________________ 5. व्याख्या-ग्रन्थों के सन्दर्भ में : सभ्यता और संस्कृति 221 याचना और दान : याचना के अनेक प्रकार प्रचलित थे__कई याचक कहते- "हम भूमिदेव हैं, लोगों के हित के लिए हम भूमि पर अवतीर्ण हुए हैं। हमें 'द्विपद' आदि देने से पुण्य होता है।" कई कार्पटिक आदि याचक आजीविका के लिए घर-घर घूमा करते थे। वनीपक पाँच प्रकार के होते थे—(१) अतिथि-वनीपक-अतिथि-दान की प्रशंसा कर दान लेने वाले। (2) कृपण-वनीपक–कृपण भक्त के सम्मुख कृपण-दान की प्रशंसा कर दान लेने वाले। (3) ब्राह्मण-वनीपक-ब्राह्मण-दान की प्रशंसा कर दान लेने वाले। (4) श्व-वनीपक-जो व्यक्ति कुत्ते के भक्त होते थे, उनके सम्मुख श्व-दान की प्रशंसा कर दान लेने वाले। वे कहते-"गाय आदि पशुओं को घास मिलना सुलभ है, किन्तु छिः छिः कर दुत्कारे जाने वाले कुत्तों को भोजन मिलना सुलभ नहीं। ये कैलाश पर रहने वाले यक्ष हैं। ये भूमि पर यक्ष के रूप में विहरण करते हैं।" (5) श्रमण-वनीपक-श्रमण-भक्त के सम्मुख श्रमण-दान की प्रशंसा कर दान लेने वाले। - कई व्यक्ति तीर्थ-स्थान में धन की आशा से भाले की नोक या बबूल आदि के काँटों पर बैठ या सो जाते थे। उधर जाने वाले व्यक्ति उनकी दयनीय दशा से द्रवित हो कहते-उठो, उठो जो तुम चाहोगे, वही तुम्हें देंगे। इतना कहने पर वे उठ खड़े हो जाते। प्रत्येक घर में एक ऐसी सीमा होती थी, जहाँ वनीपक आ-जा सकते थे। इसके अतिक्रमण को बुरा समझा जाता था। स्थान--स्थान पर दान--शालाएं होती थीं। उनके अनेक प्रकार थे। 'किमिच्छइ' एक प्रकार की दानशाला थी, जहाँ याचक से 'तुम क्या चाहते हो' यह पूछकर दान दिया जाता था।३. .. विदेश-यात्रा से लौटकर श्रेष्ठ प्रसाद-भाव से सर्व पाखण्डियों ( सब सम्प्रदाय १-जिनदास चूर्णि, पृ. 320 : जहा कोयि लोहमयकंटया पत्थरेऊण सयमेव उच्छहमाणा ग पराभियोगेण तेसिं लोहकंटगाणं उवरिं णुविज्जति, ते य अण्णे पासित्ता किवापरिगयचेतसा अहो वरागा एते अत्यहेउं इमं आवई पतत्ति भन्नति जहा उटेह उटेहत्ति, जं मगह तं मे पयच्छामो, तो तिक्खकंटाणिभिन्नसरीरा उठेति / २-दशवकालिक, 5 // 1 // 24 // ३-वही,३।३।