SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 34
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ .1. बहिरङ्ग परिचय : जैन आगम और दशवकालिक 5 परोक्षज्ञानी अर्थात् श्रुतज्ञानी हैं। इसके आधार पर आगम की परिभाषा यह बनती हैप्रत्यक्ष या प्रत्यक्ष जैसा अविसंवादी ज्ञान आगम है। श्रुत विसंवादी भी हो सकता है पर आगम विसंवादी नहीं होता। आगम और श्रुत को भिन्न मानने का यह पुष्ट आधार है। ___ कई आचार्यों ने नवपूर्वी को भी आगम माना है / 1 किन्तु उन्हीं के अनुसार चतुर्दशपूर्वी और सम्पूर्ण दशपूर्वी का श्रुत सम्यक् ही होता है और नवपूर्वी का श्रुत मिथ्या भी हो सकता है / आचार्य मलयगिरि ने इसे स्पष्ट करते हुए लिखा है "दशपूर्वी नियमतः सम्यकदृष्टि होते हैं। नवपूर्वी सम्यकदृष्टि और मिथ्यादृष्ठि दोनों हो सकते हैं। इसलिए दशपूर्वी का श्रुत सम्यक् ही होता है और नवपूर्वी का श्रुत मिथ्या भी हो जाता है। जयाचार्य ने सम्पूर्ण दशपूर्वी द्वारा रचित शास्त्र का ही प्रामाण्य स्वीकार किया है।४ . नवपूर्वी की प्रामाणिकता असंदिग्ध नहीं हो सकती, इसलिए आगम-पुरुष पाँच–केवली, अवधिज्ञानी, मनःपर्यायज्ञानी, चतुर्दशपूर्वी और दशपूर्वी ही होने चाहिए। उनका ज्ञान नियमतः अविसंवादी होता है, इसलिए वे अनुपचरित दृष्टि से आगम हैं। १-(क) व्यवहारभाष्य, 135 : आगमसुयववहारी आगमतो छव्विहो उ ववहारो। केवलि मणोहि चोद्दस-दस-नव-पुव्वी उ नायव्वो॥ (ख) भगवती 8 / 8 / 339, वृत्ति : तत्र आगम्यन्ते परिच्छिद्यन्ते अर्था अनेनेत्यागमः केवलमनःपर्यायावधिपूव चतुर्दशकदशकनवकरूपः। २-नंदी, सूत्र 42 : इच्चेइयं दुवालसंगं गणिपिडगं चौद्दसपुव्विस्स सम्मसुयं, अभिण्णदसपुव्विस्स सम्मसुयं तेण परं भिण्णेसु भयणा / ३-नंदी, सूत्र 42, वृत्ति : सम्पूर्णदशपूर्वधरत्वादिकं हि नियमतः सम्यग्दृष्टेरेव न मिथ्यादृष्टेः..... ततः सम्पूर्णदशपूर्वधरत्वात्पश्चानुपूर्व्याः परं भिन्नेषु दशसु पूर्वेषु भजना-विकल्पना कदाचित्सम्यक्श्रुतं कदाचिन् मिथ्याश्रुतमित्यर्थः / ४-प्रश्नोत्तर तत्त्वबोध, 18 // 12 : सम्पूर्ण दश पूर्वधर, चउदश पूरवधार / तास रचित आगम हुवे, वारुं न्याय विचार //
SR No.004301
Book TitleDashvaikalik Ek Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Shwetambar Terapanthi Mahasabha
Publication Year1967
Total Pages294
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy