________________ - 512 दशवकालिक : एक समीक्षात्मक अध्ययन 5 .. कच्चे चावलों का आटा भी खाया जाता था। सुश्रुत में इसे भग्न संधानकर, कृमि और प्रमेह को नष्ट करने वाला बताया गया है।' (8) तिलपिट्ठ (5 / 2 / 22 ) तेल का पिछ / (9) तैल (6 / 17 ) / -... (10) घृत (6 / 17) / (11) पिहु-खज्ज ( 7 / 34 ) पृथु-खाद्य / चूर्ण और मन्थु कोल-चुन्न ( 5 / 1 / 71 ) बर का चूर्ण / फल-मन्थु (5 / 2 / 24 ) फलों का चूर्ण / बीज-मन्यु ( 5 / 2 / 24 ) जौ, उड़द, मूंग आदि बीजों का चूर्ण / पुष्प - उत्पल ( 5 / 2 / 14) नील-कमल। 'पद्म (5 / 2 / 14 )- रक्त-कमल। कुमुद ( 5 / 2 / 14 ) श्वेत-कमल / इसका नाम गर्दभ है / ___ मगदंतिका ( 5 / 5 / 14 ) मोगरा, मेंहदी। .: सुश्रुत, अष्टांगहृदय आदि आयुर्वेदिक - ग्रन्थों के शाक-वर्ग में इन शाकों का उल्लेख मिलता हैं। फल-वर्ग में यहाँ आए हुए फलों का भी उल्लेख है। पिण्याक, तिलपिष्ट आदि भी खाए जाते थे। सुश्रुत में बताया है कि पिण्याक ( सरसों, अलसी आदि की खली ) तिल कल्क या तिलों की खल, स्यूणिका ( तिल कल्क से बनेबड़े ) तथा सूखी शाकें सर्व दोषों को प्रकुपित करते हैं / १-सुश्रुत, सूत्र स्थान 46 / 217 : सन्धानकृपिष्टमामं, ताण्डुलं, कृमिमेहनुत् / २-अगस्त्य चूर्णि: कुमुदं गद्दभगं। ३-हारिभद्रीय टीका, ( पत्र 185 ) में इसका अर्थ मोगरा किया है। अष्टांग हृदय ( चिकित्सित स्थान 2 / 27 ) में मदयन्तिका शब्द आया है और उसका अर्थ मेंहदी किया है। रक्त-पित्त नाशक क्वाथ तैयार करने में इसका उपयोग होता था। संभव है मगदन्तिका और मदयन्तिका एक शब्द हों। ४-सुश्रुत, सूत्र स्थान, 46 / 217 : पिण्याक-तिलकल्क-स्थूणिका शुष्कशाकानि सर्वदोषप्रकोपणांनि।