________________ 168 दशवकालिक : एक समीक्षात्मक अध्ययन 2. वह पर्वत जैसा हो: जैसे पर्वत पबन से अप्रकम्पित होता है, उसी प्रकार मुनि भी कष्टों से अप्रकम्पित हो। किन्तु पर्वत की तरह जड़ और कठोर न हो / ' 3. वह अग्नि जैसा हो : जैसे अग्नि इन्धन आदि से तृप्त नहीं होती, उसी तरह मुनि भी ज्ञान से तृप्त न हो। जैसे अग्नि जलाते समय—इसे जलाना चाहिए, इसे नहीं—यह भेद नहीं करती,२ उसी प्रकार मुनि भी मनोज्ञ व अमनोज्ञ आहार में भेद न करे-राग-द्वेष न करे। 4. वह सोगर जैसा हो : सागर जैसे गम्भीर होता है, अथाह होता है, रत्नों का आकर होता है और मर्यादा का अनतिक्रमणकारी होता है, उसी प्रकार मुनि भी गम्भीर हो, अथाह हो, ज्ञान का आकर हो और मर्यादा का अनतिक्रमणकारी हो। ( किन्तु सागर की तरह खारा होने के कारण अस्पृहणीय न हो ) १-(क) हारिभद्रीय टीका, पत्र 83 : गिरिसमः परीषहपवनाकम्प्यत्वात् / (ख) जिनदास चूर्णि, पृष्ठ 72 : पव्वय सरिसेण साधुणा होयव्वं, तस्स पुण पन्वयस्स अण्णाणभावं खरभावं च उज्झिऊणं तेजस्सित्तणं परिगिज्झइ। २-जिनदास चूर्णि, पृष्ठ 72 : जह वा सो अग्गी इंधणादीणि डहमाणे णो कत्थइ विसेसं करेति-इभं डहितव्वं इमं वा अडहणीयं, एवं मणुण्णामणुण्णेसु अण्णपाणादिसु फासुएसणिज्जेसु रागो दोसो वा न कायव्वो। ३-(क) जिनदास चूर्णि, पृष्ठ 72 : सागरसरिसिण होयव्वं साहुणा, सो य गतीए खारत्तणेण अपेयो न एयं घेप्पइ, किं तु जाणि य समुदस्स गंभीरत्तं अगाहत्तणं व ताणि घेप्पंति, कहं ? साहुणा सागरो इव गंभीरेण होयव्वं, नाणदंसणचरित्तेहि य अगाहेण भवितव्वं / (ख) हारिभद्रीय टीका, पत्र 83 : सागरसमो गम्भीरत्वाज्ज्ञानादिरत्नाकरत्वात् स्वमर्यादानतिक्रमाच्च /