________________ ३-रचना-शैली दशवैकालिक रचना की दृष्टि से वास्तव में ही सूत्र है / पारिभाषिक शब्दों में अर्थ को बहुत ही संक्षेप में गूंथा गया है। मनक को थोड़े में बहुत देने के उद्देश्य से इसकी रचना हुई, उसमें रचनाकार बहुत ही सफल हुए हैं। विषय के वर्गीकरण की दृष्टि से भी इसका रचनाक्रम बहुत प्रशस्त है। आदि से अन्त तक धर्म और धार्मिक की विशेषता का निरूपण है। उसे पढ़ कर यह सहजतया बुद्धिगम्य हो सकता है कि धार्मिक धर्म का स्पर्श कैसे करे और अधर्म से कैसे बचे ? इसका अधिकांश भाग पद्यात्मक है और कुछ भाग गद्यात्मक / गद्य भाग के प्रारम्भ में उत्तराध्ययन की शैली का अनुसरण है। गद्य-भाग के बीच-बीच में गद्योक्त विषय का संग्रह पद्यों में किया है / 2 ऐसी शैली उपनिषदों में रही है। १-(क) उत्तराध्ययन, 29 / 1:.. ....सुयं मे आउसं! तेणं भगवया एवमक्खायं-इह खलु सम्मत्तपरक्कमे नाम अज्झयणे समणेणं भगवया महावीरेणं कासवेणं पवेइए। . (ख) दशवैकालिक, 4 / सूत्र 1: / सुयं मे आउसं ! तेणं भगवया एवमक्खायं- इह खलु छज्जीवणिया नामज्झयणं समणेणं भगवया महावीरेणं कासवेणं पवेइया सुयक्खाया सुपन्नत्ता। (ग) उत्तराध्ययन, 16 / सूत्र 1 : ... सुयं मे आउसं ! तेणं भगवया एवमक्खायं-इह खलु थेरेहिं भगवन्तेहि दस बम्भचेरसमाहिठाणा पन्नत्ता। ... (व दशवकालिक, 9 / 4 / सूत्र 1: : सुयं मे आउसं ! तेगं भगवया एवमक्खायं-इह खलु थेरेहिं भगवंतेहिं चतारि 'विणयसमाहिट्ठाणा पन्नत्ता। .... २-दशकालिक, 9 / 4 / ३-श्नोपनिष र, 6 / 5,6 :.. स एषोऽकलोऽमृतो भवति तदेष श्लोकःअरा इव . रथनाभौ कला यस्मिन्प्रतिष्ठिता। तं वेद्य पुरुषं वेद ( यथा ) मा वो मृत्युः परिव्यथा इति // ......