हैं। किन्तु ये पूर्ण-मात्रा में उबाले हुए न हों उस स्थिति में मिश्र बन जाते हैं—कुछ जीव मरते हैं, कुछ नहीं मरते, इसलिए वे सचित्त-अचित्त बन जाते हैं। इस प्रकार के पदार्थ को तप्तानित कहा जाता है।४ ___गर्म होने के बाद ठंडा हुआ पानी कुछ समय में फिर सचित्त हो जाता है, उसे भी तप्तानिवृत कहा गया है। अगस्त्यसिंह स्थविर के अनुसार ग्रीष्म-काल में एक दिन-रात के बाद गर्म पानी फिर सचित्त हो जाता है तथा हेमन्त और वर्षा-ऋतु के पूर्वाह्न में गर्म किया हुआ जल अपराह्न में सचित्त हो जाता है।५ जिनदास महत्तर का भी यही अभिमत रहा १-दशवैकालिक, ४।सू०२०; 87 / २-वही, 6 / 29,30,31 / ३-वही, 8 / 6 / ४-अगस्त्य चूर्णि: जाव णातीवअगणिपरिणतं तं तत्तअपरिणिव्वुडं। ५-वही: अहवा तत्तं पाणितं पुणो सीतलीभूतं आउक्कायपरिणामं जाति तं अपरिणयं अणिव्वुडं गिम्हे अहोरत्तेणं सचित्ती भवति, हेमन्ते-वासासु, पुव्वण्हे कतं अवरण्हे। Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 3. महाव्रत : संक्षिप्त व्याख्या है।' टीकाकार ने इसके बारे में कोई चर्चा नहीं की है। ओघनियुक्ति आदि ग्रन्थों में अचित्त वस्तु के फिर से सचित्त होने का वर्णन मिलता है। जल की योनि अचित्त भी होती है / 2 सूत्रकृतांग (2 // 3 // 56 ) के अनुसार जल के जीव दो प्रकार के होते हैं-वातयोनिक और उदक-योनिक / उदक-योनिक जल के जीव उदक में ही पैदा होते हैं। वे सचित्त उदक में ही पैदा हों, अचित्त में नहीं हों, ऐसे विभाग का आधार नहीं मिलता क्योंकि वह अचित्त-योनिक भी है। इसलिए यह सूक्ष्म-दृष्टि से विमर्शनीय है। प्राणीविज्ञान की दृष्टि से यह बहुत ही महत्त्व का है। तेजस-जगत् और अहिंसक निर्देश : तेजस काय के जीवों के भेद इस प्रकार हैं : अग्नि- स्पर्श-ग्राह्य अग्नि / अंगार- ज्वाला रहित कोयला आदि / मुर्मुर- कंडे, करसी, तुष, चोकर, भूसी आदि की आग। . अर्चि- अग्नि से विच्छिन्न ज्वाला। अलात- अधजली लकड़ी। शुद्ध-अग्नि-इन्धन रहित अग्नि / - उल्का-- गगनाग्नि / मुनि इनको प्रदीप्त न करे, इनका घर्षण न करे, इनको प्रज्वलित न करे, इनको न बुझाये / 3 प्रकाश और तापने के लिए अग्नि न जलाए। अग्नि की किसी प्रकार से हिंसा न करे।" १-जिनदास चूर्णि, पृष्ठ 114 : तत्तं पाणीयं तं पुणो सीतलीभूतमनिव्वुडं भण्णइ, तं च न गिण्हे, रत्तिं पज्जुसियं सचित्ती भवइ, हेमंतवासासु पुवण्हे कयं अवरण्हे सचित्ती भवति, एवं सचित्तं जो मुंजइ सो तत्तानिव्वुडभोई भवइ / . २-स्थानांग, 3 / 1 / 140 : तिविहा जोणी पण्णत्ता तंजहा–सचित्ता अचित्ता मीसिया। एवं एगिदियाणं विगलिंबियाणं संमुच्छिमपंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं समुच्छिममणुस्साण य। ३-दशवकालिक, ४।सू०२०; 88 / ४-वही, 6 / 34 / ५-वही, 6 / 32-35 / ... ............. Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 118 दशवैकालिक : एक समीक्षात्मक अध्ययन वायु-जगत् और अहिंसक निर्देश : मुनि चामर आदि से अपने पर या दूसरों पर हवा न करे। मुंह से फूंक न दे / / वायुकाय की किसी भी प्रकार से हिंसा न करे / वनस्पति : आयुर्वेद के ग्रन्थों में वनस्पति का एक विशेष अर्थ है। सुश्रुत संहिता में स्थावर औषधि के चार प्रकार बतलाए गए हैं—(१) वनस्पति, (2) वृक्ष, (3) वीरुधं और (4) औषधि। इनमें से जिनके पुष्प न हों किन्तु फल आते हों उन्हें वनस्पति ; जिनके पुष्प और फल दोनों आते हों उन्हें वृक्ष , जो फैलने वाली या गुल्म के स्वरूप की हों उन्हें वीरुध तथा जो फलों के पकने तक ही जीवित या विद्यमान रहती हों उन्हें ओषधि कहते हैं / 3 . आगम-साहित्य में वनस्पति शब्द वृक्ष गुच्छ, गुल्म आदि सभी प्रकार की हरियाली का वाचक है। सातवें अध्ययन में वनस्पति के क्रमिक विकास का निरूपण मिलता है। उसका उत्पादन सात अवस्थाओं में पूरा होता है / वे ये हैं : २-बहु संभूत। ३-स्थिर। ४-उत्सृत / ५-गर्भित / ६-प्रसूत / ७-ससार। १-दशवकालिक, ४ासू०२१८।। २-वही, 6 // 36-39 / ३-सुश्रुत, सूत्र-स्थान, 1137 : तासां स्थावराश्चतुर्विधाः-वनस्पतयो, वृक्षा, वीरुध, ओषधय इति / तासु अपुष्पाः फलवन्तो वनस्पतयः / पुष्पफलवन्तो वृक्षाः / प्रतानवत्यः स्तम्बिन्यस्य वीरुधः / फलपाकनिष्ठा ओषधयः इति / ४-दशवकालिक, 4 / 08 / ५-देखो-दशवकालिक (भा०२), पृष्ठ 391-92, श्लोक 35 का टिप्पण / Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 3. महाव्रत : संक्षिप्त व्याख्या 116 वनस्पति की दश अवस्थाएँ होती हैं—(१) मूल, (2) कन्द, (3) स्कन्ध, (4) त्वचा, (5) शाखा, (6) प्रवाल, (7) पत्र, (8) पुष्प, (6) फल और (10) बीज / शिष्य ने पूछा- “गुरुदेव ! बीज में जो जीव था, उसके व्युत्क्रान्त होने पर क्या दूसरा जीव वहाँ उत्पन्न होता है या वही जीव ?" आचार्य ने कहा-'बीज दो प्रकार के हैं-योनिभूत और अयोनिभूत। योनिभूत बीज वह होता है जिसकी योनि नष्ट न हुई हो। जिस प्रकार 55 वर्ष की स्त्री अयोनिभूत होती है—वह गर्भ को धारण नहीं कर सकती, उसी प्रकार ये बीज भी कालान्तर में अबीज हो जाते हैं। जो अयोनिभूत है वह नियमतः निर्जीव होता है। योनिभूत सजीव और निर्जीव—दोनों प्रकार का होता है। उस योनिभूत बीज में व्युत्क्रान्त होने वाला जीव भी उत्पन्न हो सकता है और दूसरा जीव भी। फिर बार-बार वहाँ दूसरे जीव भी उत्पन्न हो सकते हैं / कहा है-उत्पद्यमान सभी किसलय अनन्तजीवी होते हैं। बढ़ता हुआ वही वनस्पति अनन्तजीवी या परित्तजीवी भी हो सकता है। बीज शरीरी जीव जहाँ-जहाँ अपनी काया को बढ़ाता है वहाँ-वहाँ पत्र, फूल, स्कन्ध, शाखा आदि को भी उत्पन्न करता है / "1 वर्षा से उष्णयोनिक वनस्पति म्लान हो जाती है। विभिन्न प्रकरणों में जलज व स्थलज वनस्पति के अनेक नाम मिलते हैं : जलज स्थलज .. १-हड (2 / 6) आदि-आदि। १-मूला। २–आर्द्रक। ३-इक्षु। ४–कन्द-मूल (3 / 7) आदि-आदि / वनस्पति-जगत् और अहिंसक निर्देश : __मुनि वनस्पति पर न चले, न खड़ा रहे, न बैठे और न सोए। वनस्पति को १-जिनदास चूर्णि, पृष्ठ 138-139 / २-वही, पृष्ठ 262 : उहजोणिओ वा वणप्फइ वा कुहेज्जा। ३-दशवकालिक, ४।सू०२२, 5 // 1 // 3,26; 8 / 11 / Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 121 3. महाव्रत : संक्षिप्त व्याख्या हैं-ऐसा न कहे / ' मेष, बालक, कुत्ते और बछड़े को उल्लंघ कर प्रवेश न करे / 2 त्रस काय की किसी भी प्रकार से हिंसा न करे / 2. सत्य . मुनि न स्वयं असत्य बोले, न दूसरों को असत्य बोलने की प्रेरणा दे और न असत्य का अनुमोदन करे।४ क्रोध से या भय से, अपने लिए या दूसरों के लिए झूठ न बोले / अप्रिय-सत्य भी न बोले / 5 सत्य में रत रहे / 6 3. अचौय मुनि गाँव में, नगर में या अरण्य में, थोड़ी या बहुत, छोटी या बड़ी, सजीव या निर्जीव-कोई भी वस्तु बिना दी हुई न ले, स्वामी की आज्ञा के बिना न ले। न दूसरों को इस प्रकार अदत्त लेने की प्रेरणा दे और न अदत्त ग्रहण का अनुमोदन करे / तपस्या, वय, रूप और आचार-भाव की चोरी न करे / 8. ब्रह्मचर्य मुनि देव, मनुष्य या तिथंच सम्बन्धी मैथुन का सेवन न स्वयं करे, न दूसरों को मैथुन-सेवन के लिए प्रेरित करे और न मैथुन-सेवन का अनुमोदन करे / ब्रह्मचर्य घोर है, प्रमाद है, उसका सेवन न करे / 10 केवल स्त्रियों के बीच व्याख्यान न दे / 11 स्त्रियों के चित्रों से चिंत्रित भित्ति या आभूषणों से सुसज्जित स्त्री को टकटकी लगा कर न १-दशवकालिक, 7 / 24 / २-वही, 5 / 1 / 22 / ३-वही, 6143-45 / ४-वही, ४ासू०१२। ५-वही, 6 / 11 / ६-वही, 9 / 3 / 3 / ७-वही, ४ासू०१३।६।१३,१४ / ८-वही, 22 / 46 / ९-वही, ४ासू०१४ / १०-वही, 6 / 15 / ११-वही, 8.52 / Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 121 3. महाव्रत : संक्षिप्त व्याख्या हैं-ऐसा न कहे / ' मेष, बालक, कुत्ते और बछड़े को उल्लंघ कर प्रवेश न करे / / त्रस काय की किसी भी प्रकार से हिंसा न करे / 2. सत्य ___ मुनि न स्वयं असत्य बोले, न दूसरों को असत्य बोलने की प्रेरणा दे और न असत्य का अनुमोदन करे।४ क्रोध से या भय से, अपने लिए या दूसरों के लिए झूठ न बोले / अप्रिय-सत्य भी न बोले / 5 सत्य में रत रहे / 3. अचौय ___ मुनि गाँव में, नगर में या अरण्य में, थोड़ी या बहुत, छोटी या बड़ी, सजीव या निर्जीव-कोई भी वस्तु बिना दी हुई न ले, स्वामी की आज्ञा के बिना न ले। न दूसरों को इस प्रकार अदत्त लेने की प्रेरणा दे और न अदत्त ग्रहण का अनुमोदन करे / तपस्या, वय, रूप और आचार-भाव की चोरी न करे / 8. ब्रह्मचर्य ___मुनि देव, मनुष्य या तियंच सम्बन्धी मैथुन का सेवन न स्वयं करे, न दूसरों को मैथुन-सेवन के लिए प्रेरित करे और न मैथुन-सेवन का अनुमोदन करे। ब्रह्मचर्य घोर है, प्रमाद है, उसका सेवन न करे / 10 केवल स्त्रियों के बीच व्याख्यान न दे / 11 स्त्रियों के चित्रों से चित्रित भित्ति या आभूषणों से सुसज्जित स्त्री को टकटकी लगा कर न १-दशवकालिक, 724 / २-वही, 5 // 1 // 22 // ३-वही, 6143-45 // ४-वही, ४।सू०१२। ५-वही, 6 / 11 / ६-वही, 9 / 3 / 3 / ७-वही, ४ासू०१३;६।१३,१४ / ८-वही, 22146 / ९-वही, ४ासू०१४॥ १०-वही, 6 / 15 / ११-वही, 8152 / Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 122 दशवकालिक : एक समीक्षात्मक अध्ययन देखे / ' विकलांग या वृद्ध स्त्री से भी दूर रहे / 2 विभूषा न करे। प्रणीत रस का भोजन न करे। स्त्री का संसर्ग न करे / 3 स्त्रियों के अंग, प्रत्यंग, संस्थान, मधुर बोली और कटाक्ष को न देखे / 4 ब्रह्मचारी मनोज्ञ. विषयों में राग-भाव न करे / आसक्त दृष्टि से न देखे। घर में जा अतिदूर तक न देखे / 6 स्नान-घर और शौच-गृह को न देखे / " 5. अपरिग्रह मुनि गाँव, नगर या अरण्य में अल्प या बहुत, छोटी या बड़ी, सजीव या निर्जीवकोई भी वस्तु पर ममत्व न रखे, न दूसरों को ममत्व रखने की प्रेरणा दे और न ममत्व का अनुमोदन करे / खाद्य-पदार्थों का संग्रह न करे। ये मेरे कल काम आयेंगे—ऐसा सोच संचय न करे। मुनि वस्त्र, पात्र तो क्या शरीर पर भी ममत्व न रखे / 10 उपधि में आसक्त न बने / 11 ऋद्धि, सत्कार और पूजा की भावना का त्याग करे / जीवन की अभिलाषा न करे / 12 मुनि भोजन के लिए कहीं प्रतिबद्ध न हो / 13 ... १-दशवकालिक, 8 / 53,54 / २-वही, 8 // 55 // ३-वही, 8.56 / ४-वही, 8 / 57 / ५-वही, 8.58 / ६-वही, 5 // 1 // 23 // ७-वही, 5 // 125 // ८-वही, ४ासू०१५॥ ९-वही, 6 / 17; 108 / १०-वही, 6 / 21 / ११-वही, 10 / 16 / १२-वही, 10 // 17 // १३-वही, 115 // Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवकालिक H एक समीक्षात्मक अध्ययन अध्याय 4 चर्या-पथ Page #153 -------------------------------------------------------------------------- _ Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १-चर्या और विहार मुनि आतापना ले-परिश्रमी बने,सुकुमारता को छोड़े-कष्ट-सहिष्ण बने। वहस्नान न करे।' गन्ध न सूधे / गन्ध-द्रव्य का विलेपन न करे / 2 माला न पहने / ' पंखा न झले। गृहस्थ के पात्र में भोजन न करे। राज-पिण्ड न ले।५ दानशाला से न ले।६ अंग-मर्दन न करे। दाँत न पखारे। दतौन न करे। शरीर का प्रमार्जन न करे। दर्पण आदि में शरीर न देखे।१० शतरंज न खेले / जूआ न खेले।" छत्र धारण न करे / 12 जूते न पहने / 3 उबटन न करे / 14 रूप-बल, कान्ति बढ़ाने के लिए धूम्रपान न करे, वमन न करे, वस्तिकर्म न करे / विरेचन न ले।१५ आँखों में अंजन न आंजे / 16 तैल-मर्दन न करे / 17 शरीर को अलंकृत न करे। 18 ... १,२,३,४-दशवकालिक, 32, 6 / 60-63 / ५,६,७,८,९,१०-वही, 3 / 3 / ११,१२,१३-वही, 3 / 4 / १४.-वही, 3 / 5 / १५,१६,१७,१८-वही, 3 / 9 / Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 127 4. चर्यापथ : चर्या और विहार से पालन करे / ' छोटे-बड़े, स्त्री-पुरुष, गृहस्थ-साधु-किसी का तिरस्कार न करे / 2 तीर्थकर के वचन में स्थिर रहे / अधन-अकिंचन बना रहे / गृहपति की आज्ञा लिए बिना चिक आदि को हटा कर अन्दर प्रवेश न करे। बहुश्रुत के पास बैठे, अर्थ का निश्चय करे। बहुश्रुत का उपहास न करे / 5 भोजन कर स्वाध्याय में लीन हो जाए।६ कभी भयभीत न हो / सुख-दुख में सम रहे। भोग-प्राप्ति का संकल्प न करे।' कुतूहल न करे। ऋद्धि, सत्कार और पूजा को त्यागे / 10 स्थितात्मा बने / 11 रूप और लाभ का मद न करे / 12 १-वही, 8 / 60 / २-वही, 9 / 3 / 12 / ३-वही, 10 / 6 / . . ४-वही, 51318 / 5- वही, 8 / 43,49 / ६-वही, 10 / 9 / ७-वही, 10 / 12 / ८-वही, 10 / 11 / ९.-वही, 10 / 13 / १०-वही, 10 // 17 // ११-वही, 10 / 17 / १२-वही 10 / 19 / Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4. चर्यापथ : चर्या और विहार 127 से पालन करे / ' छोटे-बड़े, स्त्री-पुरुष, गृहस्थ-साधु-किसी का तिरस्कार न करे / तीर्थकर के वचन में स्थिर रहे / अधन-अकिंचन बना रहे।३ गृहपति की आज्ञा लिए बिना चिक आदि को हटा कर अन्दर प्रवेश न करे। बहुश्रुत के पास बैठे, अर्थ का निश्चय करे। बहुश्रुत का उपहास न करे / 5 भोजन कर स्वाध्याय में लीन हो जाए।६ कभी भयभीत न हो। सुख-दुख में सम रहे। भोग-प्राप्ति का संकल्प न करे। कुतूहल न करे। ऋद्धि, सत्कार और पूजा को त्यागे / 10 स्थितात्मा बने / 11 रूप और लाभ का मद न करे / 12 १-वही, 8060 / २-बही, 9 / 3 / 12 / ३-वही, 10 // 6 / .४-वही, 551 / 18 / ५-वही, 8143,49 / ६-वही, 10 / 9 / / ७-वही, 10 / 12 / ८-वही, 10 / 11 / ९.-वही, 10 / 13 / १०-वही, 10 / 17 / .... ११-वही, 1017 // १२-वही 10 / 19 / Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २-वेग-निरोध मल-मूत्र के वेग को न रोके। मल-मूत्र की बाधा होने पर प्रासुक स्थान. देख कर, गृहस्वामी की आज्ञा ले, उससे निवृत्त हो जाए। अगस्त्यसिंह स्थविर मल-मूत्र आदि आवेगों को रोकने से होने वाले रोगों का दिग्दर्शन कराते हुए कहते हैं-मूत्र का वेग रोकने से चक्षु की ज्योति नष्ट हो जाती है। मल का वेग रोकने से जीवनी-शक्ति का नाश होता है। ऊर्ध्व वायु रोकने से कुष्ठ-रोग उत्पन्न होता है और वीर्य का वेग रोकने से पुरुषत्व की हानि होती है / 2 . वेग-निरोध के सम्बन्ध में आयुर्वेद का अभिमत यह है--मनुष्य वात (ऊर्ध्व वात एवं भधोवात) मल, मूत्र, छींक, प्यास, भूख, निद्रा, कास, श्रम-जनित श्वास, जम्भाई, अश्रु, वमन और शुक्र—इन तेरह वस्तुओं के उपस्थित (बहिर्गमनोन्मुख) वेगों को न रोके / मल के वेग को रोकने से पिण्डलियों में ऐंठन, प्रतिश्याय, सिरदर्द, वायु का ऊपर को जाना, पडिकतिका, हृदय का अवरोध, मुख से मल का आना और पूर्वोक्त वात-रोध जन्य गुल्म, उदावत आदि रोग होते हैं। मूत्र के उपस्थित वेग को रोकने से—अङ्गों का टूटना, पथरी, वस्ति, मेहन (शिश्न) वंक्षण में वेदना होती है। वात और मलरोध जन्य रोग भी प्रायः होते हैं, अर्थात् कभी नहीं भी होते हैं / १-दशवैकालिक, 5 // 1 // 19 / २-अगस्व चूर्णि : मुत्तनिरोहे चक्खू, वच्चनिरोहे य जीवियं चयति / उड्ढं निरोहे कोढं, सुक्कनिरोहे भवइ अपुमं // ३-अप्टांगहृदय, सूत्रस्थान, 4 / 1 : वेगान्नधारयेद्वातविण्मूत्रक्षवतृक्षुधाम् / निद्राकासश्रमश्वासजृम्भाऽश्रुच्छदिरेतसाम् / / ४-वही, 4 // 3-4 / Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३-ईर्यापथ कैसे चले ? मुनि संयम पूर्वक चले—सावधान होकर चले / ' धीमे चले, उद्वेग-रहित होकर चले, चित्त की आकुलता को मिटा कर चले / 2 युग-मात्र भूमि को देख कर चले। आयुर्वेद के ग्रन्थों में भी युग-मात्र भूमि को देख कर चलने का विधान मिलता है'विचरेद् युगमात्रक'। विषम मार्ग से न जाए।५ कोयले, राख, तुष और गोबर की राशि को सजीव रजकणों से भरे हुए पैरों से लांघ कर न चले / 6 अष्टांगहृदय में भी राख आदि के ढेर को लाँघ कर जाने का निषेध किया गया है। उसका उद्देश्य भले भिन्न हो पर नियम-निर्माण भिन्न नहीं है। वह इस प्रकार है-चैत्य (ग्राम का पूज्य वृक्ष), पूज्य (पूजा के योग्य गुरु, पिता आदि), ध्वजा, अशस्त (चाण्डाल आदि)-इनकी छाया को न लाँघे। भस्म (राख का ढेर), तुष (धान्य की भूसी), अशुचि (मल, मूत्र, जूठन आदि), शर्करा (कंकड़), मिट्टी के ढेले, बलि-भूमि (जहाँ बलि दी गई हो), स्नान-भूमि (जहाँ स्नान किया हो)-इनको भी नहीं लाँघे / वर्षा, धूअर और महावायु में न चले / उड़ने काले जीव अधिक हों तब न चले / ' कुत्ते, नव-प्रसूता गाय, उन्मत्त बैल, घोड़े-हाथी, बच्चों की क्रीडा-स्थली, कलह और युद्ध से बच कर चले।९ अष्टांगहृदय में लिखा हैहिंसक पशु, दंष्ट्री—साँप आदि और सींग वाले—मेष आदि से बचे।' ऊँचा मुख कर न चले, १-दशवैकालिक, 4 / 8 / २-वही, 512 / . ३-वही, 5 // 1 // 3 / ४-अष्टांगहृदय, सूत्रस्थान, 2 // 32 // .५-दशवैकालिक, 5 // 114,6 / ६-वही, // 17 // ७-अष्टांगहृदय, सूत्रस्थान, 2 // 33 // 34 : . चैत्यपूज्यध्वजाशस्तच्छायाभस्मतुषाशुचीन् / नाक्रामेच्छर्करालोष्टबलिस्नान भुवो न च // -दशवैकालिक, 5 // 1 // 8,9 / .. ९-वही, 11 / 12 / १०-अष्टांगहृदय, सूत्रस्थान, 2041 / Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 130 दशवैकालिक : एक समीक्षात्मक अध्ययन झुक कर न चले, बहुत हृष्ट या बहुत आकुल होकर न चले, इन्द्रियों को अपने स्थान में नियोजित करके चले।' दौड़ता, बोलता और हँसता हुआ न चले / 2 गवाक्ष * आदि शंकनीय स्थानों को देखता हुआ न चले / भेड़, बच्चे, कुत्ते और बछड़े को लांघ कर प्रवेश न करे। हिलते हुए काठ, शिला या ईट के टुकड़ों पर से न चले। नाना प्रकार के प्राणी भोजन के लिए एकत्रित हों, उनके सम्मुख न जाए। उन्हें त्रास न देता. हुआ यतनापूर्वक चले / 6.. कैसे बैठे? मुनि संयम पूर्वक बैठे-सावधानी से बैठे / आसन्दी, पर्यक, मंच, आसालक (अवष्टम्भ सहित आसन), वस्त्र से गूंथे हुए आसन और पीठ पर न बैठे। भिक्षा करते समय गृहस्थ के घर में न बैठे।' शुद्ध पृथ्वी-शस्त्र से अनुपहत पृथ्वी पर या पृथ्वी पर कुछ बिछाए बिना न बैठे। अचित्त पृथ्वी पर प्रमार्जन कर, आज्ञा लेकर बैठे / 10 आठ प्रकार के सूक्ष्म जीवों को देख कर बैठे / 11 आचार्य के बराबर, आगे और पीछे न बैठे। गुरु के ऊरु से अपना ऊरु सटा कर न बैठे / 12 गुरु के पास हाथ, पैर और शरीर को गुप्त कर बैठे / 13 कैसे खड़ा रहे ? मुनि संयमपूर्वक खड़ा रहे / '4 पानी तथा मिट्टी लाने के मार्ग और बीज तथा १-दशवकालिक, 5 // 1 / 13 / / २-वही, 5 // 114 // ३-वही, 5!1 / 15 / ४-वही, 5 / 1 / 22 / ५-वही, 5 / 1 / 65 / ६-वही, 5 / 2 / 7 / - ७-वही, 4 / 8 / ८-वही, 335,6 / 53,54 / ९-वही, 335,6 / 57 / १०-वही, 8.5 / ११-वही, 8 / 13 / १२-वही, 8 / 45 / १३-वही, 8 / 44 / १४-वही, 4 / 8 / Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4. चर्यापथ : ईर्यापथ 131 हरियाली का वर्जन कर खड़ा रहे / ' आगल, परिघ, द्वार या किंवाड़ का सहारा लेकर खड़ा न रहे / 2 किसी घर के आगे वनीपक आदि याचक खड़े हों तो मुनि उनको या गृहस्वामी को दीखे, वैसे खड़ा न रहे, एकान्त में जाकर खड़ा हो जाए। वन-निकुंज के बीच, बीज, हरित, अनन्त कायिक वनस्पति, सर्पच्छत्र, काई आदि पर खड़ा न रहे। आठ प्रकार के सूक्ष्म जीवों को देख कर खड़ा रहे।५ गृहस्थ के घर में मुनि झरोखा, सन्धि आदि स्थानों को देखता हुआ खड़ा न रहे, उचित स्थान में खड़ा रहे / 6 १-दशवकालिक, 5 // 1 / 26 / २-वही, 5 / 2 / 9 / ३-वही, // 2 // 11 / ४-वही, 8 / 11 / ५-वही, 8 / 13 / ६-वही, 531115 / Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४-वाक्-शुद्धि कैसे बोले ? ___ मुनि चार भाषाएँ न बोले --- (1) अवक्तव्य-सत्य भाषा, (2) सत्य-असत्य भाषा, (3) असत्य भाषा, और (4) अनाचीर्ण व्यवहार भाषा / ' अपापकारी, अकर्कश, असंदिग्ध सत्य और व्यवहार भाषा बोले / 2 अपने आशय को संदिग्ध बनाने वाला सत्य भी न बोले। शंकित भाषा न बोले / काने को काना, नपुंसक को नपुंसक, रोगी को रोगी और चोर को चोर न कहे।५ किसी को होल, गोल, आदि अवज्ञा-सूचक शब्दों से सम्बोधित न करे / 6 किसी स्त्री को दादी, नानी, माँ, मौसी, भानजी आदि स्नेह-सूचक शब्दों से सम्बोधित न करे। किन्तु उनकी अवस्था, देश, ऐश्वर्य आदि की अपेक्षा गुण-दोष का विचार कर उनके मूल नाम या गोत्र से सम्बोधित करे। किसी पुरुष को दादा, नाना, चाचा, मामा, पोता आदि स्नेह-सूचक शब्दों से सम्बोधित न करे / किन्तु उन्हें नाम या गोत्र से सम्बोधित करे / ' पंचेन्द्रिय जीवों के बारे में स्त्री-पुरुष का सन्देह हो तो उनके लिए जाति-शब्द का प्रयोग करे।' मनुष्य, पशु आदि स्थूल, प्रमेदुर, वध्य, पाक्य हैं—ऐसा न बोले / किन्तु वे परिवृद्ध, उपचित, संजात और महाकाय हैं—ऐसा कहे / 10 वृक्ष आदि को देख कर यह मकान की लकड़ी के लिए या पात्र के लिए या कृषि के उपकरणों के लिए, अहरन आदि के लिए या शयनासन के लिए उपयोगी १-दशवैकालिक, 7 / 2 / २-वही, 7 / 3 / ३-वही, 74,11 / ४-वही, 756,9 / ५-वही, 7 / 12 / ६-वही, 7 / 14 / ७-वही, 7 / 15-17 / -वही, 718-20 / ६-वही, 7 / 21 / १०-वही, 122,23 / Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4. चर्यापथ : वाक्-शुद्धि 133 है, ऐसा न कहे।' फल या धान्य पके हैं या कच्चे, तोड़ने योग्य हैं या नहीं, फली नीली हैं या सूखी आदि सावध भाषा का प्रयोग न करे / 2 मृत-भोज, पितर-भोज या जीमनवार करणीय है, चोर वध्य है, नदी के घाट सुन्दर हैं—ऐसा न कहे। जीमनवार को जीमनवार है, चोर को धनार्थी है और नदी के घाट समान हैं—ऐसा कहे। भोजन सम्बन्धी प्रशंसा-वाचक शब्दों का प्रयोग न करे / 5 वस्तुओं के क्रय-विक्रय की चर्चा न करे / 6 असंयमी को उठ, बैठ, सो आदि आदेश वचन न कहे / असाधु को साधु न कहे, साधु को साधु कहे। अमुक की जय हो, अमुक की नहीं -ऐसा न कहे। अपनी या दूसरों की भौतिक सुख-सुविधा के लिए प्रतिकूल स्थिति के न होने और अनुकूल स्थिति के होने की बात न कहे। 0 मेघ, आकाश और मनुष्य को देव न कहे। उन्हें देव कहने से मिथ्यात्व का स्थिरीकरण होता है, इसलिए उन्हें देव नहीं कहना चाहिए / 2 वैदिक साहित्य में आकाश, मेघ और राजा को देव माना गया है, किन्तु यह वस्तुस्थिति से दूर है। जनता में मिथ्या धारणा न फैले, इसलिए यह निषेध किया गया है। ___पाप का अनुमोदन करने वाली, अवधारिणी, परोपघातिनी, हास्य पैदा करने वाली आदि भाषा न बोले / 1 3 अदुष्ट भाषा बोले / 14 हित और आनुलोमिक वचन बोले / 15 १-दशवैकालिक, 7127-29 / : २-वही, 7 / 31-35 / / ३-वही, 736 / - ४-वही, 7337 / ५-वही, 741 ६-वही, 7 / 43,45,46 / ७-वही, 747 / -वही, 7 // 48 // ९-वही, 750 / १०-वही, 7.51 / ११-वही, 752,53 / १२-अगस्त्य चूर्णि: मिच्छत्तथिरीकरणादयो दोसा इति / १३-दशवकालिक, 7354 / १४-वही, 7.55 / १५-वही, 7356 / Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 134 दशवकालिक : एक समीक्षात्मक अध्ययन प्रयोजनवश बोले, परिमित बोले / ' बिना पूछे न बोले, बीच में न बोले। चुगली न खाए और कपट-पूर्ण असत्य न बोले / 2 . जिससे अप्रीति उत्पन्न हो और जिससे दूसरा कुपित हो, ऐसा न बोले।३ देखी हुई बात कहे, जोर से न बोले, स्वर-व्यंजन आदि युक्त बोले, स्पष्ट बोले, भय रहित बोले। पीठ पीछे अवर्णवाद तथा प्रत्यक्ष में वैर बढाने वाले वचन न बोले / ' कलह उत्पन्न करने वाली कथा न कहे / 6 भगवान् महावीर ने अहिंसा की दृष्टि से सावद्य और निरवद्य भाषा का सूक्ष्म विवेचन किया है। प्रिय, हित, मित, मनोहर वचन बोलना चाहिए—यह स्थूल बात है। इसकी पुष्टि नीति के द्वारा भी होती है। किन्तु अहिंसा की दृष्टि नीति से बहुत आगे जाती है / ऋग्देद में भाषा के परिष्कार को अभ्युदय का हेतु बतलाया है : सक्तुमिव तितउना पुनन्तो यत्र धीरा मनसा वाचमक्रत / अत्रा सखायः सख्यानि जानते भद्रषां लक्ष्मीनिहिताधि वाचि // " —जैसे चलनी से सत्तू को परिष्कृत किया जाता है, वैसे ही बुद्धिमान् लोग बुद्धि के बल से भाषा को परिष्कृत करते हैं। उस समय विद्वान् लोग अपने अभ्युदय को जानते हैं। विद्वानों के वचन में मंगलमयी लक्ष्मी निवास करती है। महात्मा बुद्ध ने चार अंगों से युक्त वचन को निरवद्य वचन कहा है। ऐसा मैंने सुना : एक समय भगवान् श्रावस्ती में अनाथपिण्डक के जेतवनाराम में विहार करते थे। उस समय भगवान् ने भिक्षुओं को सम्बोधित कर कहा-"भिक्षुओ ! चार अंगों से युक्त वचन अच्छा है न कि बुरा; विज्ञों के अनुसार वह, निरवद्य है, दोषरहित है / कौन से चार अंग ? भिक्षुओ ! यहाँ भिक्षु अच्छा वचन ही बोलता है न कि बुरा, धार्मिक वचन ही बोलता है न कि अधार्मिक, प्रिय वचन ही बोलता है न कि अप्रिय, सत्य वचन ही बोलता है न कि असत्य। भिक्षुओ ! इन चार अंगों से युक्त वचन अच्छा है न कि बुरा, वह विज्ञों के अनुसार निरवद्य तथा दोषरहित है।" __ ऐसा बता कर बुद्ध ने फिर कहा : १-दशवैकालिक, 8 / 19 / २-वही, 8 / 46 / ३-वही, 8147 / ४-वही, 8 / 48 / ५-वही, 9 / 3 / 9 / ६-वही, 10 / 10 / ७-ऋग्वेद, 1071 / Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4. चर्यापथ : वाक्शुद्धि 135 "सन्तों ने अच्छे वचन को ही उत्तम बताया है। धार्मिक वचन को ही बोले, न कि अधार्मिक वचन—यह दूसरा है। प्रिय वचन को ही बोले, न कि अप्रिय वचन को—यह तीसरा। सत्य वचन को ही बोले न कि असत्य वचन को यह है चौथा।" तब आयुष्मान् वंगीस ने आसन से उठकर, एक कंधे पर चीवर सम्भाल कर भगवान को हाथ जोड़ अभिवादन कर उन्हें कहा-“भन्ते ! मुझे कुछ सूझता है।" भगवान् ने कहा- "वंगीस ! उसे सुनाओ।" तब आयुष्मान् के सम्मुख अनुकूल गाथाओं में यह स्तुति की: ___ "वह बात बोले जिससे न स्वयं कष्ट पाए और न दूसरे को ही दुःख हो, ऐसी बात सुन्दर है।" आनन्ददायी प्रिय वचन ही बोले। पापी बातों को छोड़ कर दूसरों को प्रिय बचन ही बोले / " ___ “सत्य हो अमृत वचन है, यह सदा का धर्म है। सत्य, अर्थ और धर्म में प्रतिष्ठित संतों ने ( ऐसा ) कहा है।" "बुद्ध जो कल्याण-वचन निर्वाण-प्राप्ति के लिए, दु:ख का अन्त करने के लिए बोलते हैं, वही वचनों में उत्तम है।'' १-सुत्तनिपात, सुभाषित सुत्त, 1-5, पृष्ठ 87-9 / / Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५-एषणा भिक्षा की एषणा क्यों और कैसे ? ___ मुनि माधुकरी वृत्ति से दान-भक्त की एषणा करे। यह भोजन किसलिए किया है, किसने किया है—यह पूछ कर ग्रहण करे / 2 यदि पर्याप्त भोजन उपलब्ध न हो या प्राप्त हुए भोजन से भूख न मिटे तो और भोजन की गवेषणा करे। मुनि समय पर भिक्षा के लिए निकले और समय पर लौट आए।४ भिक्षा के लिए मुनि पुरुषकार करे।५ उञ्छ की एषणा करे।६ भिक्षा का निषेध करने पर बिना कुछ कहे लौट आए। भिक्षा के लिए घर में प्रविष्ट मुनि गृहपति के द्वारा अननुज्ञात या वर्जित भूमि ( अति-भूमि ) में न जाए। जहाँ तक जाने में गृहस्थ को अप्रीति न हो, जहाँ तक अन्य भिक्षाचर जाते हों उस ( कुल-भूमि ) में खड़ा रहे / भिक्षा के लिए गया हुआ मुनि कहीं न बैठे, खड़ा रह कर भी कथा का प्रबन्ध न करे / भक्त-पान के लिए घर में जाते हुए श्रमण, ब्राह्मण, कृपण या वनीपक को लाँघ कर गृहस्थ के घर में भिक्षा के लिए प्रवेश न करे / 10 इनके चले जाने पर घर में प्रवेश करे।११ राजा, गृहपति और आरक्षिकों के मंत्रणा-स्थान के पास न जाए / 12 निषिद्ध, मामक और अप्रीतिकर कुल में १-दशवकालिक, 112,3 / २-वही, 5 // 1 // 56 / ३-वही, 5 / 2 / 2,3 / ४-वही, 5 // 2 // 4,6 / ५-वही, 526 / ६-वही, 8 / 23 / ७-वही, 5 / 1 / 23 / ८-वही, 5 // 1 // 24 // ९-वही, 5 / 2 / / १०-वही, 5 / 2 / 10,12 / ११-वही, 5 / 2 / 13 / १२-वही, 5 // 1 // 16 / / Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4. चर्यापथ : एषणा 137 भोजन लेने न जाए।' तत्काल में लीपे हुए आँगन में भोजन लेने न जाए / गृहपति की आज्ञा लिए बिना शाणी और प्रावार से आच्छादित द्वार को खोल भोजन लेने अन्दर न जाए / 3 नीचे द्वार वाले अन्धकारपूर्ण कोठे में तथा जहाँ पुष्प, बीज आदि बिखरे हों, वहाँ भोजन लेने न जाए। भिक्षा, शयन, आसन आदि न देने पर गृहस्थ पर कुपित न हो।५ दूसरों की प्रशंसा करता हुआ याचना न करे / 6 वर्षा बरस रही हो, कुहरा गिर रहा हो, महावात चल रहा हो या मार्ग में संपातिम जीव छा रहे हों तो भिक्षा लेने न जाए। वेश्या-पाड़े में भिक्षा लेने भी न जाए। सामुदानिक भिक्षा करे-नीचे कुलों को छोड़ ऊँचे कुल में न जाए।' भिक्षा कैसे ले ? मुनि यथाकृत आहार ले / 10 अपने लिए बनाया हुआ, अपने निमित्त खरीदा हुआ, निमंत्रण पूर्वक दिया हुआ, सम्मुख लाया हुआ भोजन न ले / 11 शय्यातर का भोजन न ले / 12 जाति, कुल, गण, शिल्प और कर्म को जता कर भिक्षा न ले। 3 भोजन आदि को गिराते हुए भिक्षा दे तो न ले।१४प्राणि, बीज और हरियाली कुचलते हुए दे तो न ले।'५ सचित्त का संघट्टन कर दे तो न ले। 6 पुराकर्म-कृत, पश्चात्कर्म-कृत और असंसृष्ट भोनन न १-दशवकालिक, 5 / 1 / 17 / २-वही, 5 / 1 / 21 / / ३-वही, 5 / 1 / 18 / .४-वही, 5 / 1 / 20,21 / ५-वही, 5!2 / 27,28 / ६-वही, 5 / 2 / 29 / ७-वही, 5 / 1 / / ' ८-वही, 5 / 1 / 9 / ९-वही, 5 / 2 / 25 / १०-वहीं, 1 / 4 / ११-वही, 3 / 2 / १२-वही, 3 / 5 / १३-वही, 3 / 6 / १४-दही, 5 // 1 // 28 // १५-वही, 5 / 1 / 29 / १६-वही, 5 / 1 / 30-31 / Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 138 दशवकालिक : एक समीक्षात्मक अध्ययन के। गर्भवती स्त्री के लिए विशेष रूप से बनाया हुआ भोजन, जो वह खा रही हो न ले। खाने ने बाद बचा हो वह ले / 2 पूरे मास वाली गर्भिणी के हाथ से भोजन न के / बालक या बालिका को स्तनपान कराती हुई स्त्री, बालक को रोता हुआ छोड़, भिक्षा दे, वह न ले।४ विभिन्न द्रव्यों से ढके, लिपे और मूंदे हुए पात्र का मुख खोल भिक्षा दे, वह न ले।५ दान के निमित्त, पुण्य के निमित्त, वनीपक के निमित्त और श्रमण के निमित्त बनाया भोजन न ले।६ पूतीकर्म-आधाकर्म आदि से मिश्र भोजन, मध्यवतर-अपने साथ-साथ साधु के निमित्त बनाया हुआ भोजन, प्रामित्य- साधु को देने के लिए उधार लिया हुआ भोजन और मिश्र-भोजन न ले। मालापहृत भिक्षा म ले। पुष्प, बीज और हरियाली से उन्मिश्र, पानी, उत्तिंग और पनक पर रखा हुआ बौर अग्नि पर रखा हुआ भोजन न ले।" चूल्हे में इन्धन डाल कर, निकाल कर, चूल्हे को सुलगा कर या बुझा कर भिक्षा दे तो न ले। अग्नि पर रखे हुए पात्र से भोजन निकाल कर, छींटा देकर, चूल्हे पर पात्र को टेढ़ा कर, उतार कर भोजन दे तो न ले / 10 दूकान में रखी हुई चीजें, जो सचित्त रजों से स्पृष्ट हों, न ले।११ जिसमें खाने का भाग मोड़ा हो और डालना अधिक पड़े-वैसा पदार्थ न ले / 12 फूल आदि सचित्त द्रव्यों को कुचल कर भिक्षा दे तो न ले।' 3 अपक्व हरित आदि न ले। 4 एक बार भंजी हुई फली १-दशवकालिक, 5 / 1 / 32-35 / २-वही, 5 / 1138 / ३-वही, 5 / 1141,42 / ४-वही, 5 / 2 / 41,43 / ५-वही, 5 / 1145,46 / ६-वही, 51147-54 / ७-वही, 51155 / ८-वही, 5 / 1 / 67-68 / ९-वही, 5 // 1 // 57-62 / १०-वही, 5 / 1 / 63,64 / ११-वही, 5 / 171,72 / १२-वही, 5 / 174 / १३-वही, 5 / 2 / 14,17 / १४-वही, 5 / 2 / 18,19-24 / Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4. चर्यापथ : एषणा 136 न ले। जिस वस्तु के दो स्वामी या भोक्ता हों, उनमें से एक निमंत्रित करे तो मुनि वह आहार न ले। दोनों निमंत्रित करें तो ले / 3 गुड़ के घड़े का धोवन, आटे का थोवन, जो तत्काल का धोवन (अधुनाधौत) हो न ले। जिसका स्वाद, गंध और रंस न बदला हो, विरोधी शस्त्र द्वारा जिसके जीव ध्वस्त न हुए हों तथा परम्परा के अनुसार निस धोवन को अन्तर्मुहूर्त-काल न हुआ हो, वह अधुनाधौत कहलाता है। बहुत खट्टा पानी न ले। पानी को चखकर ले / 6 आगम-रचना-काल में साधुओं को यवोदक, सुषोदक, सौवीर, आरनाल आदि अम्ल जल ही अधिक मात्रा में प्राप्त होते थे। उनमें कांजी की भाँति अम्लता होती थी। अधिक समय होने पर वे जल अधिक अम्ल हो जाते थे। दुर्गन्ध भी पैदा हो जाती थी। वैसे जलों से प्यास भी नहीं बुझती थी। इसलिए उन्हें चख कर लेने का विधान किया गया। कैसे खाए ? ____सामान्य विधि के अनुसार मुनि गोचरान से वापस आ उपाश्रय में भोजन करे। किन्तु जो मुनि दूसरे गाँव में भिक्षा लाने जाए और वह बालक, बूढ़ा, बुभुक्षित, तपस्वी हो या प्यास से पीड़ित हो तो उपाश्रय में आने से पहले ही भोजन कर सकता है। यह आपवादिक विधि है। इसका स्वरूप यह है—जिस गाँव में वह भिक्षा के लिए जाए वहाँ साधु ठहरे हुए हों तो उनके पास आहार करे। यदि साधु न हों तो कोष्ठक अथवा भित्ति-मूल, जो ऊपर से छाया हुआ हो और चारों ओर से संवृत हो, वहाँ जाए और आज्ञा लेकर भोजन के लिए बैठे। आहार करने से पूर्व 'हस्तक' (मुखपोतिका, मुखवस्त्रिका) से समूचे शरीर का प्रमार्जन कर भोजन प्रारम्भ करे। भोजन करते समय यदि भोजन में गुठली, कांटा, आदि निकले तो उन्हें उठाकर न फेंके, मुँह से न थूके, किन्तु हाथ से एकान्त में रख दे / ... ' उपाश्रयं में भोजन करने की विधि यह है कि मुनि भिक्षा लेकर उपाश्रय में आ १-दशवैकालिक, 5 / 2 / 20 / २-वही, 5 / 1 / 37 / ३-वही, 51138 / ___४-वही, 5175 / ५-वही (भा०.२), पृष्ठ 272, टिप्पण 193 / -वही, 5 // 1178 / ७-वही, 5 / 1 / 82-86 / Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 140 दशवकालिक : एक समीक्षात्मक अध्ययन सर्व प्रथम स्थान का प्रतिलेखन करे। तदनन्तर लाई हुई भिक्षा का विशोधन करे / उसमें जीव-जन्तु या कंटक आदि हों तो उन्हें निकाल कर अलग रख दे / उपाश्रय में विनयपूर्वक प्रवेश कर गुरु के समीप आ 'ईर्यापथिकी' सूत्र पढ़े, फिर कायोत्सर्ग करे। आलोचना करने से पूर्व आचार्य की आज्ञा ले। आज्ञा प्राप्त कर आनेजाने में, भक्त-पान लेने में लगे सभी अतिचारों को यथाक्रम याद कर, जो कुछ जैसे बीता हो, वह सब आचार्य को कहे और ऋजु बन आलोचना करे। यदि आलोचना करने में क्रम-भंग हुआ हो तो उसका फिर प्रतिक्रमण करे। फिर शरीर को स्थिर बना-निरवद्यवृत्ति और शरीर-धारण के प्रयोजन का चिन्तन करे। इस प्रचिन्तनमय कायोत्सर्ग को नमस्कार-मंत्र के द्वारा पूर्ण कर जिन-संस्तव (लोगस्स) पढ़े, और क्षण भर के लिए विश्राम करे और जघन्यत: तीन गाथाओं का स्वाध्याय करे। जो मुनि आन-प्राणलब्धि से सम्पन्न होते हैं, वे इस विश्राम काल में सम्पूर्ण चौदह-पूर्वी का परावर्तन कर लेते हैं। इस विश्राम से अनेक लाभ होते हैं। भिक्षाचरी में इधर-उधर घूमने तथा ऊँचे-नीचे जाने से विशेष श्रम होता है। उससे शरीर की समस्त धातुएँ क्षुब्ध हो जाती हैं। ऐसी स्थिति में भोजन करने पर अनेक रोग उत्पन्न हो सकते हैं और कभी-कभी मृत्यु तक हो जाती है। विश्राम करने से इन सब दोषों से बचा जा सकता है। विश्राम करता हुआ वह यह सोचे-“यदि आचार्य और साधु मुझ पर अनुग्रह करें, मेरा भोजन गहण करें तो मैं धन्य हो जाऊँ।" फिर प्रेमपूर्वक साधर्मिक मुनियों को भोजन के लिए निमंत्रित करे। उसके निमंत्रण को स्वीकार कर जो मुनि भोजन करना चाहें तो उनके साथ भोजन करे। यदि कोई निमंत्रण स्वीकार न करे तो अकेला ही भोजन करे।' ___मुनि खुले पात्र में भोजन करे। भोजन करते समय नीचे न डाले / 2 अरस या विरस, आर्द्र या शुष्क, व्यंजन-सहित या व्यंजन-रहित जो भी आहार भिक्षा में उपलब्ध हो, उसे मुनि मधु-घृत की भाँति खाए / उसकी निन्दा न करे / ' पात्र को पोंछकर सब कुछ खा ले, जूठन न छोड़े।४ दूसरे संविभाग न ले लेंइसलिए भिक्षा को न छुपाए / एकान्त में अच्छा-अच्छा भोजन कर अपना उत्कर्ष दिखाने के लिए मण्डली में विरस आहार न करे / 6 १-दशवकालिक, 5 // 1287-96 / २-वही, // 1196 / ३-वही, // 197-98 / ४-वही, 5 // 2 // 1 // ५-वही, 22 / 31 / ६-वही, 5233-34 / Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4. चर्यापथ : एषणा 141 मुनि एक बार भोजन करे।' अप्रासुक भोजन न करे / / भोजन में गृद्ध न बने / मुनि मात्रज्ञ-भोजन की मात्रा को जानने वाला हो। इसका तात्पर्य है कि वह प्रकाम-भोजी न हो। औपपातिक सूत्र में मुर्गी के अण्डे जितने बत्तीस कवल के आहार को प्रमाण प्राप्त भोजन कहा गया है। जो इस मात्रा से एक कवल भी कम खाता है, बह प्रकाम-रस-भोजी नहीं होता। भोजन की मात्रा के सम्बन्ध में आयुर्वेद का अभिमत यह है-उदर के चार भाग ( कल्पना) करे-इसमें से दो भाग अन्न से और एक भाग द्रव-पदार्थ से भरे / वात आदि के आश्रय के लिए चतुर्थ भाग को छोड़ देवे (पूरा पेट भर कर के भोजन न करे, भोजन की गति के लिए स्थान रहने देना चाहिए')।५ १-दशवकालिक, 6 / 22 / २-वही, 8 / 23 / ३-वही, 8 / 23 / ४-सू० 19 / ५-अष्टांगहृदय, सूत्रस्थान, 8 / 46-47 : अन्नेन कुक्षेविंशो पानेनैकं प्रपूरयेत् / आश्रयं पवनादीनां चतुर्थमवशेषयत् // Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६-इन्द्रिय और मनोनिग्रह दशवकालिक में इन्द्रिय और मन को जीतने के लिए निम्न उपाय प्राप्त होते हैं : 1. जिसके प्रति राग उत्पन्न हुआ हो उसके प्रति यह चिन्तन करे—वह मेरी नहीं ' है, मैं भी उसका नहीं हूँ-इस भेद-चिन्ता से राग दूर होता है।' 2. राग निवारण के लिए मुनि आतापना ले (सूर्य का ताप सहे), सुकुमारता को ___ छोड़े, इच्छाओं का अतिक्रमण करे, द्वष और राग से बचे / / 3. मन, वाणी और शरीर का गोपन करे, पाँच इन्द्रियों का निग्रह करे / 4. जो पुण्य-पाप और बन्ध-मोक्ष को जान लेता है, वह भोग से विरक्त हो नाता है इसलिए उन्हें जाने। 5. रूप में मन न करे।५ 6. कर्णप्रिय शब्दों में आसक्त न बने / 6 7. कछए की भाँति इन्द्रियों का गोपन करे। 8. मनोज्ञ विषयों में प्रेम न करे / 6. स्वाध्याय और ध्यान में रत रहे / 10. ममकार का विसर्जन करे / 10 11. इन्द्रियों को जीते / 11 12. चित्त को समाधान दे / 12 .. 13. मन का संवरण करे / / 3 / 14. इन्द्रियों को समाधान दे।१४ ... १-दशवकालिक, 2 // 4 // २-वही, 2 / 5 / ३-वही, 3 / 11 / ४-वही, 4 // 16 / ५-वही, 8 / 19 / ६-वही, 8 / 26 / ७-वही, 8140 / ८-दशवकालिक, 858 / ९-वही, 8.62 / १०-वही, 8 / 63 / ११-वही, 9 / 3 / 13 / ' १२-वही, 10 / 1 / .. १३-वही, 10 // 7 // :-१४-वही, चूलिका 2 / 16 / Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७-स्थिरीकरण जैन-दीक्षा अखण्ड और अविभक्त होती है। उसमें काल का भी व्यवधान नहीं होता। वह आजीवन ग्रहण की जाती है। जीवन के इस दीर्घ-काल में साधनाभाव के आरोह-अवरोह को अस्वाभाविक नहीं माना जा सकता। अवरोह अनादेय अवश्य है, पर मानवीय दुर्बलताओं के कारण वह प्रगट होता है और साधना की तीव्रता से वह मिट जाता है। जब साधना से पलायन करने के भाव उत्पन्न होते हैं तब साधक को किन-किन अवलम्बनों के द्वारा अपनी साधना में स्थैर्यापादन करना चाहिए, उन्हीं का निर्देश यहाँ किया गया है। वे अवलम्ब 18 हैं। साधक को इस प्रकार सोचना चाहिए कि' : . 1. इस कलिकाल में आजीविका चलाना अत्यन्त कष्ट-प्रद है। 2. गृहस्थों के काम-भोग तुच्छ और क्षणभंगुर हैं। 3. सांसारिक मनुष्य माया-प्रधान हैं / 4. मेरा यह दुःख चिरस्थायी नहीं होगा। 5. गृहस्थों को नीच व्यक्तियों का भी सत्कार-सम्मान करना पड़ता है। 6. संयम को छोड़ने का अर्थ है वमन को पीना / 7. संयम को छोड़ गृहस्थ बनने का अर्थ है नारकीय जीवन की स्वीकृति / 8. गार्ह स्थिक झंझटों में धर्म का स्पर्श दुर्लभ है / 6-10. संकल्प और आतंक वध के लिए होता है / 11. गृहवास क्लेश-सहित है और मुनि-पर्याय क्लेश-रहित / 12. गृहवास बन्धन है और मुनि-पर्याय मुक्ति / 13. गृहवास सावध है और मुनि-पर्याय निरवद्य / 14. गृहस्थों के कामयोग सर्व-सुलभ हैं। 15. सुख या दुःख अपना-अपना होता है। 16. मनुष्य जीवन चंचल है और अनित्य है। 17. मैंने इससे पूर्व भी अनेक पाप किए हैं। 18. कर्म को भोगे बिना छुटकारा नहीं मिलता। १-दशवकालिक, चूलिका १।सू०१ / Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८-किसलिए ? 1. महर्षि-मुनि सब दुःखों को क्षीण करने के लिए प्रयत्न करे / ' 2. मुनि पाँच महाव्रतों को आत्महित के लिए स्वीकार करते हैं.।२ / 3. मुनि विनय का प्रयोग आचार-प्राप्ति के लिए करते हैं। 4. मुनि केवल जीवन-यापन के लिए भिक्षा लेते हैं / 5. मुनि वस्त्र-पात्र आदि का ग्रहण और उपयोग जीवन के निर्वाह के लिए तथा लज्जा निवारण के लिए करते हैं। 6. मुनि वचन-प्रहार आदि को अपना धर्म-कर्त्तव्य समझ कर सहन करते हैं / 6 7. मुनि ज्ञान-प्राप्ति के लिए अध्ययन करते हैं, एकाग्र-चित्त होने के लिए अध्ययन करते हैं, आत्मा को (धर्म में) स्थापित करने के लिए अध्ययन करते हैं और दूसरों को (धर्म में) स्थापित करने के लिए अध्ययन करते हैं।" 8. मुनि भौतिक सुख-सुविधा के लिए तप नहीं करते, परलोक कीस मृद्धि के लिए तप नहीं करते, श्लाघा-प्रशंसा के लिए तप नहीं करते, केवल आत्म-शुद्धि के लिए तप करते हैं। 6. मुनि इहलोक की भौतिक समृद्धि के लिए आचार का पालन नहीं करते। मुनि परलोक की समृद्धि के लिए आचार का पालन नहीं करते / मुनि श्लाघा-प्रशंसा के लिए आचार का पालन नहीं करते। मुनि केवल आत्म-शुद्धि के लिए आचार का पालन करते हैं। १-दशवकालिक 3313 / २-वही, ४।सू०१७। 3- वही, 9 / 3 / 2 / ४-वही, 9 / 3 / 4 / ५-वही, 6 / 19 / ६-वही, 9 / 3 / 8 / ७-वही, ९।४सू० 5 / ८-वही, ९४सू०६। ९-वही, ९४सू०७। Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4. चर्या-पथ : किसलिए? 145 10. मुनि अनुत्तर गुणों तथा अनन्त हित के सम्पादन के लिए गुरु की आराधना करते 11. सब जीव जीना चाहते हैं, मरना कोई नहीं चाहता, इसलिए मुनि प्राण-वध का वर्जन करते हैं / 12. मृषावाद सज्जन व्यक्तियों द्वारा गर्हित है और यह अविश्वास को उत्पन्न करता है, - इसलिए मुनि मृषावाद का वर्जन करते हैं। 13. अब्रह्मचर्य अधर्म का मूल है, महान् दोषों की खान है, इसलिए मुनि उसका वर्जन करते हैं। 14. रात्रि में एषणा का निर्वाह नहीं हो सकता, ईर्या-समिति का शोधन नहीं हो सकता, इसलिए मुनि रात में भोजन नहीं करते / १-दशवकालिक, 9 / 1 / 16:9 / 2 / 16 / २-वही, 6 / 10 / ३-वही, 6 / 12 / 4 वही, 6 / 16 / ५-वही, 6 / 23-25 / Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६-विनय दशवकालिक के अध्ययन 6 के प्रथम उद्देशक में शिष्य का आचार्य के प्रति कैसा वर्तन हो इसका निरूपण है। द्वितीय उद्देशक में विनय और अविनय का भेद दिखलाया गया है। चतुर्थ उद्देशक में विनय-समाधि का उल्लेख किया गया है। अन्यत्र भी विनय का उपदेश है। सब का सार इस प्रकार है बड़ों का विनय करे / ' गुरु को मन्द, अल्प-वयस्क या अल्पश्रुत जान कर उनकी आशातना न करे / 2 सदा गुरु का कृपाकांक्षी बना रहे / जिससे धर्म-पद सीखे उसका विनय करे, सत्कार करे, हाथ जोड़े। जो गुरु विशोधि-स्थलों की अनुशासना दे, उसकी पूजा करे। गुरु की आराधना करे, उन्हें सन्तुष्ट रखे / 6 मोक्षार्थी मुनि गरु के वचनों का अतिक्रमण न करे। गुरु से नीचा बैठे, नीचे खड़ा रहे, नीचे आसन बिछाए, नीचे झुक कर प्रणाम करे। गुरु के उपकरणों या शरीर का स्पर्श न करे। ऐसा हो जाने पर तत्काल क्षमा-याचना करे और पुनः ऐसा न करने का संकल्प करे / गरु के अभिप्राय और इंगित को समझ कर बरते / 10 गुरु के समीप रहे। गुरु के अनुशासन को श्रद्धापूर्वक सुने। अनुशासन को श्रद्धा से स्वीकार करे। गुरु के आदेशानुसार बरते। अभिमान न करे।' १-दशवकालिक, 8140 / 2. वही, 9 / 12 / ३-वही, 9 / 1 / 10 / ४.-वही, 9 / 1 / 12 / ५-वही, 9 / 1 / 13 / 6. वही, 9 / 1 / 16 / ७-वही, 9 / 2 / 16 / ८-वही, 9 / 2 / 17 / ९-वही, 9 / 2 / 18 / १०-वही, 9 / 2 / 20 / ११--वही, ९।४सू०४। Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०-पूज्य कौन ? पूज्य कौन ? यह प्रश्न महाभारत कालीन है। युधिष्ठिर ने भीष्म से पूछा था"के पूज्या वै त्रिलोकेऽस्मिन् मानवा भरतर्षभ / " ( महा० अनु० 31 / 1) उत्तर में गुणवान् ब्राह्मण को पूज्य बताया गया है। उत्तर जाति की महत्ता का सूचक है। दशवकालिक में पूज्य के गुण और लक्षणों का बड़ा सुन्दर विवेचन हुआ है / इसके अनुसार गुणवान मनुष्य ही पूज्य है। पूज्य कौन ? इसका उत्तर देते हुए कहा गया हैपूज्य वह होता है: जो आचार्य की शुश्रूषा करता है, उनकी आराधना करता है। जो आचार्य के वचनानुकूल आचरण करता है। जो गरु की आशातना नहीं करता। जो छोटे या बड़े-सबके प्रति विनम्र रहता है। :: जो केवल जीवन-निर्वाह के लिए उञ्छ भिक्षा लेता है। जो अल्प-इच्छा वाला होता है, आवश्यकता से अधिक नहीं लेता। जो अनुकूल या प्रतिकूल परिस्थिति को अपना धर्म मान कर सहता है। जो पर-निन्दा और आत्म-श्लाघा से दूर रहता है। जो रस-लोलुप नहीं होता, जो माया और कुतूहल नहीं करता। जो न दीन बनता है और न उत्कर्ष दिखाता है। जो आत्मवित् है—आत्मा को आत्मा से समझता है / जो राग, द्वेष, क्रोध, मान आदि से दूर रहता है। जो दूसरों के विकास में सतत प्रयत्नशील रहता है। जो मुक्त होने के लिए साधना-रत रहता है।' १-दशवैकालिक, अ०९ उ०३ / Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११-भिक्षु कौन ? भिक्षु कौन ? यह प्रश्न वैदिक, बौद्ध और जैन —तीनों संस्कृतियों में अपनी-अपनी परम्परा और दृष्टिकोण से चर्चित है। दशवकालिक में इसका उत्तर देते हुए कहा हैभिक्षु वह होता है : जो वमन किए हुए भोगों को पुन: नहीं पीता-स्वीकार नहीं करता। जो स्थावर या त्रस-किसी प्राणी की हिंसा नहीं करता। जो सभी प्राणियों को आत्म-तुल्य समझता है / जो अकिंचन, जितेन्द्रिय और आत्म-लीन होता है। जो अर्हत्-वचन में विश्वास करता है। जो सम्यग-दृष्टि होता है। जो अमूढ़ होता है। जो खान-पान का संग्रह नहीं करता। जो संविभागी होता है। जो सदा शान्त और प्रसन्न रहता है। जो दूसरों का तिरस्कार नहीं करता। जो सुख-दुःख में सम रहता है। जो शरीर का परिकर्म नहीं करता। जो सहिष्णु, अनिदान और अभय होता है। जो अध्यात्म में रत और समाधि-यक्त होता है। जो किसी भी वस्तु में ममत्व नहीं करता। जो समस्त आसक्तियों से रहित होता है। जो ऋद्धि, सत्कार और पूजा का अर्थी नहीं होता। जो जाति, रूप, श्रुत और ऐश्वर्य का मद नहीं करता। जो ध्यान और स्वाध्याय में लीन होता है।' १--अ०१०। Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२-मुनि के विशेषण दशवकालिक में मुनि के लिए अनेक विशेषण प्रयुक्त हुए हैं। वे सब मुनि के मानसिक, वाचिक और कायिक संयम के निर्देशक हैं। कुछ एक विशेषणों से तात्कालिक स्थितियों पर भी पर्याप्त प्रकाश पड़ता है। दसवें अध्ययन में 'निर्जातरूपरजत'- यह विशेषण प्रयुक्त हुआ है : - चत्तारि वमे सया कसाए, धुवजोगी य हवेज्ज बुद्धवयणे / अहणे निज्जायरूवरयए, गिहिजोगं परिवज्जए जे स भिक्खू // (10 / 6) - इसका अर्थ है कि मुनि सोना-चाँदी का संचय न करे। उस समय कई श्रमण सोना-चाँदी का संचय भी करने लग गए थे। कई श्रमण इस प्रवृत्ति को धर्म-सम्मत नहीं मानते थे। चुल्लवम्ग मे उन दस बातों का वर्णन है, जिन्हें वज्जी के भिक्षु करते थे, पर यश की मान्यता थी कि वे धर्म-सम्मत नहीं हैं। उन दस बातों में "जातरूपरजतम्" का भी उल्लेख हुआ है। भिक्षु जिनानन्द ने उन दस बातों की चर्चा करते हुए लिखा है : "चुल्लवग्ग में लिखा है कि वज्जी के भिक्षु दस बातें ( दस वत्थूनि ) ऐसी करते थे जिन्हें काकण्डकपुत्र यश धर्म-सम्मत नहीं मानता था। वह उन्हें अनैतिक और अधर्मपूर्ण मानता था। वज्जी के भिक्षुओं ने यश को 'पटिसारणीय कम्म' का दण्ड देने का आदेश दिया। यश को अपना पक्ष समर्थन करना पड़ा। जनसाधारण के सामने उसने अपनी बात अद्भुत वक्तृत्व-कौशल से रखी। इस पर वज्जियों ने 'उपेक्खणीय कम्म' - नामक दंड उसे सुनाया, जिसका अर्थ था यश का संघ से निष्कासन / उपर्युक्त दस वस्तुएँ चुल्लवग्ग में इस प्रकार से दी गई हैं : 1. सिंगिलोण कप्प-अर्थात् एक खाली सींग में नमक ले जाना। यह ..... पाचित्तिय 38 के विरुद्ध कर्म था, जिसके अनुसार खाद्य संग्रह नहीं करना चाहिए। Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवकालिक : एक समीक्षात्मक अध्ययन 2. द्वांगुल कप्प-जब छाया दो अंगुल चौड़ी हो तब भोजन करना। यह पाचित्तिय 37 के विरुद्ध कर्म था, जिसके अनुसार मध्यान्ह के बाद भोजन निषिद्ध था। 3. गामन्तर कप्प--एक ही दिन में दूसरे गाँव में जाकर दुबारा भोजन करना। यह पाचित्तिय 35 के विरुद्ध कर्म था, जिसके अनुसार अतिभोजन निषिद्ध था। 4. आवास कप्प—एक ही सीमा में अनेक स्थानों पर उपोसथ विधि * करना / यह महावग्ग के नियमों के विरुद्ध था। 5. अनुमति कप्प—किसी कर्म को करने के बाद उसके लिए अनुमति प्राप्त कर __ लेना / यह भी भिक्षु-शासन के विरुद्ध था। 6. आचिण्ण कप्प-रूढ़ियों को ही शास्त्र मान लेना। यह भी उपर्युक्त कोटि का कर्म था। 7. अमथित कप्प—भोजन के बाद छाछ पीना। यह पाचित्तिय 35 के विरुद्ध था, जिसके अनुसार अतिभोजन निषिद्ध था। 8. जलोगिम्पातुम् ताड़ी पीना। यह पाचित्तिय 51 के विरुद्ध था, जिसके अनुसार मादक पेय निषिद्ध था। 6. अदसकम्-निशिदानम्-जिसके किनारे न हों ऐसे कैम्बल या रजाई का उपयोग करना। यह पाचित्तिय 86 के विरुद्ध था, जिसके अनुसार बिना किनारे की चादर निषिद्ध थी। 10. जातरूपरजतम्—सोने और चाँदी का स्वीकार करना। यह निस्सग्गिय पाचित्तिय के १८वे नियम के अनुसार निषिद्ध था। भदन्त यश ने ये सब व्यवहार अधर्मशील बतलाए। उन्हें संघ से बहिष्कृत कर दिया गया।" दशवकालिक में भिक्षु के 62 विशेषण प्राप्त होते हैं, जिनकी सन्दर्भ-सहित तालिका इस प्रकार है.... १-बौद्ध धर्म के 2500 वर्ष, "आजकल" का वार्षिक अंक दिसम्बर, 1956 पृष्ठ 30-31 / Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4. चर्यापथ : मुनि के विशेषण الله १–महर्षि-महैषी / (3 / 10) ३२-मिताशन / (8 / 26) २—परिज्ञातपंचास्रव / (3 / 11) ३३–अनलस / (8 / 42) ३–त्रिगुप्त / ३४-जितेन्द्रिय / (8 / 44) ४-पंचनिग्रहण। , ३५–आलीनगुप्त / ,, ५-धीर। ___३६–दुःखसह / (8 / 63) ६–निनन्थ / ३७–अमम। " ७---ऋजुदी / . ., ३८–अकिंचन / ८-लघुभूतविहारी / (3 / 10) ३६.-आचारवान् / (6 / 1 / 3) ६-संयत / (3 / 12). ४०–सुस्थितात्मा। १०–सुसमाहित / ,, ४१–अनाबाधसुखाभिकांक्षी। (6 / 1 / 10) ११-दान्तपरिषहरिपु / (3 / 13) ४२–निर्देशवर्ती / (6 / 2 / 23) १२-धुतमोह। . ,, ४३—सूत्रार्थधर्मा / , १३–सर्वभूतात्मभूत / (46) ४४-जिनमत-निपुण / ( / 3 / 15) १४–पिहितास्रव। , ४५---अभिगमकुशल / १५—दान्त / , ,, ४६—निर्जातरूपरजत / (10 / 6) १६-सुप्रणिहितेन्द्रिय / (5 / 2 / 50) ४७–सम्यग्दृष्टि / (107) १७–तीव्रलज्ज गुणवान् / , ४८—अमूढ़ / १८--निभूत। (63) ४९—संयमधु वयोगयुक्त। (10 / 10) १६-सर्वभूतसुखावह / ,, ५०–उपशान्त / २०-धर्मार्थकाम / (6 / 4) ५१-अविहेठक। २१–विपुलस्थानभागिन् / (6 / 5) ५२–व्युत्सृष्टत्यक्तदेह / (10 / 13) २२–अमोहृदर्शी / (6 / 67) ५३—अनिदान / 23- स्वविद्यविद्यानुगत / (6 / 68) ५४—अकौतूहल। , २४-मुधांजीवी / (8 / 24) ५५–अध्यात्मरत / (10 / 15) २५-रुक्षवृत्ति / (8 / 25) ५६–सुसमाहितात्मा। , २६-सुसंतुष्ट / , ५७–सर्वसंगापगत / , २७-अल्पेच्छ। , ५८–स्थितात्मा / (10 / 17) २८-सुभर। , ५६-धर्मध्यानरत / (10 / 16) २६-अतितिण / (8 / 26) ६०–अमद्यमांसाशी / (चू०२७) ३०-अचपल। , ६१–अमत्सरी। .. ३१-अल्पभाषी। , ६२–प्रतिबुद्धजीवी / (2 / 15) Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३-मोक्ष का क्रम जेन साधना-पद्धति जीव-विज्ञान से प्रारम्भ होती है और आत्म स्वरूप-प्राप्ति में पर्यवसित हो जाती है। साधना का आधार संयम है। वह जीव और अजीव के विवेक ज्ञान पर आधारित है। जो जीव-अजीव को जानता है, वह संयम को जानता है और जो इन्हें नहीं जानता, वह संयम को भी नहीं जानता। इसमें इसी क्रम से मोक्ष तक के मार्ग को स्पष्ट किया है, वह यों है :' १-जीव और अजीव का ज्ञान / २-जीवों की गति का ज्ञान / 3- बन्धन और मुक्ति का ज्ञान / ४-भोग-विरति / ५-आभ्यन्तर और बाह्य-संयोगों का परित्याग। ६–अनगार-वृत्ति का स्वीकरण। ७-संवर की साधना। ८-आत्म-गुणावरोधक कर्मों का निर्मूलन / E-केवलज्ञान और केवलदर्शन की संप्राप्ति / . १०-योग-निरोध-शैलेशी अवस्था की प्राप्ति / ११–सम्पूर्ण कर्म-क्षय। १२-शाश्वत सिद्ध-अवस्था की प्राप्ति।' WU प्राप्त। . १-दशवकालिक, 4 / 12-25 / Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिक : एक समीक्षात्मक अध्ययन अध्याय 5 व्याख्या-ग्रन्थों के संदर्भ में Page #183 -------------------------------------------------------------------------- _ Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १-व्याख्या-ग्रन्थ परिचय दशवकालिक की प्राचीनतम व्याख्या नियुक्ति है। उसमें इसकी रचना के प्रयोजन, नामकरण, उद्धरण-स्थल, अध्ययनों के नाम, उनके विषय आदि का संक्षेप में बहुत सुन्दर वर्णन किया है। यह ग्रन्थ उत्तरवर्ती सभी व्याख्या-ग्रन्थों का आधार रहा है। यह पद्यात्मक है। इसकी गाथाओं का परिमाण टीकाकार के अनुसार 371 है। इसके कर्ता द्वितीय भद्रबाहु माने जाते हैं। इनका काल-मान विक्रम की पाँचवीं-छठी शताब्दी है। ___ इसकी दूसरी पद्यात्मक व्याख्या भाष्य है। चूर्णिकार ने भाष्य का उल्लेख नहीं किया है। टीकाकार भाष्य और भाष्यकार का अनेक स्थलों में प्रयोग करते हैं।' टीकाकार के अनुसार भाष्य की 63 गाथाएँ हैं। इसके कर्ता की जानकारी नहीं है / टीकाकार ने भी भाष्यकार के नाम का उल्लेख नहीं किया है। वे नियुक्तिकार के बाद और चूर्णिकार से पहले हुए हैं। ... हरिभद्र सूरि ने जिन गाथाओं को भाष्यगत माना है, वे चूर्णि में हैं। इससे जान पड़ता है कि भाष्यकार चूर्णिकार के पूर्ववर्ती हैं। ___ इसके बाद चूर्णियाँ लिखी गई हैं। अभी दो चूर्णियाँ प्राप्त हैं। एक के कर्ता अगस्त्यसिंह स्थविर हैं और दूसरी के कर्ता जिनदास महत्तर (वि० की 7 वीं शताब्दी)। मुनि श्री पुण्यविजयजी के मतानुसार अगस्त्यसिंह चूर्णि का रचनाकाल विक्रम की तीसरी शताब्दी के आस-पास है। १-(क) हारिभद्रीय टीका, पत्र 64 : भाष्यकृता पुनरुपन्यस्त इति / (ख) वही, पत्र 120 : - आह च भाष्यकारः। - (ग) वही, पत्र 128 : व्यासार्थस्तु भाष्यादवसेयः / इसी प्रकार भाष्य के प्रयोग के लिए देखें- हारिभद्रीय टीका, पत्र 123,125,126,129,133,134, 140,161,162,278 / २-हारिभद्रीय टीका, पत्र 132 : / एतामेव नियुक्तिगायां लेशतो व्याचिख्यासुराह भाष्यकारः। एतदपि नित्यत्वाविप्रसाधकमिति नियुक्तिगाथायामनुपन्यस्तमप्युक्तं सूक्ष्मधिया भाष्यकारेणेति गाथार्थः। ३-बृहत्कल्प भाष्य, भाग-६, आमुख पृष्ठ 4 / Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 156 दशवकालिक : एक समीक्षात्मक अध्ययन अगस्त्यसिंह स्थविर ने अपनी चूणि में तत्त्वार्थसूत्र, आवश्यक नियुक्ति, ओघनियुक्ति, व्यवहार भाष्य, कल्प भाष्य आदि ग्रन्थों का उल्लेख किया है। इनमें अन्तिम रचनाएँ भाष्य हैं। उनके रचना-काल के आधार पर अगस्त्यसिंह का समय पुनः अन्वेषणीय है / अगस्त्यसिंह ने पुस्तक रखने की औत्सर्गिक और आपवादिक-दोनों विधियों की चर्चा की है। इस चर्चा का आरम्भ देवद्धिगणी ने आगम पुस्तकारूढ़ किए तब या उसके आस-पास हुआ होगा। अगस्त्यसिंह यदि देवर्द्धिगणी के उत्तरवर्ती और जिनदास के पूर्ववर्ती हों तो इनका समय विक्रम की ५वीं-६ठी शताब्दी हो जाता है। .. इन चूर्णियों के अतिरिक्त कोई प्राकृत व्याख्या और रही है पर वह अब उपलब्ध नहीं है। उसके अवशेष हरिभद्र सूरि की टीका में मिलते हैं। प्राकृत युग समाप्त हुआ और संस्कृत युग आया। आगम की व्याख्याएँ संस्कृत १-दशवैकालिक, 111 अगस्त्य चूर्णि : उवगरणसंजमो-पोत्थएसु घेप्पतेसु असंजमो महाघणमोल्लेसु वा दूसेसु, वजणं तु संजमो, कालं पडुच्च चरणकरणटुं अव्वोछित्तिनिमित्तं गेव्हंतस्स संजमो भवति / २-हारिभद्रीय टीका, पत्र 165 : तथा च वृद्धव्याख्या-वेसा दिगयभावस्स मेहुणं पीडिज्जइ, अणुवओगेणं एसणाकरणे हिंसा, पडुप्पायणे अन्नपुच्छणअवलवणाऽसच्चवयणं, अणणुण्णायवेसाइदंसणे अदत्तादाणं, ममत्तकरणे परिग्गहो, एवं सव्ववयपीडा, दव्वसामन्ने पुण संसयो उण्णिक्खमणेण त्ति। जिनदास चूर्णि (पृष्ठ 171) में इस आशय की जो पंक्तियाँ हैं, वे इन पंक्तियों से भिन्न हैं। जैसे- “जइ उण्णिक्खमइ तो सव्ववया पीडिया, भवंति, अहवि ण उणिक्खमइ तोवि तग्गयमाणसस्स भावाओ मेहुणं पीडियं भवइ, तग्गयमाणसो य एसणं न रक्खइ, तत्थ पाणाइवायपीडा भवति, जोएमाणो पुच्छिज्जइ--किं जोएसि ?, ताहे अवलवइ, ताहे मुसावायपीडा भवति, ताओ य तित्थगरेहिं गाणुण्णायाउक्तिकाउं अदिण्णादाणपीडा भवइ, तासु य ममत्तं करेंतस्स परिग्गहपीडा भवति / " अगस्त्य चर्णि की पंक्तियाँ इस प्रकार हैं-तस्स पीडा वयाण तासु गयचित्तो रियं न सोहेतित्ति पाणातिवातो पुच्छितो किं जोएसित्ति ? अवलवति मुसावातो, अदत्तादाणमणणुण्णातो तित्थकरेहिं मिहुणे वि गयभावो मुच्छाए परिग्गहो वि। Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5. व्याख्या-ग्रन्थों के सन्दर्भ में : व्याख्या-ग्रन्थ परिचय 157 भाषा में लिखी जाने लगीं। इस पर हरिभद्र सूरि ने संस्कृत में टीका लिखी। इनका समय विक्रम की आठवीं शताब्दी है। . यापनीय संघ के अपराजित सूरि (या विजयाचार्य-विक्रम की आठवीं शताब्दी) ने इस पर 'विजयोदया' नाम को टीका लिखी। इसका उल्लेख उन्होंने स्वरचित आराधना की टीका में किया है। परन्तु वह अभी उपलब्ध नहीं / हरिभद्र सूरिकी टीका को आधार मान कर तिलकाचार्य (विक्रम की 13-14 वीं शताब्दी) ने टीका, माणिक्यशेखर (15 वीं शताब्दी) ने नियुक्ति-दीपिका तथा समयसुन्दर (विक्रम की 1611) ने दीपिका, विनयहंस (विक्रम सं० 1573) ने वृत्ति, रामचन्द्र सूरि (विक्रम सं० 1678) ने वार्तिक और पायचन्द्र सूरि तथा धर्मसिंह मुनि (विक्रम की १८वीं शताब्दी) ने गुजराती-राजस्थानी मिश्रित भाषा के टब्बा लिखा। किन्तु इनमें कोई उल्लेखनीय नया चिन्तन और स्पष्टीकरण नहीं है। ये सब सामयिक उपयोगिता की दृष्टि से रचे गए हैं। इसकी महत्त्वपूर्ण व्याख्याएँ तीन ही हैं-दो चूर्णियाँ और तीसरी हारिभद्रीय वृत्ति / १-गाथा 1197 की वृत्तिः ___दशकालिकटीकायां श्री विजयोदयायां प्रपंचिता उद्गमादिदोषा इति नेह प्रतन्यते। Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २-व्याख्यागत प्राचीन परम्पराएँ दशवकालिक के व्याख्या-ग्रन्थों में अनेक प्राचीन परम्पराओं का उल्लेख है। कुछ इस प्रकार हैं : १-एक बार शिष्य ने पूछा- "जन-शासन में पाँच महाव्रत प्रसिद्ध हैं तो फिर रात्रि-भोजन का वर्जन महाव्रतों के प्रकरण में क्यों ?" आचार्य ने कहा-"प्रथम और अन्तिम तीर्थंकर के तत्कालीन जन-मानस की दृष्टि से ऐसी प्रस्थापना की गई है। प्रथम तीर्थकर के काल में मनुष्य ऋजु-जड़ थे और अन्तिम तीर्थंकर के काल में वक्र-जड़ / इसीलिए इस व्रत को महाव्रतों के प्रकरणों में स्थापित कर दिया गया ताकि वे इसे महाव्रत के रूप में मानते हुए इसका भंग न करें। शेष बाईस तीर्थंकरों के काल में यह उत्तर-गुण की कोटि में था।" . शिष्य ने पूछा--- "यह क्यों ?" आचार्य ने कहा-'मध्यवर्ती बाईस तीथंकरों के काल में मनुष्य ऋजु-प्राज्ञ थे। वे रात्रि-भोजन का सहज भाव से परित्याग कर देते थे।" २-भिक्षा ग्रहण की विधि में भी स्थविर-कल्पिक और जिन-कल्पिक मुनियों में भिन्नता है। जिस स्त्री के गर्भ का नौवाँ मास चल रहा हो, ऐसी काल-मासवती स्त्री से स्थविर-कल्पिक मुनि भिक्षा ग्रहण कर लेते हैं परन्तु जिन-कल्पिक मुनि जिस दिन से स्त्री गर्भवती होती है, उसी दिन से उसके हाथ से भिक्षा लेना बन्द कर देते हैं। ३-स्तनजीवी बालक को स्तन-पान छुड़ा स्त्री भिक्षा दे तो, बालक रोए या न रोए, गच्छवासी मुनि उसके हाथ से भिक्षा नहीं लेते। यदि वह बालक कोरा स्तनजीवी न हो, दूसरा आहार भी करने लगा हो और यदि वह छोड़ने पर न रोए तो गच्छवासी मुनि उसकी माता के हाथ से भिक्षा ले सकते हैं। स्तनजीवी बालक चाहे स्तन-पान न कर रहा हो फिर भी उसे अलग करने पर रोने लगे उस स्थिति में भी गच्छवासी मुनि भिक्षा नहीं लेते। गच्छ-निर्गत मुनि स्तनजीवी बालक को अलग करने पर, चाहे वह रोए या न रोए स्तन-पान कर रहा हो या न कर रहा हो, उसकी माता के हाथ से भिक्षा नहीं लेते। यदि वह बालक दूसरा आहार करने लगा हो उस स्थिति में उसे स्तन-पान करते हुए को छोड़ कर, फिर चाहे वह रोए या न रोए, भिक्षा दे तो नहीं लेते और यदि वह स्तन-पान न १-जिनदास चूर्णि, पृष्ठ 153 / २-वही, पृष्ठ 180 : जा पुण कालमासिणी पुवुट्ठिया परिवेसेंती य थेरकप्पिया गेण्हंति, जिणकप्पिया पुण जद्दिवसमेव आवन्नसत्ता भवति तओ दिवसाओ आरद्धं परिहरति / Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5. व्याख्या-ग्रन्थों के सन्दर्भ में : व्याख्यागत प्राचीन परम्पराएँ 156 कर रहा हो फिर भी अलग करने पर रोए तो भी भिक्षा नहीं लेते। यदि न रोए तो वे भिक्षा ले सकते हैं। शिष्य ने पूछा- "बालक को रोते छोड़ कर भिक्षा देने वाली गृहिणी से लेने में क्या दोष है ?" आचार्य ने कहा- 'बालक को नीचे कठोर भूमि पर रखने से एवं कठोर हाथों से उठाने से बालक में अस्थिरता आती है। इससे परिताप दोष होता है। बिल्ली आदि उसे उठा ले जा सकती है।"२ १-(क) अगस्त्य चूर्णि : गच्छवासीण थणजीवी थणं पियंतो निक्खित्तो रोवतु वा मा वा अम्गहणं, अह अपिबंतो णिक्खित्तो रोवंते ( अगहणं, अरोवंते ) गहणं, अह भत्तं पि आहारेति तं पिबंते निक्खित्ते रोवंते अम्गहणं, अरोवंते गहणं / गच्छनिग्यत्ताण थणजीविम्मि णिक्खित्ते पिबंते ( अपिबंते) वा रोवंते (अरोयंते) वा अग्गहणं, भत्ताहारे पिबंते निक्खित्ते रोयमाणे अरोयमाणे वा अग्गहणं, अपिबंते रोयमाणे अग्गहणं, अरोयमाणे गहणं / (ख) जिनदास चूर्णि, पृष्ठ 180 : तत्थ गच्छवासी जति थणजीवी णिक्खित्तो तो ण गेण्हंति रोवतु वा मा वा, अह अन्नंपि आहारेति तो जति न रोवइ तो गेण्हंति, अह अपियंतओ णिक्खित्तो थणजीवी रोवइ तो ण गेण्हंति, गच्छनिग्गया पुण जाव थणजीवी ताव रोवउ वा मा वा अपियंतओ पियंतिओ वा न गेण्हंति, जाहे अन्नपि आहारे पयत्तो भवति ताहे जइ पियंतओ तो रोवइ मा वा ण गेण्हंति, अपियन्तओ जदि रोवइ परिहरंति अरोवंते गेण्हंति / (ग) हारिभद्रीय टीका, पत्र 172 : चूर्णि का ही पाठ यहाँ सामान्य परिवर्तन के साथ 'अत्रायं वृद्धसम्प्रदायः' .. कहकर उद्धृत किया है। - २-(क) अगस्त्य चूर्णि : एस्थ दोसा-सुकुमालसरीरस्स खरेहिं हत्थेहि सयणीए वा पीड़ा, मज्जारातीवा खाणाक्हरणं करेज्जा। (ख) जिनदास चूर्णि, पृष्ठ 180-81 : सीसो आह–को तत्थ दोसोत्ति ?, आयरिओ आह-तस्स निक्खिप्पमाणस्स खरेहिं हत्थेहिं घेप्पमाणस्स य अपरित्तत्तणेण परितावणादोसो मज्जाराइ वा अवधरेज्जा। (ग) हारिभद्रीय टीका, पत्र 172 / Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 160 दशवकालिक : एक समीक्षात्मक अध्ययन .. . (4) स्थविर-कल्पिक मुनि प्रमाण युक्त केश, नख आदि रखते हैं। जिन-कल्पिक मुनि के केश और नख दीर्घ होते हैं / ' (5) अग्नि की मंद आँच से पकाया जाने वाला अपक्वपिष्ट एक प्रहर में परिणत होता है और तेज आँच से पकाया जाने वाला शीघ्र परिणत हो जाता है। (6) कुहरा प्रायः शिशिर ऋतु-गर्भ मास में पड़ा करता है। . १-जिनदास चूर्णि, पृष्ठ 232 : दीहाणि रोमाणि कक्खीवत्थगंधादीसुःणहावि अलत्तयपाडणपायोगा, ण छज्जंति ते दीहा धारेउं, जिणकप्पियादीण दीहावि। Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३-आहार-चर्या दशवकालिक एक आचार-शास्त्र है, इसलिए उसके व्याख्या-ग्रन्थ उसी मर्यादा के प्रतिनिधि हों, यह अस्वाभाविक नहीं है। जो आचार-संहिताएं बनती हैं, वे देश-काल और पारिपाश्विक वातावरण को अपने-अपने कलेवर में समेटे हुए होती हैं। यही कारण है कि उनसे हमें मूल प्रतिपाद्य के साथ-साथ अन्य अनेक विषयों की जानकारी प्राप्त होती है। इतिहास-ग्रन्थ जैसे आचार-संहिताओं के परोक्ष-स्रोत होते हैं, वैसे ही आचार-ग्रन्थ इतिहास के परोक्ष स्रोत होते हैं। दशवकालिक और उसके व्याख्या-ग्रन्थ ऐतिहासिक ग्रन्थ नहीं हैं फिर भी उनमें भारतीय इतिहास के अनेक तथ्य उपलब्ध होते हैं। व्याख्याकारों ने विषय का स्पर्श करते हुए अपने अध्ययन का प्रचुर उपयोग किया है। उनके बाहुश्रुत्य के साथ-साथ अनेक नवीन ज्ञान-स्रोत प्रवाहित हुए हैं। नियुक्तिकार और चूर्णिकार ने साधु की चर्या और कर्त्तव्य-विधि का जिस उदाहरण शैली में निरूपण किया है, वह रसात्मक ही नहीं, प्राणि-जगत् के प्रति हमारे दृष्टिकोण को कुशाग्रीय बनाने वाली भी है। ___ इस सूत्र के पहले अध्ययन का नाम 'द्रुम-पुष्पिका' है। इसमें मुनि आहार कैसे ले और कैसा ले—इन दो प्रश्नों का स्पष्ट निरूपण है। किन्तु वह आहार किसलिए ले, कैसे खाए और उसका फल क्या है-इन प्रश्नों का स्पष्ट निरूपण नहीं है। नियुक्तिकार ने इन स्पष्ट और अस्पष्ट प्रश्नों का संक्षेप में बड़ी मार्मिकता से स्पर्श किया है। चूर्णि और टीका में नियुक्तिकार के वक्तव्य को कुछ विस्तृत शैली में समझाया गया है / नियुक्तिकार ने द्रुम-पुष्पिका अर्थात् मुनि की आहार-चर्या के चौदह पर्यायवाची नाम . बतलाए हैं' : . . . १-द्रुम-पुष्पिका ८-सर्प २--आहार-एषणा ____३-गोचर १०-अक्ष ४-त्वक ११–तीर ५-उञ्छ १२–गोला १३-पुत्र -जलक १४-उदक १-दशवकालिक नियुक्ति, गाथा 37 / Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 162 दशवैकालिक : एक समीक्षात्मक अध्ययन इनमें 1,2,3,5,6,7,11 और 12 का विषय है-मुनि आहार कैसा ले और कैसे ले ? ; 8 का विषय है-मुनि कैसे खाए ? ; 6,10 और 13 का विषय है-मुनि किसलिए खाए ? और 4,13,14 का विषय है-भोजन करने का फल क्या है ? . 1. द्रुमपुष्पिका : .. जिस प्रकार भ्रमर द्रुम के पुष्प, जो अकृत और अकारित होते हैं, को म्लान किए बिना रस ग्रहण करता है, वैसे ही श्रमण भी अपने लिए अकृत और अकारित तथा गृहस्थों को क्लान्त किए बिना, आहार ग्रहण करे / 2. आहार-एषणा : ___ इसमें तीनों एषणाओं-- गवेषणषणा, ग्रहणैषणा और परिभोगेषणा का ग्रहण किया है। मुनि उद्गम के 16 दोष, उत्पादन के 16 दोष और एषणा के 10 दोषों से रहित भिक्षा ले। 3. गोचर : एक वणिक के घर एक छोटा बछड़ा था। वह सबको बहुत प्रिय था। घर के सारे लोग उसकी बहुत सार-संभाल करते थे। एक दिन वणिक के घर जीमनवार हुआ। सारे लोग उसमें लग गए। बछड़े को न घास डाली गई और न पानी पिलाया गया। दुपहरी हो गई। वह भूख और प्यास के मारे रंभाने लगा। कुल-वधू ने उसको सुना। वह घास और पानी को लेकर गई। घास और पानी को देख बछड़े की दृष्टि उन पर टिक गई। उसने कुल-वधू के बनाव और शृङ्गार की ओर ताका तक नहीं। उसके मन में विचार तक नहीं आया कि उसके रूप-रंग और शृगार को देखे। इसका सार यह है कि बछड़े की तरह मुनि भिक्षाटन की भावना से अटन करे। रूप आदि को देखने की भावना से चंचल चित्त हो गमन न करे। 4. त्वक् : घुण चार प्रकार के होते हैं :-- (1) त्वक् खादक (3) काष्ठ-खादक (2) छल्लि खादक (4) सार-खादक १-जिनदास चूर्णि, पृष्ठ 12 : / जहा भमरो दुमपुप्फेहितो अकयमकारियं पुप्फ अकिलामेन्तो आहारेति, एवं ___ अकयमकारियं निरुवधं गिहत्थाणं अपीलयं आहारं गेण्हइ। २-वही, पृष्ठ 12 तथा दशवकालिक (भा०-२), पृष्ठ 194,95,96 / ३-बही, पृष्ठ 12 / Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . 5. व्याख्या-ग्रन्थों के सन्दर्भ में : आहार-चर्या इसी प्रकार भिक्षु भी चार प्रकार के होते हैं : (1) कई भिक्षु त्वक् खादक होते हैं पर सार खादक नहीं। (2) कई भिक्षु सार खादक होते हैं पर त्वक खादक नहीं। (3) कई भिक्षु त्वक् खादक होते हैं और सार खादक भी। (4) कई भिक्षु न त्वक् खादक होते हैं और न सार खादक / जो भिक्षु त्वचा को खाने वाले घुण के समान होता है, उसके सार को खाने वाले घुण के समान तप होता है। जो भिक्षु सार को खाने वाले घुण के समान होता है, उसके त्वचा को खाने वाले घुण के समान तप होता है। जो भिक्षु छाल को खाने वाले घुण के समान होता है, उसके काठ को खाने वाले घुण के समान तप होता है। . जो भिक्षु काठ को खाने वाले घुण के समान होता है, उसके छाल को खाने वाले घुण के समान तप होता है। 5. उच्छ : मुनि अज्ञात पिण्ड ले, पूर्व सूचना के बिना ले, जाति आदि का परिचय दिए बिना ले।' 6. मेष : जिस प्रकार मेष पानी को हिलाए-डुलाए बिना ही पी लेता है और अपनी प्यास बुझा लेता है, उसी प्रकार भिक्षा के लिए गया हुआ मुनि भी बीज, हरित आदि को लांघते समय हलफल न करे। ऐसी कोई उतावल न करे, जिससे दाता मूढ़ बन जाए। वह बीज आदि का अतिक्रमण करता हो तो उसे धैर्य से जताए, जिससे वह उनपर पैर भी न रखे और मूढ़ भी न बने / 7. जलूक : . .जोंक जैसे मृदुता से रक्त खींच लेती है, वैसे ही अविधि से देने वाले दाता के दोष का मृदु-वचनों से निवारण करे / . १-जिनदास चूर्णि, पृष्ठ 12 / २-वही, पृष्ठ 12 जहा मेसो अणायुगाणितो पिबेति एवं साहुणावि भिक्षापविद्वेण बीयकमणादि ण तहा हल्लफलयं कायव्वं जहा भिक्खाए दाया मूढो भवइ, सो वा तेण वारेयव्वो जेण परिहरइ। ३-वही, पृष्ठ 12 / Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 164 दशवैकालिक : एक समीक्षात्मक अध्ययन 8. सर्प: जिस प्रकार सर्प झट से बिल में प्रविष्ट होता है, उसी प्रकार मुनि भी मुंह में क्षिप्त कवल को स्वाद के लिए इधर-उधर घुमाए बिना झट से निकल जाए।' 6. व्रण : जिस प्रकार व्रण को शान्त करने के लिए उस पर लेप किया जाता है, उसी प्रकार अधैर्य को शान्त करने—धृति की सुरक्षा के लिए मुनि आहार करे, रूप आदि को बढ़ाने के लिए नहीं। 10. अक्ष: जिस प्रकार यात्रा को निर्वाध-रूप से सम्पन्न करने के लिए गाड़ी के पहियों में तेल चुपड़ा जाता है, उसी प्रकार संयम-भार को वहन करने के लिए मुनि आहार करे / 11. तीर : जिस प्रकार रथिक अपने लक्ष्य में तन्मय होकर ही उसे बींध सकता है, अन्यथा नहीं, उसी प्रकार भिक्षा के लिए घूमता हुआ मुनि भी संयम-लक्ष्य में तन्मय होकर ही उसे प्राप्त कर सकता है, अन्यथा नहीं। शब्द आदि विषयों में व्याक्षिप्त होकर वह संयम से स्खलित हो जाता है। 12. गोला : लाख को यदि अग्नि के अत्यन्त निकट रखा जाए तो वह बहुत पिघल जाती है, उसका गोला नहीं बनाया जा सकता और यदि उसें अग्नि से अति दूर रखा जाए तो १-जिनदास चूर्णि, पृष्ठ 12: / जहा सप्पो सरत्ति बिले पविसति तहा साहुणा वि भणासावेंतेण हणुयं असंस रंतेणं आहारेयव्वं / २-वही, पृष्ठ 12-13: जहा वणस्स मा फुट्टिहिति तो से मक्खणं दिज्जइ, एवं इमस्मवि जीवस्स मा घितिक्खयं करेहिइ तो से दिज्नइ माहारो, ण वण्णाइहेउ / ३-वही, पृष्ठ 13: जहा सगडस्स जत्तासाहणट्ठा अम्मंगो दिज्जइ, एवं संजममरवहणत्थं आहा रेयव्वं / ४-वही, पृष्ठ 12: जहा रहिओ लक्खं विंघिउकामो तदुवउत्तो विवइ, वक्खित्तचित्तो फिट्टइ, एवं साहूवि उवउत्तो भिक्खं हिंडतो संजमलक्खं विंधइ, वक्खिप्पंतो सद्दाइएसु फिट्टइ। Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 165 5. व्याख्या-ग्रन्थों के सन्दर्भ में : आहार-चर्या वह पिघलती नहीं। ऐसी स्थिति में भी गोला नहीं बनाया जा सकता। लाख का गोला तभी बन सकता है जबकि उसे न अग्नि से अति दूर रखा जाए और न अति निकट / इसी प्रकार भिक्षा के लिए गया हुआ मुनि यदि अतिभूमि (भिक्षुओं के लिए गृह में निर्धारित भूमि) से आगे चला जाता है तो गृहस्वामी को अविश्वास हो सकता है, अप्रीति हो सकती है। यदि वह बहुत दूर खड़ा रहता है तो पहली बात है कि दृष्टिगोचर न होने के कारण उसे भिक्षा ही नहीं मिलती और दूसरी बात है कि गृहस्थ कैसे देता है, उसकी एषणा नहीं हो पाती। इसलिए मुनि भिक्षा-भूमि की मर्यादा को जान कर उससे अति दूर या अति निकट न ठहरे, उचित स्थान पर ठहरे / ' 13. पुत्र: ___जैसे कोई पुरुष अत्यन्त अनिवार्य स्थिति में अपने पुत्र का मांस खाता हैधन्य सार्थवाह ने अपनी पुत्री 'सुसुमा' का मांस केवल जीवित रह कर राजगृह पहुँचने के लिए खाया था, किन्तु वर्ण, रूप, बल आदि बढ़ाने के लिए नहों—वैसे ही मुनि निर्वाणलक्ष्य की साधना के लिए आहार करे किन्तु वर्ण, रूप आदि बढ़ाने के लिए नहीं / 2 14. उदक : - जिस प्रकार एक वणिक ने रत्नों की सुरक्षा के लिए अपेय जल पीया था, उसी प्रकार मुनि रत्नत्रयी—ज्ञान, दर्शन और चारित्र—की सुरक्षा के लिए आहार करे।3 तथा वृक्षों की यह प्रकृति है कि वे अपते अनुकूल ऋतु में पुष्पित होते हैं और उचित १-जिनदास चूर्णि, पृष्ठ 13 : . जहा जंतुमि गोलए कज्जमाणे जइ अम्गिणा अतिल्लियाविज्जइ ता अतिदवत्तणेण न सक्कइ काउं, अह व नेवाल्लियाविज्जइ नो चेव निग्घरति, णातिदूरे णातिआसण्णे अ कए सकइ बंधिउं, एवं भिक्खापविट्ठो साहू जइ अइभूमीए विसइ तो तेसिं अगारहत्थाणं अप्पत्तियं भवइ तेण य संकणादिदोसा, अह दूरे तो न दीसइ एसणाघाओ य भवइ, तम्हा कुलस्स भूमि जाणित्ता पाइद्दूरे णासण्णे ठाइयव्वं / २-वही, पृष्ठ 13 / ३-वही, पृष्ठ 13 / Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 166 * दशवकालिक : एक समीक्षात्मक अध्ययन काल में फल भी देते हैं। उसी प्रकार पचन-पाचन भी गृहस्थों की प्रकृति है। साधु पचन-पाचन से दूर रहता है / 2 भ्रमर स्वाभाविक रूप से पुष्पित फूलों से रस लेकर अपने आपको तृप्त कर लेता है, वैसे ही श्रमण भी स्वाभाविक रूप से गृहस्थ के लिए बने हुए भोजन में से कुछ लेकर अपने आपको तृप्त कर लेता है। जैसे—स्वभाव-कुसुमित द्रव्यों को बाधा दिए बिना भ्रमर रस लेते हैं, उसी प्रकार श्रमण भी नागरिकों को बाधा दिए बिना, उनके (नागरिकों) लिए सहज बना हुआ भोजन लेते हैं। १-दशवकालिक नियुक्ति, गाथा 108 : पगई एस दुमाणं जं उउसमयम्मि आगए संते / पुप्फति पायवगणा फलं च कालेण बंधति // २-जिनदास चूर्णि, पृष्ठ 68 / ६-वही, पृष्ठ 68 / ४-वही, पृष्ठ 68-69 / Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४-मुनि कैसा हो? वनस्पति तथा प्राणि-जगत् के स्वभावों की विचित्रता आज भी आश्चर्यकारक है और इनका स्वतंत्र अध्ययन अपने आप में महत्त्वपूर्ण है। नियुक्तिकार और चूर्णिकार ने श्रमण के अनेक गुणों को स्पष्ट करने के लिए वनस्पति-जगत्, प्राणि-जगत् तथा अन्यान्य चर-अचर पदार्थो के गुणों को छुआ है और उनके माध्यम से श्रमण के जीवन को स्पष्ट करने का सुन्दरतम प्रयास किया है। उन्होंने व्यावहारिक दृष्टान्तों से इस विषय को समझाया है, अत: यह दुरूह विषय भी सरल बन गया है। इसके अध्ययन से श्रमण की चर्या, मानसिक विकास तथा चारित्रिक विकास का स्पष्ट प्रतिबिम्ब सामने आ जाता है। निक्तिकार ने बारह उपमाओं द्वारा भिक्षु का स्वरूप बतलाया है / ' टीकाकार ने एक भिन्न कर्तृक गाथा को उद्धृन करते हुए श्रमण के लिए ग्यारह उपमाएँ प्रस्तुत की हैं / 2 उनमें कई पुनरुक्त भी हैं। 1. वह सप जैसा हो: यहाँ सर्प की तुलना तीन बातों से की गई है : 1. सर्प जैसे एकाग्र-दृष्टि वाला होता है, वैसे ही मुनि भी धर्म में एकाग्र-दृष्टि वाला हो। .. 2. सर्प जैसे पर-कृत बिल में रहता है, वैसे मुनि भी पर-कृत घर में रहे / 3 . 3. सर्प जैसे बिल में झट से प्रविष्ट हो जाता है, वैसे मुनि भी आहार को झट से निगल जाए।४ .. १-दशवकालिक नियुक्ति, गाथा 157 : / उरगगिरिजलणसागरनहयलतरुगणसमो य जो होई / भमरमिगधरणिजलरुहरविपवणसमो जओ समणो // २-हारिभद्रीय टीका, पत्र 83 / ३-जिनदास चूर्णि, पृष्ठ 72 : जहा उरगसमेण होयव्वं, तत्थ एगंतदिद्वित्तणं धम्मं पडुच्च कायव्वं, परकडपरिणिटियासु वसहीसु वसितव्वं / ४-अगस्त्य चूर्णि : बिलमिवपन्नगभूतेण अप्पाणेण आहारवित्ति जहा बिलं पन्नगं नासाएत्ति / Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 168 दशवकालिक : एक समीक्षात्मक अध्ययन 2. वह पर्वत जैसा हो: जैसे पर्वत पबन से अप्रकम्पित होता है, उसी प्रकार मुनि भी कष्टों से अप्रकम्पित हो। किन्तु पर्वत की तरह जड़ और कठोर न हो / ' 3. वह अग्नि जैसा हो : जैसे अग्नि इन्धन आदि से तृप्त नहीं होती, उसी तरह मुनि भी ज्ञान से तृप्त न हो। जैसे अग्नि जलाते समय—इसे जलाना चाहिए, इसे नहीं—यह भेद नहीं करती,२ उसी प्रकार मुनि भी मनोज्ञ व अमनोज्ञ आहार में भेद न करे-राग-द्वेष न करे। 4. वह सोगर जैसा हो : सागर जैसे गम्भीर होता है, अथाह होता है, रत्नों का आकर होता है और मर्यादा का अनतिक्रमणकारी होता है, उसी प्रकार मुनि भी गम्भीर हो, अथाह हो, ज्ञान का आकर हो और मर्यादा का अनतिक्रमणकारी हो। ( किन्तु सागर की तरह खारा होने के कारण अस्पृहणीय न हो ) १-(क) हारिभद्रीय टीका, पत्र 83 : गिरिसमः परीषहपवनाकम्प्यत्वात् / (ख) जिनदास चूर्णि, पृष्ठ 72 : पव्वय सरिसेण साधुणा होयव्वं, तस्स पुण पन्वयस्स अण्णाणभावं खरभावं च उज्झिऊणं तेजस्सित्तणं परिगिज्झइ। २-जिनदास चूर्णि, पृष्ठ 72 : जह वा सो अग्गी इंधणादीणि डहमाणे णो कत्थइ विसेसं करेति-इभं डहितव्वं इमं वा अडहणीयं, एवं मणुण्णामणुण्णेसु अण्णपाणादिसु फासुएसणिज्जेसु रागो दोसो वा न कायव्वो। ३-(क) जिनदास चूर्णि, पृष्ठ 72 : सागरसरिसिण होयव्वं साहुणा, सो य गतीए खारत्तणेण अपेयो न एयं घेप्पइ, किं तु जाणि य समुदस्स गंभीरत्तं अगाहत्तणं व ताणि घेप्पंति, कहं ? साहुणा सागरो इव गंभीरेण होयव्वं, नाणदंसणचरित्तेहि य अगाहेण भवितव्वं / (ख) हारिभद्रीय टीका, पत्र 83 : सागरसमो गम्भीरत्वाज्ज्ञानादिरत्नाकरत्वात् स्वमर्यादानतिक्रमाच्च / Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5. व्याख्या-ग्रन्थों के सन्दर्भ में : मुनि कैसा हो ? 166 5. वह आकाश जैसा हो: जैसे आकाश निरुपलेप और निरालम्ब होता है, उसी प्रकार मुनि भी माता-पिता आदि में अलिप्त हो और स्वावलम्बी हो / ' 6. वह वृक्ष जैसा हो: जैसे वृक्ष पक्षियों के लिए आधारभूत होता है और छेदन-भेदन या पूजा करने पर समवृत्ति रहता है, उसी प्रकार मुनि भी मोक्ष-फल चाहने वालों के लिए आधारभूत हो और मान-अपमान में सम हो / 7. वह भ्रमर जैसा हो: जैसे भ्रमर अनियत-वृत्ति वाला तथा अपनी भूख, देश और काल को जान कर वर्तने वाला होता है, उसी प्रकार मुनि भी अनियत-वृत्ति वाला तथा अपनी भूख, देश और काल को जानने वाला हो / 3 / / 8. वह मृग जैसा हो: - जैसे मृग सदा उद्विग्न–भयभीत रहता है, उसी प्रकार मुनि भी संसार के भय से सदा उद्विग्न हो, सदा अप्रमत हो / ' 6. वह पृथ्वी जैसा हो: जैसे पृथ्वी सभी स्पर्शो को समभाव से सहती है, उसी प्रकार मुनि भी सभी स्पर्शों को समभाव से सहने वाला हो।५ -१-जिनदास चूर्णि, पृ० 72 / / २-(क) हारिभद्रीय टीका, पत्र 83 / (ख) जिनदास चूर्णि, पृष्ठ 72 / . ३-वही, पृ० 72 : भमरेण व अनियतवत्तिणा भवितव्वं, कहं ? भमरो जहा एस चेव हेट्ठा उदरं देसं कालं च नाऊण चरइ, एवं साहुणावि गोयरचरियादिसु देसं कालं च बाऊण चरियन्वं। ४-वही, पृ० 72 : जहा 'मिगो णिच्चुन्विग्गो तहा णिच्चकालमेव संसारभउन्विग्गेण अप्पमत्तेण भवियव्वं / ... ५-वही, पृ० 72 : . धरणी विव सव्वफासविसहेण साहुणा भवितव्वं। Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 170 दशवकालिक : एक समीक्षात्मक अध्ययन 10. वह कमल जैसा हो: ___ जैसे कमल कीचड़ में उत्पन्न होता है, पानी में समृद्ध होता है, फिर भी उनसे अलिप्त रहता है। उसी प्रकार मुनि भी काम से उत्पन्न हुआ, भोगों से बढ़ा, फिर भी उनसे अलिप्त हो / ' 11. वह सूर्य जैसा हो: जैसे सूर्य तेजस्वी होता है और समस्त लोक को भेदभाव किए बिना प्रकाशित करता है, उसी प्रकार मुनि भी तेजस्वी हो तथा राजा और रंक का भेद किए बिना सबको समान रूप से धर्म का उपदेश देने वाला हो / 2 कहा भी है- जैसे बड़े आदमी को धर्म कहे वैसे ही तुच्छ को कहे और जैसे तुच्छ को कहे वैसे बड़े आदमी को कहे / 12. वह पवन जैसा हो: ___ जैसे पवन अप्रतिबद्ध होता है—मुक्त होकर चलता है, उसी प्रकार मुनि भी अप्रतिबद्ध-विहारी हो / 13. वह विष जैसा हो: जैसे विष सर्व रसानुपाती होता है—सभी रसों को अपने में समाहित कर लेता है, उसी प्रकार मुनि भी सर्व रसानुपाती हो—प्रिय-अप्रिय आदि सभी स्थितियों को अपने में समाहित करने वाला हो। कहा भी है हम मनुष्य हैं। न मित्र हैं और न पण्डित, न मानी हैं और न धन-गर्वित / जैसेजैसे लोग होते हैं, हम भी वैसे ही बन जाते हैं जैसे कि विष रस के अनुरूप ही अपने को परिवर्तित कर लेता है।" १-जिनदास चूर्णि, पृ० 72 : जहा पउमं पंके जायं जले समिद्धं तेहिं चेव नोवलिप्पइ, एवं साहुणावि कामेहि जाएण भोगेहिं संवद्धिएण तहा कायव्वं जहा तेहिं न लिप्पइ / २-वही, पृ० 72-73 : सूरो इव तेयसा जुत्तेण साहुणा भवितव्वं, जहा सूरोदयो समंता अविसेसेण लोगं पगासेइ, एवं साहुणावि धम्मं कहयंतेण राइणो दासस्स अविसेसेण कहेयव्वं / ३-वही, पृ० 73 : ___ जहा पवणो कत्थइ ण पडिबद्धो तहा साहुणावि अपडिबद्धेण होयव्वं / ४-वही, पृ० 73 : साहुणा विससमेण भवितव्वं, भणियं चवयं मणुस्सा ण सहा ण पंडिया, ण माणिणो णेव य अत्थगब्विया। जणं जणं (तो) पभवामु तारिसा, जहा विसं सव्वरसाणुवादिणं // Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5. व्याख्या ग्रन्थों के सन्दर्भ में : मुनि कसा हो ? 171 14. वह तिनिश जैसा हो: जैसे तिनिश का पौधा सब ओर झुक जाता है, उसी प्रकार मुनि भी बड़ों के प्रति नम्र हो तथा श्रुत और अर्थ-ग्रहण के लिए छोटों के प्रति भी नम्र हो / ' 15. वह वंजुल-वेतस जैसा हो : ___ जैसे वंजुल के नीचे बैठने से सर्प निर्विष हो जाते हैं, उसी प्रकार मुनि भी दूसरों को निर्विष करने वाला हो—उसके पास आए हुए क्रोधाकुल पुरुष भी उपशान्त हो जाँय-ऐसी क्षमता वाला हो / 16. वह कर्णवीर (कणेर) के फूल जैसा हो : ' जैसे सभी फूलों में कणेर का फूल स्पष्ट और गन्ध रहित होता है, उसी प्रकार मुनि भी सर्वत्र स्पष्ट और अशील की गन्ध से रहित हो / ' 17. वह उत्पल जैसा हो: जैसे उत्पल सुंगंधयुक्त होता है, उसी प्रकार मुनि भी शील की सुगन्ध से युक्त हो। १-जिनदास चूर्णि, पृ० 73 : तिणिसा जहा सव्वतो नमइ एवं जहाराइणिए णमितव्वं, सुत्तत्थं च पडुच्च ओमराइणिएसुवि नमियव्वं / २-वही पृ० 73 : . वंजुलो नाम वेतसो, तस्स किल हेटु चिट्ठिया सप्पा निविसी भवंति, एरिसेण साहुणा. भवितव्वं, जहा कोहाइएहिं महाविसेहिं अभिभूए जीवे उवसासेइ / ३-वही, पृ०.७३ : कणवीरपुष्पं सव्वपुप्फेसु पागडं णिग्गंधं च, एवं साहुणावि सव्वत्थ पागडेण भवियव्वं, जहा असुइत्ति एस निगंथेणं असुभगंधो न भवइ सीलस्स एवं भवियव्वं / ४-वही, पृ० 73 : उप्पलसरिसेण साहुणा भवियव्वं, कहं ? जहा उप्पलं सुगंधं तहा साहुणा सीलसुगंधेण भवियव्वं / Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 172 दशवकालिक : एक समीक्षात्मक अध्ययन 18. वह उंदुर जैसा हो: जैसे चूहा उपयुक्त देश और काल में विचरण करता है, उसी प्रकार मुनि भी उपयुक्त देश-काल-चारी हो।' 16. वह नट जैसा हो: जैसे नट बहुरूपी होता है, कभी राजा का और कभी दास का वेश धारण कर लेता है। उसी प्रकार मुनि भी हर स्थिति व काम करने में अपने को वैसे ही बना लेता है। 20. वह मुर्गे जैसा हो : जैसे मुर्गा प्राप्त अनाज को पैरों से बिखेर कर चुगता है ताकि दूसरे प्राणी भी उनको चुग सके ( खा सकें ), उसी प्रकार मुनि भी संविभागी हो—प्राप्त आहार के लिए दूसरों को निमंत्रित कर खाने वाला हो / 21. वह काँच जैसा हो : जैसे काँच निर्मल और प्रतिबिम्बग्राही होता है, उसी प्रकार मुनि भी निर्मल और प्रतिबिम्बग्नाही हो। काच वैसा ही प्रतिबिम्ब लेता है, जैसी वस्तु सामने आती है। उसी प्रकार मुनि भी तरुणों में तरुण, स्थविरों में स्थविर और बच्चों में बच्चा बन जाए।' १-(क) हारिभद्रीय टीका, पत्र 84 : ___ उन्दुरुसमेन उपयुक्तदेशकालचारितया। (ख) जिनदास चूर्णि में इसका उल्लेख नहीं है। २-जिनदास चूर्णि, पृ० 73 : जहा से बहुरूवि रायवेसं काउं दासवेसं धारेइ एवमाई, एवं साहुणा माणा वमाणेसु नडसरिसेण भवियव्वं / ३-वही, पृ० 73 : कुक्कुडो जं लब्भइ तं पाएण विक्किरइ ताहे अण्णेवि सत्ता चुणंति, एवं संविभागरुइणा भवियव्वं / ४-हारिभद्रीय टीका, पत्र 84 : आदर्शसमेन निर्मलतया तरुणाद्यनुवृत्तिप्रतिबिम्बभावेन च, उक्तं चतरुणंमि होइ तरुणो थेरो थेरेहिं उहरए डहरो। अदाओविव एवं अणुयत्तइ जस्स जं सीलं // Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .5. व्याख्याग्रन्थों के सन्दर्भ में : मुनि कैसा हो ? 173 22. वह अगन्धनकुल-सर्प जैसा हो: सर्प दो प्रकार के होते हैं : 1. गन्धन-कुल में उत्पन्न। 2. अगन्धन-कूल में उत्पन्न / गन्धन जाति ले सर्प डस कर चले जाते हैं किन्तु मंत्रों से प्रेरित हो पुनः वहाँ आकर डसे हुए स्थान (व्रण) पर मुँह रखकर विष को चूस लेते हैं। अगन्धन जाति के सर्प मरना स्वीकार कर लेते हैं, परन्तु वमन किए हुए विष को पुन: पीना स्वीकार नहीं करते। उसी प्रकार मुनि भी त्याज्य काम-भोंगों को पुनः पीने वाला न हो / ' 23. वह हढ वनस्पति जैसा न हो : हढ एक जलज वनस्पति है। उसकी जड़ नहीं होती। वायु के झोंकों से वह इधर-उधर आती-जाती रहती है। जैसे वह अबद्ध-मूल और अस्थिर होती है, उसी प्रकार मुनि भी अबद्ध-मूल और अस्थिर न हो / ' १-जिनदास चूर्णि, पृ० 87 / / २-वही, पृ० 89 : हढो णाम वणस्सइविसेसो, सो बहतलागादिसु छिण्णमूलो भवति, तथा वातेण य आइद्धो इओ य निज्जइ। Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५-निक्षेप-पद्धति नियुक्ति में निक्षेप-कथन से व्याख्या की पद्धति मिलती है / नाम आदि विविक्षाओं से शब्दों के अर्थ का विस्तृत वर्णन मिलता है। उदाहरणस्वरूप 'दसवेआलियं' शब्द के आरम्भिक 'दस' शब्द का अर्थ-स्फोटन नाम, स्थापना, द्रव्य, काल, क्षेत्र और भाव-इन छह निक्षेपों से किया गया है। णामं ठवणा दविए खित्ते काले तहेव भावे अ। एसो खलु निक्खेवो दसगस्स उ छम्विहो होइ // 9 // प्रथम अध्ययन 'दुमपुष्फिया' के 'दुम' शब्द की व्याख्या चार निक्षेपों से की गई है : णामदुमो ठवणदुमो दव्वदुमो चेव होइ भावदुमो / एमेव य पुप्फस्स वि चउन्विहो होइ निक्खेवो // 34 // 1. धर्म: प्रथम अध्ययन की प्रथम गाथा में 'धम्म' शब्द आया है। चार निक्षेपों के सहारे इसकी व्याख्या नियुक्ति में इस प्रकार मिलती है : णामंठवणाधम्मो दव्वधम्मो अ भावधम्मो अ।। एएसिं नाणतं वुच्छामि अहाणुपुवीए // 39 // दव्वं च अस्थिकायप्पयारधम्मो अ भावधम्मो अ। दव्वस्स पज्जवा जे ते धम्मा तस्स दव्वस्स // 40 // धम्मत्थिकायधम्मो पयारधम्मो य विसयधम्मो य। लोइयकुप्पावयणि लोगुत्तर लोगणेगविहो // 41 // गम्मपसुदेसरज्जे पुरवरगामगणगोटिराईणं। सावज्जो उ कुतित्थियधम्मो न जिणेहि उ पसत्यो // 42 // दुविहो लोगुत्तरिओ सुअधम्मो खलु चरित्तधम्मो अ। सुअधम्मो समाओ चरित्तधम्मो समणधम्मो // 43 // निक्षेप-शैली से अर्थ-कथन करने के कारण पर्यायवाची शब्द और भेदानुभेदों का विस्तृत वर्णन नियुक्ति, चूर्णि और टीका में मिलता है। Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . 5. व्याख्या-ग्रन्थों के सन्दर्भ में : निक्षेप-पद्धति 175 ___ इनके संकलन में तत्कालीन राज्य-व्यवस्था, सभ्यता और विभिन्न आचारों पर प्रकाश पड़ता है। जैसे(१) गम्य-धर्म-विवाह सम्बन्धी आचार / दक्षिणापथ में मामे की लड़की के साथ विवाह किया जा सकता था, उत्तरापथ में नहीं। (2) पशु-धर्म-पशु का आचार / माता, भगिनी आदि भी उनके लिए गम्य होती थीं। (3) देश-धर्म-देश का आचार / दक्षिणापथ की वेष-भूषा भिन्न है और उत्तरापथ की भिन्न। (4) राज्य-धर्म-राज्य का आचार, लाट देश में कर भिन्न होता है और उत्तरापथ में भिन्न। (5) पुर-धर्म एवं ग्राम-धर्म-नगर एवं गाँव का आचार। गाँव में अकेली स्त्री भी इधर-उधर आ-जा सकती थी किन्तु नगर में अकेली स्त्री न आ-जा सकती थी, दूसरी स्त्री के साथ ही जाती थी। (6) गण-धर्म-मल्ल आदि गणतंत्र राज्यों की व्यवस्था। एक स्थान में सामूहिक रूप से पान करना उनका आचार था। (7) गोष्ठी-धर्म-समवयस्क व्यक्तियों का आचार / वे उत्सव आदि में सम्मिलित ... होकर रुचिकर भोजन आदि बनाते और सहभोजन करते। (8) राज-धर्म-राजा का आचार / दुष्ट का निग्रह और सज्जन का परिपालन ... यह राज-धर्म है। 2. अर्थ ( अर्थशास्त्र ): संक्षेप में अर्थ ( सम्पत्ति ) छह प्रकार का होता है : (1) धान्य (4) द्विपद .. (2) रत्न (5) चतुष्पद (3) स्थावर (6) कुप्य इनमें स्थावर अचल-सम्पति है और शेष सब चल-सम्पत्ति के प्रकार हैं। विस्तार __ में अर्थ (सम्पत्ति) 64 प्रकार का है : (1) धान्य- 24 प्रकार (2) रत्न 24 प्रकार (3) स्थावर 3 प्रकार १-हारिभद्रीय टीका, पत्र 22 / Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 176 दशवकालिक : समीक्षात्मक अध्ययनएक (4) द्विपद 2 प्रकार (5) चतुष्पद 10 प्रकार (6) कुप्य 1 प्रकार धान्य के 24 प्रकार : (1) जौ (13) अलसी (2) गेहूँ (14) काला चना .. (3) शालि चावल (15) तिउडया (4) ब्रीहि-वन चावल (16) निष्पाव (गुजरात में इसे 'वाल' कहते हैं) (5) साठी चावल (17) मोठ (6) कोदो, कोदव (18) राजमाष-लोभिया, चौला (7) अणुकर (16) इक्षु / (8) कांगणी (20) चौला (6) रालक (21) रहर , (10) तिल (22) कुलथी (11) मूंग (23) धनिया (12) उड़द (24) मटर चूर्णिकार के अनुसार 'मसूर' को मालवा आदि देशों में 'चौला' कहा जाता था और वृत्तिकार ने राजमाष का अर्थ 'चौला' किया है / १-दशवकालिक नियुक्ति, गाथा 252, 253 / २-देशीनाममाला (152) में इसके दो अर्थ किए हैं—(१) माकार और (2) धान्य-विशेष / ३-पाइयसहमहण्णव (पृ. 537) में इसे देशी शब्द मानकर इसका अर्थ मालव-देश में प्रसिद्ध एक प्रकार का धान्य किया है। ४-जिनदास चूर्णि, पृ० 212: मसूरा मालवविसयादिसु चवलगा। ५-हारिभद्रीय टीका, पत्र 193 : राजमाषा:-धवलकाः। Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5. व्याख्या-ग्रन्थों के सन्दर्भ में : निक्षेप-पद्धति 177 रत्ल के 24 प्रकार : (1) स्वर्ण (6) वज्र (17) वस्त्र / (2) त्रपु-कलई (10) मणि (18) अमिला-ऊनी वस्त्र (3) ताम्र (11) मुक्ता (16) काष्ठ. .. . (4) रजत–चाँदी (12) प्रवाल (20) चर्म-महिष, सिंह आदि का (5) लोह (13) शंख (21) दन्त-हाथी दाँत आदि (6) सीसा, रांगा (14) तिनिश' (22) बाल-चमरी गाय आदि के (7) हिरण्य-रुपया (15) अगरु (23) गन्ध–सौगन्धिक द्रव्य (8) पाषाण-विजातीयरत्न (16) चन्दन (24) द्रव्य-औषधि-पीपर आदि स्थावर के तीन प्रकार : स्थावर-अचल सम्पत्ति तीन प्रकार की होती है : (1) भूमि, (2) गृह और (3) वृक्ष-समूह। भूमि का अर्थ है-क्षेत्र। वे तीन प्रकार के होते हैं : (1) सेतु, (2) केतु और (3) सेतु-केतु / गृह तीन प्रकार के होते हैं : :: (1) खात-भूमिगृह, (2) उच्छ्रित–प्रासाद और (3) खात-उच्छ्रित-भूमिगृह के ऊपर प्रासाद। तरुगण' : नारियल, कदली आदि के आराम / १-हारिभद्रीय टीका, पत्र 193 / २-देखो, देशीनाममाला, 5 // 11: . . इसके दो अर्थ हैं—तिनिश वृक्ष (गुजराती में तणछ) और मधु-पटल-मधुमक्खी का छत्ता। ३-दशवकालिक नियुक्ति, गाथा 256 : - भूमी घरा य तरुगण तिविहं पुण थावरं मुणेअव्वं / ४-जिनदास चूर्णि, पृ. 212: घरं तिविहं-खातं उस्सितं खाओसितं, तत्थ खायं जहा भूमिघरं, उस्सितं जहा पासाओ, खातउस्सितं जहा भूमिघरस्स उवरि पासादो। ५-वही, पृ० 212 तरुगणा जहा नालिकेरिकदलीमादी।. . . Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 178 दशवैकालिक : एक समीक्षात्मक अध्ययन द्विपद के दो प्रकार : (1) चक्रारबद्ध-दो पहियों से चलने वाले गाड़ी, रथ आदि / (2) मनुष्य-दास, भृतक आदि / चतुष्पद के दस प्रकार : (1) गो-जाति (6) अश्व-जाति (2) महिष-जाति (7) अश्वतर-जाति (3) उष्ट्र-जाति (5) घोटक-जाति (4) अज-जाति (9) गर्दभ-जाति (5) भेड़-जाति (10) हस्ति-जाति पक्खली या वाल्हीक आदि देशों में उत्पन्न जात्य हयों को 'अश्व' और अजात्य ( सामान्य जातीय ) हयों को 'घोटक' कहा जाता है।४ कुप्य: प्रतिदिन घर के काम में आने वाली उपकरण-सामग्नी-शयन, आसन, ताम्रकलश, घट आदि को 'कुप्य' कहा जाता है।" १-दशवकालिक नियुक्ति, गाथा 256 : चक्कारबद्धमाणुस दुविहं पुण होइ दुपयं तु॥ २-वही, गाथा 257 : गावी महिसी उट्ठा अयएलगआसआसतरगा अ। घोडग गद्दह हत्थी चउप्पयं होइ दसहा उ॥ ३-जिनदास चूर्णि, पृ० 213 : अस्सतरा नाम जे विजातिजाया जहा महामद्दएण दीलवालियाए। ४-(क) जिनदास चूर्णि, पृ० 212-13 : आसो नाम जच्चस्सा जे पक्ख लिविसयादिसु भवंति. जे पुण अजवजाति जाता ते घोडगा भवंति / (ख) हारिभद्रीय टीका, पत्र 194 : अश्वा-वाल्हीकादिदेशोत्पन्ना जात्याः' 'अजात्या घोटकाः / ५-(क) जिनदास चूर्णि, पृ० 213 : कुवियं नाम घडघडिउदुंचणियं सयणासणभायणादि गिहवित्थारो कुवियं भण्णइ। (ख) हारिभद्रीय टीका, पत्र 194 / Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5. व्याख्या-ग्रन्थों के सन्दर्भ में : निक्षेप-पद्धति 176 3. अपाय : अपाय का अर्थ है—परित्याग। वह चार प्रकार का है' : (1) द्रव्य अपाय, (2) क्षेत्र अपाय, (3) काल अपाय और (4) भाव अपाय / इनको समझाते हुए नियुक्तिकार ने अनेक दृष्टान्तों और ऐतिहासिक तथ्यों को प्रस्तुत किया है / जैसे (1) द्रव्य अपाय : . इसे 'दो भाई और नौली'---के दृष्टान्त से स्पष्ट किया है / देखो—“दशवकालिक चूर्णि की कथाएँ" कथा-संख्या 16 / (2) क्षेत्र अपाय : दशार्ह हरिवंश में उन्न राजा थे। कंस ने मथुरा का विध्वंस कर दिया। राजा जरासन्ध का भय बढ़ा तब उस क्षेत्र को अपाय-बहुल जान कर दशार्ह वहाँ से चल कर द्वारवती आ गए।५ . (3) काल अपाय : एक बार कृष्ण ने भगवान् अरिष्टनेमि से पूछा-भगवन् ! द्वारवती का नाश कब होगा ? अरिष्टनेमि ने कहा--बारह वर्षों में पायन ऋषि के द्वारा इसका नाश होगा। द्वैपायन ऋषि ने जन-श्रुति से यह बात सुनी। “मुझ से नगरी का विनाश न हो, १-हारिभद्रीय टीका, पत्र 35 / . .. २.-दशवैकालिक नियुक्ति, गाथा 55 / ३-हारिभद्रीय टीका, पत्र 35-36 / / ४-दशवकालिक नियुक्ति, गाथा 56 : खेतंमि अवक्कमणं दसारवग्गरस होइ अवरेणं। ५-हारिभद्रीय टीका, पत्र 36 : खित्तापाओदाहरणं दसारा हरिवंसरायाणो एत्थ महई कहा जहा हरिवंसे / उवओगियं चेव भण्णए, कंसंमि विणिवाइए सावायं खेत्तमेयंतिकाऊण जरासंधरायभएण दसारवग्गो महुराओ अवक्कमिऊण बारवई गओत्ति। .. Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 180 दशवकालिक : एक समीक्षात्मक अध्ययन इसलिए इस काल की अवधि में और कहीं चला जाऊँ"-यह सोच वे द्वारका को छोड़ उत्तरापथ में चले गए। (4) भाव अपाय : ____ इसे 'तुम्हें वन्दना कैसे करें'—इस दृष्टान्त से स्पष्ट किया है। देखो-"दशवकालिक चूर्णि की कथाएँ", कथा-संख्या 16 / 4. उपाय : __उपाय का अर्थ है-इच्छित वस्तु की प्राप्ति के लिए प्रयत्न-विशेष। वह चार प्रकार है : (1) द्रव्य उपाय : सोना निकालने और उसे शुद्ध रूप में प्राप्त करने का उपाय धातुवाद है। (6) क्षेत्र उपाय : हल आदि क्षेत्र को तैयार करने का उपाय है। नौका से समुद्र के पूर्वी तट से पश्चिमी तट पर जाना / " १-दशवकालिक नियुक्ति, गाथा 56 : दीवायणो अ काले.....। (ख) हारिभद्रीय टीका, पत्र 36-37 : कण्हाच्छिएण भगवया रिटुणेमिणा वागरियं-बारसहिं संवच्छरेहिं दीवायणाओ बारवईणयरी विणासो, उज्जोततराए गगरीए परंपरएण सुणिऊण दीवायणपरिव्वायओ मा णगरिं विणासेहामित्ति कालावधिमण्णओ गमेमित्ति उत्तरावहं गओ। २-(क) दशवकालिक नियुक्ति, गाथा 61-62 : एमेव चउ विगप्पो होइ उवाओ ऽवि तत्थ दव्वंमि / धातुव्वाओ पढमो नंगलकुलिएहिं खेत्तं तु॥ कालो अ नालियाइहिं होइ भावंमि पंडिओ अभओ। चोरस्स कए नटैि वड्ढकुमारि परिकहेइ // (ख) हारिभद्रीय टीका, पत्र 41,42 / ३-हारिभद्रीय टीका, पत्र 40 : द्रव्योपाये विचार्ये 'धातुर्वादः' सुवर्णपातनोत्कर्षलक्षणो द्रव्योपायः / ४-वही, पत्र 40 : - क्षेत्रोपायस्तु लागलादिना क्षेत्रोपक्रमणे भवति / ... ५-जिनदास चूर्णि, पृ० 44 : जहा नावाए पुव्ववेतालीओ अवरावेयालिं गम्मइ। Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5. व्याख्या-ग्रन्थों के सन्दर्भ में : निक्षेप-पद्धति (3) काल-उपाय-नालिका काल जानने का उपाय है / (4) भाव-उपाय—इसे दो उदाहरणों से स्पष्ट किया है-एक खंभे का प्रासाद (देखो दशवकालिक चूणि की कथाएँ, कथा-संख्या 18) और दो विनय और विद्या (देखो वही, कथा-संख्या 16) / __अपाय और उपाय के निक्षेपों में दिए हुए लोकोत्तर उदाहरणों से नियुक्ति-काल, चूर्णि-काल और वृत्ति-काल में साधु-संघ की जो स्थिति थी, उसका यथार्थ चित्र हमें प्राप्त होता है। (1) द्रव्य-अपाय का लोकोत्तर रूप : उत्सर्ग-विधि के अनुसार मुमुक्षु को अधिक द्रव्य ( वस्त्र, पात्र आदि ) तथा स्वर्ण आदि ग्रहण नहीं करना चाहिए। किन्तु विशेष कारण उपस्थित होने पर चिर-दीक्षित साधु यदि उनका ग्रहण करे तो कारण समाप्त होते ही उनका अपाय-परित्याग कर दे। (2) क्षेत्र-अपाय का लोकोतर रूप : __मुनि जिस क्षेत्र में विहार करता हो, यदि वह क्षेत्र अशिव आदि से आक्रान्त हो जाए तो मुनि उस क्षेत्र का अपाय कर दे / (3) काल-अपाय का लोकोत्तर रूप : दुर्भिक्ष आदि की स्थिति उत्पन्न होने पर मुनि को वह समय अन्यत्र बिताना चाहिए, जहाँ दुर्भिक्ष आदि की स्थिति न हो / (4) भाव-अपाय का लोकोत्तर रूप : ___ मुनि क्रोध आदि का अपाय करे / 4 १-हारिभद्रीय टीका, पत्र 39 : इहोत्सर्गतो मुमुक्षुणा द्रव्यमेवाधिकं वस्त्रपात्राद्यन्यद्वा कनकादि न ग्राह्य, शिक्षकाहिसंदिष्टादिकारणगृहीतमपि तत्परिसमाप्तौ परित्याज्यम् / २-जिनवास चूर्णि, पृ० 41 : साहुणावि असिवादीहिं कारणेहिं खेतावाओ कायव्वो। ३-वही, पृ० 41 : साहुणावि दुन्भिक्खस्स अवातो असिवाणं च कायव्वो, ण-उ अपुण्णे आगंतव्वं मूढत्ताए। ४-हारिभद्रीय टीका, पत्र 39: क्रोधादयोऽप्रशस्तभावास्तेषां विवेकः-नरकपातनाद्यपायहेतुत्वात्परित्यागः / Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 182 दशवकालिक : एक समीक्षात्मक अध्ययन (1) द्रव्य-उपाय का लोकोत्तर रूप : (1) जैसे धातुवादिक उपाय से सोना बनाते हैं उसी प्रकार मुनि संघीय-प्रयोजन उत्पन्न होने पर योनि-प्राभृत आदि ग्रन्थ -निर्दिष्ट उपायों से सोना तैयार करे / (2), विशेष स्थिति उत्पन्न होने पर विद्या-बल से ऐसा दृश्य उपस्थित करे, जिससे कठिन स्थिति उपशान्त हो जाए।२ / ____ नियुक्तिकार ने उपाय के केवल चार विकल्प बतलाए हैं। उन्होंने जो उदाहरण दिए हैं वे सारे लौकिक हैं / 3 लोकोत्तर विकल्पों की उन्होंने कोई चर्चा नहीं की है। चूर्णिकार ने लोकोत्तर उपायों की चर्चा की है। वहाँ संघ-कार्य के लिए स्वर्ण-निर्माण और विद्या प्रयोग का अपवाद स्वीकार किया है। वृत्तिकार ने लोकोत्तर उपायों की चर्चा को है किन्तु चूर्णिकार के इस ( स्वर्ण-निर्माण ) अभिप्राय को उन्होंने पराभिमत के रूप में उद्धृत किया है। उनके अनुसार द्रव्य-उपाय का लोकोत्तर रूप यह हैपटल ( छाछ से भरे हुए वस्त्र ) आदि के प्रयोग से जल को प्रासुक बनाना / 6 चूर्णि का अपवाद वृत्तिकार को मान्य नहीं रहा और वृत्ति का अपवाद आज मान्य नहीं है / इसका निष्कर्ष यह है कि चूर्णि-काल में साधु-संघ बड़ी कठिनाइयों से गुजर रहा था / उस परिस्थिति में अनेक विधि-विधान निर्मित हुए। आगम-काल में अहिंसा का स्थान सर्वोच्च था। उसके सामने संघ का स्थान गौण था, किन्तु इस मध्यकाल में संघ ने बहुत ऊँचा स्थान प्राप्त कर लिया। यौगिक सिद्धियों का प्रयोग भी मान्य होने लगा। वृत्ति-काल में कठिनाइयाँ भिन्न प्रकार की थीं। इसलिए अपवाद भी भिन्न प्रकार के बने / आज दोनों प्रकार की कठिनाइयाँ नहीं हैं। १-जिनदास चूर्णि, पृ० 44 : . दव्वोवायो जहा धातुवाइया उवाएण सुवण्णं करेंति, एवं तारिसे संघकज्जे समुप्पण्णे उवाएण जोणीपाहुडाइयं पडिणीयं आसयंति / २-वही, पृ० 44 : विजा तिसएहिं वा एरिसे दरिसेइ जेण उवसमेइ / ३-दशवैकालिक नियुक्ति, गाथा 61-62 / ४-जिनदास चूर्णि, पृ० 44 / ५-हारिभद्रीय टीका, पत्र 40 : 3. अन्ये तु योनिप्राभृतप्रयोगतः काञ्चनपातनोत्कर्षलक्षणमेव संङ्घातप्रयोजनादौ द्रव्योपायं व्याचक्षते। ६-वही, पत्र 40 : ... लोकोत्तरे त्वध्वादौ पटलादिप्रयोगतः प्रासुकोदककरणम् / .. Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5. व्याख्या-ग्रन्थों के सन्दर्भ में : निक्षेप-पद्धति 183 (2) क्षेत्र-उपाय का लोकोत्तर रूप : विद्या-बल से दुर्गम मार्ग को पार करना / ' वृत्तिकार के अनुसार वह इस प्रकार है—आहार के लिए पर्यटन कर तदुपयुक्त क्षेत्र की एषणा करना / यहाँ भी वृत्तिकार ने चूर्णिकार के अभिप्राय को पराभिमत के रूप में उद्धृत किया है। (3) काल-उपाय का लोकोत्तर रूप : सूत्र के परिवर्तन से काल को जानना / / (4) भाव-उपाय का लोकोत्तर रूप : आचार्य शैक्ष की उपस्थापना देने से पूर्व उसके मानसिक भावों को अच्छी तरह से जान ले और यह निर्णय करे कि-"यह प्रव्राजनीय है या नहीं ? प्रव्रजित करने पर भी यह मुण्डित करने योग्य है या नहीं ?"5 . 5. आचार: / आचार का अर्थ है-भिन्न-भिन्न रूपों में परिणमन / जो द्रव्य विवक्षित रूपों में परिणत हो सकता है, उसे आचारवान् और जो परिणत नहीं हो सकता हो, उसे अनाचारवान् कहा जाता है / 6 . १-जिनदास चूर्णि, पृ० 44 : विज्जाइसएहिं अद्धाणाइसु नित्थरियव्वं / २-हारिभद्रीय टीका, पत्र 40 : - लोकोत्तरस्तु विधिना प्रातरशनाद्यर्थमटना दिना क्षेत्रभावनम् / ३-वही, पत्र 40 : . अन्ये तु विद्यादिभिश्च दुस्तराध्वतरणलक्षणं क्षेत्रोपायमिति / .४-वही, पत्र 40 लोकोत्तरस्तु सूत्रपरावर्तनादिभिस्तथा भवति / ५-वही, पत्र 42 : एवमिहवि सेहाणमुवढायंतयाणं उवाएण गीअत्थेण दिपरिणामादिणा भावो जाणिअव्वोत्ति, किं एए पव्वावणिज्जा नवत्ति, पव्वा विएसुवि तेसु मुंडावणाइसु एमेव विभासा। ६-वही, पत्र 101 : आचरणं आचारः द्रव्यस्याचारो द्रव्याचारः, द्रव्यस्य यदाचरणं तेन तेन प्रकारेण परिणमनमित्यर्थः। Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 184 दशवकालिक : एक समीक्षात्मक अध्ययन आचार चार प्रकार का है (1) नाम-आचार-जिसका नाम 'आचार' हो। (2) स्थापना-आचार-जिस सचेतन या अचेतन वस्तु में 'आचार' का आरोप किया गया हो। (3) द्रव्य-आचार—यह छः प्रकार का है। (4) भावाचार-दर्शन, ज्ञान, चारित्र, तप और वीर्य के भेद से पाँच प्रकार .. का होता है। द्रव्य-आचार के छह प्रकार : (1) नामन : झुकने की दृष्टि से—तिनिश आचारवान् होता है। एरण्ड अनाचारवान् होता है, वह झुकता नहीं टूट जाता है। (2) धावन : धोने को दृष्टि से-हल्दिया रंग का कपड़ा आचारवान् होता है। धोने से उसका रंग उतर जाता है। कृमिराग से रंगा हुआ कपड़ा अनाचारवान् होता है। धोने से उसका रंग नहीं उतरता। (3) वासन : वासन की दृष्टि से—इंट, खपरैल आदि आचारवान होते हैं उन्हें पाटल आदि फूलों से वासित किया जा सकता है। वज्र अनाचारवान होता है, उसे सुवासित नहीं किया जा सकता। १-हारिभद्रीय टीका, पत्र 101 : आचारस्य तु चतुष्को निक्षेपः, स चायम्-नामाचारःस्थापनाचारो द्रव्याचारो भावाचारश्च / २-वही, पत्र 101: द्रव्याचारमाह-नामनधावनवासनशिक्षापनसुकरणाविरोधीनि द्रव्याणि यानि लोके तानि द्रव्याचारं विजानीहि / ३-(क) वही, पत्र 101: वासनं प्रति कवेलुकाद्याचारवत् सुखेन पाटलाकुसुमादिमिर्वास्यमानत्वात्, वैडूर्याद्यनाचारवत् अशक्यत्वात् / (ख) जिनदास चूर्णि, पृ०६४ : आयारमंतीओ कवेल्लुगाओ इट्ठगाओ वा, अणायारमन्तं वइरं, तं न सकए वासेडं। Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___5. व्याख्या-ग्रन्यों के सन्दर्भ में : निक्षेप-पद्धति 185 (4) शिक्षापण : शिक्षण की दृष्टि से तोता और मैना आचारवान् होते हैं उन्हें मनुष्य की बोली सिखाई जा सकती है। कौए आदि अनाचारवान होते हैं-उन्हें मनुष्य की बोली नहीं सिखाई जा सकती। (5) सुकरण : सरलता से करने की दृष्टि से सोना आचारवान होता है, उसे गला-तपाकर सरलता से अनेक प्रकार के आभूषण बनाए जा सकते हैं। घंटा-लोह आचारवान् नहीं होता है, उसे तोड़कर उसकी दूसरी वस्तु नहीं बनाई जा सकती। (6) अविरोध : अविरोध की दृष्टि से गुड़ और दही आचारवान होते हैं उनका योग रसोत्कर्ष पैदा करता है। तेल और दूध अनाचारवान होते हैं, उनका योग रोग उत्पन्न करता है। 6. पद: (1) जिससे चला जाता है, उसे 'पद' कहते हैं, जैसे—हस्ति-पद, व्याघ्र-पद, सिंह-पद आदि-आदि / ' (2) जिससे कुछ निष्पन्न किया जाता है, उसे 'पद' कहते हैं, जैसे-नख-पद, परशु पद आदि-आदि। पद चार प्रकार का होता है : (1) नाम-पद-जिसका 'पद' नाम हो / (2) स्थापन-पद-जिस सचेतन या अचेतन वस्तु में 'पद' का आरोप किया - गया हो। (3) द्रव्य-पद। (4) भाव-पद / १-जिनदास चूर्णि, पृ० 76 : गम्मति जेणंति तं पदं भण्णइ, जहा हत्थिपदं वग्धपदं सीहपदं एवमादि / २-वही, पृ० 76 : पदंणाम जेण निव्वत्तिज्जइ तं पदं भण्णइ, जहा नहपदं परसुपदं वासिपदं / ३-दशवैकालिक नियुक्ति, गाथा 166 : णामपयं ठवणपयं दत्वपयं चेव होइ भावपयं। एक्केक्कंपिय एत्तो गविहं होइ नायव्वं // Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 186 दशवकालिक : एक समीक्षात्मक अध्ययन दव्य-पद के ग्यारह प्रकार'(१) आकोट्टिम-पद जैसे—रुपया / यह दोनों ओर से मुद्रित होता है / (2) उत्कीर्ण-पद जैसे—प्रस्तर में नाम उत्कीर्ण होता है अथवा कांस्य-पात्र उत्कीर्ण होता है। (3) उपनेय-पद जैसे-वकुल आदि के आकार के मिट्टी के फूल बनाकर उन्हें पकाते हैं, फिर गरम कर उनमें मोम डाला जाता है। उससे वे मोम के फूल बन जाते हैं / 2 . (4) पीड़ित-पद जैसे—पुस्तक को वेष्टित कर रखा जाता है तब उसमें भंगावलियाँ उठ जाती हैं। (5) रंग-पद जैसे रंगने पर कपड़ा विचित्र रूप का हो जाता है। (6) ग्रथित-पद जैसे ---गूंथी हुई माला। (7) वेष्टिम-पद जैसे—पुष्पमय मुकुट / आनन्दपुर में ऐसे मुकुट बनाए जाते थे।3 . (8) पूरिम-पद जैसे-जेत की कुण्डी बनाकर वह फूलों में भरी जाती है। उसमें अनेक छिद्र होते हैं। १-दशवकालिक नियुक्ति, गाथा 167 : . आउट्टिमउक्किन्नं उण्णेज्जं पीलिमं च रंगं च / गंथिमवेढिमपूरिम वाइमसंघाइमच्छेज्जं // २-हारिभद्रीय टीका, पत्र 87 : तहा बउला दिपुप्फसंठाणाणि चिक्खिल्लमयपडिबिंबगाणि काउं पच्नति, तओ तेसु बग्घारिता मयणं छुब्मति, तओ मयणमया पुप्फा हवन्ति। ३-जिनदास चूर्णि, पृ० 76 : / वेढियं जहा आणंदपुरे पुष्फमया मउडा कीरंति / ४-वही, पृ० 76 : पूरिमं वित्तमयी कुंडिया करिता सा पुष्फाणं भरिज्जइ, तत्थ छिड्डा भवंति एवं पूरिमं। Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5. व्याख्या-ग्रन्थों के सन्दर्भ में : निक्षेप-पद्धति 187 (8) वातव्य-पद जैसे—वस्त्र निर्मित अश्व आदि / (10) संघात्य-पद जैसे-स्त्रियों की कंचुलियाँ अनेक वस्त्रों के जोड़ से बनती हैं। (11) छेद-पद जैसे—अभ्र-पटल। भाव-पद दो प्रकार का होता है' : (1) अपराघ-पद। (2) नो-अपराध-पद / अपराध-पद छह प्रकार का होता है - (1) इन्द्रिय, (2) विषय, (3) कषाय, (4) परीषह, (5) वेदना, (6) उपसर्ग / ये मोक्ष-मार्ग के विघ्न हैं, इसलिए इन्हें अपराध-पद कहा गया है / नो-अपराध-पद दो प्रकार का होता है : (1) मातृका-पद-मातृका अक्षर अथवा त्रिपदी-उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य / (2) नो-मातृका-पद-जो-मातृका-पद दो प्रकार का होता है। (1) ग्रथित-रचताबद्ध / (2) प्रकीर्णक-कथा, मुक्तक / प्रथित-पद चार प्रकार का होता है : ... (1) गद्य (2) पद्य (3) गेय (4) चौर्ण गद्य : - 'जो मधुर होता है-सूत्र मधुर, अर्थ मधुर और अभिधान मधुर-इस प्रकार तीन रूपों में मधुर होता है, जो सहेतुक होता है, जो सिलसिलेवार ग्रथित-रचित होता है, जो १-जिनदास चूर्णि, पृ० 77 / . २-दशवकालिक नियुक्ति, गाथा 175 / ३-वही, पृ० 77 : ... पतिण्णगं नाम जो पइण्णा कहा कीरइ तं पइण्णगं भण्णइ / ..: ४-वही, गाथा 170 : ___गजं पज्जं गेयं चुण्णं च चउम्विहं तु गहियपयं / Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 188 दशवकालिक : एक समीक्षात्मक अध्ययन अपाद-चरण-रहित होता है, जो विराम-सहित होता है—पाठ के नहीं किन्तु अर्थ के विराम से युक्त होता है (जैसे-"जिणवरपादारविंदसदाणिउरुणिम्मल्लसहस्सा।" इस पूरे वाक्य को समाप्त किए बिना विराम नहीं लिया जा सकता। जो अन्त में अपरिमितबृहद् होता है और अन्त में जिसका मृदु-पाठ होता है, उसे गद्य कहते हैं।' पद्य: यह तीन प्रकार का होता है२(१) सम : जिसके पाद-चरण तथा अक्षर सम हों, उसे सम कहते हैं / कई यह भी मानते हैं कि जिसके चारों चरणों में समान अक्षर हों, उसे सम कहा जाता है। (2) अर्धसम : जिसके पहले और तीसरे तथा दूसरे और चौथे चरणों के अक्षर समान हों, उसे अर्धसम कहते है। (3) विषम : जिसके सभी चरणों में अक्षर विषम हों, उसे विषम कहते हैं। गेय : जो गाया जाता है उसे गेय (गीत) कहते हैं / वह पाँच प्रकार का होता है3 (1) तंत्रोसम- जो वीणा आदि तंत्री के शब्दों के साथ-साथ गाया जाता है, उसे तंत्रीसम कहते हैं। (2) तालसम—जो ताल के साथ-साथ गाया जाता है, उसे तालसम कहते हैं।' १-दशवकालिक नियुक्ति, गाथा 171 : महुरं हेउनिजुत्तं गहियमपायं विरामसंजुत्तं। . अपरिमियं चऽवसाणे कव्वं गज्जं ति नायव्वं // २--वही, गाथा 172 : पज्जं तु होइ तिविहं सममद्धसमं च नाम विसमं च / पाएहिं अक्खरेहिं य एवं विहिष्णू कई बेंति // ३--वही, गाथा 173 : (क) तंतिसमं तालसमं वण्णसमं गहसमं लयसमं च / ' ___ कव्वं तु होइ गेय पंचविहं गीयसन्नाए / (ख) हारिभद्रीय टीका, पत्र 88 / ४-चूर्णि में यहाँ व्यत्यय है / वहाँ तंत्रीसम, वर्णसम, तालसम मादि यह क्रम हैं। देखो-जिनदास चूर्णि, पृ० 77 / Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5. व्याख्या-ग्रन्थों के सन्दर्भ में : निक्षेप-पद्धति 186 (3) वर्णसम-ऋषभ, निषाद, पंचम आदि वर्ण कहलाते हैं / जो इनके साथ-साथ गाया जाता है, उसे वर्णसम कहते हैं। (4) ग्रहसम—ग्रह का अर्थ है उत्क्षेप / (कई इसे प्रारम्भ-रस विशेष भी मानते हैं ) जो उत्क्षेप के साथ-साथ गाया जाता है, उसे ग्रहसम कहते हैं / (5) लयसम-तंत्री की विशेष प्रकार की ध्वनि को 'लय' कहते हैं। जो लय के साथ साथ गाया जाता है, उसे लयसम कहते हैं। वंश-शलाका से तंत्री का स्पर्श किया जाता है और नखों से तार को दबाया जाता है, तब जो एक भिन्न प्रकार का स्वर उठता है, उसे 'लय' कहते हैं / चौर्ण : ____ जो अर्थ बहुल हो—जिसके बहुत अर्थ हों, जो महान् अर्थ वाला हो-हेय और उपादेय का प्रतिपादन करने वाले तथ्यों से युक्त हो, जो हेतु-निपात और उपसर्ग से युक्त होने के कारण गंभीर हो, जो बहुपाद हो—जिसके चरणों का कोई निश्चित परिमाण न हो, जो अव्यवच्छिन्न हो-विराम-रहित हो, जो गम-शुद्ध हो—जिसमें सदृश अक्षर वाले वाक्य हों और जो नय-शुद्ध हो—जिसका अर्थ नैगम आदि विभिन्न दृष्टिकोणों से प्रतिपादित हो, उसे 'चौर्ण-पद' कहते हैं। ब्रह्मचर्य अध्ययन (आचारांग प्रथम श्रुतस्कन्ध) चौर्ण पद है / 2 7. काय : __ काय अनेक प्रकार का होता है - (1) नाम-काय—जिसका नाम 'काय' हो / (2) स्थापना-काय—जिस सचेतन या अचेतन वस्तु में 'काय' का आरोप किया गया हो उसे स्थापना-कांय कहते हैं / १-दशवकालिक नियुक्ति, गाथा 174 : अत्थबहुलं महत्थं हेउनिवाओवसग्गगंभीरं / बहुपायमवोच्छिन्नं गमणयसुद्धं च चुण्णपयं // २-हारिभद्रीय टीका, पत्र 88: / चौर्ण पदं ब्रह्मचर्याध्ययनपदव दिति / ३-(क) वही नियुक्ति, गाथा 228 : . णामं ठवणसरीरे गई णिकाय त्थिकाय दविए य / माउगपज्जवसंगहमारे तह भावकाए य॥ (ब) हारिभद्रीय टीका, पत्र 134,135 / Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 160 दशवकालिक : एक समीक्षात्मक अध्ययन ... (3) शरीर-काय-शरीर स्वप्रायोग्य अणुओं का संघात होने के कारण शरीर-काय कहलाता है। .... (4) गति-काय-जिन शरीरों से भवान्तर में जाया जाता है अथवा जिस गति में जो शरीर होते हैं, उन्हें गति-काय कहते हैं। . (5) निकाय-काय-षड्जीवनिकाय-पृथ्वी, जल, तेजस् , वायु, वनस्पति और त्रस को निकाय-काय कहते हैं। (6) अस्ति-काय-धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय आदि पाँच अस्ति-काय हैं। (7) द्रव्य-काय-तीन आदि द्रव्य एकत्र हों उन्हें द्रव्य-काय कहा जाता है, जैसेतीन घट, तीन पट आदि-आदि / (5) मातृका-काय-तीन आदि मातृका अक्षरों को मातृका-काय कहते हैं। (8) पर्याय-काय-यह दो प्रकार का होता है (क) जीवपर्याय-काय—जीव के तीन आदि पर्यायों को जीवपर्याय-काय कहते हैं / जैसे—ज्ञान, दर्शन, चारित्र आदि। (ख) अजीवपर्याय-काय-अजीव के तीन आदि पर्यायों को अजीवपर्याय-काय कहते हैं / जैसे-रूप, रस, गन्ध आदि-आदि / (10) संग्रह-काय-तीन आदि द्रव्य एक शब्द से संग्रहीत होते हैं, उसे 'संग्रहकाय' कहते हैं। जैसे—त्रिकूट-सोंठ, पीपल और कालीमिर्च। त्रिफला हरडे, बहेडा और आँवला। अथवा चावल आदि की राशि को भी 'संग्रहकाय' कहते हैं। . (11) भार-काय–वृत्तिकार ने इसका अर्थ काँवर किया है। चूर्णिकार ने इसका अर्थ विस्तार से किया है __"एक कहार तालाब से दो घड़े पानी से भर, उन्हें अपनी काँवर में रख घर आ रहा था। एक ही अपकाय दो भागों में विभक्त हुआ था। उसका पैर फिसला, एक घड़ा फूट गया। उसमें जो अपकाय था, वह मर गया। दूसरे घड़े में जो अपकाय था, वह जीवित रहा। काँवर में अब एक ही घड़ा रह गया। संतुलन के अभाव में वह भी फूट गया। इसलिए यह कहा जा सकता है कि यह पहले जो अपकाय मरा था, उसी ने दूसरे घड़े के अपकाय को मार डाला।" प्रकारान्तर से इस प्रकार कहा जा सकता है "एक घड़े में अपकाय भरा था, उसे दो भागों में विभक्त कर एक भाग को गर्म किया गया। वह मर गया। जो गर्म नहीं किया गया था, वह जीवित रहा / गर्म पानी उसमें मिला दिया गया। वह निर्जीव हो गया। इसलिए कहा जा सकता है कि मृत Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5. व्याख्या-ग्रन्थों के सन्दर्भ में : निक्षेप-पद्धति 191 अपकाय ने जीवित अपकाय को मार डाला।" इसी को पहेली की भाषा में कहा गया है एगोकाओ दुहा जाओ, एगो चिट्ठइ मारिओ / जीवंतो भएण मारिओ, तल्लव माणव ! केण हेउणा // अर्थात् एक काय था। वह दो में बंट गया। एक जीवित रहा, एक मर गया। जो मरा उसने जीवित को मार डाला। कहो यह कैसे हुआ ? / (12) भाव-काय-कर्मो के उदय, उपशम, क्षय, क्षयोपशम तथा परिणमन से होने वाली अवस्थाएँ।' ..१-हारिभद्रीय टीका, पत्र 135 : भावकायश्चौदयिकादिसमुदायः / Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५-निरुक्त निरुक्त का अर्थ है-शब्दों की व्युत्पत्ति-परक व्याख्या। इस पद्धति में शब्द का मूलस्पर्शी अर्थ ज्ञात हो सकता है / आगम के व्याख्यात्मक-साहित्य में इस पद्धति से शब्दों पर बहुत विचार हुआ है / उनकी छानबीन से शब्द की वास्तविक प्रकृति को समझने में बहुत. सहारा मिलता है और अर्थ भी सही रूप में पकड़ा जाता है। जिनदास चूर्णि में अनेक निरुक्त दिए गए हैं / उनका संकलन शब्द-बोध में सहायक है / कुछ निरुक्त ये हैं : दुम दुमा नाम भूमीय आगासे य दोसु माया दुमा / ' पादा ___ पादेहिं पिबंतीति पादपाः / / रुक्ख रुत्ति पुहवी खत्ति आगासं तेसु दोसुवि जहा ठिया तेण रुक्खा / 3 विडिम-- विडिमाणि जेण अत्थि तेण विडिमा / 4 अगम ण गच्छंतीति अगमा !" तरव ___णदीतलागादीणि तेहिं तरिजंति तेण तरवो / 6 . कुह कुत्ति पिथिवी तीए धारिजंति तेणं कुहा।" महील्ह महीए जेण रुहंति तेण महीरुहा / / १-जिनदास चूर्णि, पृ० 10 / २-वही, पृ० 10 // ३-वही, पृ० 11 / ४-वही, पृ० 11 / ५-जिनदास चूर्णि, पृ० 11 / ६-वही, पृ० 11 / ७-वही, पृ० 11 / .. -वही, पृ० 11 / Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5. व्याख्या-ग्रन्थों के सन्दर्भ में : निरुक्त वच्छ : पुत्तणेहेणवा परिगिभंति तेण वच्छा।' रोवग : ___रुपंति जम्हा तेण रोवगा।२ मंगल : ___मंगं नारकादिषु पवडतं सो लाति मंगलं, लाति गेण्हइत्ति वुत्तं भवति / तव : तवो णाम तावयति अविहं कम्मगंठिं, नासेतित्ति वुत्तं भवइ / / देव : देवा णाम दीवं आगासं तंमि आगासे जे वसंति ते देवा।" अणसण : अणसणं नाम जं ने असिज्जइ अणसणं, णो आहारिज्जइत्ति वुत्तं भवति / 6..... पाओगमण : पाओवगमणं इंगिणिमरणं भत्तपच्चक्खाणं च, तत्थ पाओवगमणं णाम जो निप्पडि कम्मो पादउव्व जओ पडिओ तओ पडिओ चेव / नाय : नज्जति अणेण अत्था तेण नायं / आहरण : ___ आहरिजंति अणेण अत्था तेण आहरणं / ' दिळंत : दीसंति अणेण अत्था तेण दिह्रतो / 10 ओवम्म : __उवमिज्जति अणेण अत्था तेण ओवम्मं / 11 नियदिसण : दरिसिंति अणेण अत्था तेण निदरिसणं / / 2 १-जिनदास चूर्णि, पृ० 11 / २-वही, पृ० 11 // ३-वही, पृ० 15 // ४-वही, पृ० 15 / ५-वही, पृ० 15 // ६-वही, पृ० 21 / ७-वही पृ० 21 / ८-वही, पृ० 39 / ९-वही, पृ० 39 / १०-वही, पृ० 39-40 / ११.-वही, पृ० 40 / १२-वही, पृ० 40 / Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 164 दशवैकालिक : एक समीक्षात्मक अध्ययन भ्रमर: भ्राम्यति च रौति च श्रमरः / / विहंगम : विहेगच्छन्तीति विहंगमा। पव्वइय: पव्वइयो णाम पापाद्विरतो प्रवजितः / / अणगार: अणगारा नाम अगारं-गृहं तद् यस्य नास्ति सः अनगारः / 4. पासंडी : ___ अट्टविहाओ कम्मपासओ डीणो पासंडी।५ चरग : तवं चरतीति चरगो / तावसो : तवे ठिओ तावसो।' भिक्खू : भिक्खणसीलो भिक्खू / परिव्वायओ : सव्वसो पावं परिवज्जयंतो परिव्वायओ भण्णइ / . निग्गंथो : बाहिरभंतरेहिं गंथेहिं निग्गओ निगंथो / 10 . संयतो : ___ सव्वप्पगारेण अहिंसाइएहिं जतो संजतो / 11 मुत्त : मुत्तो बाहिरभंतरगंथेहिं / / 2 १-जिनदास चूर्णि, पृ० 62 / ७-वही, पृ० 73 / २-वही, पृ० 66 / ८-वही, पृ० 73 / ३-वही, पृ० 73 / ९-वही, पृ० 74 / ४-वही, पृ० 73 / १०-वही, पृ०७४ ! ५-वही, पृ० 73 / ११-वही, पृ० 74 / ६-वही, पृ० 73 / १२-वही, पृ० 74 / Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5. व्याख्या-ग्रन्थों के सन्दर्भ में : निरुक्त तिण ताती : जम्हा य संसारसमुद्दे तरंति तरिस्संति वा तम्हा तिण्णो ताती।' नेय : जम्हा अण्णेवि भविए सिद्धिमह.पट्टणं अविग्धप हेग नयइ तम्हा नेया / मुणि : सावज्जेसु मोणं सेवतिति मुणी।३ खंतो: खमतीति खंतो।४ दंतो: इंदियकसाए दमतीति दंतो। विरतो : पाणवधादीहिं आसवदारेहिं न वठ्ठइत्ति विरतो / / लूही : अतपतेहिं लूहेहि जीवेइत्ति लूही अथवा कोहमाणा दो णेहो भण्णइ, तेसु रहितेसु लूहे। तोरट्ठी : संसारसागरस्स तीरं अत्थयतित्ति वा मग्गइत्ति वा एगट्ठा तीरट्टी। तायिणो : तायंतीति तायिणो।' महत्वयं : महंतं वतं महव्वयं / 10 सिला : सिला नाम विच्छिग्णो जो पाहाणो स सिला / 11 सत्थ : सासिज्जइ जेण तं सत्यं / 12 .: १-जिनदास चूर्णि, पृ० 74 / ७-वही, पृ० 74 / . २-वही, पृ० 74 / ८-वही, पृ० 74 / ३.-वही, पृ० 74 / ९-वही, पृ० 177 / - ४-बही, पृ० 74 / १०-वही, पृ० 144 / ५-वही, पृ० 74 / ११-वही, पृ० 154 / ६-ही, पृ० 74 / १२-वही, पृ० 224 / Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 196 दशवकालिक : एक समीक्षात्मक अध्ययनै हव्ववाहो: हव्वं वहतीति हव्ववाहो।' सावज्ज : सहवज्जेण सावज्ज / वाक्य: वाच्यते इति वाक्यं / गिरा : गिज्जतीति गिरा। सरस्सति : सरो जीसे अत्थि सा सरस्सति / 5 भारही : भारो णाम अत्थो, तमत्थं धारयतीति भारही।६ गो: पुरच्छिमातो लोगंताओ पच्चत्थिमिलं लोगंतं गच्छतीति गो।" वाणी : वदिज्जते वयणिज्जा वा वाणी / / भाषा : भणिज्जतीति भासा। पण्णवणी : पण्णविज्जती जीए सा पण्णवणी / 10 देसणा: अर्थ देसयतीति देसणा। जोग : वायापरिणामेण जीवस्स जोगो तेण कडुगफरुसादिपरिणामजोयणं जोगो।१२ १-जिनदास चूर्णि, पृ० 225 / ७-वही, पृ०२३४-२३५॥ २-वही, पृ० 225 / ८-वही, पृ०२३५। ३-वही, पृ० 234 / ९-वही, पृ०२३५। ४-वही, पृ० 234 / १०-वही, पृ०२३५ / ५-वही, पृ०२३४ / . ११-वही, पृ०२३५॥ ६-वही, पृ०२३४ / १२-वही, पृ०३३५ / Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 167 -------- 5. व्याख्या-ग्रन्थों के सन्दर्भ में : निरुक्त पिसुण : . पीतिसुण्णं करोतीति पिसुणो।' खवण: अणं कम्म भण्णइ, जम्हा अणं खवयइ तम्हा खवणो भण्णइ / 2 १-जिनदास चूर्णि, पृ०३१६ / २-वही, पृ०३३४। Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६-एकार्थक आगमों में तथा उनके व्याख्या-ग्रन्थों में एकार्थक शब्दों का प्रचुर मात्रा में प्रयोग हुआ है। प्रथम दृष्टि में वे कुछ सार-हीन से लगते हैं परन्तु जब उनके अंतस्तल तक पहुंचा जाता है तब यह ज्ञात होता है कि यह पद्धति ज्ञान-वृद्धि में बहुत ही सहायक रही है। इस पद्धति के माध्यम से विद्यार्थियों को कोष कण्ठस्थ करा दिया जाता था। एकार्थक शब्द संकलना का यह भी प्रयोजन था कि गुरु के पास अनेक देशीय शिष्य पढ़ते थे उनको अपनी-अपनी भाषा में व्यवहृत शब्दों के माध्यम से सहज ज्ञान कराया जा सके, इसलिए नाना देशीय शब्दों को एकार्थक कहकर संकलन कर दिया जाता था। इसे शब्दकोष के निर्माण का प्रारम्भिक रूप माना जा सकता है। नीचे एकार्थक शब्दों की तालिका दी जा रही है : पज्जवोत्ति वा भेदोत्ति वा गुणोत्ति वा एगट्ठा।' णाणंति वा संवेदणंति वा अधिगमोत्ति वा चेतणंति वा भावत्ति वा एते सद्दा एगट्ठा / 2 अहिंसाइ वा अज्जीवाइवातोत्ति वा पाणातिपातविरइत्ति वा एगट्ठा। अवड्ढंति वा अद्धति वा एगट्ठा / / आलोयणंति वा पगासकरणंति वा अक्वणंति वा विसोहित्ति वा एगट्ठा / 5 मइत्ति वा मुत्ति (सइ) त्ति वा सण्णत्ति वा आभिणिबोहियणाणंति वा एगट्ठा / 6 परिझति वा पत्थणंति वा गिद्धित्ति वा अभिलासोत्ति वा लेप्पत्ति वा कंखंति वा एगट्ठा। विवस्सग्गोत्ति वा विवेगोत्ति वा अधिकिरणंति वा छडणंति वा वोसिरणंति वा एगट्ठा / चेयण्णंति वा उवयोगोत्ति वा अक्खरत्ति वा एगट्ठा। अपिबति आदियतित्ति एगट्टा / 10 अत्थयतित्ति वा मग्गइत्ति वा एगट्ठा / 11 चयाहित्ति वा छड्डेहित्ति वा जहाहित्ति वा एगट्ठा / 12 १-जिनदास चूर्णि, पृ०४। ७-वही, पृ०३०। २-वही, पृ०१०। ८-वही, , 37 // ३-वही, , 20 // ९-वही, , 46 / ४-वही, , 22 // १०-वही, , 63 / ५-वही, ,, 25 / ११-वही, , 74 / ६-वही, ,, 29 / १२-वही, , 86 / .. . Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5. व्याख्या-ग्रन्थों के सन्दर्भ में : एकार्थक 166 आयरयतित्ति वा तं तं भावं गच्छइत्ति वा आयरइत्ति वा एगट्ठा / ' धीरत्ति वा सूरेत्ति वा एगट्ठा / 2 . नाणंति वा उवयोगेति वा एगट्ठा / कसायओत्ति वा भावोत्ति वा परियाओत्ति वा एगट्ठा / / ऊसढंति वा उच्चंति वा एगट्ठा / भद्दगंति वा कल्लाणंति वा सोभणंति वा एगट्टा / / पियत्तित्ति वा आपियइत्ति वा एगट्ठा / " तवस्सीत्ति वा साहुत्ति वा एगट्ठा / अणंति वा रिणंति वा एगट्ठा / अभिलसंति वा पत्थयंति वा कामयंति वा अभिप्पायंति वा एगट्ठा / 10 विच्छिन्नंति वा अणंतंति वा विउलंति वा एगट्ठा / 11 बीयंति वा पइट्टाणंति वा मूलंति वा एगट्ठा।१२ समुस्सयोत्ति वा रासित्ति वा एगट्ठा / 3 वुत्तंति वा भणितंति वा धारयति वा संजमंति वा निमित्तंति वा एगद्वा / 14 वणियंति वा देसियंति वा एगट्ठा / 15 वज्जति वेरंति वा परंति वा एगट्ठा / 16 पाणा णि वा भूयाणि वा एगट्ठा / 17 मग्गणंति वा पिथकरणंति वा विवेयणंति वा विजओत्ति वा एगट्ठा / 18 सिणाणंति वा हाणंति वा एगट्ठा / '' छड्डिउत्ति वा जढोति वा एगट्ठा / 20 १-जिनदास चूर्णि, पृ० 94 / ३-वही, पृ०११६ / ३-वही, , 120 / ४-वही, ,, 121 / ५--वही, ,, 199 / ६-वही, , 201 / ७-वही, ,, 202 / ८-वही, ,, 203 / -वही, ,, 204 / १०-वही, ,, 215 / ११-वही, पृ०२१५ / १२-दही, ,, 219 / १३-वही, ,, 219 / १४-वही, ,, 221 / १५-वही, , 222 / १६-वही, ,, 225 / १७-वही, , 228 / १८-वही, ,, 229 / १६-वही, ,, 231 / २०-वही, , 231 / Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 200 दशवकालिक : एक समीक्षात्मक अध्ययन उप्पिलावणंति वा प्लावणंति वा एगट्ठा / / चिक्कणंति वा दारुणंति वा एगट्ठा / 2 मन्नंति वा जाणंति वा एगट्ठा / उर्वति वा वयंति वा एगट्ठा / / / लंगलंति वा हलंति वा एगट्ठा / बहवेत्ति वा अणेगेत्ति वा एगट्ठा / / मुणित्ति वा णाणित्ति वा एगट्ठा / ' परिजभासित्ति वा परिक्खभासित्ति वा एगट्ठा / गुणोत्ति वा पज्जतोत्ति वा एगट्ठा। आदियतिति वा गेहितित्ति वा तेसि दोसाणं आयरणंति वा एगट्ठा / 10 भणियंति वा वुत्तंति वा एगट्ठा / 11 पेमति वा रागोत्ति वा एगट्ठा / 12 दारुणसद्धो कक्कससद्दो विय एगट्ठा / 3 अणुत्तरंति अणुत्तमंति वा एगट्ठा / 14 विणिच्छओत्ति वा अवितहभावोत्ति वा एगट्ठा 5 वियंजितंति वा तत्थंति वा एगट्ठा / 16 अत्तवंति वा विन्नवंति वा एगट्ठा / 17 पदंति वा भूताधिकरणंति वा हणणंति वा एगट्ठा / / 8 लयणंति वा गिहंति वा एगट्ठा / 19 णिक्खंतोत्ति वा पव्वइओत्ति वा एगट्ठा / 20 १-जिनदास चूर्णि, पृ०२३१ / २-वही, पृ०२३२॥ ३-वही, , 233 / ४-वही, , 234 / ५-वही, , 254 / ६-वही, , 261 / ७-वही, ,, 263 / ८-वही, , 264 / ९-वही, , 266 / १०-वही, , 266 / ११-वही, पृ०२७४ / 12 वही, ,, 283 / १३-वही, , 283 / १४-वही, ,, 287 / १५-वही, , 287 / १६--वही, ,, 289 / १७-वही, , 289 / १८-वही, , 290 / १९-वही, , 290 / २०--वही, ,, 293 / Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 201 5. व्याख्या-प्रन्थों के सन्दर्भ में : निरुक्त संमओत्ति वा अणुमओत्ति वा एगट्ठा / ' मलंति वा पावंति वा एगष्ट्ठा / गुणेतित्ति वा परियट्टतित्ति वा एगट्ठा / अभूतिभावोत्ति वा विणासभावोत्ति वा एगट्ठा / पउंजेज्जति वा कुब्विज्जत्ति वा एगट्ठा / 5 पभासइत्ति वा उज्जोएइत्ति वा एगट्ठा / 6 उवट्ठिओत्ति वा अम्भुष्ट्रिओत्ति वा एगट्ठा / ' सालत्ति वा साहत्ति वा एगट्ठा। निग्गच्छंति वा पावंति वा एगट्ठा / . उभओत्ति वा दुहओत्ति वा एगट्ठा / 10 पुज्जोणाम पूयणिज्जोत्ति वा एगट्ठा / '' चरतित्ति वा भक्खतित्ति वा एगष्ट्ठा / 13 सक्कति वा सहयत्ति वा एगट्ठा / 3 दोमणसंति वा दुम्मणियंति वा एगट्ठा / 14 सययंति वा अणुबद्धंति वा एगट्ठा / 15 सोऊण वा सोच्चाण वा एगट्ठा / 16 मुणित्ति वा नाणित्ति वा एगट्ठा / 17 १--जिनदास चूर्णि, पृ०२९३ / १०-वही, पृ०३१६ / २-वही, ,, 294 / ११-कही, ,, 318 / ३-वही, ,, 297 / १२--वही, , 319 / ४-वही, ,, 302 / १३--वही, , 320 / ५-वही, ,, 306 / १४-वही, ,, 321 / ६-वही, ,, 307 / १५-वही, ,, 323 / ७-वही, , 308 / १६-वही, ,, 324 / ८-वही, ,, 308 / १७-वही, ,, 324 / ९-वही, , 314 / Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 202 दशवकालिक : एक समीक्षात्मक अध्ययन वयंतित्ति वा गच्छंतित्ति वा एगट्ठा / ' ठाणंति वा भेदोत्ति वा एगट्ठा। चउव्विहत्ति वा चउभेदत्ति वा एगट्ठा / पेहतित्ति वा पेच्छतित्ति वा एगट्ठा। अट्ठियतित्ति वा आयरइत्ति वा एगट्ठा। कित्तिवण्णसद्दसिलोगया एगट्ठा।६।। सइयति वा सेयंति वा एगट्ठा। पडिपुन्नंति वा निरवसेसंति वा एगट्ठा / कुव्वइत्ति वा घडइत्ति वा एगट्ठा। खेमंति वा सिवंति वा एगट्ठा / 10 वोसट्ठति वा वोसिरियंति वा एगट्ठा / 1 मुच्छासदो य गिद्धिसद्दो य साधुत्ति वा एगट्ठा / 13 संगोत्ति वा इंदियत्थोत्ति वा एगट्ठा / 3 भिक्खुत्ति वा साधुत्ति वा एगट्ठा / 14 अकुडिलेत्ति वा अणिहोत्ति वा एगट्ठा / 15 आइखेत्ति वा पवेदइत्ति वा एगट्ठा / 16 महामुणीत्ति वा महानाणीत्ति वा एगट्ठा / 17 उवेइत्ति वा गच्छइति वा एगट्ठा / 17 तंतंति वा सुत्तोत्ति वा गंथोत्ति वा एगट्ठा / 1 9. णामति वा ठाणंति वा भेदत्ति वा एगट्ठा / 20. १-जिनदास चूर्णि, पृ० 324 / २-वही, पृ० 325 / ३-वही, ,, 326 / ४-वही,,, 326 / ५-वही, , 327 / ६-वही, ,, 328 / ७-वही, ,, 329 / ८-वही, ,, 329 / ९-वही, ,, 329 / १०-वही, , 326 / ११-वही, पृ० 3.44 / १२-वही, ,, 345 / १३-वही, ,, 346 / १४-वही, ,, 346 / १५-वही, , 347 / १६-वही, ,, 348 / १७-वही, ,, 348 / १८-वही, ,, 348 / १९-वही, ,, 349 / २०-वही, , 353 / Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८-सभ्यता और संस्कृति दशवकालिक सूत्र का निर्वहण वीर-निर्वाण की पहली शताब्दी के उत्तरार्द्ध में हुओं था। उस पर आचार्य भद्रबाहु कृत 371 गाथाओं वाली नियुक्ति और अगस्त्यसिंह स्थविर (वि० की तीसरी या पाँचवीं शताब्दी) तथा जिनदास महत्तर (वि० की सातवीं शताब्दी) कृत चूर्णियाँ हैं / आचार्व हरिभद्र (वि० की 8 वीं शताब्दी) ने उस पर टीका लिखी। जो तथ्य ‘मूल आगम में थे, उन्हें इस व्याख्याकारों ने अपने-अपने समय के अनुकूल विकसित किया है। प्रस्तुत अध्ययन मूल तथा उक्त व्याख्या-ग्रन्थों के आधार पर लिखा गया है। इससे आगम-कालीन तथा व्याख्या-कालीन सभ्यता तथा संस्कृति पर प्रकाश पड़ता है। गृह : गृह अनेक प्रकार के होते थे। (1) खात-भोहरा। (2) उच्छ्रित–प्रासाद / (3) खात-उच्छित-ऐसा प्रासाद जहाँ भूमि-गृह भी हो / एक खंभे वाले मकान . को प्रासाद कहा जाता था। मकान झरोखेदार होते थे। उनकी दीवारें चित्रित होती थीं। मकानों के द्वार शाखामय होते थे / दरवाजों के ताला लगाया जाता था।' नगर-द्वार के बड़े-बड़े दरवाजे १-जिनदास चूर्णि, पृ० 89 : घरं तिविहं-खातं उस्सितं खामोसितं, तत्थ खायं जहा भूमिधरं, उस्सितं जहा पासाओ, खातउस्सितं जहा भूमिघरस्स उवरि पासादो। २-हारभद्रीय टीका, पत्र 218 : अकस्तम्भः प्रासादः। ३-हारिभद्रीय टीका, पत्र 231 : * गवाक्षकादीन्....। ४-दशवकालिक 8 / 54 : . चित्तमित्तिं न निभाए। ५-हारिभद्रीय टीका, पत्र 184 : द्वारयन्त्रं वाऽपि...। Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 204 दशवकालिक : एक समीक्षात्मक अध्ययन होते थे। उनमें परिघ लगा हुआ होता था और गोपुर के किंवाड़ आदि के आगल लगी हुई होती थी।' घरों के द्वार शाणी और प्रावार से आच्छादित रहते थे। शाणी अतसी और वल्क से तथा प्रावार मृग के रोंए से बनते थे / 2 निर्धन व्यक्तियों के घर काँटों की डाली से ढके रहते थे / घर गोबर से लीपे जाते थे। .. घरों में स्नान-गृह और शौच-गृह होते थे / भिक्षु घर की मर्यादित भूमि में ही जा सकते थे। उसका अतिक्रमण सन्देह का हेतु माना जाता था / .. ... घरों में फूलों का प्रचुर मात्रा में व्यवहार होता था। कणवीर, जाति, पाटल कमल,उत्पल, गर्दभक, मल्लिका, शाल्मली आदि पुष्प व्यवहृत होते थे। रसोई घर को उत्पल से सझाया जाता था। घर भाड़े पर भी मिल जाते थे। कई अपवरकों के द्वार अत्यन्त नीचे होते थे / वहाँ भोजन सामग्री रहती थी। उपकरण: बिना अवष्टंभ वाली कुरसी ( आसंदी ), आसालक-अवष्टंभयुक्त, पर्यक, पीठ आदि आसन लकड़ी से बनाए जाते थे और बत या डोर से गूंथे जाते थे। कालान्तर में वे कहीं-कहीं खटमल आदि से भर जाते थे / ' पीढा पलाल 9 या बेत का होता था।१० १-हारिभद्रीय टीका, पत्र 184 / २-(क) हारिभद्रीय टीका,पत्र 166-167 / (ख) अगस्त्य चूर्णि-सरोमोपावारतो। ३-दशवैकालिक, 5 / 1 / 21 / ४-वही, 5 / 1 / 24-25 / ५-वही, 5 / 1 / 21:5 / 2 / 14-16 / ६-हारिभद्रीय टीका, पत्र 264 : __ भाटकगृहं वा। ७-दशवकालिक, 5 / 1 / 20 / ८-(क) दशवैकालिक, 6 / 54-55 / (ख) जिनदास चूर्णि, पृ० 288-289 / ६--जिनदास चूर्णि, पृ० 229 : पीढगं पलाल पीठगादि। १०--हारिमद्रीय टीका, पत्र 204 : पीठके-वेत्रमयादौ। Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5. व्याख्या-ग्रन्थों के सन्दर्भ में : सभ्यता और संस्कृति 205 साधु पाँच प्रकार के तृण लेते थे : (1) शाली के तृण (2) ब्रीहि के तृण (3) कोद्रव के तृण (4) रालक के तृण (5) अरण्य के तृण पाँच प्रकार के चर्म उपयोग में आते थे :2 (1) बकरे का चर्म (2) मेष का चर्म (3) गाय का चर्म (4) भैंस का चर्म . (5) मृग का चर्म काठ या चमड़े के जूते पहने जाते थे। आतप और वर्षा से बचने के लिए छत्र रखे जाते थे। कम पानी वाले देशों में काठ की बनी हुई कुण्डी जल से भर कर रखी जाती थी, जहाँ लोग स्नान तथा कुल्ला किया करते थे। उसे 'उदगदोणी' कहा जाता था। गाँवगाँव में रहंट होते थे और उनसे जल का संचार लकड़ी से बने एक जल-मार्ग से होता था। इसे भी 'उदगदोणी कहते थे।५ स्वर्णकार काठ की अहरन रखते थे। ___ थाली, कटोरे आदि वर्तन विशेषतः कांसी के होते थे। धनवानों के यहाँ सोने-चाँदी के वर्तन होते थे। प्याले, क्रीडा-पान के वर्तन, थाल या खोदक को 'कंस' कहते थे। कच्छ १-हारिभद्रीय टीका, पत्र 25 / २-वही, पत्र 25: भय एल मावि महिसी मियाणमजिणं च पंचमं होइ / ३-दशवकालिक, 3 / 4 / ४-जिनदास चूर्णि, पृ०२५४ / ५-हारिभद्रीय टीका, पत्र 218 : . 'उदकद्रोण्योऽरद्धजलधारिका / ६-वही, पत्र 218: गण्डिका सुवर्णकाराणामधिकरणी (अहिगरणी) स्थापनी। Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 206 . दर्शवेकालिक : एक समीक्षात्मक अध्ययन आदि देशों में कुण्डे का आकार वाला भाजन अथवा हाथी के पैर के आकार वाला पात्र 'कुण्डमोद' कहलाता था। ___ सुरक्षा के लिए भोजन के या अन्यान्य पात्र, जलकुंभ, चक्की, पीढ, शिला-पुत्र आदि से ढांके जाते थे। तथा बहुत काल तक रखी जाने वाली वस्तुओं के पात्र मिट्टी से लीपे जाते थे और श्लेष द्रव्यों से मूंदे जाते थे। सामान्यतः बिछौना ढाई हाथ लम्बा और एक हाथ चार अंगुल चौड़ा होता था। अनेक प्रकार के आसन, पर्यक आदि शयन और रथ आदि वाहन काठ से बनाए जाते थे। उसके लिए भिन्न-भिन्न प्रकार का काठ काम में लाया जाता था / लोहे का प्रयोग कम होता था।" ___ रथ सवारी का वाहन था और शकट प्रायः भार ढोने के काम आता था। रथ आदि वाहन तिनिस वृक्ष से बनाए जाते थे। भोजन : 'मिष्टान्न में रसालु को सर्वश्रेष्ठ माना जाता था। दो पल घृत, एक पल मधु, एक आढक दही और बीस मिर्च तथा उन सबसे दुगुनी खाण्ड या गुड़ मिला कर रसालु बनाया जाता था। ... भोजन के काम में आने वाली निम्न वस्तुओं का संग्रह किया जाता था-नमक, तेल, घी, फाणित-राब / १-अगस्त्य चूर्णि। २-जिनदास चूर्णि, पृ० 227 : हत्थपदागितीसंठियं कुंडमोयं / ३-दशवकालिक, 5 // 1 // 45 // ४-जिनदास चूर्णि, पृ० 319 : ___ संथारया अड्ढाइजा हत्था दीहत्तणेण, वित्यारो, पुण हत्थं सचउरंगुलं / ५-दशवकालिक, 7 / 29 / / ६-हारिभद्रीय टीका, पत्र 239 / ७-जिनदास चूर्णि, पृष्ठ 289-290 : वो घयपला मधु पलं दहियस्स य आढयं मिरीय वीसा। खंडगुला दो भागा एस रसालू निवइजोगो॥ -दशवैकालिक, 6 / 17 / / Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5. व्याख्या ग्रन्थों के सन्दर्भ में : सभ्यता और संस्कृति 207 घृत और मधु घड़ों में रखे जाते थे। उन घड़ों को घृत-कुम्भ और मधु-कुम्भ कहा जाता था।' तित्तिर आदि पक्षियों का मांस खाया जाता था और इन पक्षियों को बेचने वाले लोग गली-गली में घूमा करते थे। ____ लोग ऋतु के अनुसार भोजन में परिवर्तन कर लेते थे। शरद्-ऋतु में वात-पित्त को नष्ट करने वाले, हेमन्त में उष्ण, वसन्त में श्लेष्य को हरने वाले, ग्रीष्म में शीतल और वर्षा में उष्ण पदार्थों का प्रयोग करते थे। घरों में अनेक प्रकार के पानकों से घड़े भरे रहते थे। कांजी, तुषोदक, यवोदक, सौवीर आदि-आदि पानक सर्ट-सुलभ थे। हरिभद्र ने पानक का अर्थ आरनाल (कांजी) किया है।५ आचारांग (2 / 1 / 7,8) में अनेक प्रकार के पानकों का उल्लेख है / इन्हें विधिवत् निष्पन्न किया जाता था। आयुर्वेद के ग्रन्थों में इनके निष्पन्न करने की विधि निर्दिष्ट है / आगमकाल में पेय पदार्थो के लिए तीन शब्द प्रचलित थे—(१) पान, (2) पानीय और (3) पानकं / 'पान' से सभी प्रकार के मद्यों का, 'पानीय' से जल का और 'पानक' से द्राक्षा, खजूर आदि से निष्पन्न पेय का ग्रहण होता था। पके हुए उडद को कुल्माष कहा जाता था। मन्थु का भोजन भी प्रचलित था। सम्भव है यह सुश्रुत का 'मन्थ' शब्द हो / इसका लक्षण इस प्रकार है, जो के सत्तू घी में भून कर शीतल जल में न बहुत पतले, न बहुत सान्द्र घोलने से 'मन्थ' बनता है / १-जिनदास चूर्णि, पृ०३३० / २-वही, पृ० 229-230 / ३-वही, पृ० 315: कालं पडुच्च आयरियो वुड्ढवयत्यो तत्थ सरवि वातपित्तहराणि दव्वाणि आहरति, हेमंते उहाणि, वसंते हिंभरहाणि (सिंभहराणि ) गिम्हे सीयकराणि, वासासु उण्हवण्णाणि, एवं ताव उडु उडुं पप्प गुरूण अट्टाए दव्वाणि आहरिज्जा। ४-दशवकालिक, 5 // 1 // 47-48 / ५-हारिभद्रीय टीका, पत्र 173 : पानकं च आरनालादि। ६-प्रवचन सारोद्धार, द्वार 256, गाथा 1410 से 1417 / ७-हारिभद्रीय टीका, पत्र 181 / / ५-दशवकालिक // 168 / ९-सुश्रुत, सूत्रस्थान, अध्ययन 461425 / Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 208 दशवकालिक : एक.समीक्षात्मक अध्ययन - फलमन्यु और बीजमन्यु का भी उल्लेख मिलता है।' मन्यु खाद्य द्रव्य भी रहा है क्षौर सुश्रुत के अनुसार इसका उपयोग अनेक प्रकार के रोगों के प्रतिकार के लिए किया जाता था। पूर्व देशवासी ओदन को 'पुद्गल', लाट देश और महाराष्ट्र वाले 'कूर', द्रविड लोग 'चोर' और आन्ध्र देशवासी 'कनायु' कहते थे / कोंकण देश वालों को पेया प्रिय थी और उत्तरापथ वालों को सत्त् / / - उस समय जो फल, शाक, खाद्य, पुष्प आदि व्यवहृत होते थे, उनकी तालिकाएँ नीचे दी जाती हैं : (1) फलों के निम्न नाम मिलते हैं : 1. इक्षु (37) / 2. अनमिष (5 / 1173) अननास / अनिमिष का अर्थ अननास किया गया है। किन्तु इसका अर्थ मत्स्याक्षुक (पत्त र या मछछी) किया जा सकता है / इसे अग्नि-दीपक, तिक्त, प्लीहा, अर्श नाशक, कफ और वात को नष्ट करने वाला कहा गया है।" 3. अस्थिक ( 5 / 1173 ) अगस्तिया, हथिया, हदगा। इसके फूल और फली भी होती है। इसकी फली का शाक भी होता है।६।। 4. तिंदुय (5 / 173) तेन्दु-यह भारत, लंका तथा पूर्वी बंगाल के जंगलों में पाया जाने वाला एक मझोले आकार का वृक्ष है। इसकी लकड़ी को आबनूस कहते है। 5. बिल्व (5 / 1173) / 6. कोल (5 / 2 / 21) बेर। १-यशवकालिक, 5 / 2 / 24 / २-सुश्रुत, सूत्रस्थान, अध्ययन 46 / 426-28 / ३-जिनदास चर्णि, पृ०२३६ : पुव्वदेसयाणं पुगलि ओदणो भण्णइ, लाडमरहट्ठाणां कूरो, द्रविडाणां चोरो, अन्ध्राणां कनायुं / ४-जिनदास च र्णि, पृ० 319 / ५-अष्टांगहृदय, सूत्रूस्थान, 6 / 100 : पत्तूरः दीपन स्तिक्तः प्लीहाकिफवातजित् / / ६-शालिग्राम निघण्टु भूषण, पृ० 523 / Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5. व्याख्या-ग्रन्थों के सन्दर्भ में : सभ्यता और संस्कृति 206 7. वेलुय (5 / 2 / 21) बिल्व या वेश करिल्ल / / / 8. कासवनालिय (5 / 2 / 21) श्रीपणि फल, कसारु / ' 6. नीम (५।२।२१)कदम्ब का फल / 10. कवित्थ (५।२।२३)कैथ / 11. माउलिंग (5 / 2 / 23) बिजौरा / 4 12. बिहेलग (5 / 2 / 24) बहेडा / 13. पियाल (5 / 2 / 24) प्याल का फल। चिरौंजी प्रियाल की मज्जा को कहा जाता है।५ ____फल की तीन अवस्थाएं बतायी गयी हैं-(१) वेलोचित-अतिपक्व, (2) टाल-जिसमें गुठली न पड़ी हो, (3) द्वधिक-जिसकी फांके की जा सकें।६ - आम आदि फलों को कृत्रिम उपायों से भी पकाया जाता था। कई व्यक्ति उन्हें गढों में, कोद्रव धान्य में तथा पलाल आदि में रख कर पकाते थे। ____ अष्टांगहृदय में आम की तीन अवस्थाओं का उल्लेख है और उनके भिन्न-भिन्न गुण बताए हैं-(१) कच्चा आम ( बिना गुठली का टिकारो ) यह वायु, पित्त और रक्त को दूषित करता है, (2) कच्चा आम (गुठली पड़ा हुआ) यह कफ-पित्त कारक होता है, (3) पका आम-यह गुरु, वायु-नाशक होता है और जो अम्ल होता है वह कफ एवं शुक को बढ़ाता है। १.-अगस्त्य च णि : __वेलुयं विल्लं वंसकरिल्लो वा। २-वही: कासवनालियं सीवण्णी फलं कस्सारुकं / .. ३-देखो दशवकालिक (माग 2), पु०.३०६, टिप्पण 38 / - . ४-बीजपुर, मातुलिंग, रुचक, फल पूरक-इसके पर्यायवाची नाम है। देखो - शालिग्राम निघण्टु भूषण, पृ० 578 ; ५-अष्टाङ्गहृदय, सूत्र स्थान, 6 / 123-24 / : ६-दशवैकालिक 7 / 32 / ७-हारिभद्रीय टीका, पत्र 219: गर्तप्रक्षेपकोद्रवपलालादिना विपाच्य भक्षणयोग्यानीति ८-अष्टांगहृदय, सूत्र स्थान, 6128,129 : वातपित्तासृक्कृद् बालं, बद्धास्थिकफपित्तकृद् / गुर्वानं वातजित् पक्वं, स्यादम्लं कफशुक्रकृत् // 15 Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 210 दशवकालिक : एक समीक्षात्मक अध्ययन शाक निम्न शाकों के नाम प्राप्त होते हैं : (1) मूली ( 37) (2) सिंगवेर ( 37 ) आद्रक / यह शाक या अन्न के खाद्य, पेय पदार्थ बनाने __ में संस्कार करने के लिए ( मशाले के रूप में ) प्रयुक्त होता था। (3) सन्निर (5 / 170) पत्ती का शाक। .. (4) तुंबाग ( 5 / 170 ) घीया। (5) सालुयं ( 5 / 2 / 18 ) कमल कन्द / (6) विरालिय (5 / 2 / 18) पलाश कन्द / इसे क्षीर-विदारी, जीवन्ती और गोवल्ली भी कहा जाता था। (7) मुणालिय (5 / 2 / 18) पद्म-नाल। यह पद्मिनी के कन्द से उत्पन्न होती है और उसका आकार हाथी दाँत जैसा होता है / (8) कुमद-नाल ( 5 / 2 / 18) / (9) उताल-नाल ( 5 / 2 / 18 ) / (10) सासवनालिय ( 5 / 2 / 18 ) सरसों की नाल / (11) पूइ (5 / 2 / 22) पोई शाक / पूति—यह 'पूतिकरंज' का संक्षिप्त भी हो सकता है। शाकवर्ग में इसका उल्लेख भी है। चिरबिल्व (पूतिकरंज) के अंकुर अग्नि दीपक, कफ-वात-नाशक और मल-रेचक है। (12) पिन्नाग ( 5 / 2 / 22 ) पिण्याक–सरसों आदि की खली। (13) मूलगत्तिय (5 / 223 ) मूलक-पोतिका-कच्ची मूली / अष्टांगहृदय में बाल ( कच्ची, अपक्व ) और बड़ी ( पक्की ) मूली के गुण-दोष भिन्न १-सुश्रुत, सूत्र स्थान, 46 / 221-222 / २-अगस्त्य चूर्णि: विरालियं पलासकंदो अहवा छीरविराली जीवन्ती, गोवल्ली इति एसा ! ३-जिनदास चूर्णि, पृ० 197 : मुणालिया गयवंतसन्निमा पउमिणिकंदाओ निम्गच्छति / ४-अष्टांगहृवय, सूत्र स्थान, 6 / 98 / ५-सुश्रुत, 4 / 6 / 257 / Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5. व्याख्या-ग्रन्थों के सन्दर्भ में : सभ्यता और संस्कृति 211 भिन्न बतलाए गए हैं। सुश्रुत में छोटी मूली के लिए मूलक-पोतिका शब्द व्यवहृत हुआ है / 2 मूलगत्तिया का संस्कृत रूप यही होना चाहिए। खाद्य: निम्न ब्यञ्जनों के नाम मिलते हैं : (1) सक्कुलि ( 5 / 171 ) शष्कुली–तिलपपड़ी। चरक और सुश्रुत में इसका अर्थ कचौरी आदि किया है / 4 (2) फणिय ( 5 / 171 )-गीला गुड़ ( राब ) / (3) पूय ( , )-पूआ।। (4) सत्तुचुण्ण ( , )-शक्तु चुर्ण-सत्त का चूर्ण। (5) मंथु (5 / 1 / 68 )-बेर जौ आदि का चूर्ण। (6) कुम्मास ( , )कुल्माष—गोल्ल देश में वे जौ के बनाए जाते थे।५ तिल पप्पडग (5 / 2 / 21) तिल पर्पटक / इसका अर्थ तिल पपड़ी किया गया है। किन्तु हो सकता है कि इसका अर्थ बनस्पति परक हो। शाक वर्ग में तिल पर्णिका ( बदरक ) और पर्पट ( पित्तपापड़ा ) का उल्लेख मिलता है। "तिल' तिल-पर्णिका का संक्षिप्त रूप हो तो तिल पप्पडग का अर्थ तिल पर्णिका और पित्त-पापड़ा भी हो सकता है। (7) चाउलंपिट्ठ (५।२।२२)-चावल का आटा' या भूने हुए चावल / ' १-अप्टांगहृदय, सूत्र स्थान, 6 / 102-104 / २-सुश्रुत, सूत्र स्थान, 46 / 240 : -- कटु तिक्तरसा हृद्या रोचकी वह्निदीपनी / - सर्वदोषहरा लध्वी कण्ट्या शूलकपोतिका // ३-जिनदास चर्णि, पृ०१८४ : सक्कुलीति पपडिकादि / ४-सुश्रुत-भक्ष्यपदार्थ वर्ग 46 / 544 / ५-जिनदास चर्णि, पृ०१९० कुम्मासा जहा गोल्लविसए जवमया करेंति / देखो दशवैकालिक (भाग 2) पृ०२८५ टिप्पण 229 / ६-अष्टांगहृदय, सूत्र स्थान 676 / ७-अगस्त्य च णि पृ०१९८ / चाउलं पिट्ठो लोट्टो। -जिनदास चूर्णि, पृ०१९८ : चाउलं पिठं भद्रं भण्णइ। Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - 512 दशवकालिक : एक समीक्षात्मक अध्ययन 5 .. कच्चे चावलों का आटा भी खाया जाता था। सुश्रुत में इसे भग्न संधानकर, कृमि और प्रमेह को नष्ट करने वाला बताया गया है।' (8) तिलपिट्ठ (5 / 2 / 22 ) तेल का पिछ / (9) तैल (6 / 17 ) / -... (10) घृत (6 / 17) / (11) पिहु-खज्ज ( 7 / 34 ) पृथु-खाद्य / चूर्ण और मन्थु कोल-चुन्न ( 5 / 1 / 71 ) बर का चूर्ण / फल-मन्थु (5 / 2 / 24 ) फलों का चूर्ण / बीज-मन्यु ( 5 / 2 / 24 ) जौ, उड़द, मूंग आदि बीजों का चूर्ण / पुष्प - उत्पल ( 5 / 2 / 14) नील-कमल। 'पद्म (5 / 2 / 14 )- रक्त-कमल। कुमुद ( 5 / 2 / 14 ) श्वेत-कमल / इसका नाम गर्दभ है / ___ मगदंतिका ( 5 / 5 / 14 ) मोगरा, मेंहदी। .: सुश्रुत, अष्टांगहृदय आदि आयुर्वेदिक - ग्रन्थों के शाक-वर्ग में इन शाकों का उल्लेख मिलता हैं। फल-वर्ग में यहाँ आए हुए फलों का भी उल्लेख है। पिण्याक, तिलपिष्ट आदि भी खाए जाते थे। सुश्रुत में बताया है कि पिण्याक ( सरसों, अलसी आदि की खली ) तिल कल्क या तिलों की खल, स्यूणिका ( तिल कल्क से बनेबड़े ) तथा सूखी शाकें सर्व दोषों को प्रकुपित करते हैं / १-सुश्रुत, सूत्र स्थान 46 / 217 : सन्धानकृपिष्टमामं, ताण्डुलं, कृमिमेहनुत् / २-अगस्त्य चूर्णि: कुमुदं गद्दभगं। ३-हारिभद्रीय टीका, ( पत्र 185 ) में इसका अर्थ मोगरा किया है। अष्टांग हृदय ( चिकित्सित स्थान 2 / 27 ) में मदयन्तिका शब्द आया है और उसका अर्थ मेंहदी किया है। रक्त-पित्त नाशक क्वाथ तैयार करने में इसका उपयोग होता था। संभव है मगदन्तिका और मदयन्तिका एक शब्द हों। ४-सुश्रुत, सूत्र स्थान, 46 / 217 : पिण्याक-तिलकल्क-स्थूणिका शुष्कशाकानि सर्वदोषप्रकोपणांनि। Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5. व्याख्या-ग्रन्थों के सन्दर्भ में : सभ्यता और संस्कृति 213 कमल कन्द, पलाशकन्द, पद्म-नाल, सरसों की नाल, कुमुद-नाल, उत्पल-नाल आदि-आदि अपक्व खाए जाए जाते थे।' सरसों की नाल शीत-काल में उष्ण होती है-यह मानकर लोग उसे कच्ची खा लेते थे। भोजन को नमी तथा जीव-जन्तुओं से बचाने के लिए मचाने खम्भे और प्रासाद पर रखा जाता था / मचान चार लट्ठों को बांध कर बनाया जाता था। उस पर चढ़ने के लिये निसनी. फलक और पीढ का उपयोग होता था। बाजारों में मिठाइयाँ बिक्री के लिए रखी जाती थीं। जिस भोजन में छोंका हुआ शाक और यथेष्ठ मात्रा में सूप दिया जाता, वह अच्छा भोजन माना जाता और जिसमें बघार-रहित शाक होता, वह साधारण (शुष्क ) भोजन माना जाता था। भोजन आदि को ठंडा करने के लिए तथा अपने आप में हवा लेने के लिए तालवृन्त, पद्मिनी-पत्र, वृक्ष की डाली, मोर-पीच्छ, मोर-पीच्छों का समूह, चामर आदि का उपयोग किया जाता था।६ आभूषण : सोने-चांदी के आभूषण बनाए जाते थे। सोने के आषभूणों में हीरा, इन्द्र-नील मरकत और मणि जड़े जाते थे। मस्तक पर चूड़ामणि बाँधा जाता था। प्रसाधन: प्रसाधन में अनेक पदार्थो का उपयोग होता था। होठ तथा नखों को रंगना, पैरों पर अलक्सक रस लगाना, दाँतों को रंगना अदि किया जाता था। १-जिनदास चूर्णि, पृ० 197 / २-वही, पत्र 197 : . . सिद्धत्थगणालो तमवि लोगोऊणसंतिकाऊण आमगं चेव खायति / ३-दशवकालिक 5 // 1167 / ४-वही, 21171,72 / / ५-दशवकालिक, 5 // 198 / ६-दशवकालिक, 4 सूत्र 21 / ७-जिनदास चूर्णि, पृ० 330 : वइरिंदनीलमरगयमणिणो इव जच्चकणगसहसंबद्धा। .5-वही, पत्र 350 : चूलामणी सा य सिरे कीरई। Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 214 * दशवकालिक : एक समीक्षात्मक अध्ययन स्नान दो प्रकार से होता था-देश सनान तथा सर्व स्नान / देश स्नान में मस्तक को छोड़कर शेष अंग धोए जाते थे और सर्व स्नान में मस्तक से एड़ी तक सर्वाङ्ग स्नान किया जाता था। स्नान करने में उष्ण या ठंडा दोनों प्रकार का जल काम में आता था तथा अनेक प्रकार के पदार्थ भी काम में लाए जाते थे : (1) स्नान-यह एक प्रकार का गन्ध-चूर्ण था, जिससे शरीर का उद्वर्तन किया जाता था। (2) कल्क-स्नान करने से पूर्व तेल-मर्दन किया जाता और उसकी चिकनाई को मिटाने के लिए पिसी हुई दाल या आंवले का सुगन्धित उबटन लगाया जाता था। इसे कल्क, चूर्ण-कषाय या गन्धाट्टक कहा जाता था। (3) लोध्र-यह एक प्रकार का गन्ध-द्रव्य था, जिसका प्रयोग ईषत्-पाण्डुर छवि करने के लिए किया जाता था। (4) पद्मक-पद्माक-पद्म-केसर / ' आमोद-प्रमोद तथा मनोरंजन : स्थान-स्थान पर इन्द्रजालिक घूमते थे और लोगों को आकृष्ट करके अपनी आजीविका चलाते थे / 2 नट विद्या का प्रचार था नाट्य मण्डलियाँ स्थान-स्थान पर घूमा करती थीं। ये मनोरंजन के प्रमुख साधन थे। शतरंज खेला जाता था। नालिका एक प्रकार का चूत था। चतुर-खिलाड़ी अपनी इच्छानुसार पासा न डाल दे—इसलिए पासों को नालिका द्वारा डाला जाता था। ___ नगर के समीप उद्यान होते थे। वे अच्छे वृक्षों से सम्पन्न और उत्सव आदि में बहुजन उपभोग्य होते थे। लोग यहां उद्यानिका-सहभोज करते थे। 6 बालक भी स्थान-स्थान पर मनुष्य-क्रीड़ा करते थे। गो, महिष, कुक्कुट और लावक को आपस में लड़ाया जाता था और हजारों व्यक्ति उसे देखने एकत्रित होते थे। १-जिनदास चूर्णि, पृ. 232 / २-वही, पृ० 321 / ३-वही, पृ० 322 // ४-दशवकालिक 3 / 4 / ५-वही, 3 / 4 / ६-जिनदास चूर्णि, पृ० 22 / ७-वही, पृ० 171,72 / ८-वही, पृ० 262 / Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___5. व्याख्या-ग्रन्थों के सन्दर्भ में : सभ्यता और संस्कृति 215 विश्वास: वैदिक परम्परा में विश्वास रखने वाले लोग बादल, आकाश और राजा को देव मानते थे और उनकी उस विधि से पूजा भी करते थे / ' वृक्ष-पूजा का प्रचलन था। रोग और चिकित्सा : शारीरिक वेगों को रोकने से अनेक रोग उत्पन्न होते हैं। मूत्र का वेग रोकने से चक्षु की ज्योति का नाश होता है / मल का वेग रोकने से जीवनी-शक्ति का नाश होता है। ऊर्ध्व वायु रोकने से कुष्ठ रोग उत्पन्न होता है और वीर्य का वेग रोकने से पुरुषत्व की हानि होती है। वमन को रोकने से वल्गुली या कोढ़ भी उत्पन्न हो जाता है। सहस्र पाक आदि पकाए हुए तेल अनेक रोगों में काम आते थे। नक्षत्रों के आधार पर शुभ-अशुभ बताने वाले, स्वप्न-शास्त्री, वशीकरण के पार गामी, अतीत-अनागत और वर्तमान को बताने वाले नैमित्तिक तथा यांत्रिक सर्वत्र पाए जाते थे। लोगों का इनमें बहुत विश्वास था। सर्प, बिच्छू आदि के काटने पर मंत्रों का प्रयोग होता था / 5 अन्यान्य विषों को उतारने के लिए तथा अनेक शारीरिक पीड़ाओं के उपशमन के लिए मंत्रों का प्रयोग होता था / 6 ___ संबाधन-पद्धति बहुत विकसित थी। अनेक व्यक्ति उसमें शिक्षा प्राप्त करते थे और गाँव-गाँव में घूमा करते थे। संबाधन चार प्रकार से किया जाता था - (1) हड्डियों को आराम देने वाला-अस्थिसुख। (2) मांस को आराम देने वाला-मांस-सुख / (3) चमड़ी १.-दशवैकालिक, 752 २-अगस्त्य चूर्णि: मुत्तनिरोहे च, वच्चनिरोहे य जीवियं चयति / उड्ढं निरोहे कोढं, सुक्कनिरोहे भवइ अपुमं // ३-जिनदास चूर्णि, पृ० 354,355 : अब्भवहरिऊग मुहेण उम्गिसियं वंतं तस्स पडिपीयणं ण तहा विहियं भवति, - तं अतीव रसे न बलं, न उच्छाहकारी, विलीगतया य पडिएति, वगुलिं वा जणयति ततो कोढं वा जणयति / ४-वही, पृ० 259 / ५-दशवैकालिक, 8.51 तथा हारिभद्रीय टीका, पत्र 236 / ६-जिनदास चूर्णि, पृ० 340 / ७-वही, पृ० 113 / Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 216 दशवकालिक : एक समीक्षात्मक अध्ययन को आराम देने वाला-त्वक सुख / (4) रोओं को आराम देने वाला-रोम-सुख / शिरोरोग से बचने के लिए धूम्र-पान किया जाता था। धूम्रपान करने की नली को 'घूमनेत्र' कहा जाता था। शरीर, अन्न और वस्त्रको सुवासित करने के लिये धूम्र का प्रयोग करते थे। रोग की आशंका से बचने के लिए भी धूम्र का प्रयोग किया जाता था।' बल और रूप को बढ़ाने के लिए वमन, वस्तिकर्म और विरेचन का प्रयोग होता था। वस्ति का अर्थ है, दृत्ति दृत्ति से अधिष्ठान (मल-द्वार) में घी आदि दिया जाता था। उपासना: पंचांग नमस्कार की विधि प्रचलित थी। जब कोई गुरु के समक्ष जाता तब वह दोनों जानु को भूमि पर टिका, दोनों जोड़े हुए हाथों को भूमि पर रख उनपर अपना शिर टिकाता है / यह वन्दन-विधि सर्वत्र मान्य थी। : यज्ञ : आहिताग्नि ब्राह्मण अनेक प्रकार से मंत्रों का उच्चारण कर अग्नि में घृत की आहुति देते थे। वे निरन्तर उस घृत-सिक्त अग्नि को प्रज्वलित रखते और उसकी सतत सेवा करते थे। अग्नि में वसा, रुधिर और मधु की भी आहुति दी जाती थी।" दण्डविधि: दास-दासी या नौकर-चाकर जब कोई अपराध कर लेते तब उन्हें विविध प्रकार से दण्डित किया जाता था। कुछ एक अपराधों पर इन्हें लाठी से पीटा जाता, कभी भाले आदि शस्त्रों से आहत किया जाता और कभी केवल कठोर शब्दों में उपालम्भ मात्र ही दिया जाता था। भोजन-पानी का विच्छेद करना भी दण्ड के अन्तर्गत आता था। कई अपराधों पर भोजन-पानी का विच्छेद करते हुए कहा. जाता—“इसे एक बार ही भोजन १-(क)दशवकालिक, 3 / 9 / (ख) जिनदास चूर्णि, पृ० 115 ; हारिभद्रीय टीका, पत्र 118 / २-जिनदास चूर्णि, पृ० 115 / ३-वही, पृ० 306 : पंचगीएण वंदणिएण तंजहा-जाणुदुर्ग भूमीए निवडिएण हत्थदुएण भूमीए अवटुंभिय ततो सिरं पंचमं निवाएज्जा। ४-(क) दशवैकालिक, 9 / 1 / 11 / (ख) जिनदास चूर्णि, पृ० 306 / ५-जिनदास चूर्णि, पृ० 363 : / ...वसारु हिरमहुघयाइहिं हूयमाणो / Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5. व्याख्या-ग्रन्थों के सन्दर्भ में : सभ्यता और संस्कृति 217 देना और एक शराब मात्र ही पानी / इसे एक दिन, दो दिन मा अमुक दिनों तक भोजन मत देना।" शिक्षा: शिक्षाओं के अनेक केन्द्र थे / स्वर्णकार, लोहकार कुम्भकार आदि का कर्म, कारीगरी, कौशल, बाण-विद्या, लौकिक कला, चित्रकला आदि-आदि के स्थान-स्थान पर शिक्षा केन्द्र होते थे। वहाँ विविध शिल्पों की शिक्षा दी जाती थी : अनेक स्त्री-पुरुष वहाँ शिक्षा आप्त करते थे। वहाँ के संचालक-गुरु उन विद्यार्थियों को शिल्प में निपुण बनाने के लिए अनेक प्रकार से उपालम्भ, ताड़ना-तर्जना देते थे। राजकुमार भी इसके अपवाद नहीं थे। सांकल से बांधना, चाबुक आदि से पीटना और कठोर-वाणी से भर्त्सना करना-ये विधियाँ अध्यापन-काल में अध्यापक-वर्ग द्वारा विहित मानी जाती थी। विद्यार्थी अपने गुरुजनों को भोजन-वस्त्र आदि से सम्मानित करते थे। सम्बोधन: विभिन्न देशों में भिन्न-भिन्न प्रकार के 'सम्बोधन-शब्द' प्रचलित थे: (1) हले—इस आमंत्रण का प्रयोग वरदा तट में होता था तथा महाराष्ट्र में तरुण ____ स्त्री का सम्बोधन शब्द था। (2) अन्ने—इसका प्रयोग महाराष्ट्र में तरुण-स्त्री तथा वेश्या के सम्बोधन में ____ होता था। (3) हला—यह शब्द लाट देश में प्रचलित था और इससे तरुण-स्त्री को सम्बोधित किया जाता था। १-जिनदास चूर्णि, पृ० 311,312 / २-(क) दशवैकालिक, 9 / 2 / 13,14 / (ख) जिनदास चूर्णि, पृ०३१३,३१४ / .३-वही, पृ० 314 / ४-वही, पृ० 240 : तत्थ वरदा तडे हलेत्ति आमंतणं / ५,६-अगस्त्य चूर्णि: हले अन्नेत्तिं मरहट्ठेसु तरुणत्यी आमंतगं। . ७-जिनदास चूर्णि, पृ० 250 : ___ अण्णेत्ति मरहट्ठविसये आमंतणं, दोमूलक्खरगाण चालुक्य अमेति। ८-अगस्त्य चूर्णि: हलेत्ति साडेसु / Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 218 दशवकालिक : एक समीक्षात्मक अध्ययन ... (4) भट्टे-यह पुत्र-रहित स्त्री के लिए प्रयुक्त होता था। और लाट देश में इससे ___ ननद का बोध होता था। (5) सामिणी—यह चाटुता का आमंत्रण शब्द था / तथा लाट देश में प्रयुक्त होने वाला सम्मान-सूचक सम्बोधन-शब्द था। (6) होल, गोल, वसुल—ये तीनों गोल देश में प्रचलित प्रिय-आमंत्रण थे।" - . (7) गोमिणी- इससे चाटुता का बोध होता था और यह सभी देशों में प्रयुक्त ___ होता था।६ (5) अण्ण-महाराष्ट्र में पुरुष के सम्बोधन के लिए प्रयुक्त होता था।" (6) हे, भो—ये सामान्य आमंत्रण थे। (10) भट्रि, सामि, गोमि-ये पूजा-वाची शब्द थे। (11) होल—यह प्रभुवाची शब्द था।१० मध्य प्रदेश में वयोवृद्धा स्त्री को 'ईश्वरा', कहीं उसे 'धर्म-प्रिया' और कहीं 'धर्मशीला' कहा जाता था।११ १-अगस्त्य चूर्णि : . भट्ठति अन्भरहित वयणं पायो लाडेसु / २-जिनदास चूर्णि, पृ० 250 : भट्टेति लाडाणं पतिभगिणी भण्णइ / ३,४-वही, पृ० 250 / ५-अगस्त्य चूर्णि: होले गोले वासुलेत्ति देसिए लालणगत्थाणीयाणि प्रियवयणमंतणाणि। ६-जिनदास चूर्णि, पृ० 250 : __ गोमिणिओ चाटुए वयणं / ७-वही, पृ० 250 : अण्णेत्ति मरहट्ठ विसए आमंतणं / ८-वही, पृ० 250 / ९-अगस्त्य चूर्णि: ___ भट्टि, सामि, गोमिया पूया वयणाणि निद्देसा तिसु सव्व विभत्तिसु / १०-वही : होलइति पमुवयणं। ११-हारिभद्रीय टीका, पत्र 213 : . तत्र वयोवृद्धा मध्यदेशे ईश्वरा धर्मप्रियाऽन्यत्रोच्यते धर्मशीले इत्यादिना / Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5. व्याख्या-ग्रन्थों के सन्दर्भ में : सभ्यता और संस्कृति 219 नामे दो प्रकार के होते थे-गोत्र-नाम और व्यक्तिगत-नाम / व्यक्ति को इन दोनों से सम्बोधित किया जाता था। अवस्था की दृष्टि से जिसके लिए जो उचित होता था, उसी प्रकार उसे सम्बोधित किया जाता था।' राज्य-व्यवस्था : / / राजाओं के अनेक भेद थे-मण्डलीक, महामण्डलीक आदि-आदि / जो बद्ध-मुकुट होते, उन्हें राजा, मंत्री को राजामांत्य और सेनापति आदि को 'दंडनायक' कहा जाता था। राजा केवल क्षत्रीय ही नहीं होते थे। कई क्षत्रीय होते पर राजा नहीं, कई राजा होते पर क्षत्रीय नहीं। जिसमें लक्ष्मी देवी का चित्र अंकित हो वैसा वेष्टन बांधने की जिसे राजा के द्वारा अनुज्ञा मिली हो, वह श्रेष्ठी कहलाता है। हिन्दू राज्यतंत्र में लिखा है कि इस सभा (पौर सभा) का प्रधान या सभापति एक प्रमुख नगर-निवासी हुआ करता था जो साधारणतः कोई व्यापारी या महाजन होता था। आजकल जिसे मेयर कहते हैं, हिन्दुओं के काल में वह 'श्रेष्ठिन्' या 'प्रधान' कहलाता था / अगस्त्यसिंह स्थविर ने 'श्रेष्ठी' को वणिक् -ग्राम का महत्तर कहा है। इसलिए यह पौराध्यक्ष नहीं, नैगमाध्यक्ष होना चाहिए / वह पौराध्यक्ष से भिन्न होता है / सम्भवतः नैगम के समान ही पौर संस्था का भी एक अध्यक्ष होता होगा जिसे नैगमाध्यक्ष के समान हो श्रेष्ठो कहा जाता होगा, किन्तु श्रेणी तथा पूग के साधारण श्रेष्ठी से इसके अन्तर को स्पष्ट करने के लिए पौराध्यक्ष के रूप में श्रेष्ठी के साथ राजनगरी का नाम भी जोड़ दिया १-दशवैकालिक 7117,20 / २-जिनदास चूर्णि, पृ० 360 : ३-वही, पृ० 208 / ४-वही, पृ० 209 / ५-निशीथ भाज्य, गाथा 2503, सभाज्यचूर्णि भाग 2, पृष्ठ 450 जम्मि य पट्टे सिरियादेवी कज्जति तं वेंटणगं, तं जस्स रणा अमुन्नातं सो सेट्ठी भण्णति / ६-हिन्दू राजतंत्र, दूसरा खण्ड, पृ० 132 / ७-(क) अगस्त्य चूर्णि : ... राजकुललद्धसम्माणो समाविद्धवेटठो वणिग्गाममहत्तरो य सेट्टी। ...... (ख) जिनदास चूर्णि, पृ. 360 / ८-धर्म-निरपेक्ष प्राचीन भारत की प्रजातंत्रात्मक परम्पराएँ पृ० 106 / . 208 / . Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 220 दशवकालिक : एक समीक्षात्मक अध्ययन जाता होगा, जसे—राजगृह सठी तथा एक श्रावस्ती श्रेष्ठी। निग्रोध जातक (445) में राजगृह सेट्ठी तथा एक अन्य साधारण सेट्ठी में स्पष्ट अन्तर किया गया है। जनपद: सारा देश अनेक भागों में विभक्त था। ग्राम, नगर आदि की विशेष रचनाएं और परम्पराएं होती थीं। इस सूत्र में तीन शब्द आए हैं-ग्राम, नगर और कर्बट (कव्वड)। - 1. ग्राम-जिसके चारों ओर कांटों की बाड़ हो अथवा मिट्टी का परकोट हो / जहाँ केवल कर्मकर लोग रहते हों। 2. नगर-जो राजधानी हो और जिसमें कर न लगता हो / ' 3. कर्बट-इसके अनेक अर्थ हैं- (1) कुनगर जहाँ क्रय-विक्रय न होता हो / 2 .. --(2) बहुत छोटा सन्निवेश 3 . .. . .... (3) वह नगर जहाँ बाजार हो। .. . (4) जिले का प्रमुख नगर / चूर्णियों में कर्बट का मूल अर्थ माया, कूटसाक्षी आदि अप्रामाणिक या अनैतिक व्यवसाय का आरम्भ किया है।" शस्त्र: . शस्त्र अनेक प्रकार के होते थे-(१) एक धार वाले–परशु आदि / (2) दो धार वाले–शलाका, बाण आदि / (3) तीन धार वाले-तलवार आदि। (4) चार धार वाले–चतुष्कर्ण आदि / (5) पाँच धार वाले–अजानुफल आदि / १-(क) हारिभद्रीय टीका, पत्र 147 : नास्मिन् करो विद्यत इति नकरम् / . (ख) लोकप्रकाश, सर्ग 31, श्लोक 9 : नगरं राजधानी स्यात् / २-जिनदास चूर्णि, पृ०.३६० / ३-हारिभद्रीय टीका पत्र 275 / 4-A Sanskrit English Dictionary, Page 259. By Sir Monier Williams. ५-जिनदास चूर्णि, पृ० 360 / ६-वही, पृ० 224 : ...... सासिज्जई जेण तं सत्यं, किंचि एगधारं दुधारं तिधार घउधारं पंचधारं :.:."तत्य एगधारं परसु, दुधारं कणयो, तिधारं असि, चउधारं तिपडतो कणीयो, पंचधारं अजाणुफलं। Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5. व्याख्या-ग्रन्थों के सन्दर्भ में : सभ्यता और संस्कृति 221 याचना और दान : याचना के अनेक प्रकार प्रचलित थे__कई याचक कहते- "हम भूमिदेव हैं, लोगों के हित के लिए हम भूमि पर अवतीर्ण हुए हैं। हमें 'द्विपद' आदि देने से पुण्य होता है।" कई कार्पटिक आदि याचक आजीविका के लिए घर-घर घूमा करते थे। वनीपक पाँच प्रकार के होते थे—(१) अतिथि-वनीपक-अतिथि-दान की प्रशंसा कर दान लेने वाले। (2) कृपण-वनीपक–कृपण भक्त के सम्मुख कृपण-दान की प्रशंसा कर दान लेने वाले। (3) ब्राह्मण-वनीपक-ब्राह्मण-दान की प्रशंसा कर दान लेने वाले। (4) श्व-वनीपक-जो व्यक्ति कुत्ते के भक्त होते थे, उनके सम्मुख श्व-दान की प्रशंसा कर दान लेने वाले। वे कहते-"गाय आदि पशुओं को घास मिलना सुलभ है, किन्तु छिः छिः कर दुत्कारे जाने वाले कुत्तों को भोजन मिलना सुलभ नहीं। ये कैलाश पर रहने वाले यक्ष हैं। ये भूमि पर यक्ष के रूप में विहरण करते हैं।" (5) श्रमण-वनीपक-श्रमण-भक्त के सम्मुख श्रमण-दान की प्रशंसा कर दान लेने वाले। - कई व्यक्ति तीर्थ-स्थान में धन की आशा से भाले की नोक या बबूल आदि के काँटों पर बैठ या सो जाते थे। उधर जाने वाले व्यक्ति उनकी दयनीय दशा से द्रवित हो कहते-उठो, उठो जो तुम चाहोगे, वही तुम्हें देंगे। इतना कहने पर वे उठ खड़े हो जाते। प्रत्येक घर में एक ऐसी सीमा होती थी, जहाँ वनीपक आ-जा सकते थे। इसके अतिक्रमण को बुरा समझा जाता था। स्थान--स्थान पर दान--शालाएं होती थीं। उनके अनेक प्रकार थे। 'किमिच्छइ' एक प्रकार की दानशाला थी, जहाँ याचक से 'तुम क्या चाहते हो' यह पूछकर दान दिया जाता था।३. .. विदेश-यात्रा से लौटकर श्रेष्ठ प्रसाद-भाव से सर्व पाखण्डियों ( सब सम्प्रदाय १-जिनदास चूर्णि, पृ. 320 : जहा कोयि लोहमयकंटया पत्थरेऊण सयमेव उच्छहमाणा ग पराभियोगेण तेसिं लोहकंटगाणं उवरिं णुविज्जति, ते य अण्णे पासित्ता किवापरिगयचेतसा अहो वरागा एते अत्यहेउं इमं आवई पतत्ति भन्नति जहा उटेह उटेहत्ति, जं मगह तं मे पयच्छामो, तो तिक्खकंटाणिभिन्नसरीरा उठेति / २-दशवकालिक, 5 // 1 // 24 // ३-वही,३।३। Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 122 दशवकालिक : एक समीक्षात्मक अध्ययन - : के साधुओं ) को दान देने के निमित्त भोजन बनाते थे। महाराष्ट्र के राजा दान काल में सम्मानरूप से दान देते थे।' भोज: जीमनवार अनेक प्रकार के होते थे-(१) आकीर्ण जीमनवार-यह राजकुल के किसी व्यक्ति या नगर-सेठ द्वारा किया जाता था। इसमें भोजन के लिए आने वालों की संख्या अधिक होती थी। (2) अवमान जीमनवार इसमें स्वपक्ष और पर-पक्ष के लोग ही भाग लेते थे और इसमें जीमने वालों की संख्या निश्चित होती थी। ... मृत्यु पर तथा पितर आदि देवों के प्रीति-सम्पादनार्थ संखडि (भोज) किए जाते थे। उन्हें 'कृत्य' कहा जाता था। मज्झिमनिकाय (11448) में इसे 'संखति' कहा है। मनुष्य का स्थान : उत्तम जाति वाले पुरुष नीच जाति वालों को घृणा की दृष्टि से देखते थे। वे उनके पैरों में नहीं पड़ते थे।४ . _.. जाति, कुल, कर्म, शिल्प और कुछ विशेष रोग आदि के आधार पर मनुष्य तिरस्कृत माने जाते थे।५ जाति से म्लेच्छ जाति / कुल से—जारोत्पन्न / कर्म से त्यक्त पुरुषों द्वारा सेवनीय / शिल्प से चर्मकार / रोग से—कोढी / १-(क) दशवकालिक 5 / 1 / 48 / (ख) अगस्त्य चूर्णि : की कोति इस्सरो पवासागतो साधुसद्देण सम्बस्स आगतस्स सक्कारणनिमित्तं 4.40 दाणं देति, रायाणो वा मरहट्ठगा दाणकाले अविसेसेण देति / २-(क) दशवकालिक चूलिका 26 : (ख) हारिभद्रीय टीका, पत्र २८०।३-हारिभद्रीय टीका, पत्र 214 / ४-जिनदास, चूर्णि, पृ० 316 : . जातीए इडिढगारवं वहति, जहा हं उत्तमजातीओ कहमेतस्स पादेलगिहा मित्ति। ५-वही, पृ० 323H . असूयाइ जाइतो कुलो कम्मायो सिप्पयो वाहिओ वा भवति जाइओ जहा तुम मेच्छजाइजाती, कुलो जहा तुमं जारजाओ, कम्मो जहा तुमं जढेहिं भयणीज्जो, सिप्पयो जहा तुमं सो चम्मगारो, वाहिओ जहा तुमं सो कोढिओ। Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5. व्याख्या-ग्रन्थों के सन्दर्भ में : सभ्यता और संस्कृति 223 कर्तव्य और परम्परा : - माता-पिता कन्या के घर के चुनाव में बहुत सतर्क रहते थे। दक्षिणापथ में मामे की लड़की से विवाह किया जा सकता था, उत्तरापथ में नहीं। दक्षिण और उत्तर के खान-पान, रहन-सहन आदि भिन्न थे।२ .... गाँवों में अकेली स्त्री भी इधर-उघर आ-जा सकती थी, परन्तु नगरों में वह दूसरी स्त्री को साथ ले जाती थी। व्यापार-यात्रा: ___ लोग व्यापार के लिए दूर-दूर देशों में जाते थे। जब पुत्र देशान्तर के लिए प्रस्थान करता तब पिता शिक्षा के शब्दों में कहता-"पुत्र ! अकाल-चर्या और दुष्ट-संसर्ग से बचने का सदा सर्वत्र प्रयत्न करना।" वे बार बार इस शिक्षा को दोहराते थे / 4.. पुस्तक: पुस्तकें पाँच प्रकार की होती थीं-: (1) गंडी-वह मोटाई और चौड़ाई में सम होनी थी। १-दशवैकालिक, 9 // 3 // 13 / २-हारिभद्रीय टीका, पत्र 22 : . - यथा दक्षिणापथेमातुलदुहिता गम्या उत्तरापथे पुनरगम्यैव, एवं भक्ष्याभक्ष्यपेया पेयविभाषा कर्तव्येति / ३-वही, पत्र 22: पुरवरधर्म:-प्रतिपुरवरं भिन्नः क्वचित्किञ्चिद्विशिष्टोऽपि पौरभाषांप्रदानादि लक्षणः सद्वितीया योषिद्गेहान्तरं गच्छतीत्यादिलक्षणो वा। ४-जिनदास चूर्णि, पृ० 340 / / ५-हारिभद्रीय टीका, पृ० 25 : गंडी कच्छवि मुट्ठी संपुडफलए तहा छिवाडी अ। . एयं पोत्थयपणयं पण्णत्तं वीअराएहिं // बाहल्लपुहुत्तेहिं गंडी पोत्यो उ तुल्लगो दीहो / कच्छवि अंते तणुओ मज्झे पिहलो मुणेअव्वो // चउरंगुलदीहो वा वट्टागिति मुट्ठिपोत्थगो अहवा। चउरंगुलदीहो चिम चउरस्सो होई 'विण्णेओ // संपुडओ दुगमाई फलगा वोच्छं छिवाडिमेत्ताहे। तणुपत्तोसिअरूवो होइ छिवाडी बुहा बेंति // दीहो वा हस्सो वा जो पिहुलओ होइ अप्पबाहल्लो। तं मुणिम समयसारा छिवाडिपोत्यं भगतीह // Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 224 दशवकालिक : एक समीक्षात्मक अध्ययन (2) कच्छपी—वह अन्त में पतली और मध्य में विस्तीर्ण होती थी। ... (3) मुष्टि-वह लम्बाई में चार अंगुल अथवा वृत्ताकार होती थी अथवा चार अंगुल लम्बी, चतुष्कोण वाली होती थी। (4) संपुटक—यह दो फलकों में बंधी हुई होती थी और (5) सुपाटिका-इसका विस्तार अधिक और मोटाई कम होती थी। यह लम्बी भी होती थी और छोटी भी। सम्भवतः इसका आकार चोंच जैसा होता था। धातु : ___ सोना केवल आभूषण बनाने के ही काम नहीं आता था, वह अन्यान्य कार्यों में भी प्रयुक्त होता था। उसके आठ गुण प्रसिद्ध थे-(१) विषघाती-विष का नाश करने वाला / (2) रसायन-यौवन बनाए रखने में समर्थ। (3) मंगलार्थ-मांगलिक कार्यों में प्रयुक्त द्रव्य / (4) प्रविनीत—यथेष्ट प्रकार के आभूषणों में परिवर्तित होने वाला। (5) प्रदक्षिणावर्त–तपने पर दीप्त होने वाला / (6) गुरु-सार वाला / (7) अदाह्य-अग्नि में न जलने वाला / (8) अकुथनीय-कभी खराब न होने वाला। - जो सोना कष, छेद, ताप और ताड़ना को सह लेता, वह विशुद्ध माना जाता था। सोने पर चमक लाने के लिए गोपीचन्दन का प्रयोग किया जाता था। यह मिट्टी सौराष्ट में होती थी इसलिए उसे सौराष्ट्रिका कहा जाता था। कई मनुष्य कृत्रिम स्वर्ण भी तैयार करते थे। वह विशुद्ध सोने जैसा होता था परन्तु कष, छेद आदि सहन नहीं कर सकता था। १-(क) दशवकालिक नियुक्ति, गाथा 351 : विसघाइ रसायण मंगलत्य विणिए पयाहिणावत्ते। गुरुए अडज्म कुत्थे अट्ठ सुवण्णे गुणा भणिओ // (ख) हारिभद्रीय टीका, पत्र 263 / २-दशवकालिक नियुक्ति, गाथा 352: चउकारणपरिसुद्धं कसछेअणतावतालणाए / जं तं विसघाइरसायणाइगुणसंजु होइ॥ . ३-जिनदास चू र्णि, पृ० 179: सोरद्विया उवरिया, जीए सुवण्णकारा उप्पं करेंति सुवण्णस्स पिंडं। ४-(क) दशवकालिक नियुक्ति, गाथा 354 / (ख) हारिभद्रीय टीका, पत्र 263 / Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5. व्याख्या ग्रन्थों के सन्दर्भ में : सभ्यता और संस्कृति 225 पशु: तीन वर्ष के बछड़े को 'गोरहग' कहा जाता था तथा रथ की भाँति दौड़ने वाला बैल, जो रथ में जुत गया वह बैल और पाण्डु-मथुरा आदि में होने वाले बछड़ों को गोरहग कहा जाता था। इसका अर्थ कल्होड़ भी किया गया है। कल्होड़ देशी शब्द है। इसका अर्थ है वत्सतर-बछड़े से आगे की और संभोग में प्रवृत्त होने के पहले की अवस्था। हाथी, घोड़े, बैल, भैंस आदि को जौ आदि का भोजन दिया जाता था और कहींकहीं ये अलंकृत भी किए जाते थे।५, राजाओं के हाथी घोड़ों के लिए भोजन, अलंकार, आवास आदि की विशेष व्यवस्था होती थी / 6. पक्खली (?) देश में अच्छे घोड़े मिलते थे। महामद्द (?) और दीलवालिया (?) इन दो जातियों के संयोग से खच्चर पैदा होते थे। घोटग अश्व की एक जाति थी। यह आर्जव जाति के घोड़ों से उत्पन्न मानी जाती थी। ___ मछलियों को वडिश से पकड़ा जाता था। उसकी नोक पर तीक्ष्ण लोह की कील .१-सूत्रकृतांग, 1 / 4 / 2 / 13 : 'गोरहगं' त्रिहायणं बलिवर्दम्। २-अगस्त्य चूर्णि: गो जोग्गा रहा गोरह जोगत्तगेण गच्छन्ति गोरहगा पण्डु-मयुरादीसु किसोर सरिसा गोपोतलगा। ३-हारिभद्रीय टीका, पत्र 217 : गोरथकाः कल्होडाः। ४-देशीनाममाला 2 / 9, पृ० 59 : ____ कल्होडो बच्छयरे-कल्होडो वत्सतरः / ५-जिनदास चू णि, पृ० 311 / ६-हारिभद्रीय टीका, पत्र 248 / ७-जिनदास चर्णि, पृ० 212-213 : - आसो नाम जच्चस्सा जे पक्खलि विसयादिसु भवन्ति, अस्सतरो नाम जे विजातिजाया जहा महामद्दएण दीलवालियाए, जे पुण अज्जवजातिजाता ते घोडगा भवंति। Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 226 दशवकालिक : एक समीक्षात्मक अध्ययन लगी हुई होती थी और उसपर मांस का टुकड़ा रखा जाता था। जब मत्स्य मांस को खाने आता तब उसका गला तीक्ष्ण लोहे की नोक में फंस जाता। श्रमण: ___ कई प्रकार के साधु तंत्र, मंत्र और चिकित्सा आदि के द्वारा दूसरों का हित सम्पादन कर अपनी आजीविका चलाते थे। व्यक्ति: दशवकालिक में निम्न व्यक्तियों के नाम मिलते हैं। (1) उनसेन-भोजपुल का एक राजा / (2) समुद्रगुप्त—अन्धकवृष्णि कुल का एक राजा / (3) रकनोमि / (4) राजीवती। (5) भद्रिकाचार्य (प्रा० भद्दियायरियु) / (6) दत्तिलाचार्य (प्रा० दत्तिलायरिया ) / (7) गोविन्द वाचक-ये बौद्ध थे। ज्ञान प्राप्त करने के लिए इन्होंने प्रव्रज्या ग्रहण की। आने चलकर वे महावादी हुए। सिका: पूणी (रुई की पहल ) कौडी आदि भी सिक्के के रूप में प्रचलित थे। १-जिनदास चूर्णि पृ० 341 // २-दशवैकालिक, वा५०। ३-संबच है इन दोनों प्राचार्यो की सालिक पर कोई मचान हो। खो-जिनवास चूर्वि,४॥ ४-प्राकृत साहित्य का इतिहास, पृ० 204 / . . Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट-१ चूर्णि की परिभाषाएँ (इस संकलन में मुख्यतः अगस्त्यसिंह स्थविर की चूर्णि और यत्र-तत्र .. जिनदास महत्तर की चूर्णि का उपयोग किया गया है ) / . श्लोक 3 शब्द एमेते अध्ययन-१ अर्थ * एवं सद्दो तहा सहस्स अत्थे....." वकारलोपो सिलोग पायाणुलोमेणं। अणियत-वित्तित्तणेण समणोतवस्सिणोश्रमुतपसीति / विहमागासं विहायसा गच्छंतित्ति विहंगमा। अणभिसंधितदायारो। " समणा समणा विहंगमा अणिस्सिया कामे 2. . वत्थ गंध अलंकारं अच्छंदा. भोए साहीणे : सिया जलियं . . : अध्ययन-२ ट्ठा सहरसरूवगंधफासा कंता विसतिणा मिति कामा। खोमदुगुल्लादीणि। कुंकुमागरुचन्दणादत्तो। केसवत्थाभरणादि। अकामगा। इंदिय विसया। अप्पाहीणे / सिया सद्दो आसंकावादी, जदि अत्थे वट्टति। न मुम्मुर भूतं / / Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 2 ] श्लोक शब्द अथे 6 दुरासयं अगंधणे डाहकत्तणेण दुक्खं समस्सतिब्नतितं दुरासदं / उत्तमसप्पा-ते डंकातो विसं न पिबंति मरंता वि। किंच सुलसागब्मप्पसवा कुलमाणसमुण्णता भयंगमा णाहारोसवस विप्पमुक्कं ण पि.ति विसं विसाय वनितसीला। भोमो इति हरिवंसो चेव गौत्त विसेसं / तेसि भोयाण राया-भोयराया। .. जदि सद्दो अणब्भुवगमे। भावो-अभिसंगो। जलरुहो वणस्सति विसेसो, अणाबद्धमूलो हो। भोयरायस्स जइ भावं हडो विप्पमुक्काण अणाइण्णं महेसिणं अध्ययन-३ अभितर बाहिरगंथबंधण विविहप्पगार मुक्काणं विप्पमुक्काणं। अकप्पं / . महेसिणं ति इसी-रिसी, महरिसी परमरिसिणो संबझंति, अहवा महानिति मोक्खो तं एसत्ति महेसिणो। प्रतिणियतं जं निबंधकरणं, ण तु जं अहासमावत्तीए दिणे-दिणे भिक्खा गहणं। अभिहडं जं अभिमुहाणीतं, उवस्सए आणेऊणदिणं / गधा कोठे पुडादतो। मल्लं गंथिम-पूरिम-संघातिमं / सण्णिहाणं। गिहिभायणं कंसपत्तादि। 2 नियागं अभिहडाणि गंध मल्ले सन्निही गिहिमत्ते Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्लोक शब्द अर्थ .3 रायपिंडे किमिच्छए मुद्धाभिसित्तस्स रण्णो भिक्खा रायपिंडो। रायपिंडे किमिच्छए-रायाजोजंइच्छति तस्स तं देति-एस रायपिण्डकिमिच्छतो। संबाहणा संबाधणा अट्ठि-सुहा, मंस-सुहा, तय-सुहा, रोम-सुहा। दंतपहोयणा दंतपहोवणं दंताण दंत कट्ठोदकादीहिं पक्खालणं / संपुच्छणा संपुच्छणं-(१)-जे अंगा अवयवा सयं न पेच्छति अच्छि-सिर-पिट्ठमादि ते परं पुच्छति-सोभत्ति वा ण व त्ति' (२)-अहवा गिहीण सावज्जारंभाकता पुच्छति"""। देहपलोयणा अंगमंगाई पलोएति 'सोभंति ण वेति'। अट्ठावए . अट्ठावयं जूयप्पगारो। रायारुहं णयजुतं गिहत्थाणं वा अट्ठावयं देति। केरिसो कालोत्ति पुच्छित्तो भणति ण याणामि, आगमेस्स पुण सुणकावि सालिकूरं ण भूजंति। णालिए जूयविसेसो, जत्थ मा इच्छितं पाडेहितित्ति णालियाए पासका दिज्जंति...... / तेगिच्छं रोगपडिक्कम्म। सेज्जायरपिंडं सेज्जा वसती, स पुण सेज्जा दाणेण संसारं तरति सेज्जातरो तस्स भिक्खा सेज्जातरपिंडो। आसंदी उपविसणं। पलियंकए . सयणिज्जं / गिहतरणिसेज्जा गिहंतरं पडिस्सयातो बाहिं जं गिहं। गेण्हतीति गिहं। गिहं अंतरं च गिहंतरं, गिहतर निसज्जा जं उवविठ्ठो अच्छति। Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थ श्लोक शब्द 5 , गायस्सुव्वट्टणाणि गातं सरीरं तस्स उव्वट्टणं-अब्भंगणुव्वलणाईणि णाईहिं। गिहिणो वेयावडियं गिहीणं वेयावडितं जं तेसि उवकारे वट्टति / आजीववित्तिया सा पंचविहा जाति कुलगणकम्मेसिप्पे आजीवणाओ। तत्तानिव्वुडभोइत्तं णातीव अगणि परिणतं तं तत्त-अपरिनिव्वुडं अहवा तत्तं पाणी तं पुणो सीतली भूतं आउक्काय परिणाम जाति तं अपरिणयं अणिव्वुडं गिम्हे अहोरत्तेणं सच्चित्ती भवति, हेमन्ते-वासासु पुव्वण्हे कतं अवरण्हे। अहवा तत्त मवि तिन्निवारे अणुव्वतं अणिव्वुडं तं जो अपरिणतं भुंजति सो तत्त-अनिव्वुडभोजी। .., आउरेस्सरणाणि (1) छुहादीहिं परीसहेहिं आउरेणं सीतोदकादि पुव्वभुत्तसरणं। (2) सत्तूहि वा अभिभूतस्स सरणं भवति..... / (3) अहवा सरणं आरोग्यमाला तत्थ पवेसो गिलाणस्स.......। सारूजाति। सिंगबेरे अल्लगं। कंदा चमकादतो। मूले.. भिसावतो। - फले अंबादतो। बीए बीओ धण्ण विसेसो। सोवच्चले उत्तरावहे पव्वत्तस्स लवणखाणीसु संभवति / सेंधवे : सेंघवलोणपव्वंते संभवति। रोमा रूमाए भवति / लोणे सांभरीलोणं। कंटे Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 5 ] लोक शब्द अर्थ विरेयणे , अंजणे - 8. सामुद्दे समुद्दपाणीयं रिणेकेदारादिकतमावळंत लवणं भवति। पंसुखारे पंसुखारो ऊसो कड्डिज्जतो अदुप्पं भवति / कालालोणे तस्सेव सेंधवपव्वतस्स अंतरंतरेसु (कालालोण) खाणीसु संभवति। धूवणेत्ति धूमं पिवति ‘मा सिररोगातिणो भविस्संति' आरोग पडिक्कम्मं, अहवा 'धूमणेत्ति' धूमपाणसलागा, धूवेति वा अप्पाणं वत्थाणि वा......। वत्थिकम्म वत्थीणिरोहादि दाणत्थं चम्ममयो णालियाउत्तो कीरति तेण कम्मं अपाणाणं सिणेहादि दाणं वत्थीकम्म...। कसायादीहिं सोधणं। नयणं विभूसा। दंतवणे - दसणाणं विभूसा। गायब्भंग सरीरभंगणमहणाईणि। विभूसणे अलंकरणं। लहुभूयविहारिणं लहु जं ण गुरु स पुण वायुः, लहुभूतो लहुसरिसो विहारो जेसि ते लहुभूत-विहारिणो तहा अपडिवद्ध ... गामिणो। पंचासवपरिण्णाया पंच आसवा पाणातिवातादीणि पंच आसव दाराणि"परिण्णा दुविहा-जाणणापरिण्णा पच्चक्खाणपरिण्णा य। जे जाणणापरिण्णाए जाणिऊण पच्चक्खाण-परिण्णाए ठिता ते पंचासवपरिण्णाया। उज्जुदंसिणो . उज्जु-संजमो समया वा, उज्जू-रागहोसपक्ख विरहिता अविग्गहती वा, उज्जू-मोक्खमग्गो तं पस्सं-तीति उज्जुदंसिणो, एवं चत्ते भगवंतो गच्छविरहिता उज्जुदंसिणो। Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्द सुसमाहिया धुयमोहा .. सिद्धिमग्गं परिणिव्वुडा अर्थ नाणदंसण चरित्तेषु सुळु आहितासुसमाहिता। .. धुयमोहा विक्किण्णमोहा मोहो मोहणीयमण्णाणं वा " / .. सिद्धिमग्गं–दरिसण-नाण-चरित्तमत्तं / परिणिव्वुता-समंता णिव्वुता सव्वप्पकारोघातिभवधारणकम्म परिक्खते। अध्ययन-४ 1 आउसं भगवया कासवेणं सीसस्स आह्वानो, आयुष्मद् ग्रहणेन जातिकुलादतोषि गुणाऽधिकृता भवंति–आयुष्पहाणा गुणा अतो आयुष्मन् / भगो जस्स अत्थि सो भगवान् / 'अत्थजस्सलच्छिधम्मप्पयत्तविभवाण छण्ह एतेसिं भग इति णामं ते जस्स संति सो भण्णति भगवं.....। कासं-उच्छु / तस्स विकारो कास्यः रसः। सो जस्स पाणं सो कासवो–उसभसामी। तस्स जे गोत्तजाता ते कासवा। तेण वद्धमाणसामी कासवो..."तेण कासवेण। साधुवेदिता, साघुविण्णाता। जहाबुद्धि सोसाणं प्रज्ञापिता।। अतिसयेण पसंसणीयं / अधीयते तद् इति अज्झयणं / धम्मोपण्णविज्जाए जाए सो धम्मपण्णत्ती, अज्झयण विसेसो। पवेइया सुपण्णता सेयं अभयणं धम्मपण्णत्ती. " ... घम घम " Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अण्णत्थ सूत्र शब्द अर्थ .. 3. पुढ़विकाइया पुढवी-भूमी कातो जेसिं ते पुढविकाया-एत्य काय सद्दो सरीराभिषाणो अहवा पुढवी एव कातो पुत्वी कातो-एत्थकायसद्दो समूहवाची। चित्तमंतं चित्त-चेतणा बुद्धी / तं जीवतत्वमेव / सा चित्त वती सजीवा इति। अण्णत्थसद्दो परिवज्जणे वट्टति / सम्मुच्छिम पउमिणिमादि उदगपुढवि सिणेह. सम्मुच्छणा समुच्छिमा। सबीया . सबीया इति बीयावसाणा दसवणस्सति भेदा संग हतो दरिसिता। पाणा जीवा, प्राणंति वा निश्वसंति वा। अंडजा अंडजाता अंडजा मयूरादयः। पोतजा पोतमिव सूयते पोतजा वल्गुलीमादयः। जराउजा जराओ बेदिता जायंति जराउजा गवादयः। रसजा रसासे भवंति रसजा तक्कादौ सुहुम सरीर / उब्भिया भूमि भिदिऊण निद्धावंति सलभादयो। , परमाहम्मिया परमं—पहाणं तं च सुहं / अपरमं-ऊणं तं पुण दुक्खं / धम्मो समावो। परमो धम्मो जेसि ते परमधम्मिता। यदुक्तं-सुखस्वभावा। दंडो सरीरादि णिग्गहो। भंते हे कल्लाण सुखभागिन् भगवन् एवं भंते। वेरमणं नियत्तणं। अदिण्णादाणं अणपुण्णातस्स गहणा दिण्णादाणं / भित्ती. णदी पव्वतादि तडी ततो वा जं अवदलितं / सवित्थारो पाहण विसेसो। , लेलुं ... मट्टिया-पिंडो।. भया सिलं Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थ सूत्र 18 शब्द ससरखं किलिचेण अंगुलियाए सलागाए उदगं ओसं हिम महियं करगं हरतणुगं सुद्धोदगं इंगालं सरक्खो-पंसू। तेण अरण्ण पसुंगा सहगतंससरक्खं / अघडितगं कहूँ। हत्थेगदेसो। कट्टमेवघ्घडिसगं / णदी तलागादि संसितपाणीय मुदगं / सरयादौ णिसि मेघसंभवो सिणेह विसेसो तोस्सा। अतिसीतावत्थंभित मुदगमेव हिमं / पातो सिसिरे दिसामंधकारकारिणी महिया। वरिसोदगं कढणीभूतं करगो। किंचि सिणिद्धं भूमि भेत्तण कहिंचि समस्सयति सफुसितो सिणेह-विसेसो हरतणुतो। अंतरिक्खपाणि तं। खदिरादीण णिद्दड्डाण धूम विरहितो इंगालो। . करिसगादीण किंचि सिट्ठो अग्गी मुम्मुरो। दीवसिहा, सिहरादि अच्ची। वीयणगादीहिं जालाकरणं उज्जालणं / मुक्खेवजाती। पउमिणिपण्णमादिपत्तं। पेहण मोरंगं तेसि कलावो। उब्भिज्जतं / आबद्धमूलं / उंडुयं जत्थ चिट्ठति तं ठाणं पीढगं ढाणमतं वा। जत्थ सुप्पति चंपगपट्टादि पेढणं वा। सव्वंगिका। अड्डाइज्ज हत्था ततो सचतुरंगुलं हत्थं विच्छिण्णो / मुम्मुरं अच्चि उज्जालेज्जा तालियंटेण पत्तेण पिहुणेण रूढेसु जाएसु पीढगंसि फलगंसि सेजंसि संथारगंसि Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोक 14 जीवे गई पुण्णं [6] शब्द * अर्थ पाणभूयाई पाणा तसा, भूता थावरा अहवा फुडऊसासनिसासा पाणा, सेसा भूता। अन्नाणी जीवाजीव विन्नाण विरहितो अण्णाणी। किं सद्दो खेद वाची। कल्लाणं . कल्लं आरोग्गं, कल्लाणं संसारातो विमोक्खणं / जीवंतीति जीवा, आउप्पाणा धरेंति / नरकादि अहवा गतिः-प्राप्तिः। जीवाणं आउबलविभवसुखाति सूतितं पुण्णं / मुंडे इंदिय-विसय-केसावणयणेण मुंडे / संवरं पाणातिवातादीण आसवाण निवारणं / कुतित्थिस धम्मेहिं पहाणो / सव्वत्थ गच्छतीति सव्वत्तगं-केवलनाणं केवल दर्शणं च......। सेलेसि सीलस्स ईसति वसयति सेलेसी।। सुहसायगस्स सुखं स्वादयति चक्खति तस्स / सायाउलगस्स सुहेण आउलस्स, आउलो अणेकग्गो सुहं कयाति अणुसीलेति, साताकुलो पुण सदा तदभिज्झाणो। निकामसाइस्स सुयछिण्णे मउए सुइतुं सीलमस्स निकामसायी। उच्छोलणापहोइस्स प्रभूतेण अजयणाए धोवेति / . अणुत्तरं सव्वत्तगं नाणं अध्ययन-५ (उद्देसक-१) अथ श्लोक शब्द 4 खाणुं , विज्जलं णाति उच्चो उद्घट्ठिओ दारु विसेसो। विगयं मात्रं जतो जलं तं विज्जलं (चिक्खले ) / / उदगचिक्खिल्लयं / [जि०] Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्लोक शब्द अर्थ . 4 संकमण कत्तिम संकमो। 8 तिरिच्छसंपाइमेसु पतंगादतो तसा। वेस पविसंति तं विसयत्थिणोत्ति वेसा, पक्खिति वा जणमणेसु वेसो स पुण णीयइत्थी समवातो। बंभचेरवसाणुए बंभचेरं मेहुणवज्जणं व्रतं तस्स. वसमणुगच्छति जं बंभरवसाणुगो साधु। विसोत्तिया - विस्रोतसा प्रवृत्तिः। अणायणे आयतणं ठाणं आलयो, ण आयतणं-अणायतणं अस्थानं। संसग्गीए संपक्को। संडिब्भं डिब्भाणि चेडरुवाणि। णाणाविहेहिं खेलणएहिं खेलताणं तेसि समागमो संडिब्भं। आलोयं गवक्खगो। चोपलपादो। [जि०) थिग्गलं जं घरस्स दारं पुव्वामसी तं पडिपूरियं / [ जि०] दारं निगमपवेसमुंह। संधि यमलघराणमंतरं। खत्तं पडिढक्किययं / [जि०] दगभवणाणि पाणियक मंत्तं पाणियमंचिका हाणमंडवादि। . रहस्सारक्खिय रायंतेपुरवरामात्यादयो। पडिकुट्ठ निंदितं, तं :दुविहं इत्तरियं आवगहियं इत्तरियं मयग सूतगादि आवगयिंह चंडालादि / मामगं मा मम घरं पविसंतु त्ति मामगं / सो पुण पंतयाए इस्सालुयत्ताए वा। अचियत्त अणिट्ठो पवेसो जस्स सो, अहवा ण चागो जत्थ पवत्तइ तं दाणपरिहीणं केवलं परिस्संमकारी। Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 17 लोक शब्द अर्थ चियत्तं इ8 निग्गमणपवेसं, चागसंपण्णं वा। साणी वक्कपडी पावार कप्पासितो पडो सरोमो पावरितो। णीयदुवारं णीयं दुवारं जस्स सो णीयदुवारा तं पुण फलिहयं वा कोट्ठतो वा जओ भिक्खा नीणिज्जति / एलगं बक्करओ। वच्छगं गोमहिसतणओ। अइभूमि . भिक्खायरभूमि अतिकमणं / ससिणिद्धं . जं उदगेण किंचि गिद्ध ण पुण गलति / ससरक्खे पंसुरउगुंडितं। लोणे सामुद्दादि / गेख्य सुवण्णगेरुतादि। वणिय पीतमट्टिया। सेडिय महासेडाति / सोरट्टिय तुवरिया सुवण्णस्स ओप्पकरणमट्टिया। ... पिट्ठ आमपिळं आमओ लोट्टो। सो अप्पिधणो पोरुसिए परिणमति, बहुइंधणो आरतो परिणमइ / " उक्कट्ठ छरो सुरालोट्टो, तिल-गोधूम-जवपिट्ठवा, अंबिलिया पीलुपण्णियातीणि वा। दोद्धिय कालिंगादीणि उक्खले छुन्भंति। [जि०] 40 कालमामिणी पसूतिकालमासे। नवमे मासे गन्मस्स वद्रमाणस्स (जिणकप्पिया पुण जद्दिवसमेव आवन्नसत्ता भवति तओ दिवसाओ आरद्धं परिहरंति)। [जि०] 45 दगवारएण दगवारओपाणियघडुल्लओ। णीसाए. . . . . पीसणी। ........ Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्द पीढएण लोटेण लेवेण सिलेसेण दाणट्ठा पुण्णट्ठा उत्तिंग पणगेसु गंभीरं झुसिरं निस्सेणिं फलगं [ 12 ] - अर्थ कट्टातिमयं। णीसायुत्त। मट्टियादि। जउखउरादि। कोति ईसरो पवासागतो साधु सद्धेण सव्वस्स आगतस्स सक्कारणिमित्तं दाणं देति"..."रायाणो वा मरहट्ठगा दाणकाले अविसेसेण देंति। " पव्विणीसु पुण्णमुद्दिस्सकीरतितं पुण्णटप्पगडं / कोड्डियाणगरं / उल्ली / अप्पगासं तमः। अंतोसुण्णयं तं जंतुआलओ भवति। [जि०] मालादीण आरोहण-कट्ठ। बहुलं कट्ठमेव। . महल्लं सुवण्णयं भवइ / . [जि०] ण्हाणादि उपयोग्यं / सयणीयं, चडणमंचिगा वा। भूमिसमाकोट्टितं कळं। कोलो उड्डू व खाणु / [जि०] स-मालको घर विसेसो। निज्जूह गवक्खोवसोभितो। [नि० चू०१३।११] चमकादि। पिसादि। फलं। सागं। जं त्वयाए मिलाणं अमिलाणं अंतो त्वम्लानम्। .. पीढं कोलं पासायं कंद मूलं पलंब सन्निरं तुंबागं Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्लोक 71 शब्द अर्थ सिंगबेरं अल्लगं / अल्लग। सत्तु जवातिक्खणा जवातिधाणाविकारो। चण्णाई ... पिठ्ठाविसेसा। कोल चुण्णाई कोलो-बदरो, तेसिं चुण्णाणि, कधि कयत्थागं / सक्कुलिं तिलपप्पडिया। फाणियं छुट्ट गुलो। पूर्व तवगसिद्धो। वार-धोयणं वालो वारगो रलयोरेकत्वमिति कृत्वा लकारो भवति / वालः तेण वार एव वाल: तस्स धोवणं फाणितातीहिं लित्तस्स वालादिस्स जं मि किंचि सागादि संसेदेत्ता सुत्तो सित्तादि कीरति। चाउलोदगं चाउलधोयणं / कोट्ठगं सुण्णधण्ण कोट्ठगादि कोट्ठो। वट्ठमढो सुन्नओ। भित्तिमूलं दोण्हं घराण मन्तरं। सूइयं सव्वंजणं। असूइयं णिव्वंजणं। सुसूवियं। सुक्कं मंदसूवियं / मथु बदरामहित चुण्णं। कुम्मास पुलगादि कुम्मासा। [जि०] उल्लं. पडिग्गहं सेज्जा अध्ययन-५ ( उद्देसक-२) भत्तपडिग्गह भायणं / उवस्सओ। . उवस्सतादि मटुकोट्टतादि। 2 . [जि०] Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 14 ] .. लोक अर्थ .. शब्द निसीहियाए ___सज्झायट्ठाणं, जम्मि वा रुक्खमूलादो सेव निसीहिया। अयावयट्ठा यावदळं यावदभिप्रायं, न यावदलैं-अयावदठें। उच्चावया णाणाविधजातिरूववयसंठाणादिभिः / अग्गलं दुवारे तिरिच्छं खीलिका कोडियं कट्ट, गिहादी कवाडनिरोधकळं अग्गला। फलिहं णगरदारकवाडोवत्थंभणं / / माहणं माहणा घीयारा। किविणं किवणा पिंडोलगा। उप्पलं णीलं। पउमं णलिणं। कुमुझं गद्दभगं / मगदंतियं मेत्तिगा। अण्णे भणंति धियइल्लो। [जि० सालुयं उप्पलकंदो। मुणालियं पउमाण मूला। गयदंतसन्निभा पउमिणि-कंदाओ निग्गच्छति / [जि०] सासवणालियं सिद्धत्थगणाला। तणग अग्गगमूलं / छिवाडि संविलिया। [जि०] आमियं असिध्दपक्का तं वा सति भज्जिता। पतरं। बेलयं-बिल्लं वंसकरिल्लं। . कासवनालियं सीवण्णीफलं, कस्सारूकं / 16 संगा। कोलं वेलुयं Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्लोक 21 " शब्द अर्थ तिलपप्पडगं आमतिलेहिं जो पप्पडो कतो। नीमं णीवफलं। चाउलं पिट्ठ चाउलं पिट्ठ लोट्टो तं अभिनवमणिधणं सचित्तं भवति। वियर्ड उण्होदगं। सुद्धमुदयं / [जि०] तत्त-निव्वुडं सीतलं पडिसचित्तीभूतं अणुवत्तदंडं वा। तिलपिट्ट तिलउट्टो। तिलवट्ठो–जो अद्धाइहिं तिलेहिं जो कओ तत्थ अभिण्णता तिला होज्जा दरभिन्ना वा। [जि०] पूइ पिन्नागं सरिसवपिट्ठ। सिद्धथपिंडग। कवित्थफलं। माउलिंगं . बीजपूरगं। मूलगं समूलं पलासो। मूलगत्तियं मूलगकंदगं च कत्तिया। मूलकंदा। [जि०] फलमंथूणि बदरादि चुण्णं। बीय-मंथूणि बहुबीजाणि। जवमासमुग्गादीणि। .. [जि०) बिहेलगं उंबरादीणि, भूतरुक्खफलं-तस्समाणजातीतं हरिडगाति वा। पियालं पियालरुक्खफलं। समुयाणं समुयाणीयंति-समाहरिजंति तदत्थं चाउलसागतो रसादीणि तदुपसाधणाणि अण्णमेव. समुदाणं - अहवा पुव्वभणितमुग्गमुप्पायणेसणासुद्धमण्णं / [जि.] कविठं Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्द "घरं। . .. 26 . सयण आसण उच्चावयं अणेगविहं-हीणमज्झिमाहिगमपडिकुछेत्ति। ऊसढं उस्सितं। नीयं दुगुंछियकुलाणि। [जि०] वित्ति सरीरधारणं। मायन्ने मात्रा-परिमाणं तं जाणातीति मातण्णो। संथारगादि। पीढकादि। ओयणादि / पाणं मुद्दियावाणगादि। अत्तळ-गुरुओ अप्पणीयो अट्ठो अत्तट्ठो। सो जस्स गुरुओ, सो अत्तगुरुओ। विरसं णिल्लोणाति। आययट्ठी आगामीणी काले हितं आयतीहितं / आयतिहितेण अत्थी आयत्थी अभिलासी। . आयतो-मोक्खो। आययं अत्थयतीति आययट्ठी। [जि०] जती, भट्टारओ। किंचि लभिऊणं अलभिऊणं वा तुस्सति। माण अब्भुट्ठाणादीहिं गव्वकरणं / सम्माण वत्थातीहिं एगदेसेण वा माणो सव्वगतो परिसंगो सम्माणो। मायासल्लं सल्लमाउधं देहलग्गं ""मायव तस्स सल्लं भवति / सुरं .. पिट्ठकम्म समाहारो। मेरगं .. . पसण्णा विसेसो। पसन्नो सुरापायोग्गेहिं दव्वेहिं कीरइ। [जि० ] मुणी सुतोसओ , Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 17 ] श्लोक शब्द अर्थ 38 मोस ससक्खं न पिवे सक्खी भूतेण अप्पणा सचेतण इति / अहवा जया गिलाणकज्जे तता 'ससक्खो' ण पिवे जणसक्खि गमित्यर्थः। सोंडिया सुरादिसु संगो। जा सुरातिसु गेही सा सुंडिया भण्णति / माया . णिगूढं पायवं, सढता। पुच्छियस्स अवलावो, अलीयं / संवरं .... पच्चक्खाणं / गुणाणं . सीलव्वयादयो। देवकिब्बिसं . देव सद्देण कस्सवि तत्थ विस्सवुड्ढि भवेन्ना अतो किब्बिसिया देव दुगुच्छणत्थमिदं भण्णति / / एलमूययं एलओ इव वोव्वडभासी। तिव्वलज्ज' तिव्वयत्यर्थः, लज्जा-संयम एव जस्स स भवति तिब्वलज्जो। ... 1 अध्ययन-६ गणिं . गणो समुदायो संघो जस्स अत्थीति गणी।। रायाणो बद्धमुकुटा। रायमच्चा अमञ्च, सेणावतिपभितयो। माहणा बंभणा। घीयारा तेसिं उप्पत्ती जहा सामाइयनिज्जुत्तीए / .. [जि०] दुरहिटियं ....: दुगुंछियाधिट्टितं, दुक्खं वा पव्वजाट्टितेण अधिट्ठि नति / भेयाययण बिडं भेदो-विणासो, आययणं-मूलं। पागजातं। . . 17 Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ " लोणं तेलं कारा। [ 18 / शब्द अर्थ उन्भेइमं सामुदाति। आगरेसु समुप्पज्नति। तिलाति विकारा। फाणियं उच्छूविकारो। सन्निहिं सण्णिधानं / अणुफासो अणुसरण मणुगमो अणुफासो। लज्जासमा वित्ती संजमाणुविरोहेण वित्ति। . एगभत्तं एगबारं भोयणं, एगस्स वा रागद्दोसरहियस्स भोयणं उदउल्लं बिंदुसहितं / जायतेयं जात एव जम्मकाले एव तेजस्वी ण जहा आदिञ्चो उदये सोमो मज्झण्हे तिव्वो। पावगं हव्वं। सुराण पावयतीति- पावकः-एवं लोइया भणंति / वयं पुण अविसेसेण डहण इति पावकः / पिडं असणादि। सेज्ज आवसहो। वत्थं रजोहरणादि। संघिय कसभायण मेव महतं। आसंदी आसणं। मंचं मंचको। आसालएसु सावट्ठभमासणं। णिसेना णिसीयणं। घसासु गसति सुहुमसरीर जीवविसेसा इति घसी, अंतो सुण्णो भूमिपदेसो पुराण भूसातिरासि वा। कण्हभूमिदली भिलुहा। सामायिगं उवण्हाणं। गंघटुओ कक्कं / 47 भिलुगासु सिणाणं कक्कं Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्लोक 3 शब्द लोद्धं पउमगाणि विभूसा / 16 ] अर्थ कसायादि। केसर। विभूषणं, अलंकरणं। पहाणुव्वलण उज्जलवेसादि। 65 [जि०] वसुले दुहए अध्ययन-७ 11 फरसा लुक्खा, गेहविरहिता। आयार वयण-नियमण मायारो। होले निठुर मामंतणं, देसीए भ (रु)विल वदणमिव / 'सुद्दपरिभव वयणं / दमए मोयण-निमित्तं घरे-घरेद्रमति गच्छतीतिदमओ रंकः। . दुभगो-अपिट्ठो। 15 अज्जिए पितामही वा मातामही। पज्जिए पितामही मातामही माता। हले, अण्णे मरहट्ठेसु तरुणित्यो मामंतणं। .. " . . हले लाडेसु। " भट्टे ... अब्भ-रहित वयणं। , सामिणि पायो लाडेसु / गोमिणि सव्व देसेसु / __ होले, गोले, वसुले गोल्लविसये, देसीए लालगत्थाणीयाणि प्रियवयणा मंतणाणि ...... / पमेइले प्रगाढमेदो, अत्थूलोवि सुक्कमेदभरितो। णावाणं अणेगकट्ठसंघातकमुदकजाणं / / दोणिणं . एग कट्ठ उदगजाण मेव जेण वा अरहट्टादीण उदकं संचरति.....। 28 पीढए .. पट्ट ण्हाण पायपीढ़ादि, उवविसणगं-पीढग। .. 22 Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्लोक शब्द चंगबेरे मइयं जंतलट्ठी गंडिया उवस्सए ओसहीओ थिरा [ 20 ] अर्थ .... चंगेरिगासंठित। बीयसारणत्थं समं कट्ठ। * जंतोपीडणं। चम्मारादीणं दीहं चउरस्सं कट्टगं / साधुणिलयणं। फलपाकपज्जत्ताओ सालिमादिओ। जोग्गादिउपघातातीओ। 35 अच्छण सुद्धपुढवीए सीतोदगं सिला अध्ययन-८ छणणं छणः-क्षणु हिंसायामिति एयस्स रूवं क्षकारस्य य छगारता, पाकते जधा अक्खीणी अच्छीणी अकारो पडिसेहो ण छणः अछणःअहिंसणमित्यर्थः। असत्थोवहता पुढवी। तलागादिसु भोमं पाणितं / करगवरिसं। तक्काल वरिसोदगं। हिमवति सीतकाले भवति / सेडिकादि। अणंतवणप्फई। [जि०] सप्पछत्तादि। [जि०] लाबुदारुमट्टियामयं। गिहिसंसग्गि गिहिवावारं वा। सव्वसंभारसंभियं सुपागं सुगंधं सुरसतया गिळंगतं भोयणं। निग्गतरसं। हिमाणि तण उदगम्मि उत्तिंग पाय गिहिजोगं 22 निठ्ठाणं . , रसनिज्जुलं Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्लोक 23 24 . [ 21 ] शब्द अर्थ . अयंपिरो ... अजंपणसीलो। . .. ... ... जगणिस्सिए ण एक्कं कुलं गामं वा णिस्सितो जणपदमेव / लूहवित्ती .. .. लई संजमोनरी लूहं संजमो तस्स अणुवरोहेण वित्ती जस्स सो लूहवित्ती अहवा लूहदव्वाणि चणगनिप्फावकोद्दवा दीणि वित्ती जस्स। आसुरत्तं आसुरो कोहो तब्भावो आसुरत्तं / / कक्कसं जो सीउण्हकोसादिफासो सो सरीरं किसं कुव्वति कक्कसं। महाफलं ... मोक्खपज्जवसाणफलत्तेण महाफलं। अत्थंगयम्मि आइच्चे अत्थो णाम पवओ, तंमि गतो आदिच्चो अत्थगओ, अहवा अचक्खुविसयपत्तो। [जि०] अतितिणे . . तेंबुरु-विकटुडहणमिव तिणित्तिणणं तिंतिणं। अणायारं अकरणीयं वत्थु / गृहे पडिच्छायणं / मित्ताणि कुलपरंपरागताणि वि मित्ताणि / राइणिएसु पुवदिक्खिता। घुवसीलयं. धुवं-सततं सीलं-अट्ठारस सहस्स भेदं / मिहो-कहाहिं रहस्सकथाओ इत्थी संबद्धाओतहाभूताओवाताओं। जोगं ओसहसमवादो। अहवा निद्देसणवसीकरणाणि। [जि] णिमित्तं तीतादि। [जि०] मंत .. असाधणं / भेसजं विरेचन ओसहं। भूयाहिगरणं भूताणि-एगिदियाईणि तेसिं संघट्टणपरितावणा दीणि अहियं कोरंति जंमि तं भूताधिगरणं [जि०] विभूसा अलंकरणं विभूसा। [जि 56 Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थ [ 22 ] शब्द पणीयरस मोयणं गेहलवणसंभारोतिप्रकरिसेण सरसत्तं णोतं निद्धपेसलं वण्णादिउववेयं / [जि०] तालउडं जेणंतरेण ताला संपुडिज्जति तेणंतरेण मारयतीति तालपुडं। पोग्गलाण रूवरसगंधफरिससद्दमंतो अत्थो / . .. सीईभूएण उवसंत / सद्धा धम्मो आयारो। निक्खंतो धम्म पुरतो काऊणं जं घरातो णिग्गतो।' परियायट्ठाणं परियाओ-पवज्जा, स एव मोक्खसाहण भावेन ठाणं-स्थान। थंभा आसायण जाइपहं 4 अध्ययन-६ ( उद्देसक-१) - थंभणं, अभिमाणो, गव्यो। निज्जरा आयस्स सातणं / जाती-समुप्पत्ती, वघो-मरणं, जम्ममरणाणि गच्छति अहवा जातिपथं–जातिमग्गं-संसारं / आसीए विसं जस्स। संकणं। सत्ताणुकम्पा। आसीविसो लज्जा " दया दुग्गओ 21 . . विवत्ती संपत्ती पिसुणे अध्ययन-६ ( उद्देसक-२) गलिबलहो। कज्जणासो। कज्जलाभो। पीति सुण्णं करोतित्ति पिसुणो। 22 Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्लोक . शब्द साहस होणपेसणे आयरिय अण्णायउछं जवणट्ठया समुयाणं उच्छाहो . हीलए खिसणं रय [ 23 ] ... अर्थ रमसेणाकिच्चकारी। पेसणं जधाकालं उपपादयितु मसत्तो होणपेसणो। अध्ययन-६ ( उद्देसक-३) सुत्तत्थ तदुभयगुणादि संपण्णो अप्पणो गुरुहिं गुरुपदे ठावितो आयरियो। देखो-चू-२।५। सरीरधारणत्थं। समेच्च उवादीयते इति समुदाणं। सामत्थं। पुव्वदुच्चरितादि लज्जावणं हीलणं / अंबाडणाति किलेसणं खिसणं। आश्रवकाले रयो। बद्धपुट्ठणिकायियं कम्मं मलो। अध्ययन-६ ( उद्देसक-४) गणधरा। विदंति जेण अत्थविसेसे जम्मि वा भणिते विदंति सो वेदो तं पुण नाणमेव..... / दुवालसंगं गणिपिडगं सुत्तणेणं तं मुत्तं / श्लोक . 6 खेम निक्खम्म णिखातं। अध्ययन-१० निग्गच्छिऊण गिहातो। . .. निक्खम्म नाम गिहाओ गिहत्थभावाओ वा दुपदादीणि य चइऊण। [जि०] निष्क्रम्य सर्वसंगपरित्यागं कृत्वा अथवा निष्क्रम्यआदाय। [जि०] Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 24 ] लोक शब्द शब्द आणाए बुिद्धवयणे वसं . संतं सीओदगं हरियाणि बीयाणि सचित्तं . नायपुत्त फासे पंचासव अहणे अर्थ वयणं संदेसोवा। दुवालसंगं गणिपिडगं तम्मि। छंदो, विसयाणुरागो। असंजमं। अविगतजीवं। हरितवयणं सव्व वणस्सति सूयगं / बीजवयणं कंदादि सव्व वणस्सत्ति अवयव सूयगं / सचित्तवयणं पत्तेयसाधारण वणस्सति गहणत्थं / . णातकुलुप्पन्नस्स णातपुत्तस्सभगवतो वद्धमाणसामिणो। आसेवणं। पंचासवदाराणि इंदियाणि ताणि आसवा चेव / धनं चउप्पदादि तं जस्स नत्थि सो अहणो। जंणो केणइ उवाएण उप्पाइयं तं जातरूवं भण्णइ, तं च सुवण्णं, रययग्गहणेण रुप्पगस्स गहणं कयं / सब्भावं सद्दहणा लक्खणा समा दिछि सा जस्स सो सम्मदिट्ठी। परतित्थिविभवादीहिं अमूढे। छंदो-इच्छा, इच्छाकारेणजेयणं छंदणं। एवं छंदिय। समाणधम्मिया ( साहुणो)। परे विग्गहविकथापसंगेसु समत्थोवि ण तालणादिणा विहेढयति एवं सविहेढए। इंदिय समवादो गामो तस्स कटंका इव कंटका अणिट्ठविसया। मादिसगरादि अक्कोसा। जायरूवरयए सम्मदिटि. अमूढे छंदिय साहम्मिया अविहेडए in गामकंटए . 11- अक्कोस Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोक अर्थ [ 25 ] शब्द पहार ..... कसाति ताडणं पहारा। तज्जणाओ: ..... विमुट्ठितादि अंबाडणं तज्जणा / भय : पञ्चवायो। भेरव रौई। सद्द वेतालकालिवादीणां सद्दो। संपहासे समेच्च पहसणं / मसाणे सव-सयणं मसाणे। वोसट्ठचत्तदेहे पडिमादिसु विनिवृत्त क्रियोण्हाणुमद्दणाति विभूसा.विरहितो चत्तो सरीरं देहोवोसट्ठो चत्तोपदेहो जेण सो वोसट्टचत्तदेहो। अनियाणे... दिव्वादि विभवेसु अणिवचित्ते अनियाणे। " अज्झप्प अप्पाण मविकारशूण जं भवति तं अज्मप्पं / __उवहिम्मि वत्थपत्तादि। अन्नायउंछंपुल . उंछं चउन्विहं"..."दव्वुच्छ तावसा दीणा उग्गमु प्पायणेसणासुद्धं / अण्णायमण्णतेणसमुप्पादितं भावुछमण्णा उंछं तं पुलयति तमेसति एस अण्णाउँछ पुलाए। निप्पुलाए पुलाए चउविहे..."दव्वपुलाओ पलंजी। मूल त्तरगुणपडिसेवणाए निस्सारं संजमं करेति एस भाव पुलाए। जघा निप्पुलाए। कयविक्कय मुल्लस्स पडिमुल्लेण गहणं दाणं वा / .... संग जत्थ सज्जंति जीवा। वियुव्वणमादि। पूयण विसेसो। रिजु भावं। .... सक्कारण अज्जपयं Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्लोक शब्द WA [ 26 ] अर्थ हस्सकुहएहस्स निमित्तो वा कुहगं हस्सकुहगं जधा करोति जधा परस्सहास मुप्पज्जति / ... अपुणागमं सिद्धी, संसारदुक्खविणिव्वित्ती।। 21 प्रथम चूलिका ... सूत्र १स्था० 3 साइ कुडिलं। ., 6 वंतस्स .. अण्णं अब्भवहरिऊण मुहेण उग्गिलियं वंतं / " 7 अहरगइ - अधोगती जत्थ पंडतो कम्मादि पारगो खणण सक्का वास्तुं सा अधरगती। , आयंके... - सूलादिको आसुकारी सरीर-बाधा विसेसो आयको सारीरं दुक्खं / - - ... , 10 संकप्पे माणसं दुक्खं। .., 13 सावज्जे सह अवज्जेण सावज्जं, अकज्ज गरहितं / -, 16 कुस . दब्भाजातीया तृण विसेसा। 5 सेट्ठि कब्बडे रायकुललद्धसम्माणो समाविद्धवेठ्ठणो वणिग्गाम महत्तरो य सेट्ठी................। चाड चोवग कूडसक्खीसमुब्भावितदुव्ववहारारंभो कव्वडं अहवा कुणगरं जत्थ जल-थल समुन्भव विचित्रदंड विणिोगो। * जलचर-सत्त-विसेसो। समट्टितो। अवोच्छित्ती। चिक्कलो। सूरिपद अणुप्पत्ती। मच्छो संताओ संताण पंको गणी Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ / 27 / श्लोक शब्द अर्थ " भावियप्पा सम्मइंसणेण बह-विहेहिय तवजोगेहि अणिच आदि भावणाहि य भावितप्पा। , परियाए ... तहा पज्ज (य) परिणति अघवा प्रवज्या सहस्स अवभंसो। / 11 . अमर ... मरणं मारो, ण जेसि मारो अस्थि ते अमरा। सिरीओ लच्छी सोभा वा। . .. होलंति . ही लज्जा मुपणयंति हीलेंति यदुक्त हपयन्ति / अग्गदत्त-परियस्स दसण-विसेसो दाढ़ा। 13. अकिसी. .जणमुखपरंपरेणगुणसंसद्दणं किंत्ति, होसकित्तण अकित्ति। अणभिझियं अभिलासो अभिज्झा। सा तत्थ समुप्पण्णा तं अभिज्झितं, तव्विवरीयं अणभिज्मितं। .:. . बोही आरहंतस्स लद्धी बोही। आय .. पुण्णविण्णाणादीण आगमे। 12 " दाढा 2. द्वितीय चूलिका चूलियं / अप्पा चूला चूलिया, सा पुण सिहा। अणुसोय अणुसद्दो पंच्छाभावो सोयमिति पाणियस्स णिण्णप्पदेसाभिसप्पणं। . पडिसोय ... इत्थ पडिसोयं रागविणयणं। होडकामेणं , णिव्वाणगमणल्हो / आयार मूलगुणा। .. परक्कमेण बलं, आयार-धारणे सामत्थं। .. गुणा.. परित्ताचरित्तमेवमूलुत्तरगुण समुदायो गुणा। णियमा पंडिमादयो अभिग्गह विसेसा। Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रा [ 2 ] .. अर्थ ....... अणिएयवासो णिकेतं घरं तत्थ ण वसितव्व मुज्जाणाति वासिणा होतव्वं, अणिएयवासो वा जतो ण णिच्चमेगत्थ वसियव्वं किंतु विहरितव्वं / समुयाणचरिया मज्जादाए उग्गमित्तं तमेगी भावेन उवणीय मिति समुदाणं। तस्स विसुद्धस्सचरणं समुदाणचरिया / अण्णायउंछ उंछं दुविहं दव्वओ भावओ य / दव्वमओ तावसाईण जं तो, पुठ्वपच्छासंथवादीहिं ण उप्पाइयमिति भावओ, अन्नायं उछं। [जि०] ..:. पइरिक्कया .. पइरिक्कं विवित्तं भण्णइ / दव्वे जं विजणं भावे रागाइविरहितं, सपक्सपरपक्खे माणवलियं वा, तब्भावो पइरिक्कयाओ। [जि० ] उवही उवधानं / / कोषाविट्ठस्स भंडणं कलहो। विहारचरिया - विहरणं विहारो, विहारस्स आचरणं विहारचरिया। इसिणं गणाधरादयो। आइन्न अच्चत्थ पडिपूरियं रायकुलसंखडिमादि / ओमाण ऊणं-अवम, माणं ओमाणं / ओसन्न . , पायोवित्तीए वट्टइ। संसट्ठ.... संगुटु ईसिहत्थमत्तादि। [जि०] कप्पेण विधी। . [ ] तन्नाय जात सदो-सजातीय भेद प्रकार वाचको। [ , ] मदनीयं मदकारी वा मज्जं, न मज्जं अमज्जं / मंसासि प्राणीसरीरावयवो। अमच्छरीया . मच्छरो-क्रोधो न मच्छरो अमच्छरो। :: विगइं .. विकृति विगति वा णेतीति विगई। 8 गामे कुलसमवायो गाम / कलह अमज्ज Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्लोक अर्थ , [ 26 ] शब्द एगकुटुंब कुलं / णगरे महामणुस्स संपरिग्गहो पंडित-समवायोणगरं। देसे विसयस्स किंचि मंडलं देसो। गिहिणो वेयावडियं गिहिं-पुत्तदारं जस्स अत्थी सो गिही, गिह-घरं जस्स अस्थि सो गिही। गिहीणो वेयावडियं नाम तव्वावारकरणं तेसों प्रीतिजणणं उपकारं असंजमा णुमादेगं / अभिवायणं वयणेण णमोक्कारादि करणं अभिवायणं / अंसकिलिठेहि गिहिवेयावडियादि रागद्दोस विवाहियं–परिणामो संकिलिट्ठो तहा भूते परिहरिऊण असंकिलिछेहिं / निउणं संजमावस्सकरणीय जोगेसु दक्खो। सहाय सह एगत्थं पवत्तते इति सहायो / इत्थि-विसया। संवच्छरं काल-परिमाणं / तं पुण णेह बारसमासिगं संबज्झति किंतु वरिसारत्त चातुमासितं / सुतस्स अत्थ सूयणेण अत्थप्पसूतितो वा सुत्तं / खलियं पमादकतं बुद्धि-खलियं। खलणं पुण विचलणं। पडिबंध पडिबंधणं निदाणं वा। पंडितो तवकरणसूरो वा। आइन्नओ गुणेहिं जवविणियादीहि आपूरितो आइन्नो सो पुण अस्सजातिरेव वा आइण्णो कच्छकादि / खलीनं वन-लोह-समुदायो हयवेगनिरूभणं खलिनं / जिइंदियस्स विसय विणियत्तियेदियो जितेंदियो। पडिबुद्धजीवी जो ण भवति पमाद सुत्तो सो पडिबुद्धो, पडिबुद्धस्स जीवितुं सोलो जस्स सो पडिबुद्धजीवी। कामेसु धोरो Page #285 -------------------------------------------------------------------------- _ Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रयुक्त ग्रन्थों की तालिका : 1. अगस्त्य चूर्णि . . अगस्त्यसिंह स्थविर ___ (फोटो प्रिन्ट प्रति : सेठिया पुस्तकालय, सुजानगढ़) . 2. अणु और आभा 3. अनुयोग द्वार आर्यरक्षित सूरि (प्र० देवचन्द लालभाई पुस्तकोद्धार फण्ड, बम्बई) 4. अभिधान चिन्तामणि (कोश) - हेमचन्द्राचार्य (प्र० जसवंतलाल गीरधरलाल शाह, सं० विजयकस्तूर सूरि 8 रीलीफ रोड, अहमदाबाद-१) 5. अष्टाङ्ग हृदय सूत्र स्थान 6. आचारान सूत्रम् (वि० सं० 2007, अनु० मुनि सौभाग्यमलजी ____ प्र० श्री जैन साहित्य समिति, नयापुरा, उज्जैन) / 7. आचाराङ्ग नियुक्ति (वि० सं० 1661, भद्रबाहु स्वामी (द्वितीय) प्र० श्री सिद्धिचक्र साहित्य प्रचारक समिति, बम्बई) 8. आचाराङ्ग वृत्ति वि० सं० 1661, .. शीलाङ्काचार्य प्र० श्री सिद्धिचक्र साहित्य प्रचारक समिति, बम्बई) 6. आधुनिक हिन्दी-काव्य में छन्द योजना 10. आवश्यक नियुक्ति (वि० सं० 1984, भद्रबाहु स्वामी (द्वितीय) प्र० आगमोदय समिति, बम्बई) 11. इतिवृत्त (वि० सं० 2016, सं० भिक्षु जगदीश काश्यप * प्र० विहार राजकीयेन पालिपकासन मण्डल) / 12. उत्तराध्ययन (भाग 1-3, वि० सं० 1672, प्र० देवचन्द लालभाई जैन पुस्तकोद्धार भांडागार संस्था) 13. उत्तराध्ययन चूर्णि (वि० सं० 1689, जिनदास महत्तर - प्र० श्री ऋषभदेव केशरीमल श्री श्वे० संस्था, इन्दौर) .... ..... 14. उत्तराध्ययन नियुक्ति (भाग१-३,वि०सं०१६७२, भद्रबाहु स्वामी (द्वितीय) ....प्र० देवचन्द लालभाई जैन पुस्तकोद्धार भांडागार संस्था) : 15. उत्तराध्ययन बृहद्वृत्ति (भा०१-३, वि०सं० 1672, बेतालवादी शान्तिसूरि प्र० देवचन्द लालभाई जैन पुस्तकोद्धार भांडागार संस्था) Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 2 ] 16. उत्तराध्ययन सूत्र (सन् 1622, सं० डॉ० सपेंन्टियर प्र. उप्पसला विश्वविद्यालय) 17. एनेल्स ऑफ भाण्डारकर ओरिएण्टल रिसर्च इन्स्टीच्युट (जिल्द : 17, सन् 1936) 18. ऋक् प्रातिशाख्य 16. ऋग्वेद (सन् 1657, प्र० स्वाध्याय-मण्डल, पारडी) सं० सातवलेकर 20. ए हिस्ट्री ऑफ इण्डियन लिटरेचर डॉ० मोरीस विन्टरनिट्ज (भा०२, सन् 1933, प्र० कलकत्ता विश्वविद्यालय) 21. ए हिस्ट्री ऑफ द केनॉनिकल लिटरेचर . ही०र० कापड़िया ___ ऑफ द जैन्स (प्र.ही०रा० संकड़ीसेरी, गोपीपुरा, सूरत) 22. ओघ नियुक्ति (वि०सं०१६७५, श्रीमती वृत्ति सहित, भद्रबाहु स्वामी (द्वितीय) प्र० आगमोदय समिति) 23. अंगपण्णत्ति चूलिका (प्र० माणिकचन्द्र दिगम्बर जैन ग्रन्थमाला) 24. कषाय पाहुड (वि०सं०२००० से 2022 भा०१-६, - भगवद् गुणधराचार्य प्र. भारतीय दिगम्बर जैन संघ, चौरासी मथुरा) 25. कोसिय जातक (खं०२, सन् 1942, अनु० भिक्षु आनन्द कौसल्यायन (प्रहिन्दी साहित्य सम्मेलन, प्रयाग) 26. गीता .. महर्षि वेद व्यास (प्र० गीता प्रेस, गोरखपुर) 27. गोम्मटसार (कर्म काण्ड) (सन् 1627, . नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती प्र० सेन्ट्रल जैन पब्लिशिंग हाउस, अनु०-सं० जे०एल० जैनी अजिताश्रम, लखनऊ) 28. गोम्मटसार (जीव काण्ड) , , 26. जय धवला (वि०सं० 2000 से 2022,6 भाग, वीरसेनाचार्य प्र० भारतीय दिगम्बर जैन संघ, मथुरा) सं० फूलचन्द सिद्धान्तशास्त्री कैलाशचन्द्र सिद्धान्तशास्त्री 30. जिनदास घूणि (वि० सं० 1684, जिनदास महत्तर प्र० शेठ देवचन्द लालभाई जैन पुस्तकोद्धार फण्ड, सूरत) 31. जैन साहित्य और इतिहास (सन् 1942, नाथूराम प्रेमी प्र. हिन्दी ग्रन्थ रत्नाकर कार्यालय, बम्बई) Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ". 32. तत्त्वार्थ भाष्य (सन् 1632, . . श्रीमदुमास्वाति (प्र० श्री परमश्रुत प्रभावक जैन मण्डल, अनु० खूबचन्द्र सिद्धान्तशास्त्री जौहरी बाजार, बम्बई-२) 33. तत्त्वार्थ सूत्र " . 34. दशवैकालिक नियुक्ति (वि० सं० 1674, भद्रबाहु स्वामी (द्वितीय) प्र० देवचंद लालभाई जैन पुस्तकोद्धार भण्डागार संस्था) 35. दसवेआलियं (भा०२ _ वाचना प्रमुख आचार्य तुलसी मूल, सार्थ, सटिप्पण वि० सं० 2020, प्र० जैन श्वेताम्बर तेरापंथी महासभा, कलकत्ता) 36. दसवेयालिय सुत्त (सन् 1632, सं० डॉ० वाल्थर शुबिंग प्र० सेठ आनन्दजी कल्याणजी, अहमदाबाद) 37. दशवकालिक सूत्र : ए स्टडी (सन् 1633, प्रो० एमव्ही० पट्टवर्द्धन ___प्र० विलिंगटन कालेज, संगली)। 38. दशवैकालिक (हारिभद्रीय वृत्ति, वि०सं०१६७४, प्र० देवचन्द लालचन्द जैन पुस्तकोद्धार भण्डागार संस्था) ... 36. दीघनिकाय (सन् 1958, प्र० विहार राजकीयेन पालिपकासन मण्डल) सं० भिक्षु जगदीश काश्यप (सन् 1936, प्र० महाबोधि सभा, सारनाथ, अनु० राहुल सांकृत्यायन बनारस) 40. देशीनाम माला (द्वि० सं०, सन् 1938, आचार्य हेमचन्द्र प्र० बम्बई संस्कृत सीरिज) 41. द्वात्रिंशद् द्वात्रिंशिका .42. धम्मपद (वि० सं० 1980, ___ सं० धर्मानन्द कोसम्बी . प्र. गुजरात पुरातत्त्व मन्दिर, अहमदाबाद) 43. धर्म निरपेक्ष प्राचीन भारत की प्रजातंत्रात्मक परम्पराएँ 44. धवला (षट्खण्डागम, भा० 1-6, __ वीर सेनाचार्य वि० सं० 1666 से 2006, सं० डॉ० हीरालाल जैन प्र० जैन साहित्योद्धार कार्यालय, अमरावती) 45. निशीथ भाष्य (प्रथम संस्करण, सं० उपाध्याय श्री अमर मुनि प्र० सन्मति ज्ञानपीठ, लोहामंडी, आगरा) मुनिश्री कन्हैयालाल "कमल" 46. निशीथ भाष्य चूर्णि(प्र०सं०) , Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 4: ] 47. नंदी : ... - (सन् 1958, प्र० सन्मति ज्ञानपीठ, आगरा) - सं० सुबोध मुनि (वि०सं० 1980, प्र० आगमोदय समिति, बम्बई) वृ० आचार्य मलयगिरि 48. नंदी वृत्ति (वि० सं० 1984, हरिभद्र सूरि प्र० ऋषभदेव केशरीमल जैन श्री श्वे० संस्था, रतलाम)। 46. पट्टावली समुच्चयः (तपागच्छ पट्टावली, सं० मुनि दर्शनविजय प्र. चारित्र-स्मारक ग्रन्थमाला, अहमदाबाद) 50. पाइअ-सद्द-महण्णव हरगोविन्द दास त्रिकमचंद सेठ _ (द्वि० सं०, वि० सं० 2020, प्र० प्राकृत ग्रन्थ परिषद्, वाराणसी-५) 51. पातञ्जल ऋक् प्रातिशाख्य 52. पातञ्जल भाष्य (सन् 1610, महर्षि पतञ्जलि प्र० पाणिनि आफिस, बहादुरगंज) 53. पातञ्जल योग दर्शन (वि० सं. 2017, महर्षि पतञ्जलि प्र० गीता प्रेस, गोरखपुर) 54. पार्श्वनाथ का चातुर्याम धर्म 55. पिण्ड नियुक्ति (वि० सं० 2018, भद्रबाहु स्वामी (द्वितीय) प्र. शासन कण्टकोद्धारक ज्ञानमन्दिर, भावनगर, सौराष्ट्र) 56. पंचकल्प 57. पंचकल्प चूर्णि 58. पंचकल्प भाष्य 56. पंच संग्रह 'चन्द्र महर्षि ... (प्र० आगमोदय समिति श्री जैन आत्मानन्द सभा, भावनगर) 60. प्रमाणनय तत्त्वालोक (वि० सं० 1686, वादिदेव सूरि प्र० विजयधर्म सूरि ग्रन्थमाला, उज्जैन) सं० हिमांशु विजयन 61. प्रवचन सारोद्धार (वि० सं० 1978, नेमिचन्द्र सूरि . (प्र० देवचन्द लालभाई जैन पुस्तकोद्धार संस्था) 62. प्रशमरति प्रकरण (वि० सं० 2007, श्रीमदुमास्वाति ... प्र० श्री परमश्रुत प्रभावक मण्डल, बम्बई) सं० राजकुमार साहित्याचार्य 6,3. प्रश्न उपनिषद् (वि० सं० 2016, भा० शंकराचार्य प्र० गीता प्रेस, गोरखपुर) Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 64. प्रश्नोत्तर तत्त्वबोध .. श्रीमज्जयाचार्य (प्र० हीरालाल धनसुखदास आँचलिया) 65. प्रश्न व्याकरण (वृत्तिसह) (वि० सं० 1665, __ . मुनि विमल जैन ग्रन्थमाला, अहमदावाद : धनपतसिंहजी आगम संग्रह, १०मा भाग) 66. प्राकृत भाषाओं का व्याकरण (वि०सं०२०१५, रिचर्ड पिशल प्र० बिहार राष्ट्रभाषा परिषद्, पटना) अनु० डॉ० हेमचन्द्र जोशी 67. प्राकृत साहित्य का इतिहास (ईस०१६६१, डॉ० जगदीशचन्द्र जैन प्र० चौखम्बा विद्याभवन, वाराणसी) 68. बुद्ध वचन (चतुर्थ संस्करण) / ___ अनु० आनन्द कौसल्यायन (महाबोधि सभा, सारनाथ, बनारस) .... 66. बृहद्कल्प सूत्रम् (भाष्य नियुक्ति सहित) भद्रबाहु स्वामी (द्वितीय) (सन् 1633-38, प्र० श्री जैन आत्मानन्द सभा, सं० मुनि पुण्यविजयजी भावनगर, सौराष्ट्र) 70. बौद्ध धर्म के 2500 वर्ष ('आजकल' वार्षिक अंक सं० पी०वी० बापट दिसम्बर, 1956, पब्लिकेशन्स डिवीजन, दिल्ली-८) 71. भगवती (वि० सं० 1988, अनु० बेचरदास दोशी प्रजेन साहित्य प्रकाशन ट्रस्ट, अहमदाबाद) अ० भ० ह० दोशी . .72. भगवती जोड़ श्रीमद्जयाचार्य (अप्रकाशित) 73. भगवती वृत्ति अभयदेव सूरि (प्र० आगमोदय समिति) ...' 74. भिक्षु शब्दानुशासन . भावन . (अप्रकाशित) महर्षि वेद व्यास 75. भागवत (वि० सं० 2018, प्र० गीता प्रेस, गोरखपुर) 76. मज्झिम निकाय / (ई०स०१६३३, प्र० महाबोधि सभा, सारनाथ).. _ (वि० सं० 2015, बिहार राजकीयेन पालिपकासन मण्डल) अनु० राहुल सांकृत्यायन सं० भिक्षु जगदीश काश्यप Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 77. मनुस्मृति (सन् 1946, सं० नारायणराम आचार्य प्र० निर्णय सागर प्रेस, बम्बई) 78. महाभारत (प्रथम संस्करण, महर्षि वेदव्यास प्र० गीता प्रेस, गोरखपुर) 79. मूलाराधना (टीका-विजयोदया) अपराजित सूरि 80. योग बिन्दु (सन् 1940, हरिभद्र सूरि जेन ग्रन्थ प्रकाशक संस्था, अहमदाबाद) 81. योग शास्त्रम् (स्वोपज्ञ विवरण सहित) हेमचन्द्राचार्य (सन् 1926, जैन धर्म प्रसारक सभा, भावनगर) 82. रिलीजियन द जैन, ल अनु० डॉ० ग्यारीनो 83. लोक प्रकाश विनय विजय गणि (सन् 1632, देवचन्द लालभाई जैन पुस्तकोद्धार संस्था) 84. विनय पिटक (सन् 1935, ___ अनु० राहुल सांकृत्यायन प्र० महाबोधि सभा, सारनाथ, बनारस) 85. विशेषावश्यक भाष्य जिनभद्रगणि क्षम.श्रमण (वी०सं० 2486, दिव्य दर्शन कार्यालय, अहमदाबाद) 86. विसवन्त जातक (जातक ख० 1) अनु० भदन्त आनन्द कौसल्यायन (प्र० हिन्दी साहित्य सम्मेलन प्रयाग) 87. वेदान्त परिभाषा धर्मराजाध्वरीन्द्र (प्रथम संस्करण) सं० श्री पञ्चानन भट्टाचार्य शास्त्री 88. वेदान्त सार 86. व्यवहार भाष्य (वि० सं० 1964, संशोधक मुनि माणक प्र. वकील केशवलाल प्रेमचन्द, भावनगर) 10. व्यवहार सूत्र (वि० सं० 1982, भद्रबाहु स्वामी (द्वितीय) प्र० जैन श्वेताम्बर संघ, भावनगर) 61. शालिग्राम निघण्टु भूषण 62. शौनक ऋक् प्रातिशाख्य 63. समाधि शतक 64. सर्वार्थसिद्धि (वि० सं० 2012, आचार्य पूज्यपाद प्र० भारतीय ज्ञानपीठ, काशी) सं० फूलचन्द्र सिद्धान्तशास्त्री 15. सुत्त निपात (वि० सं० 2016, सं० जगदीश काश्यप प्र० विहार राजकीयेन पालिपकासन मण्डल) Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . [ 7 ] 66. सुश्रुत सूत्र स्थान 67. सूत्र कृतांग (वि० सं० 1973, प्र० आगमोदय समिति) 68. सूत्रकृतांग वृत्ति (वि० सं० 1973, अभयदेव सूरि प्र० आगमोदय समिति) | 66. संस्कृत इंग्लिश डिक्सनरी (सन् 1963, सं० सर मोनियर विलियम्स प्र० मोतीलाल बनारसी दास, वाराणसी) 100. संयुक्त निकाय (प्र० सं०, सं० भिक्षु जगदीश काश्यप __ (प्र० विहार राजकीयेन पालि पकासन मण्डल) 101. स्थानांग (वि० सं० 1964, . श्री अभयदेव सूरि प्र० शेठ माणेकलाल चुनीलाल, अहमदाबाद) 102. स्थानांग वृत्ति (वि० सं० 1964, प्र० शेठ माणेकलाल चुनीलाल, अहमदाबाद) 103. हारिभद्रीय अष्टक (वि० सं० 1956, हरिभद्र सूरि प्र० भीमसिंह माणेक, निर्णय सागर छापाखाना, बम्बई) : 104. हिन्दी साहित्य का बृहद् इतिहास 105. हिन्दू राज्यतन्त्र 106. हेमशब्दानुशासन (वि० सं० 1962, आचार्य हेमचन्द्र सूरि प्र० सेठ मनसुखभाई पोरवाड, डायमन्ड जुबली प्रिन्टिंग प्रेस, सालापोस दरवाजा, अहमदाबाद) 107. ज्ञाता धर्मकथाङ्ग (वि० सं० 2006, प्र० सिद्धचक्र साहित्य प्रचारक समिति) Page #293 -------------------------------------------------------------------------- _ Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ AREN HUBE CH GOLD SO MARIA NE BE ELLES ROUTE SELLA 1 SISSE LESTINATE LI ME MEBORDE HERE SEGRE FERRER ELE S HELLE HEREN ELLE HD LEGO DATES LE HELLO HERE HELLO GHETO ISICI DEL