________________ 108 दशवैकालिक : एक समीक्षात्मक अध्ययन विनय का दृष्टिकोण : विनय तप है और तप धर्म है, इसलिए धार्मिक को विनीत होना चाहिए-विनय करना चाहिए। जिस संघ में आचार्य और दीक्षा-पर्याय में बड़े श्रमणों के साथ विनम्र व्यवहार नहीं किया जाता, वह प्रवचन की भावना नहीं कर सकता। विनय कषाय-त्याग से उत्पन्न होता है। आचार्य से नीचे आसन पर बैठना, उनके पीछे चलना, चरण-स्पर्श करना और हाथ जोड़कर वन्दन करना (दश०६।२।१७)--यह सारा व्यावहारिक विनय है किन्तु जिसका कषाय प्रबल है, वह ऐसा नहीं कर सकता। विनय का दूसरा रूप अनुशासन है। भगवान् महावीर ने अनुशासन को साध्य-सिद्धि का बहत बडा साधन माना है। यही कारण था कि उनके जैसा सुव्यवस्थित संघ उनके किसी भी सम-सामयिक आचार्य का नहीं बना / उन्होंने कहा- “जो मुनि, बच्चे, बूढ़े, रानिक अथवा सम-वयस्क के हितानुशासन को सम्यक् भाव से स्वीकार नहीं करता और भूल को फिर न दोहराने का संकल्प नहीं करता, वह अपने साध्य की आराधना नहीं कर सकता। आचार्य का अनुशासन कौन-सी बड़ी बात है, हित का अनुशासन एक घटदासी दे, वह भी मानना चाहिए। (सूत्रकृतांग 1 / 1 / 4 / 7-8). ... विनय का तीसरा रूप है अनाशातना—किसी भी रूप में अवज्ञा न करना। इसमें छोटे-बड़े का कोई प्रश्न नहीं है। जो किसी एक मुनि की आशातना करता है, वह सबकी आशातना करता है। वह उस व्यक्ति की आशातना नहीं किन्तु ज्ञान आदि गुणों (जो उसमें, अपने में और सब में हैं ) की आशातना करता है / 2 विनय का चौथा रूप है भक्ति / बड़ों के आने पर खड़ा होना, आसन देना, सामने जाना, पहुँचाने जाना आदि-आदि सेवा-कर्म भक्ति कहलाते हैं। आन्तरिक भावना के सम्बन्ध को बहुमान कहा जाता है। यह विनय का पाँचवाँ प्रकार है। वर्ण-संज्वलन का अर्थ है सद्भूत गुणों की प्रशंसा करना। यह विनय का छठा प्रकार है / गुण-सम्वर्धन की दृष्टि से यह बहुत ही महत्त्वपूर्ण है / विनय के ये सभी प्रकार प्रस्तुत आगम में यत्र-तत्र बिखरे पड़े हैं। नवे अध्ययन की रचना इन्हीं के आधार पर १-प्रश्नव्याकरण, संवरद्वार 3 : विणओ वि तवो, तवो वि धम्मो तम्हा विणओ पउंजियन्वो। २-द्वात्रिंशद् द्वात्रिंशिका, 269 : एकस्याशातनाऽप्यत्र, सर्वेषामेव तत्त्वतः / अन्योन्यमनुविद्धा हि, तेषु ज्ञानादयो गुणाः॥