________________ १२-दशवकालिक का उत्तरवर्ती साहित्य पर प्रभाव दशवकालिक का उल्लेख श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों परम्पराओं में है। नंदी के अतिरिक्त तत्त्वार्थ भाष्य और गोम्मटसार में इसे अंग-बाह्य श्रुत कहा है। जयधवला के अनुसार यह सातवाँ अंग-बाह्य श्रुत है / सर्वार्थसिद्धि के अनुसार वक्ता तीन प्रकार के होते है–तीर्थंकर, गणधर और आरातीय आचार्य.। काल-दोष से आयु, मति और बल न्यून हुए, तब शिष्यों पर अनुग्रह कर आरातीय आचार्यों ने दर्शवकालिक आदि आगम रचे / घड़ा क्षीर-समुद्र के जल से भरा हुआ है, उसमें घड़े का अपना कुछ नहीं है, जो कुछ है वह क्षीर-समुद्र का ही है, इसलिए उस घड़े के जल में वही मिठास मिलती है जो क्षीर-समुद्र में होती है। इसी प्रकार जो आरातीय आचार्य किसी प्रयोजनवश पूर्वी या अंगों से किसी अंग-बाह्य श्रुत की रचना करते हैं, उसमें उनका अपना नया तत्त्व कुछ भी नहीं होता, जो कुछ होता है वह अंगों से गृहीत होता है इसलिए वह प्रामाणिक माना जाता है। दशवकालिक के श्लोकों का उत्तरवर्ती साहित्य में प्रचुर मात्रा में प्रयोग हुआ है। यापनीय संघ में दशवकालिक का अध्ययन होता था और वे इसे प्रमाण भी मानते थे। यापनीय संघ के आचार्य अपराजित सूरि ने भगवती आराधना की वृत्ति ( विजयोदया ) में दशवकालिक का प्रयोग किया है।४ १-(क) तत्त्वार्थ भाष्य, 1220 / (ख) गोम्मटसार (जीवकाण्ड), गाथा 367 : दसवेयालं च उत्तरायणं / २-कषायपाहुड (जयधवला सहित) भाग 1, पृष्ठ 53 / 25 : ३-सर्वार्थसिद्धि, श२० : आरातीयैः पुनराचार्यः कालदोषात्संक्षिप्तायुर्मतिबलशिष्यानुग्रहार्थ दशवै कालिकाद्युपनिबद्धम्। तत्प्रमाणमर्थतस्तदेवेदमिति क्षीरार्णवजलं घटगृहीतमिव। ४-मूलाराधना, आश्वास 4, श्लोक 333, वृत्ति, पत्र 611 / (क) दशवकालिकायाम् उक्तं णग्गणस्स य मुण्डस्स य दीहलोमणखस्स य / मेहुणादो विरत्तस्स किं विभूसा करिस्सदि // (ख) आचारप्रणिधौ भणितं प्रतिलिखेत् पात्रकम्बलं ध्रुवमिति / असत्सु पात्रादिषु कथं प्रतिलेखना ध्रुवं क्रियते।