________________ 5. व्याख्या ग्रन्थों के सन्दर्भ में : सभ्यता और संस्कृति 207 घृत और मधु घड़ों में रखे जाते थे। उन घड़ों को घृत-कुम्भ और मधु-कुम्भ कहा जाता था।' तित्तिर आदि पक्षियों का मांस खाया जाता था और इन पक्षियों को बेचने वाले लोग गली-गली में घूमा करते थे। ____ लोग ऋतु के अनुसार भोजन में परिवर्तन कर लेते थे। शरद्-ऋतु में वात-पित्त को नष्ट करने वाले, हेमन्त में उष्ण, वसन्त में श्लेष्य को हरने वाले, ग्रीष्म में शीतल और वर्षा में उष्ण पदार्थों का प्रयोग करते थे। घरों में अनेक प्रकार के पानकों से घड़े भरे रहते थे। कांजी, तुषोदक, यवोदक, सौवीर आदि-आदि पानक सर्ट-सुलभ थे। हरिभद्र ने पानक का अर्थ आरनाल (कांजी) किया है।५ आचारांग (2 / 1 / 7,8) में अनेक प्रकार के पानकों का उल्लेख है / इन्हें विधिवत् निष्पन्न किया जाता था। आयुर्वेद के ग्रन्थों में इनके निष्पन्न करने की विधि निर्दिष्ट है / आगमकाल में पेय पदार्थो के लिए तीन शब्द प्रचलित थे—(१) पान, (2) पानीय और (3) पानकं / 'पान' से सभी प्रकार के मद्यों का, 'पानीय' से जल का और 'पानक' से द्राक्षा, खजूर आदि से निष्पन्न पेय का ग्रहण होता था। पके हुए उडद को कुल्माष कहा जाता था। मन्थु का भोजन भी प्रचलित था। सम्भव है यह सुश्रुत का 'मन्थ' शब्द हो / इसका लक्षण इस प्रकार है, जो के सत्तू घी में भून कर शीतल जल में न बहुत पतले, न बहुत सान्द्र घोलने से 'मन्थ' बनता है / १-जिनदास चूर्णि, पृ०३३० / २-वही, पृ० 229-230 / ३-वही, पृ० 315: कालं पडुच्च आयरियो वुड्ढवयत्यो तत्थ सरवि वातपित्तहराणि दव्वाणि आहरति, हेमंते उहाणि, वसंते हिंभरहाणि (सिंभहराणि ) गिम्हे सीयकराणि, वासासु उण्हवण्णाणि, एवं ताव उडु उडुं पप्प गुरूण अट्टाए दव्वाणि आहरिज्जा। ४-दशवकालिक, 5 // 1 // 47-48 / ५-हारिभद्रीय टीका, पत्र 173 : पानकं च आरनालादि। ६-प्रवचन सारोद्धार, द्वार 256, गाथा 1410 से 1417 / ७-हारिभद्रीय टीका, पत्र 181 / / ५-दशवकालिक // 168 / ९-सुश्रुत, सूत्रस्थान, अध्ययन 461425 /