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________________ 100 दशवकालिक : एक समीक्षात्मक अध्ययन शराब, न चावल की शराब (=तुषोदक) ग्रहण करता है। वह एक ही घर से जो भिक्षा मिलती है लेकर लौट जाता, एक ही कौर खाने वाला होता है, दो घर से जो भिक्षा०, दो ही कौर खाने वाला, सात घर 0 सात कौर 0 / वह एक ही कलछी खाकर रहता है, दो०, सात० / वह एक-एक दिन बीच दे करके भोजन करता है, दो दो दिन०, सात सात दिन० / इस तरह वह आधे-आधे महीने पर भोजन करते हुए विहार करता है। जैन-परम्परा में ये नियम अहिंसा व अपरिग्रह की सूक्ष्म दृष्टि से ही स्वीकृत हैं। * तीसरे अध्ययन में कुछ शारीरिक परिकर्मो को अनाचार कहा है। उसके पीछ भी अहिंसा, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह और देहासक्ति के दृष्टिकोण हैं। ये उस समय की सभी श्रमण और ब्राह्मण परम्पराओं में न्यूनाधिक मात्रा में स्वीकृत रहे हैं। स्नान : महात्मा बुद्ध ने आध-मास से पहले नहाने वाले भिक्षु को प्रायश्चित्त का भागी कहा है। “जो कोई भिक्षु सिवाय विशेष अवस्था के आध-मास से पहले नहाये तो पाचित्तिय है। विशेष अवस्था यह है— ग्रीष्म के पीछे के डेढ़ मास और वर्षा का प्रथम मास, यह ढाई मास और गर्मी का समय, जलन होने का समय, रोग का समय, काम ( =लीपने-पोतने आदि का समय ), रास्ता चलने के समय तथा आँधी-पानी का समय / "2 भगवान् महावीर ने संघ की आचार-व्यवस्था को नियंत्रित किया, महात्मा बुद्ध ने वैसा नहीं किया। फलस्वरूप संघ के भिक्षु मनचाहा करते और लोगों में उनका अपवाद होता तब बुद्ध को भाँति-भाँति के नियम बनाने पड़ते। स्नान के सम्बन्ध में ऐसे कई नियम हैं। ___ उस समय बुद्ध भगवान् राजगृह में विहार करते थे। उस समय षड्वर्गीय भिक्षु नहाते हुए वृक्ष से शरीर को रगड़ते थे, जंघा को, बाहु को, छाती को, पेट को भी। लोग खिन्न होते, धिक्कारते थे—'कैसे यह शाक्य-पुत्रीय श्रमण नहाते हुए वृक्ष से deg , जैसे कि मल्ल (=पहलवान) और मालिश करने वाले' / ...... / भगवान् ने भिक्षुओं को संबोधित किया—“भिक्षुओ ! नहाते हुए भिक्षु को वृक्ष से शरीर न रगड़ना चाहिए, जो रगड़े उसको 'दुष्कृत' की आपत्ति है।" उस समय षड्वर्गीय भिक्षु नहाते समय खम्भे से शरीर को भी रगड़ते थे० / बुद्ध ने कहा- "भिक्षुओ ! नहाते समय भिक्षु को खम्भे से शरीर को न रगड़ना चाहिए, जो रगड़े उसको दुक्कट (दुष्कृत) की आपत्ति है।"४ १-दीघ-निकाय, पृष्ठ 62-63 / २-विनय-पिटक, पृष्ठ 27 / ३,४-वही, पृष्ट 418 /
SR No.004301
Book TitleDashvaikalik Ek Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Shwetambar Terapanthi Mahasabha
Publication Year1967
Total Pages294
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size16 MB
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