________________ 156 दशवकालिक : एक समीक्षात्मक अध्ययन अगस्त्यसिंह स्थविर ने अपनी चूणि में तत्त्वार्थसूत्र, आवश्यक नियुक्ति, ओघनियुक्ति, व्यवहार भाष्य, कल्प भाष्य आदि ग्रन्थों का उल्लेख किया है। इनमें अन्तिम रचनाएँ भाष्य हैं। उनके रचना-काल के आधार पर अगस्त्यसिंह का समय पुनः अन्वेषणीय है / अगस्त्यसिंह ने पुस्तक रखने की औत्सर्गिक और आपवादिक-दोनों विधियों की चर्चा की है। इस चर्चा का आरम्भ देवद्धिगणी ने आगम पुस्तकारूढ़ किए तब या उसके आस-पास हुआ होगा। अगस्त्यसिंह यदि देवर्द्धिगणी के उत्तरवर्ती और जिनदास के पूर्ववर्ती हों तो इनका समय विक्रम की ५वीं-६ठी शताब्दी हो जाता है। .. इन चूर्णियों के अतिरिक्त कोई प्राकृत व्याख्या और रही है पर वह अब उपलब्ध नहीं है। उसके अवशेष हरिभद्र सूरि की टीका में मिलते हैं। प्राकृत युग समाप्त हुआ और संस्कृत युग आया। आगम की व्याख्याएँ संस्कृत १-दशवैकालिक, 111 अगस्त्य चूर्णि : उवगरणसंजमो-पोत्थएसु घेप्पतेसु असंजमो महाघणमोल्लेसु वा दूसेसु, वजणं तु संजमो, कालं पडुच्च चरणकरणटुं अव्वोछित्तिनिमित्तं गेव्हंतस्स संजमो भवति / २-हारिभद्रीय टीका, पत्र 165 : तथा च वृद्धव्याख्या-वेसा दिगयभावस्स मेहुणं पीडिज्जइ, अणुवओगेणं एसणाकरणे हिंसा, पडुप्पायणे अन्नपुच्छणअवलवणाऽसच्चवयणं, अणणुण्णायवेसाइदंसणे अदत्तादाणं, ममत्तकरणे परिग्गहो, एवं सव्ववयपीडा, दव्वसामन्ने पुण संसयो उण्णिक्खमणेण त्ति। जिनदास चूर्णि (पृष्ठ 171) में इस आशय की जो पंक्तियाँ हैं, वे इन पंक्तियों से भिन्न हैं। जैसे- “जइ उण्णिक्खमइ तो सव्ववया पीडिया, भवंति, अहवि ण उणिक्खमइ तोवि तग्गयमाणसस्स भावाओ मेहुणं पीडियं भवइ, तग्गयमाणसो य एसणं न रक्खइ, तत्थ पाणाइवायपीडा भवति, जोएमाणो पुच्छिज्जइ--किं जोएसि ?, ताहे अवलवइ, ताहे मुसावायपीडा भवति, ताओ य तित्थगरेहिं गाणुण्णायाउक्तिकाउं अदिण्णादाणपीडा भवइ, तासु य ममत्तं करेंतस्स परिग्गहपीडा भवति / " अगस्त्य चर्णि की पंक्तियाँ इस प्रकार हैं-तस्स पीडा वयाण तासु गयचित्तो रियं न सोहेतित्ति पाणातिवातो पुच्छितो किं जोएसित्ति ? अवलवति मुसावातो, अदत्तादाणमणणुण्णातो तित्थकरेहिं मिहुणे वि गयभावो मुच्छाए परिग्गहो वि।