________________ 162 दशवैकालिक : एक समीक्षात्मक अध्ययन इनमें 1,2,3,5,6,7,11 और 12 का विषय है-मुनि आहार कैसा ले और कैसे ले ? ; 8 का विषय है-मुनि कैसे खाए ? ; 6,10 और 13 का विषय है-मुनि किसलिए खाए ? और 4,13,14 का विषय है-भोजन करने का फल क्या है ? . 1. द्रुमपुष्पिका : .. जिस प्रकार भ्रमर द्रुम के पुष्प, जो अकृत और अकारित होते हैं, को म्लान किए बिना रस ग्रहण करता है, वैसे ही श्रमण भी अपने लिए अकृत और अकारित तथा गृहस्थों को क्लान्त किए बिना, आहार ग्रहण करे / 2. आहार-एषणा : ___ इसमें तीनों एषणाओं-- गवेषणषणा, ग्रहणैषणा और परिभोगेषणा का ग्रहण किया है। मुनि उद्गम के 16 दोष, उत्पादन के 16 दोष और एषणा के 10 दोषों से रहित भिक्षा ले। 3. गोचर : एक वणिक के घर एक छोटा बछड़ा था। वह सबको बहुत प्रिय था। घर के सारे लोग उसकी बहुत सार-संभाल करते थे। एक दिन वणिक के घर जीमनवार हुआ। सारे लोग उसमें लग गए। बछड़े को न घास डाली गई और न पानी पिलाया गया। दुपहरी हो गई। वह भूख और प्यास के मारे रंभाने लगा। कुल-वधू ने उसको सुना। वह घास और पानी को लेकर गई। घास और पानी को देख बछड़े की दृष्टि उन पर टिक गई। उसने कुल-वधू के बनाव और शृङ्गार की ओर ताका तक नहीं। उसके मन में विचार तक नहीं आया कि उसके रूप-रंग और शृगार को देखे। इसका सार यह है कि बछड़े की तरह मुनि भिक्षाटन की भावना से अटन करे। रूप आदि को देखने की भावना से चंचल चित्त हो गमन न करे। 4. त्वक् : घुण चार प्रकार के होते हैं :-- (1) त्वक् खादक (3) काष्ठ-खादक (2) छल्लि खादक (4) सार-खादक १-जिनदास चूर्णि, पृष्ठ 12 : / जहा भमरो दुमपुप्फेहितो अकयमकारियं पुप्फ अकिलामेन्तो आहारेति, एवं ___ अकयमकारियं निरुवधं गिहत्थाणं अपीलयं आहारं गेण्हइ। २-वही, पृष्ठ 12 तथा दशवकालिक (भा०-२), पृष्ठ 194,95,96 / ३-बही, पृष्ठ 12 /