________________ २-दशवकालिक के कर्त्ता और रचनाकाल रचनाकार का जीवन-परिचय : राजगृह में शय्यम्भव नाम का ब्राह्मण रहता था। वह अनेक विद्याओं का पारगामी विद्वान् था / प्रभव स्वामी ने अपने दो साधुओं को उसकी यज्ञशाला में भेजा / साधु वहाँ पहुंचे और धर्म-लाभ कहा। आचार्य की शिक्षा के अनुसार वे बोले- "अहो कष्टमहो कष्टं, तत्वं न ज्ञायते परम् / " शय्यम्भव ने यह सुना और सोचा-ये उपशान्त तपस्वी असत्य नहीं बोलते / अवश्य ही इसमें रहस्य है। वह उठा और अपने अध्यापक के पास जाकर बोला- “कहिए तत्त्व क्या है ?" अध्यापक ने कहा-"तत्त्व वेद हैं।" शय्यम्भव ने तलवार को म्यान से निकाला और कहा--"या तो तत्त्व बतलाइए अन्यथा इसी तलवार से सिर काट डालूंगा।" अध्यापक ने सोचा अब समय आ गया है। वेदार्थ की परम्परा यह है कि सिर काट डालने का प्रसंग आए तब कह देना चाहिए। अब यह प्रसंग उपस्थित है, इसलिए मैं तत्त्व बतला रहा हूँ। अध्यापक ने कहा-"तत्त्व आईत्-धर्म है।" वह आगे बढ़ा और यूप के नीचे जो अरिहंत की प्रतिमा थी उसे निकाल शय्यम्भव को दिखाया। वह उसे देख प्रतिबुद्ध हो गया / ' शय्यम्भव ने अध्यापक के चरणों में वन्दना की और संतुष्ट होकर 'यज्ञ की सारी सामग्नी उसे भेंट में दे दी। वह चला और मुनि-युगल को खोजते-खोजते वहीं जा पहुंचा, जहाँ उसे पहुँचना था। अपनी गर्भवती युवती पत्नी को छोड़ 28 वर्ष की अवस्था में उसने प्रभव स्वामी के पास प्रव्रज्या ले ली। दशवैकालिक की व्याख्याओं में उनके जीवन का यह परिचय मिलता है / 2 परिशिष्ट-पर्व ( सर्ग 5 ) में भी लगभग यही वर्णन है। इस वर्णन के कुछेक तथ्यों के आधार पर उनके पूर्ववर्ती जीवन की स्थूल-रूपरेखा हमारे सामने आ जाती है। १-दशवकालिक नियुक्ति, गाथा 14 / २-दश० हारिभद्रीय टीका, पत्र 10,12 /