________________ 164 दशवैकालिक : एक समीक्षात्मक अध्ययन 8. सर्प: जिस प्रकार सर्प झट से बिल में प्रविष्ट होता है, उसी प्रकार मुनि भी मुंह में क्षिप्त कवल को स्वाद के लिए इधर-उधर घुमाए बिना झट से निकल जाए।' 6. व्रण : जिस प्रकार व्रण को शान्त करने के लिए उस पर लेप किया जाता है, उसी प्रकार अधैर्य को शान्त करने—धृति की सुरक्षा के लिए मुनि आहार करे, रूप आदि को बढ़ाने के लिए नहीं। 10. अक्ष: जिस प्रकार यात्रा को निर्वाध-रूप से सम्पन्न करने के लिए गाड़ी के पहियों में तेल चुपड़ा जाता है, उसी प्रकार संयम-भार को वहन करने के लिए मुनि आहार करे / 11. तीर : जिस प्रकार रथिक अपने लक्ष्य में तन्मय होकर ही उसे बींध सकता है, अन्यथा नहीं, उसी प्रकार भिक्षा के लिए घूमता हुआ मुनि भी संयम-लक्ष्य में तन्मय होकर ही उसे प्राप्त कर सकता है, अन्यथा नहीं। शब्द आदि विषयों में व्याक्षिप्त होकर वह संयम से स्खलित हो जाता है। 12. गोला : लाख को यदि अग्नि के अत्यन्त निकट रखा जाए तो वह बहुत पिघल जाती है, उसका गोला नहीं बनाया जा सकता और यदि उसें अग्नि से अति दूर रखा जाए तो १-जिनदास चूर्णि, पृष्ठ 12: / जहा सप्पो सरत्ति बिले पविसति तहा साहुणा वि भणासावेंतेण हणुयं असंस रंतेणं आहारेयव्वं / २-वही, पृष्ठ 12-13: जहा वणस्स मा फुट्टिहिति तो से मक्खणं दिज्जइ, एवं इमस्मवि जीवस्स मा घितिक्खयं करेहिइ तो से दिज्नइ माहारो, ण वण्णाइहेउ / ३-वही, पृष्ठ 13: जहा सगडस्स जत्तासाहणट्ठा अम्मंगो दिज्जइ, एवं संजममरवहणत्थं आहा रेयव्वं / ४-वही, पृष्ठ 12: जहा रहिओ लक्खं विंघिउकामो तदुवउत्तो विवइ, वक्खित्तचित्तो फिट्टइ, एवं साहूवि उवउत्तो भिक्खं हिंडतो संजमलक्खं विंधइ, वक्खिप्पंतो सद्दाइएसु फिट्टइ।