________________ २-संक्षिप्त व्याख्या 1. अहिंसा अहिंसा और समता : भगवान् महावीर समता-धर्म के महान् प्रवर्तक थे। उन्होंने कहा—''मेरी वाणी में आस्था रखने वाला भिक्षु छहों निकायों को अपनी आत्मा के समान माने।"'' इस आत्म-साम्य की भूमिका से उन्होंने अपने भिक्षुओं को अनेक निर्देश दिए। आत्मौपम्य की कसौटी पर उन्हें कसा जाता है तो वे शत-प्रतिशत खरे उतरते हैं। निरे बुद्धिवादी दृष्टिकोण से देखने पर वे कुछ स्वाभाविक लगते हैं, कुछ अस्वाभाविक भी। किन्तु सम्यग् दृष्टिकोण होने पर वे अस्वाभाविक नहीं लगते। भगवान् के निर्देशों का सार इस प्रकार है : पृथ्वी-जगत् और अहिंसक निर्देश : __मुनि सजीव पृथ्वी को न कुरेदे और न उसका भेदन करे / 2 सजीव मिट्टी, क्षार, हरिताल, हिंगुल, मैनशिल आदि से लिप्त हाथ व कड़छी से भिक्षा न ले। शुद्ध-पृथ्वी और मिट्टी के रजकणों से भरे हुए आसन पर न बैठे।४ गात्र की उष्मा से पृथ्वी के जीवों की विराधना होती है, इसलिए शुद्ध-पृथ्बी ( शस्त्र से अनुपहत पृथ्वी ) पर नहीं बैठना चाहिए। इसका दूसरा अर्थ यह भी हो सकता है-शुद्ध-पृथ्वी पर नहीं बैठना चाहिए अर्थात् निर्जीव पृथ्वी पर भी कंबल आदि बिछाए बिना नहीं बैठना चाहिए, क्योंकि शुद्ध-पृथ्वी पर बैठने से उसके निम्न भाग में रहे हुए जीवों की विराधना होती है / 5 खाने-पीने के अयोग्य वस्तु को निर्जीव पृथ्वी पर डाले / मल, १-दशवकालिक, 10 / 5 / २-वही, ४।सू० 18 ; 8 / 4 / मिलाइए-अष्टाङ्गहृदय, सूत्र-स्थान, 2 // 36 : नाकस्माद् विलिखेद् भुवम् / ३-वही, 5 // 1 // 33-35 / ४-वही, 8.5 / ५-वही, (भाग-२), पृष्ठ 416, श्लोक 5 के टिप्पण। ६-वही, 5 // 180-81 /