________________ 102 दशवकालिक : एक समीक्षात्मक अध्ययन - इस प्रकार हम देखते हैं कि श्रमण या संन्यासी के लिए कष्ट-सहन और शरीरपरिकर्म के त्याग की पद्धति लगभग सभी परम्पराओं में रही है। ब्राह्मण-परम्परा ने शारीरिक शुद्धि को प्रमुख स्थान दिया है। जैन-परम्परा ने उसे प्रमुखता नहीं दी / अहिंसा और देह-निर्ममत्व की दृष्टि से शरीर-शुद्धि को प्रमुखता न देना कोई बुरी बात नहीं है / साधना की भूमिका का विकास शरीर-शुद्धि से नहीं किन्तु चारित्रिक निर्मलता से होता है। अणु आभा वैज्ञानिक डॉ० जे०सी० ट्रस्ट ने इस विषय का बड़े वैज्ञानिक ढंग से स्पर्श किया है। वे लिखती हैं—“कई बार मुझे यह देखकर आश्चर्य होता था कि अनेक अशिक्षित लोगों के अणुओं में प्रकाश-रसायन विद्यमान थे। साधारणतः लोग उन्हीं को सच्चरित्र तथा धर्मात्मा मानते हैं, जो ऊँचे घरानों में जन्म लेते हैं, गरीबों में धन आदि बाँटते हैं तथा प्रातः-सायं उपासनादि नित्य-कर्म करते हैं परन्तु मुझे बहुत से ऐसे लोग मिले हैं जो देखने पर बड़े धर्मात्मा और स्वच्छ वस्त्रधारी थे परन्तु उनके अन्दर काले अणुओं का बाहुल्य था। इसके विपरीत कितने ही ऐसे अपढ़, गँवार तथा बाह्य रूप से भद्दे प्रतीत होने वाले लोग भी देखने को मिले, जिन्हें किसी प्रकार कुलीन नहीं कहा जा सकता। परन्तु उस समय मेरे आश्चर्य की कोई सीमा नहीं रही जब मैंने उनके प्रकाशाणुओं की थरथरियों को उनकी आभा में स्पष्ट रूप से देखा। आश्चर्य का कारण यह था कि प्रकाशाणुओं का विकास कई वर्ष के सतत परिश्रम और इन्द्रियों के अणुओं के नियंत्रण के पश्चात् हो पाता है, परन्तु इन लोगों ने अनजाने ही प्रकाशाणुओं को प्राप्त कर लिया था। उन्होंने कभी स्वप्न में भी प्रकाशाणुओं के विकास के विषयों में न सोचा होगा। उपर्युक्त घटनाओं के वर्णन से मैं आपको यह बताना चाहती हूँ कि यह आवश्यक नहीं कि शिक्षित तथा कुलीन प्रतीत होने वाले लोग धर्मात्मा हों और अशिक्षित तथा निर्धन और बाह्य रूप से अस्वच्छ रहने वाले पापी। वास्तव में प्रकाश का सम्बन्ध शरीर से नहीं अपितु आत्मा से है; अतः प्रकाश की प्राप्ति के लिए शरीर की शुद्धि को इतनी आवश्यकता नहीं, जितनी आत्मा की निर्मलता की। बाह्य शरीर तो आत्मा के निवास के लिए भवन के समान है।" 1 आयुर्वेद में स्वस्थ वृत्त के जो आवश्यक कृत्य बताए हैं, उन्हें आगमकार श्रमण के लिए अनाचार कहते हैं। यहाँ सहज प्रश्न उठता है कि स्वास्थ्य श्रमण के लिए भी अपेक्षित है फिर आगमकार ने इन्हें अनाचार क्यों माना ? यह ठीक है कि स्वास्थ्य से श्रमण मुक्त नहीं है किन्तु उसका मुख्य लक्ष्य है-आत्म-रक्षा। "अप्पाहु खलु सययं रक्खियव्वो, सव्विदिएहिं सुसमाहिएहिं"-श्रमण सब इन्द्रियों को विषयों से निवृत्त कर १-अणु और आभा, पृष्ठ 160-161 /