________________ 5. व्याख्या-ग्रन्थों के सन्दर्भ में : निक्षेप-पद्धति 183 (2) क्षेत्र-उपाय का लोकोत्तर रूप : विद्या-बल से दुर्गम मार्ग को पार करना / ' वृत्तिकार के अनुसार वह इस प्रकार है—आहार के लिए पर्यटन कर तदुपयुक्त क्षेत्र की एषणा करना / यहाँ भी वृत्तिकार ने चूर्णिकार के अभिप्राय को पराभिमत के रूप में उद्धृत किया है। (3) काल-उपाय का लोकोत्तर रूप : सूत्र के परिवर्तन से काल को जानना / / (4) भाव-उपाय का लोकोत्तर रूप : आचार्य शैक्ष की उपस्थापना देने से पूर्व उसके मानसिक भावों को अच्छी तरह से जान ले और यह निर्णय करे कि-"यह प्रव्राजनीय है या नहीं ? प्रव्रजित करने पर भी यह मुण्डित करने योग्य है या नहीं ?"5 . 5. आचार: / आचार का अर्थ है-भिन्न-भिन्न रूपों में परिणमन / जो द्रव्य विवक्षित रूपों में परिणत हो सकता है, उसे आचारवान् और जो परिणत नहीं हो सकता हो, उसे अनाचारवान् कहा जाता है / 6 . १-जिनदास चूर्णि, पृ० 44 : विज्जाइसएहिं अद्धाणाइसु नित्थरियव्वं / २-हारिभद्रीय टीका, पत्र 40 : - लोकोत्तरस्तु विधिना प्रातरशनाद्यर्थमटना दिना क्षेत्रभावनम् / ३-वही, पत्र 40 : . अन्ये तु विद्यादिभिश्च दुस्तराध्वतरणलक्षणं क्षेत्रोपायमिति / .४-वही, पत्र 40 लोकोत्तरस्तु सूत्रपरावर्तनादिभिस्तथा भवति / ५-वही, पत्र 42 : एवमिहवि सेहाणमुवढायंतयाणं उवाएण गीअत्थेण दिपरिणामादिणा भावो जाणिअव्वोत्ति, किं एए पव्वावणिज्जा नवत्ति, पव्वा विएसुवि तेसु मुंडावणाइसु एमेव विभासा। ६-वही, पत्र 101 : आचरणं आचारः द्रव्यस्याचारो द्रव्याचारः, द्रव्यस्य यदाचरणं तेन तेन प्रकारेण परिणमनमित्यर्थः।