________________ 106 दशवकालिक : एक समीक्षात्मक अध्ययन नहीं थे। और वे संशोधन-विरेचन, वमन, गात्राभ्यंग, स्नान, संबाधन, मर्दन, दन्तप्रक्षालन (दतौन के द्वारा दन्त-प्रक्षालन) नहीं करते थे। सूत्रकृतांग में दन्त-प्रक्षालन, अंजन, वमन, धूप और धूम्र-पान का निषेध मिलता है। वृत्तिकार ने इन्हें उत्तर गुण कहा है। भगवान महावीर के आचार-धर्म का आधार अहिंसा है और अनाचार का आधार हिंसा है। भगवान् ने हिंसा का सामान्य निषेध किया और हिंसा के उन प्रसंगों का भी निषेध किया, जिनका आसेवन उनके समकालीन अन्य श्रमण और परिव्राजक करते थे। महात्मा बुद्ध अपने लिए बनाया हुआ भोजन लेते थे, निमन्त्रण भी स्वीकार करते थे। वैदिक-संन्यासियों व सांख्य-परिव्राजकों में कन्द-मूल-भोजन का बहुत प्रचलन था। भगवान महावीर ने इन सबका निषेध किया। निषेध का हेतु है—हिंसा का परिहार / सांख्य व वैदिक संन्यासियों में शौच का प्राधान्य था। भगवान् ने विनय-आचार को प्रधान माना, इसलिए वे शौच को वह स्थान न दे सके, जो उन्होंने विनय को दिया / स्नान के निषेध की पृष्ठभूमि में अहिंसा का विचार है।४ अपरिग्रह की दृष्टि से उन्होंने शरीर-निरपेक्षता पर बल दिया। शरीर परिग्रह है।" उसकी साज-सज्जा आसक्ति उत्पन्न करती है, इसलिए उन्होंने उद्वर्तन, अभ्यंग आदि का निरोध किया। कुछ निषेधों में ब्रह्मचर्य को सुरक्षा का दृष्टिकोण भी रहा है। शंख-लिखित ने प्रोषितभर्तृका कुल-स्त्री के लिए कुछ निषेध बतलाए हैं। वे इन्हीं के समान हैं। उसके मतानुसार प्रेखा (दोला) तांडव, विहार, चित्र-दर्शन, अंगराग, उद्यानयान, विवृतशयन, उत्कृष्ट पान तथा भोजन, कंदुक-क्रीडा, धूम्र, गंध, माल्य, अलंकार, दंतधावन, अंजन, आदर्शन, प्रसाधन आदि अस्वतंत्र प्रोषित-भर्तृका कुल-स्त्री को नहीं करना चाहिए / १-आचारांग, 119 / 1 / 19 : णो सेवइ य परवत्यं, परपाए वि से न मुंजित्था। २-वही, 119 / 4 / 2 : संसोहणं च वमणं च गायब्भंगणं च सिणाणं च / संबाहणं च न मे कप्पे दंतपक्खालणं च परिम्नाय // ३-सूत्रकृतांग, 2 / 1 / 15, वृत्ति पत्र 299 : णो दंतपक्खालणेणं दंते पक्खालेज्जा, णो अंजणं, णो वमणं, णो धूवणे जो तं परिआविएज्जा—इह पूर्वोक्तमहाव्रतपालनार्थमनेनोत्तरगुणाः प्रतिपाद्यन्ते / ४-देखो-दशवकालिक, 660-62 / ५-स्थानांग, 3 / 11138 : 'तिविहे परिगहे प० तं०-कम्मपरिमाहे सरीरपरिग्गहे बाहिरभंडमत्तपरिगहे। ६-हिन्दी साहित्य का बृहत् इतिहास, पृष्ठ 151 /