________________ . 2. अन्तरङ्ग परिचय : साधना 85 योग शब्द युज धातु से बनता है। उसके दो अर्थ हैं—जोड़ना और समाधि / पहले सम्बन्ध होता है फिर समाधि। मन आत्मा के साथ जुड़ता है, फिर स्थिर होता है। इसीलिए कहा है—मन, वाणी और कर्म को श्रमण-धर्म से जोड़ो। जो श्रमण-धर्म से युक्त है, उसे अनुत्तर-अर्थ ( समाधि ) की प्राप्ति होती है। महर्षि पतंजलि ने योग के आठ अंगों का निरूपण किया है / 2 जैन-परम्परा में प्राणायाम को चित्त-स्थिरता का हेतु नहीं माना गया है। इसके अतिरिक्त शेष सात अंग अपनी पद्धति से मान्य रहे हैं। श्रमण-धर्म की साधना का प्रारम्भ पाँच महाव्रतों के अंगीकार से होता है। उनका चौथे अध्ययन में व्यवस्थित निरूपण हुआ है। पतंजलि के शब्दों में ये यम हैं। शौच, सन्तोष, तप, स्वाध्याय और आत्मप्रणिधान का आठवें अध्ययन में बड़ी सूक्ष्म-दृष्टि से निरूपण हुआ है।५ जैन-दृष्टि भाव-शौच को ही प्रधानता देती है और बाह्य-शौच वही मान्य है, जो भाव-शौच के अनुकूल हो / 6 इसी प्रकार उसे आत्मा और १-दशवैकालिक, 8 / 42 / २--पातंजल योगदर्शन, 2029 : यमनियमासनप्राणायामप्रत्याहारधारणाध्यानसमाधयोऽष्टावङ्गानि / ३-(क) पातंजल योगदर्शन, 1134 यशोविजयजी कृत वृत्ति : अनेकान्तिकमेतत्, प्रसह्य ताभ्यां मनो व्याकुलीभावात् 'ऊसासं ण णिरुंभई' इत्यादि पारमर्षेण तन्निषेधाच्च, इति / (ख) योगशास्त्र, 6 / 4.: तन्नाप्नोति मनः स्वास्थ्य, प्राणायामैः कदर्थितम् / प्राणस्यायमने पीडा, तस्यां स्यात् चित्तविप्लवः // (ग) आवश्यक नियुक्ति, गाथा 1520 वृत्ति : भगवत्प्रवचने तु व्याकुलताहेतुत्वेन निषिद्ध एव श्वासप्रश्वासरोधः... प्राणारोध पलिमन्थस्यानतिप्रयोजनत्वात् तदुक्तं—'ऊसासं ण णिरंभई' / ४-पातंजल योगदर्शन, 2 // 30,31: तत्राहिंसासत्यास्तेयब्रह्मचर्यापरिग्रहा यमाः। जातिदेशकालसमयानवच्छिन्ना सार्वभौमा महाव्रतम् / ५-वही, 2 // 32 : शौचसन्तोषतपःस्वाध्यायेश्वरप्रणिधानानि नियमाः / ६-वही, 2032 यशोविजयजी कृत वृत्ति : . मावशौचानुपरोध्येव द्रव्यशौचं बाह्यमादेयमिति तत्त्वदर्शिनः /