________________ 2. अन्तरङ्ग परिचय : साधना के अंग 107 निषेध-हेतुओं का स्थूल विभाग : क्रीतकृत और सन्निधि का निषेध अपरिग्रह की दृष्टि से है। संबाधन, दंतप्रधावन, संप्रोञ्छन, देह-प्रलोकन, छत्र, चैकित्स्य, उपानत्, उद्वर्तन, वमन, वस्तिकर्म, विरेचन, अंजन, दंतवण, अभ्यंग और विभूषा--इनका निषेध देह-निर्ममत्व और ब्रह्मचर्य की दृष्टि से है। ब्रह्मचर्य की सुरक्षा के लिए भगवान ने जो प्रवचन किया, उससे इस तथ्य की पुष्टि होती है। जो भिक्षु ब्रह्मचर्य का आचरण करता है, उसके लिए अभ्यंग, अंग-प्रक्षालन, संबाधन, उपलेप, धूपन, शरीर-मण्डन, स्नान, दंत-धावन आदि निषेध बतलाए हैं। 1 जैन-परम्परा में स्नान का निषेध दशवकालिक (6 / 60-62) के अनुसार अहिंसा की दृष्टि से है और प्रश्नव्याकरण के उक्त संन्दर्भ के अनुसार ब्रह्मचर्य की दृष्टि से है / अष्टापद ( द्यत ) का निषेध क्रीड़ा-रहित मनोभाव से सम्बन्धित है आजीव-वृत्तिता का निषेध एषणा-शुद्धि की दृष्टि से है / आतुर-स्मरण का निषेध इंद्रिय-विजय, ब्रह्मचर्य आदि कई दृष्टियों से है / शेष सब निषेवों की पृष्ठभूमि अहिंसा है। ___ अगस्त्यसिंह स्थविर ने औद्देशिक आदि अनाचरणीयता के कारणों का उल्लेख किया है। उनमें जीव-वध, अधिकरण, विभूषा, उड्डाह-अपवाद, एषणा-घात, ब्रह्मचर्यबाधा, गर्व, सूत्रार्थ-बाधा, अनिस्संगता, पापानुमोदन आदि मुख्य हैं / १-प्रश्नव्याकरण, चतुर्थ संवरद्वार, सूत्र 27 : जो सुद्धं चरति बंभचेरं, इमं च रतिरागदोसमोहपवड्ढणकरं किंमज्झपमायदोसपासत्थसीलकरणं अब्भंगणाणि य तेल्लमज्जणाणि य अभिक्खणं कक्खसीस-कर - चरण-वदण-धोवण-संबाहण - गायकम्म-परिमद्दणाणुलेवण-चुन्नवासधूवण - सरीरपरिमंडण - बाउसिकहसिय-भणिय-नट्टगीयवाइयनडनट्टकजल्लमल्ल पेच्छणवलंबक जाणि य सिंगारागाराणि य अन्नाणि य एवमादियाणि तवसंजमबंभचेरघातोपघातियाइं अणुचरमाणेणं बंभचेरं वज्जयव्वाई सन्वकालं, भावेयव्वो भवइ य अंतरप्पा इमेहिं तवनियमसीलजोगेहिं निच्चकालं, किं ते ? अण्हाणगअदंतधावणसेयमलजल्लधारणंमूणवयकेसलोए य खम-दम-अचेलगखुप्पिवास-लाघव-सीतोसिण-कट्ठसेज्जा-भूमिनिसेजा परघरपवेस-लद्धावलद्धमाणावमाण निंदण-दंसमसग-फास-नियम-तव-गुण-विणयमादिएहिं जहा से थिरतरकं होइ दंभचेरं। इमं च अबंभचेरविरमणपरिरक्खणट्टयाए पावयणं भगवया सुकहियं / २-वही, चतुर्थ संवरद्वार। ३-देखो-दशवकालिक, (भा०२), पृष्ठ 43-46 /