________________ ___63 2. अन्तरङ्ग परिचय : साधना के अग वाली बाधाओं को पार करने और केवल उसी के निमित्त शरीर-धारण करने के लिए सत्प्रवृत्ति आवश्यक है—यह जैन दर्शन का धार्मिक दृष्टिकोण है। इसके अनुसार हिंसा मात्र, भले फिर वह प्रयोजनवश की जाए या निष्प्रयोजन ही - असत्प्रवृत्ति है। धार्मिक दृष्टिकोण से वह सर्वथा अमान्य है। इसीलिए साधना की विशेष भूमिका में निवृत्ति और सत्प्रवृत्ति ही मान्य हुई है। सत्प्रवृत्ति के द्वारा निवृत्ति के चरम शिखर पर पहुँचने के लिए शरीर-धारण आवश्यक है, इसलिए सत्प्रवृत्तिमय ( संयममय ) शरीर-धारण के लिए भी इसमें पर्याप्त विधि-निषेध किए गए हैं। प्रवचन-गौरव का दृष्टिकोण : भगवान महावीर ने केवली होने के अनन्तर तीर्थ का प्रवर्तन किया। उसके चार अंग बनें-साधु, साध्वी, श्रावक और श्राविका। वैयक्तिक साधना में लोक-व्यवहार की दृष्टि से विचार करना आवश्यक नहीं होता। संघ की स्थिति इससे भिन्न होती है। वहाँ लोक-दृष्टि की सर्वथा उपेक्षा नहीं होती। इसलिए धर्म-विरुद्ध आचरण की भाँति लोक-विरुद्ध आचरण भी किसी सीमा तक निषिद्ध माना गया है। प्रतिक्रुष्ट कुल से भिक्षा लेने के निषेध का कारण संघ की लघुता न हो, यही है / 2 . इस प्रकार के और भी अनेक नियम हैं, जिनके निर्माण का मूल लोक-दृष्टि की सापेक्षता है। जहाँ तक साधना की मौलिकता का प्रश्न है, वहाँ लोक-दृष्टि को महत्त्व नहीं दिया जा सकता किन्तु जहाँ सत्य की बात नहीं हो, वहाँ लोकमत की सर्वथा उपेक्षा भी नहीं करनी चाहिए। आगम-काल से लेकर व्याख्या-काल तक जैन-परम्परा का यह स्पष्ट अभिमत रहा है। १-प्रशमरति प्रकरण 131,132: / लोकः खल्वाधारः सर्वेषां ब्रह्मचारिणां यस्मात् / तस्माल्लोकविरुद्ध धर्मविरुद्धं च संत्याज्यम् // देहो न साधनको लोकाधीनानि साधनान्यस्य / सद्धर्मानुपरोघात् तस्माल्लोकोऽभिगमनीयः // मिलाइए --- दज्ञवैकालिक, 5 // 1 // 18 / २-हारिभद्रीय टीका, पत्र 166 : प्रतिक्रुष्टकुलं द्विविधम्-इत्वरं यावत्कथिकं च / इत्वरं—सूतकयुक्तं, यावत्कथिकम् अभोज्यम् / एतन्न प्रविशेत् शासनलघुत्वप्रसंगात् /