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________________ दशवैकालिक : एक समीक्षात्मक अध्ययन ईश्वर का मौलिक भेद मान्य नहीं है / आत्मा का विकसित रूप ही परमात्मा है। जो आत्मा का प्रणिधान है, वही ईश्वर-प्रणिधान है। ध्यान करने के लिए काय-व्यत्सर्ग ( शरीर के स्थिरीकरण ) को प्रमुखता दी है। आसन करना जैन-परम्परा को इष्ट रहा है। पतंजलि जिसे 'प्रत्याहार' कहते हैं, उसे जैनागम की भाषा में इन्द्रिय-निग्रह कहा गया है / 2 धारणा का व्यापक रूप यतना है।3 संयम के लिए जो प्रवृत्ति की जाए, उसी में उपयुक्त (तच्चित्त) होना, दूसरे सारे विषयों से मन को हटा कर उसी में लगा देना यतना है।४ जैन-साहित्य में समाधि शब्द का प्रयोग प्रचुर मात्रा में हुआ है। किन्तु उसका अर्थ पतंजलि के समाधि शब्द से भिन्न है।" उसकी तुलना शुक्ल-ध्यान से होती है। समाधि या ध्यान का चरम रूप शैलेशी अवस्था है।६ इस प्रकार प्रस्तुत आगम में योग के बीज छिपे पड़े हैं। आत्म-विकास के लिए इन्हें विकसित करना आवश्यक है। जो श्रमण इस ओर ध्यान नहीं देता, उसके विशिष्ट ज्ञान का उदय होते-होते रुक जाता है / जो श्रमण बार-बार स्त्री, भक्त, देश और राज-सम्बन्धी कथा करता है, विवेक और व्युत्सर्ग से आत्मा को भावित नहीं करता, रात के पहले और पिछले प्रहर में धर्म-जागरिका नहीं करता और शुद्ध भिक्षा की सम्यक गवेषणा नहीं करता, उसके विशिष्ट ज्ञान का उदय होते-होते रुक जाता है / " विशिष्ट ज्ञान का लाभ उसे होता है, जो विकथा नहीं करता, विवेक और व्युत्सर्ग से आत्मा को भावित करता है तथा पूर्व-रात्रि और अपर-रात्रि में धर्म-जागरण पूर्वक जागता है और शुद्ध भिक्षा की सम्यक् गवेषणा करता है। प्रस्तुत आगम में इस भावना का बहुत ही सूक्ष्मता से निरूपण हुआ है। इसके लिए पाद-टिप्पण में निर्दिष्ट स्थल द्रष्टव्य हैं। १-समाधिशतक, 31 : . यः परात्मा स एवाहं योऽहं स परमस्ततः / अहमेव मयोपास्यो नान्यः कश्चिदिति स्थितिः // २-दशवकालिक, 3 / 11 / ३-वही, 4 / 8 / ४-पातंजल योगदर्शन, 331 : देशबन्धश्चित्तस्य धारणा। ५-वही, 3 / 3 : तदेवार्थमात्रनिर्भासं स्वरूपशून्य मिव समाधिः / ६-दशवैकालिक, 4 / 24 / ७-स्थानांग, 4 / 2 / 284 / ८-वही, 4 / 2 / 284 / / ९-दशवकालिक ( भा० 2 ), पाँचवाँ अध्ययन ; 8 / 14; तथा चूलिका 2212 /
SR No.004301
Book TitleDashvaikalik Ek Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Shwetambar Terapanthi Mahasabha
Publication Year1967
Total Pages294
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size16 MB
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