________________ 28 दशवकालिक : एक समीक्षात्मक अध्ययन ४-समास पंचासवपरिमाया (3 / 11) ___ संस्कृत में इसके दो रूप बनते हैं—'पञ्चाश्रवपरिज्ञाताः' और 'परिज्ञातपञ्चाश्रवाः' / टीकाकार का अभिमत है कि 'आहितान्यादेः' यह आकृति गण है और इसमें निष्ठा-प्रत्यय का पूर्व निपात नहीं होता। अतः प्रथम रूप निष्पन्न होता है। दूसरा रूप सर्वसम्मत परीसहरिऊवंता (3 / 13) __प्राकृत में पूर्वापरपद-नियम की व्यवस्था नहीं है। संस्कृत में इसके दो रूप बनते हैं—'परीषहरिपुदान्ताः' और 'दान्तपरीषहरिपवः' / 'आहिताम्यादेः'—इसमें निष्ठा-प्रत्यय का पूर्वनिपात नहीं होता। अत: प्रथम रूप निष्पन्न होता है और पूर्व-निपात करने पर दूसरा रूप / ५-प्रत्यय कीयगडं (3 / 2) यहाँ 'कीय' शब्द में भाव में निष्ठा प्रत्यय है / अयंपिरो (5 / 1 / 23) शीलाद्यर्थस्येर:४—इस सूत्र से 'इर' प्रत्यय हुआ है। संस्कृत में इसके स्थान पर 'तृन्' प्रत्यय होता है। हरिभद्र सूरि ने इसका संस्कृत रूप 'अजल्पन्' दिया है / आहारमइयं (8 / 28) यहाँ 'मइय' मयट प्रत्यय के स्थान में है।" १.-हारिभद्रीय टीका, पत्र 118, पञ्चाश्रवाः परिज्ञाता यैस्ते पञ्चाश्रवपरिशाताः, आहितान्यादराकृतिगणत्वान्न निष्ठायाः पूर्वनिपात इति समासो युक्त एव, परिज्ञातपञ्चाश्रवा इति वा। २-वही, पत्र 119 : परीषहाः एव रिपवः, वान्ताः यैस्ते परीषहरिपुदान्ताः, समासः पूर्ववत् न प्राकृते पूर्वापरपदनियमव्यवस्था। ३-वही, पत्र 96 : क्रीतकृतं-क्रयणं-क्रीतं, भावे निष्ठा प्रत्ययः / ४-हेमशब्दानुशासनः 8 / 2 / 145 / ५-पाइयसद्दमहण्णव, पृष्ठ 818 /