________________ 134 दशवकालिक : एक समीक्षात्मक अध्ययन प्रयोजनवश बोले, परिमित बोले / ' बिना पूछे न बोले, बीच में न बोले। चुगली न खाए और कपट-पूर्ण असत्य न बोले / 2 . जिससे अप्रीति उत्पन्न हो और जिससे दूसरा कुपित हो, ऐसा न बोले।३ देखी हुई बात कहे, जोर से न बोले, स्वर-व्यंजन आदि युक्त बोले, स्पष्ट बोले, भय रहित बोले। पीठ पीछे अवर्णवाद तथा प्रत्यक्ष में वैर बढाने वाले वचन न बोले / ' कलह उत्पन्न करने वाली कथा न कहे / 6 भगवान् महावीर ने अहिंसा की दृष्टि से सावद्य और निरवद्य भाषा का सूक्ष्म विवेचन किया है। प्रिय, हित, मित, मनोहर वचन बोलना चाहिए—यह स्थूल बात है। इसकी पुष्टि नीति के द्वारा भी होती है। किन्तु अहिंसा की दृष्टि नीति से बहुत आगे जाती है / ऋग्देद में भाषा के परिष्कार को अभ्युदय का हेतु बतलाया है : सक्तुमिव तितउना पुनन्तो यत्र धीरा मनसा वाचमक्रत / अत्रा सखायः सख्यानि जानते भद्रषां लक्ष्मीनिहिताधि वाचि // " —जैसे चलनी से सत्तू को परिष्कृत किया जाता है, वैसे ही बुद्धिमान् लोग बुद्धि के बल से भाषा को परिष्कृत करते हैं। उस समय विद्वान् लोग अपने अभ्युदय को जानते हैं। विद्वानों के वचन में मंगलमयी लक्ष्मी निवास करती है। महात्मा बुद्ध ने चार अंगों से युक्त वचन को निरवद्य वचन कहा है। ऐसा मैंने सुना : एक समय भगवान् श्रावस्ती में अनाथपिण्डक के जेतवनाराम में विहार करते थे। उस समय भगवान् ने भिक्षुओं को सम्बोधित कर कहा-"भिक्षुओ ! चार अंगों से युक्त वचन अच्छा है न कि बुरा; विज्ञों के अनुसार वह, निरवद्य है, दोषरहित है / कौन से चार अंग ? भिक्षुओ ! यहाँ भिक्षु अच्छा वचन ही बोलता है न कि बुरा, धार्मिक वचन ही बोलता है न कि अधार्मिक, प्रिय वचन ही बोलता है न कि अप्रिय, सत्य वचन ही बोलता है न कि असत्य। भिक्षुओ ! इन चार अंगों से युक्त वचन अच्छा है न कि बुरा, वह विज्ञों के अनुसार निरवद्य तथा दोषरहित है।" __ ऐसा बता कर बुद्ध ने फिर कहा : १-दशवैकालिक, 8 / 19 / २-वही, 8 / 46 / ३-वही, 8147 / ४-वही, 8 / 48 / ५-वही, 9 / 3 / 9 / ६-वही, 10 / 10 / ७-ऋग्वेद, 1071 /