________________ १-साधना समग्र-दर्शन : ___ नियुक्ति आदि व्याख्याओं के अनुसार हम दशकालिक के विषय की मीमांसा कर चुके हैं। अब स्वतंत्र दृष्टि से इस पर विचार करेंगे। परिच्छेदों के क्रम से यह अनेक भागों में बँटा हुआ है। पर समग्र-दृष्टि से देखा जाए तो यह अहिंसा का अखण्ड दर्शन है। अहिंसा परम धर्म है। शेष सब महाव्रत उसी के प्रकार हैं। भगवान् महावीर के आचार का केन्द्र-बिन्दु अहिंसा है। उन्होंने भिक्षु के लिए आचार और अनाचार, विधि और निषेध तथा उत्सर्ग और अपवाद का जो रूप स्थिर किया, उसका मौलिक आधार अहिंसा है / कुछ विधि-निषेध संयमी जीवन की सुरक्षा और कुछ प्रवचन-गौरव ( संघीय महत्त्व ) की दृष्टि से भी किए गए हैं, किन्तु वे भी अहिंसा की सीमा से परे नहीं हैं। जो निषेध अहिंसा की दृष्टि से किए गए हैं, उनका विधान नहीं किया, उनको अनाचार की कोटि में ही रखा। किन्तु जिनका निषेध तितिक्षा की दृष्टि से किया, उनका विशेष स्थिति में विधान भी किया। ___अहिंसा धर्म का एक रूप है और उसका दूसरा रूप है परीषह-सहन / दूसरे रूप की अभिव्यक्ति 'देहे दुक्खं महाफलं' ( 8 / 27 )—देह में दुःख उत्पन्न होता है, उसे सहन करना महान् फलदायी है—इन शब्दों में हुई है। स्वीकृत मार्ग से. च्युत न होने और संचित कर्म-फल को नष्ट करने के लिए भगवान ने परीषह-सहन का उपदेश दिया / " १-अगस्त्य चूर्णि : अहिंसा परमो धम्मो, सेसाणि महत्वताणि एतस्सेव अत्थविसेसगाणि / २-दशवकालिक, 5 // 2 // 3 / ३-वही, 5 / 2 / 12 / ४-सूत्रकृतांग, 112 / 1 / 14 वृत्ति : अविहिंसामेव पव्वए, अणुधम्मो मुणिणा पवेदितो // अनुगतो—मोक्षं प्रत्यनुकूलो धर्मोऽनुधर्मः असावहिंसालक्षणः, परीषहोपसर्गसहनलक्षणश्च धर्मो 'मुनिना' सर्वज्ञेन 'प्रवेदितः' कथित इति / ५-तत्त्वार्थसूत्र, 9 / 8 : मार्गाच्यवननिर्जरार्थं परिसोढव्याः परीषहाः /