SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 132
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ . 2. अन्तरङ्ग परिचय : साधना के अग 103 आत्मा की रक्षा करे। आगमकार के सामने आत्म-रक्षा की दृष्टि मुख्य थी। जबकि आयुर्वेद के सम्मुख देह-रक्षा का प्रश्न प्रमुख था, इसीलिए वहाँ कहा गया है कि नगरी नगरस्येव, रथस्येव रथी सदा। स्वशरीरस्य मेधावी. कृत्येष्ववहितो भवेत् // -नगर रक्षक नगर के तथा गाड़ीवान् गाड़ी के कार्यो में (उसकी रक्षा के लिए) सदा सावधान रहता है, वैसे ही बुद्धिमान् मनुष्यों को चाहिए कि वे सदा अपने शरीर के कृत्यों में सावधान रहें। चरक के अनुसार स्वास्थ्य-रक्षा के लिए किए जाने वाले स्वस्थवृत्त के आवश्यक कृत्य ये है : सौवीरांजन-काला सुरमा आंजना / नस्य कर्मनाक में तेल डालना / दन्त पवन–दतौन करना। जिह्वानिर्लेखन-शलाका से जीभ के मैल को खुरचकर निकालना। अभ्यंग-तेल का मर्दन करना / शरीर-परिमार्जन--कपड़े या स्पञ्ज आदि द्वारा मैल उतारने के लिए रगड़ना अथवा - उबटन लगाना, स्नान करना। गन्धमाल्य-निषेवण—चन्दन, केसर आदि सुगन्धित द्रव्यों का अनुलेपन करना तथा . सुगन्धित पुष्पों की मालाओं को धारण करना / रत्नाभरण धारण-रत्न-जटित आभूषण धारण करना / शौचाधान—पैर तथा मलमार्गों (नाक, कान, गुदा, उपस्थ आदि) को प्रतिदिन ___ बार-बार धोना। सम्प्रसाधन—केश आदि कटवाना तथा कंघी करना / धूम्रपान--धूम्रपान करना। पादत्र-धारण-जूते धारण करना। छत्र-धारण-छत्ता धारण करना। दण्ड-धारण-दण्ड (छड़ी) धारण करना। इनमें से अधिकांश का अनाचार प्रकरण में और कुछेक का अन्यत्र निषेध मिलता है। इसका कारण है—आत्म-रक्षा। इन्द्रियों की समाधि और ब्रह्मचर्य के बिना आत्म-रक्षा हो नहीं पाती। उपर्युक्त कृत्य ब्रह्मचर्य और इन्द्रिय-समाधि में बाधक बनते हैं। स्वयं आयुर्वेद के ग्रन्थ-निर्माताओं की दृष्टि में भी ये वृष्य (वीर्यवर्धक), पुंस्त्व १-चरक, सूत्र-स्थान, अध्ययन 5 // 100 /
SR No.004301
Book TitleDashvaikalik Ek Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Shwetambar Terapanthi Mahasabha
Publication Year1967
Total Pages294
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy