Book Title: Abhidhan Rajendra Koshme Sukti Sudharas Part 05
Author(s): Priyadarshanashreeji, Sudarshanashreeji
Publisher: Khubchandbhai Tribhovandas Vora
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिधान राजेन्द्र कोष में, -सक्ति-सुधारस पंचम खण्ड CAVES अ. रा. कोष अ.रा. कोष २ अ. रा. कोष अ. रा. कोष अ. रा. कोष अ. रा. कोष अ.रा.कोष डॉ. प्रियदर्शनाश्री डॉ. सुदर्शनाश्री Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'विश्वपूज्य श्री': जीवन-रेखा जन्म : ई. सन् 3 दिसम्बर 1827 पौष शुक्ला सप्तमी राजस्थान की वीरभूमि _ एवं प्रकृति की सुरम्यस्थली भरतपुर में । जन्म-नाम : रत्नराज। माता-पिता : केशर देवी, पारख गौत्रीय श्री ऋषभदासजी दीक्षा : ई. सन् 1845 में श्रीमद् प्रमोदसूरिजीम. सा. की तारक निश्रा में - झीलों की नगरी उदयपुर में। TOअध्ययन : गुरु-चरणों में रहकर विनयपूर्वक श्रुताराधन ! व्याकरण,न्याय, दर्शन, काव्य, कोष, साहित्यादि का गहन अध्ययन एवं 45 जैनागमों का । सटीक गंभीर अनुशीलन ! - आचार्यपद : ई. सन् 1868 में आहोर (राज.)। Dक्रियोद्धार : ई. सन् 1869, वैशाख शुक्ला दसमी को जावरा (म. प्र.) तीर्थोद्धार : श्री भाण्डवपुर, कोरटाजी, स्वर्णगिरि जालोर एवं तालनपुर। नूतनतीर्थ-स्थापना : श्री मोहनखेड़ा तीर्थ, जिला-धार (म. प्र.)। ध्यान-साधना के मुख्य केन्द्र : स्वर्णगिरि, चामुण्डवन व मांगीतुंगी-पहाड़। साहित्य-सर्जन : अभिधान राजेन्द्र कोष, पाइयसद्दम्बुहि, कल्पसूत्रार्थ प्रबोधिनी, सिद्धहैम प्राकृत टीकादि 61 ग्रन्थ । विश्वपूज्य उपाधिः उनके महत्तम ग्रंथराज अभिधान राजेन्द्र कोष के कारण 19 विश्वपूज्य' के पद पर प्रतिष्ठित हुए। दिवंगत : राजगढ़ जि. धार (म.प्र.)21 दिसंबर 19061 समाधि-स्थल : उनका भव्यतम कलात्मक समाधिमंदिर मोहनखेड़ा (राजगढ़ म.प्र.) तीर्थ में देव-विमान के समान शोभायमान है। प्रति वर्ष लाखों श्रद्धालु गुरु-भक्त वहाँ दर्शनार्थ जाते हैं । मेला पौष शुक्ला सप्तमी को प्रतिवर्ष लगता है। इस चमत्कारिक मंदिरजी में मेले के दिन अमी-केसर झरता है । लन्दन में जैन मंदिर में उनकी नव-निर्मित प्रतिमा लेटेस्टर में प्रतिष्ठित हैं। विश्वपूज्य प्रेम और करुणा के रूप में सबके हृदय-मंदिर में विराजमान हैं। विश्वपज्य ने शिक्षा और समाजोत्थान के लिए सरस्वती मंदिर, सांस्कृतिक उत्थान के लिए संस्कृति केन्द्र-मंदिर एवं ग्राम-ग्राम, नगर-नगर पैदल विहार कर अहिंसात्मक-क्रान्ति और नैतिक जीवन जीने के लिए मानवमात्र को अभिप्रेरित किया। विश्वपूज्य का जीवन ज्योतिर्मय था । उनका संदेश था - 'जीओ और जीने दो-क्योंकि सभी प्राणी मैत्री के सत्र में बँधे हए हैं। 'परस्परोपग्रहो जीवानाम्' की निर्मल गंग-धारा प्रवाहित कर उन्होंने न केवल भारतीय संस्कृति की रिमा बढ़ाई, अपितु विश्व-मानस को भगवान् महावीर के अहिंसा ती का अमृत पिलाया। उनकी रचनाएँ लो म रिया। उनका अभिधान राजेन्द्र कोष विश्वसाहित्य का चिन्तामणि रत्ल हैं। Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विश्वपूज्य प्रभु श्रीमद्विजय राजेन्द्रसूरि शताब्दि-दशाब्दि ___ महोत्सव के उपलक्ष्य में पंचम खण्ड अभिधान राजेन्द्र कोष में, धारस पंचम खण्ड दिव्याशीष प्रदाता : परम पूज्य, परम कृपालु, विश्वपूज्य प्रभुश्रीमद्विजय राजेन्द्रसूरीश्वरजी म. सा. आशीषप्रदाता : राष्ट्रसन्त वर्तमानाचार्यदेवेश श्रीमद्विजय जयन्तसेनसूरीश्वरजी म. सा. __प्रेरिका : प. पू. वयोवृद्धा सरलस्वभाविनी साध्वीरत्ना श्री महाप्रभाश्रीजी म. सा. लेखिका : साध्वी डॉ. प्रियदर्शनाश्री, (एम. ए. पीएच-डी.) साध्वी डॉ. सुदर्शनाश्री, (एम. ए. पीएच-डी.) MahalaNEHATARNAKAalha Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुकृत सहयोगी रेवतड़ा (राज.) निवासी श्रीमान् शा. मीठालालजी, अशोककुमार, घीसूलाल, महेन्द्रकुमार, विमलकुमार, मुकेशकुमार, आशीष, पंकज, रोहित बेट-पोता-पड़पोता श्री उकचन्दजी हीराणी । A . प्राप्ति स्थान श्री मदनराजजी जैन द्वारा - शा. देवीचन्दजी छगनलालजी आधुनिक वस्त्र विक्रेता सदर बाजार, भीनमाल-३४३०२९ फोन : (०२९६९) २०१३२ AAAEROADDREARRE M2M2M2M2M2M2M2M2M2M2M2M2022512M2M2M2M2M2M2M2M2M2M2M2M2M2 MMS2 प्रथम आवृत्ति वीर सम्वत् : २५२५ राजेन्द्र सम्वत् : ९२ विक्रम सम्वत् : २०५५ ईस्वी सन् : १९९८ मूल्य : ५०-०० प्रतियाँ : २००० M MAMPIMPAN अक्षराङ्कन लेखित 1) १०, रूपमाधुरी सोसायटी, माणेकबाग, अहमदाबाद-१५ IMAM2M2 ASA मुद्रण सर्वोदय ओफसेट प्रेमदरवाजा बहार, अहमदाबाद. MPSMEMEM2 AC TANTANTANTAN Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुक्रम कहाँ क्या ? 90 १. समर्पण - साध्वी प्रिय-सुदर्शनाश्री २. शुभाकांक्षा - प.पू.राष्ट्रसन्त श्रीमद्जयन्तसेनसूरीश्वरजी म.सा. ३. मंगलकामना - प.पू.राष्ट्रसन्त श्रीमद्पद्मसागरसूरीश्वरजी म.सा. १४. रस-पूर्ति - प.पू.मुनिप्रवर श्री जयानन्दविजयजी म.सा. ९ ५५. पुरोवाक् - साध्वीद्वय डॉ. प्रिय-सुदर्शनाश्री ६. आभार - साध्वीद्वय डॉ. प्रिय-सुदर्शनाश्री ७. सुकृत सहयोगी श्रीमान् मीठालालजी उकचन्दजी हीराणी 98८. आमुख - डॉ. जवाहरचन्द्र पटनी ५४९. मन्तव्य - डॉ. लक्ष्मीमल्ल सिंघवी X (पद्मविभूषण, पूर्वभारतीय राजदूत-ब्रिटेन) १०. दो शब्द - पं. दलसुखभाई मालवणिया 80 ११. 'सूक्ति-सुधारस': मेरी दृष्टि में - डॉ. नेमीचंद जैन 98१२. मन्तव्य - डॉ. सागरमल जैन १३. मन्तव्य - पं. गोविन्दराम व्यास X४१४. मन्तव्य - पं. जयनंदन झा व्याकरण साहित्याचार्य १५. मन्तव्य - पं. हीरालाल शास्त्री एम.ए. १६. मन्तव्य - डॉ. अखिलेशकुमार राय २१ १७. मन्तव्य - डॉ. अमृतलाल गाँधी १८. मन्तव्य - भागचन्द जैन कवाड, प्राध्यापक (अंग्रेजी) ३७ १९. दर्पण 0000000000000000000000 Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 00२०. 'विश्वपूज्य': जीवन-दर्शन १४ २१. 'सूक्ति-सुधारस' (पंचम खण्ड) ५४ २२. प्रथम परिशिष्ट - (अकारादि अनुक्रमणिका) XX २३. द्वितीय परिशिष्ट - (विषयानुक्रमणिका) २४. तृतीय परिशिष्ट (अभिधान राजेन्द्रः पृष्ठ संख्या अनुक्रमणिका) 22 २५. चतुर्थ परिशिष्ट - जैन एवं जैनेतर ग्रन्थः गाथा/ श्लोकादि अनुक्रमणिका XX२६. पंचम परिशिष्ट ('सूक्ति-सुधारस' में प्रयुक्त संदर्भ-ग्रन्थ सूची) 30 २७. विश्वपूज्य प्रणीत सम्पूर्ण वाङ्मय 00 २८. लेखिका द्वय की महत्त्वपूर्ण कृतियाँ Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Monasti FIVE SAROVARMERHIT S SEE indian विश्वपूज्य प्रातःस्मरणीय प्रभु श्रीमद्विजय राजेन्द्रसूरीश्वरजी म. सा. Page #8 --------------------------------------------------------------------------  Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पू. राष्ट्रसन्त आचार्य श्रीमद् विजय जयन्तसेन सूरीश्वरजी म. सा. Page #10 --------------------------------------------------------------------------  Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परम पूज्या सरलस्वभाविनी साध्वीरत्ना श्री महाप्रभाश्रीजी म. सा. Page #12 --------------------------------------------------------------------------  Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -••-•| 1 समर्पण रवि-प्रभा सम है मुखश्री, चन्द्र सम अति प्रशान्त । तिमिर में भटके जनके, दीप उज्जवल कान्त ॥ १ ॥ लघुता में प्रभुता भरी, विश्व - पूज्य मुनीन्द्र । करुणा सागर आप थे, यति के बने यतीन्द्र ॥ २ ॥ लोक-मंगली थे कमल, योगीश्वर गुरुराज । सुमन-माल सुन्दर सजी, करे समर्पण आज ॥ ३ ॥ अभिधान राजेन्द्र कोष, रचना रची ललाम । नित चरणों में आपके, विधियुत् करें प्रणाम ॥ ४ ॥ काव्य-शिल्प समझें नहीं, फिर भी किया प्रयास | गुरु- कृपा से यह बने, जन-मन का विश्वास ॥ ५ ॥ प्रियदर्शना की दर्शना, सुदर्शना भी साथ । राज रहे राजेन्द्र का, चरण झुकाते माथ ॥ ६ ॥ श्री राजेन्द्रगुणगीतवेणु श्री राजेन्द्रपदपद्मरेणु साध्वी प्रियदर्शना श्री साध्वी सुदर्शनाश्री 10-010-0 ... Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2 शुभाकांक्षा ! विश्वविश्रुत है श्री अभिधान राजेन्द्र कोष । विश्व की आश्चर्यकारक घटना है । साधन दुर्लभ समय में इतना सारा संगठन, संकलन अपने आप में एक अलौकिक सा प्रतीत होता है । रचनाकार निर्माता ने वर्षों तक इस कोष प्रणयन का चिन्तन किया, मनोयोगपूर्वक मनन किया, पश्चात् इस भगीरथ कार्य को संपादित करने का समायोजन किया । ___महामंत्र नवकार की अगाध शक्ति ! कौन कह सकता है शब्दों में उसकी शक्ति को । उस महामंत्र में उनकी थी परम श्रद्धा सह अनुरक्ति एवं सम्पूर्ण समर्पण के साथ उनकी थी परम भक्ति! इस त्रिवेणी संगम से संकल्प साकार हुआ एवं शुभारंभ भी हो गया । १४ वर्षों की सतत साधना के बाद निमित हुआ यह अभिधान राजेन्द्र कोष । इसमें समाया है सम्पूर्ण जैन वाङ्मय या यों कहें कि जैन वाड्मय का प्रतिनिधित्व करता है यह कोष । अंगोपांग से लेकर मूल, प्रकीर्णक, छेद ग्रन्थों के सन्दर्भो से समलंकृत है यह विराट्काय ग्रन्थ । इस बृहद् विश्वकोष के निर्माता हैं परम योगीन्द्र सरस्वती पुत्र, समर्थ शासनप्रभावक , सत्क्रिया पालक, शिथिलाचार उन्मूलक, शुद्धसनातन सन्मार्ग प्रदर्शक जैनाचार्य विश्वपूज्य प्रातः स्मरणीय प्रभु श्रीमद् विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी महाराजा ! सागर में रत्नों की न्यूनता नहीं। 'जिन खोजा तिन पाइयाँ' यह कोष भी सागर है जो गहरा है, अथाह है और अपार है । यह ज्ञान सिंधु नाना प्रकार की सूक्ति रत्नों का भंडार है । इस ग्रन्थराज ने जिज्ञासुओं की जिज्ञासा शान्त की। मनीषियों की मनीषा में अभिवृद्धि की। इस महासागर में मुक्ताओं की कमी नहीं । सूक्तियों की श्रेणिबद्ध पंक्तियाँ प्रतीत होती हैं। अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-5.6 Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तुत पुस्तक है जन-जन के सम्मुख 'अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्तिसुधारस' (१ से ७ खण्ड) । मेरी आज्ञानुवर्तिनी विदुषी सुसाध्वी श्री डॉ. प्रियदर्शनाश्रीजी एवं सुसाध्वीश्री डॉ. सुदर्शनाश्रीजी ने अपनी गुरुभक्ति को प्रदर्शित किया है इस 'सूक्ति-सुधारस' को आलेखित करके । गुरुदेव के प्रति संपूर्ण समर्पित उनके भाव ने ही यह अनूठा उपहार पाठकों के सम्मुख रखने को प्रोत्साहित किया है उनको । यह 'सूक्ति-सुधारस' (१ से ७ खण्ड) जिज्ञासु जनों के लिए अत्यन्त ही सुन्दर है । 'गागर में सागर है' । गुरुदेव की अमर कृति कालजयी कृति है, जो उनकी उत्कृष्ट त्याग भावना की सतत अप्रमत्त स्थिति को उजागर करनेवाली कृति है । निरन्तर ज्ञान-ध्यान में लीन रहकर तपोधनी गुरुदेव श्री 'महतो महियान्' पद पर प्रतिष्ठित हो गए हैं; उन्हें कषायों पर विजयश्री प्राप्त करने में बड़ी सफलता मिली और वे बीसवीं शताब्दि के सदा के लिए संस्मरणीय परमश्रेष्ठ पुरुष बन गए हैं 1 प्रस्तुत कृति की लेखिका डॉ. प्रियदर्शनाश्रीजी एवं डॉ. सुदर्शनाश्रीजी अभिनन्दन की पात्रा हैं, जो अहर्निश 'अभिधान राजेन्द्र कोष' के गहरे सागरमें गोते लगाती रहती हैं । 'जिन खोजा तिन पाइयाँ गहरे पानी पेठ' की उक्ति के अनुसार श्रम, समय, मन-मस्तिष्क सभी को सार्थक किया है श्रमणी द्वयने । मेरी ओर से हार्दिक अभिनंदन के साथ खूब - खूब बधाई इस कृति की लेखिका साध्वीद्वय को । वृद्धि हो उनकी इस प्रवृत्ति में, यही आकांक्षा । राजेन्द्र सूरि जैन ज्ञानमंदिर अहमदाबाद दि. २९-४-९८ अक्षय तृतीया - विजय जयन्तसेन सूरि अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-5 07 Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 3 | मंगल कामना विदुषी डॉ. साध्वीश्री प्रिय-सुदर्शनाश्रीजीम. आदि, अनुवंदना सुखसाता । आपके द्वारा प्रेषित 'विश्वपूज्य' (श्रीमद् राजेन्द्रसूरि: जीवन-सौरभ), 'अभिधान राजेन्द्रकोष में, सूक्ति-सुधारस' (1 से 7 खण्ड) एवं 'अभिधान राजेन्द्र कोष में, जैनदर्शन वाटिका' की पाण्डुलिपियाँ मिली हैं। पुस्तकें सुंदर हैं । आपकी श्रुत भक्ति अनुमोदनीय है । आपका यह लेखनश्रम अनेक व्यक्तियों के लिये चित्त के विश्राम का कारण बनेगा, ऐसा मैं मानता हूँ। आगमिक साहित्य के चिंतन स्वाध्याय में आपका साहित्य मददगार बनेगा। उत्तरोत्तर साहित्य क्षेत्र में आपका योगदान मिलता रहे, यही मंगल कामना करता हूँ। उदयपुर 14-5-98 पद्मसागरसूरि श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र कोबा-382009 (गुज.) अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-5.8 Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनशासन में स्वाध्याय का महत्त्व सर्वाधिक है । जैसे देह प्राणों पर आधारित है वैसे ही जिनशासन स्वाध्याय पर | आचार-प्रधान ग्रन्थों में साधु के लिए पन्द्रह घंटे स्वाध्याय का विधान है। निद्रा, आहार, विहार एवं निहार का जो समय है वह भी स्वाध्याय की व्यवस्था को सुरक्षित रखने के लिए है अर्थात् जीवन पूर्ण रूप से स्वाध्यायमय ही होना चाहिए ऐसा जिनशासन का उद्घोष है । वाचना, पृच्छना, परावर्तना, अनुप्रेक्षा और धर्मकथा इन पाँच प्रभेदों से स्वाध्याय के स्वरूप को दर्शाया गया है, इनका क्रम व्यवस्थित एवं व्यावहारिक है। श्रमण जीवन एवं स्वाध्याय ये दोनों-दूध में शक्कर की मीठास के समान एकमेक हैं । वास्तविक श्रमण का जीवन स्वाध्यायमय ही होता है । क्षमाश्रमण का अर्थ है 'क्षमा के लिए श्रम रत' और क्षमा की उपलब्धि स्वाध्याय से ही प्राप्त होती है । स्वाध्याय हीन श्रमण क्षमाश्रमण हो ही नहीं सकता । श्रमण वर्ग आज स्वाध्याय रत हैं और उसके प्रतिफल रूप में अनेक साधु-साध्वी आगमज्ञ बने हैं। प्रात:स्मरणीय विश्व पूज्य श्रीमद्विजय राजेन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा ने अभिधान राजेन्द्र कोष के सप्त भागों का निर्माण कर स्वाध्याय का सुफल विश्व को भेंट किया है। उन सात भागों का मनन चिन्तन कर विदुषी साध्वीरत्नाश्री महाप्रभाश्रीजीम. की विनयरत्ना साध्वीजी श्री डॉ. प्रियदर्शनाश्रीजी एवं डॉ. श्री सुदर्शनाश्रीजी ने " अभिधान राजेन्द्र कोष में, सक्ति-सुधारस" को सात खण्डों में निर्मित किया हैं जो आगमों के अनेक रहस्यों के मर्म से ओतप्रोत हैं । __साध्वी द्वय सतत स्वाध्याय मग्ना हैं, इन्हें अध्ययन एवं अध्यापन का इतना रस है कि कभी-कभी आहार की भी आवश्यकता नहीं रहती । अध्ययनअध्यापन का रस ऐसा है कि जो आहार के रस की भी पूर्ति कर देता है। अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-5 •9 - Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'सूक्ति सुधारस' (१ से ७ खण्ड) के माध्यम से इन्होंने प्रवचनसेवा, दादागुरुदेव श्रीमद्विजय राजेन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा के वचनों की सेवा, तथा संघ-सेवा का अनुपम कार्य किया है। ___'सूक्ति सुधारस' में क्या है ? यह तो यह पुस्तक स्वयं दर्शा रही है। पाठक गण इसमें दर्शित पथ पर चलना प्रारंभ करेंगे तो कषाय परिणति का ह्रास होकर गुणश्रेणी पर आरोहण कर अति शीघ्र मुक्ति सुख के उपभोक्ता बनेंगे; यह निस्संदेह सत्य है। साध्वी द्वय द्वारा लिखित ये 'सात खण्ड' भव्यात्मा के मिथ्यात्वमल को दूर करने में एवं सम्यग्दर्शन प्राप्त करवाने में सहायक बनें, यही अंतराभिलाषा. भीनमाल वि. संवत् २०५५, वैशाख वदि १० मुनि जयानंद अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-50 10 Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लगभग दस वर्ष पूर्व जालोर - स्वर्णगिरितीर्थ - विश्वपूज्य की साधना स्थली पर हमनें 36 दिवसीय अखण्ड मौनपूर्वक आयम्बिल व जप के साथ आराधना की थी, उस समय हमारे हृदय-मन्दिर में विश्वपूज्य श्रीमद् राजेन्द्र सूरीश्वरजी गुरुदेव श्री की भव्यतम प्रतिमा प्रतिष्ठित हुई, जिसके दर्शन कर एक चलचित्र की तरह हमारे नयन-पट पर गुरुवर की सौम्य, प्रशान्त, करुणार्द्र और कोमल भावमुद्रा सहित मधुर मुस्कान अंकित हो गई । फिर हमें उनके एक के बाद एक अभिधान राजेन्द्र कोष के सप्त भाग दिखाई दिए और उन ग्रन्थों के पास एक दिव्य महर्षि की नयन रम्य छवि जगमगाने लगी। उनके नयन खुले और उन्होंने आशीर्वाद मुद्रा में हमें संकेत दिए ! और हम चित्र लिखितसी रह गईं । तत्पश्चात् आँखें खोली तो न तो वहाँ गुरुदेव थे और न उनका 'कोष । तभी से हम दोनों ने दृढ़ संकल्प किया कि हम विश्वपूज्य एवं उनके द्वारा निर्मित कोष पर कार्य करेंगी और जो कुछ भी मधु-सञ्चय होगा, वह जनता-जनार्दन को देंगी ! विश्वपूज्य का सौरभ सर्वत्र फैलाएँगी। उनका वरदान हमारे समस्त ग्रन्थ-प्रणयन की आत्मा है । 16 जून, सन् 1989 के शुभ दिन 'अभिधान राजेन्द्र कोष' में, 'सूक्तिसुधारस' के लेखन -कार्य का शुभारम्भ किया । वस्तुतः इस ग्रन्थ-प्रणयन की प्रेरणा हमें विश्वपूज्य गुरुदेवश्री की असीम कृपा-वृष्टि, दिव्याशीर्वाद, करुणा और प्रेम से ही मिली है। ___ 'सूक्ति' शब्द सु + उक्ति इन दो शब्दों से निष्पन्न है। सु अर्थात् श्रेष्ठ और उक्ति का अर्थ है कथन । सूक्ति अर्थात् सुकथन । सुकथन जीवन को सुसंस्कृत एवं मानवीय गुणों से अलंकृत करने के लिए उपयोगी है। सैकड़ों दलीलें एक तरफ और एक चुटैल सुभाषित एक तरफ । सुत्तनिपात में कहा 'विञ्चात सारानि सुभासितानि' 1 सुभाषित ज्ञान के सार होते हैं । दार्शनिकों, मनीषियों, संतों, कवियों तथा साहित्यकारों ने अपने सदग्रन्थों में मानव को जो हितोपदेश दिया है तथा 1. सुत्तनिपात - 2/21/6 अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-5 . 11 - Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महषि-ज्ञानीजन अपने प्रवचनों के द्वारा जो सुवचनामृत पिलाते हैं - वह संजीवनी औषधितुल्य है। नि:संदेह सुभाषित, सुकथन या सूक्तियाँ उत्प्रेरक, मार्मिक, हृदयस्पर्शी, संक्षिप्त, सारगर्भित अनुभूत और कालजयी होती हैं । इसीकारण सुकथनों । सूक्तियों का विद्युत्-सा चमत्कारी प्रभाव होता है । सूक्तियों की महत्ता पर प्रकाश डालते हुए महर्षि वशिष्ठ ने योगवाशिष्ठ में कहा है – “महान् व्यक्तियों की सूक्तियाँ अपूर्व आनन्द देनेवाली, उत्कृष्टतर पद पर पहुँचानेवाली और मोह को पूर्णतया दूर करनेवाली होती हैं ।"। यही बात शब्दान्तर में आचार्य शुभचन्द्र ने ज्ञानार्णव में कही है - "मनुष्य के अन्तर्हृदय को जगाने के लिए, सत्यासत्य के निर्णय के लिए, लोक-कल्याण के लिए, विश्व-शान्ति और सम्यक् तत्त्व का बोध देने के लिए सत्पुरुषों की सूक्ति का प्रवर्तन होता है ।" : सुवचनों, सुकथनों को धरती का अमृतरस कहें तो कोई अत्युक्ति नहीं होगी । कालजयी सक्तियाँ वास्तव में अमृतरस के समान चिरकाल से प्रतिष्ठित रही हैं और अमृत के सदृश ही उन्होंने संजीवनी का कार्य भी किया है । इस संजीवनी रस के सेवन मात्र से मृतवत् मूर्ख प्राणी, जिन्हें हम असल में मरे हुए कहते हैं, जीवित हो जाते हैं, प्राणवान् दिखाई देने लगते हैं। मनीषियों का कथन हैं कि जिसके पास ज्ञान है, वही जीवित है, जो अज्ञानी है वह तो मरा हुआ ही होता है। इन मृत प्राणियों को जीवित करने का अमृत महान् ग्रन्थ अभिधान-राजेन्द्र कोष में प्राप्त होगा । शिवलीलार्णव में कहा है - "जिस प्रकार बालू में पड़ा पानी वहीं सूख जाता है, उसीप्रकार संगीत भी केवल कान तक पहुँचकर सूख जाता है, किन्तु कवि की सूक्ति में ही ऐसी शक्ति है, कि वह सुगन्धयुक्त अमृत के समान हृदय के अन्तस्तल तक पहुँचकर मन को सदैव आह्लादित करती रहती है। इसीलिए 'सुभाषितों का रस अन्य रसों की अपेक्षा अधिक श्रेष्ठ है ।' + अमृतरस छलकाती ये सूक्तियाँ अन्तस्तल - 1. 2 अपूर्वाह्लाद दायिन्य: उच्चस्तर पदाश्रयाः । अतिमोहापहारिण्यः सूक्तयो हि महियसाम् ॥ योगवाशिष्ठ 5/415 प्रबोधाय विवेकाय, हिताय प्रशमाय च। सम्यक् तत्त्वोपदेशाय, सतां सूक्ति प्रवर्तते ॥ ज्ञानार्णव कर्णगतं शुष्यति कर्ण एव, संगीतकं सैकत वारिरीत्या । आनन्दयत्यन्तरनुप्रविष्य, सूक्ति कवे रेव सुधा सगन्धा ॥ - शिवलीलार्णव नूनं सुभाषित रसोन्यः रसातिशायी - योग वाशिष्ठ 5/4/5 अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-5 • 12 Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ को स्पर्श करती हुई प्रतीत होती है । वस्तुतः जीवन को सुरभित व सुशोभित करनेवाला सुभाषित एक अनमोल रत्न है। ____ सुभाषित में जो माधुर्य रस होता है, उसका वर्णन करते हुए कहा है - "सुभाषित का रस इतना मधुर [मीठा] है कि उसके आगे द्राक्षा म्लानमुखी हो गई। मिश्री संखकर पत्थर जैसी किरकिरी हो गई और सुधा भयभीत होकर स्वर्ग में चली गई।" : __ अभिधान राजेन्द्र कोष की ये सूक्तियाँ अनुभव के 'सार' जैसी, समुद्र-मन्थन के 'अमृत' जैसी, दघि-मन्थन के 'मक्खन' जैसी और मनीषियों के आनन्ददायक 'साक्षात्कार' जैसी "देखन में छोटे लगे, घाव करे गम्भीर" की उक्ति को चरितार्थ करती हैं । इनका प्रभाव गहन हैं । ये अन्तर ज्योति जगाती हैं। वास्तव में, अभिधान राजेन्द्र कोष एक ऐसी अमरकृति है, जो देशविदेश में लोकप्रियता प्राप्त कर चुकी है। यह एक ऐसा विराट् शब्द-कोष है, जिसमें परम मधुर अर्धमागधी भाषा, इक्षुरस के समान पुष्टिकारक प्राकृतभाषा और अमृतवर्षिणी संस्कृत भाषा के शब्दों का सरस व सरल निरुपण हुआ है। विश्वपूज्य परमाराध्यपाद मंगलमूर्ति गुरुदेव श्रीमद् राजेन्द्र-सूरीश्वरजी महाराजा साहेब पुरातन ऋषि परम्परा के महामुनीश्वर थे, जिनका तपोबल एवं ज्ञान-साधना अनुपम, अद्वितीय थी। इस प्रज्ञामहर्षि ने सन् 1890 में इस कोष का श्रीगणेश किया तथा सात भागों में 14 वर्षों तक अपूर्व स्वाध्याय, चिन्तन एवं साधना से सन् 1903 में परिपूर्ण किया। लोक-मङ्गल का यह कोष सुधासिन्धु है। इस कोष में सूक्तियों का निरुपण-कौशल पण्डितों, दार्शनिकों और साधारण जनता-जनार्दन के लिए समान उपयोगी है। इस कोष की महनीयता को दर्शाना सूर्य को दीपक दिखाना है । हमने अभिधान राजेन्द्र कोष की लगभग 2700 सक्तियों का हिन्दी सरलार्थ प्रस्तुत कृति 'सूक्ति सुधारस' के सात खण्डों में किया है। 'सूक्ति सुधारस' अर्थात् अभिधान राजेन्द्र-कोष-सिन्धु के मन्थन से निःसृत अमृत-रस से गूंथा गया शाश्वत सत्य का वह भव्य गुलदस्ता है, जिसमें 2667 सुकथनों/सूक्तियों की मुस्कराती कलियाँ खिली हुई हैं। ऐसे विशाल और विराट कोष-सिन्धु की सूक्ति रूपी मणि-रत्नों को द्राक्षाम्लानमुखी जाता, शर्करा चाश्मतां गता, सुभाषित रसस्याग्रे, सुधा भीता दिवंगता ॥ अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस ..खण्ड-5 • 13 Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खोजना कुशल गोताखोर से सम्भव है। हम निपट अज्ञानी हैं - न तो साहित्यविभूषा को जानती हैं, न दर्शन की गरिमा को समझती हैं और न व्याकरण की बारीकी समझती हैं, फिर भी हमने इस कोष के सात भागों की सूक्तियों को सात खण्डों में व्याख्यायित करने की बालचेष्टा की है। यह भी विश्वपूज्य के प्रति हमारी अखण्ड भक्ति के कारण । हमारा बाल प्रयास केवल ऐसा ही है - वक्तुं गुणान् गुण समुद्र ! शशाङ्ककान्तान् । कस्ते क्षमः सुरगुरु प्रतिमोऽपि बुद्ध्या कल्पान्त काल पवनोद्धत नक्र चक्रं । को वा तरीतुमलमम्बुनिधिं भुजाभ्याम् ॥ हमने अपनी भुजाओं से कोष रूपी विशाल समुद्र को तैरने का प्रयास केवल विश्व-विभु परम कृपालु गुरुदेवश्री के प्रति हमारी अखण्ड श्रद्धा और प.पू. परमाराध्यपाद प्रशान्तमूति कविरत्न आचार्य देवेश श्रीमद् विजय विद्याचन्द्रसूरीश्वरजी म.सा. तत्पट्टालंकार प. पूज्यपाद साहित्यमनीषी राष्ट्रसन्त श्रीमद विजय जयन्तसेनसूरीश्वरजी महाराजा साहेब की असीमकृपा तथा परम पूज्या परमोपकारिणी गुरुवर्या श्री हेतश्रीजी म.सा. एवं परम पूज्या सरलस्वभाविनी स्नेह-वात्सल्यमयी साध्वीरत्ना श्री महाप्रभाश्रीजी म. सा. [हमारी सांसारिक पूज्या दादीजी] की प्रीति से किया है । जो कुछ भी इसमें हैं, वह इन्हीं पञ्चमूर्ति का प्रसाद है। हम प्रणत हैं उन पंचमूर्ति के चरण कमलों में, जिनके स्नेह-वात्सल्य व आशीर्वचन से प्रस्तुत ग्रन्थ साकार हो सका है। हमारी जीवन-क्यारी को सदा सींचनेवाली परम श्रद्धेया [हमारी संसारपक्षीय दादीजी] पूज्यवर्या श्री के अनन्य उपकारों को शब्दों के दायरे में वाँधने में हम असमर्थ हैं। उनके द्वारा प्राप्त अमित वात्सल्य व सहयोग से ही हमें सतत ज्ञान-ध्यान, पठन-पाठन, लेखन व स्वाध्यायादि करने में हरतरह की सुविधा रही है। आपके इन अनन्त उपकारों से हम कभी भी उऋण नहीं हो सकतीं। हमारे पास इन गुरुजनों के प्रति आभार प्रदर्शन करने के लिए न तो शब्द है, न कौशल है, न कला है और न ही अलंकार ! फिर भी हम इनकी करुणा, कृपा और वात्सल्य का अमृतपान कर प्रस्तुत ग्रंथ के आलेखन में सक्षम बन सकी हैं। हम उनके पद-पद्मों में अनन्यभावेन समर्पित हैं, नतमस्तक हैं । अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-5 • 14 Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इसमें जो कुछ भी श्रेष्ठ और मौलिक है, उस गुरु-सत्ता के शुभाशीष का ही यह शुभ फल है। विश्वपूज्य प्रभु श्रीमद् राजेन्द्रसूरि शताब्दि-दशाब्दि महोत्सव के उपलक्ष्य में अभिधान राजेन्द्र कोष के सुगन्धित सुमनों से श्रद्धा-भक्ति के स्वर्णिम धागे से गंथी यह पंचम सुमनमाला उन्हें पहना रही हैं, विश्वपूज्य प्रभु हमारी इस नन्हीं माला को स्वीकार करें । हमें विश्वास है यह श्रद्धा-भक्ति-सुमन जन-जीवन को धर्म, नीतिदर्शन-ज्ञान-आचार, राष्ट्रधर्म, आरोग्य, उपदेश, विनय-विवेक, नम्रता, तपसंयम, सन्तोष-सदाचार, क्षमा, दया, करुणा, अहिंसा-सत्य आदि की सौरभ से महकाता रहेगा और हमारे तथा जन-जन के आस्था के केन्द्र विश्वपूज्य की यशः सुरभि समस्त जगत् में फैलाता रहेगा। ___ इस ग्रन्थ में त्रुटियाँ होना स्वाभाविक ही है, क्योंकि हर मानव कृति में कुछ न कुछ त्रुटियाँ रह ही जाती हैं। इसीलिए लेनिन ने ठीक ही कहा है : त्रुटियाँ तो केवल उसी से नहीं होगी जो कभी कोई काम करे ही नहीं। गच्छतः स्खलनं क्वापि, भवत्येव प्रमादतः । हसन्ति दुर्जनास्तत्र, समादधति सज्जनाः ॥ - श्री राजेन्द्रगुणगीतवेणु - श्री राजेन्द्रपदपद्मरेणु डॉ. प्रियदर्शनाश्री, एम. ए., पीएच.-डी. डॉ. सुदर्शनाश्री, एम. ए., पीएच.-डी. . अभियान राजेन्द्र कोप में, सूक्ति-सुधारस खण्ड-5. अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-5 . 15 Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -9860852 आभार हम परम पूज्य राष्ट्रसन्त आचार्यदेव श्रीमद् जयन्तसेन सूरीश्वरजी म. सा. "मधुकर", परम पूज्य राष्ट्रसन्त आचार्यदेव श्रीमद् पद्मसागर सूरीश्वरजी म. सा. एवं प. पू. मुनिप्रवर श्री जयानन्द विजयजी म. सा. के चरण कमलों में वंदना करती हैं, जिन्होंने असीम कृपा करके अपने मन्तव्य लिखकर हमें अनुगृहीत किया है। हमें उनकी शुभप्रेरणा व शुभाशीष सदा मिलती रहे, यही करबद्ध प्रार्थना है। इसके साथ ही हमारी सुविनीत गुरुबहनें सुसाध्वीजी श्री आत्मदर्शनाश्रीजी, श्रीसम्यग्दर्शनाश्रीजी (सांसारिक सहोदरबहनें), श्री चारूदर्शनाश्रीजी एवं श्री प्रीतिदर्शनाश्रीजी (एम.ए.) की शुभकामना का सम्बल भी इस ग्रन्थ के प्रणयन में साथ रहा है । अत: उनके प्रति भी हृदय से आभारी हैं। ___ हम पद्म विभूषण, पूर्व भारतीय राजदूत ब्रिटेन, विश्वविख्यात विधिवेत्ता एवं महान् साहित्यकार माननीय डॉ. श्रीमान् लक्ष्मीमल्लजी सिंघवी के प्रति कृतज्ञता प्रकट करती हैं, जिन्होंने अति भव्य मन्तव्य लिखकर हमें प्रेरित किया है। तदर्थ हम उनके प्रति हृदय से अत्यन्त आभारी हैं। इस अवसर पर हिन्दी-अंग्रेजी के सुप्रसिद्ध मनीषी सरलमना माननीय डो. श्री जवाहरचन्द्रजी पटनी का योगदान भी जीवन में कभी नहीं भुलाया जा सकता है। पिछले दो वर्षों से सतत उनकी यही प्रेरणा रही कि आप शीघ्रातिशीघ्र 'अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस' [1 से 7 खण्ड], 'अभिधान राजेन्द्र कोष में जैनदर्शन वाटिका', 'अभिधान राजेन्द्र कोष में, कथा-कुसुम' और 'विश्वपूज्य' (श्रीमद राजेन्द्रसूरिः जीवन-सौरभ) आदि ग्रन्थों को सम्पन्न करें। उनकी सक्रिय प्रेरणा, सफल निर्देशन, सतत प्रोत्साहन व आत्मीयतापूर्ण सहयोगसुझाव के कारण ही ये ग्रन्थ [1 से 10 खण्ड] यथासमय पूर्ण हो सके हैं। पटनी सा0 ने अपने अमूल्य क्षणों का सदुपयोग प्रस्तुत ग्रन्थ के अवलोकन में किया। हमने यह अनुभव किया कि देहयष्टि वार्धक्य के कारण कृश होती है, परन्तु आत्मा अजर अमर है। गीता में कहा है : नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि, नैनं दहति पावकः । न चैनं क्लेदयन्त्यापो, न शोषयति मारुतः ॥ कर्मयोगी का यही अमर स्वरूप है। -अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-5016 Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हम साध्वीद्वय उनके प्रति हृदय से कृतज्ञा हैं । इतना ही नहीं, अपितु प्रस्तुत ग्रन्थों के अनुरूप अपना आमुख लिखने का कष्ट किया तदर्थ भी हम आभारी हैं। उनके इस प्रयास के लिए हम धन्यवाद या कृतज्ञता ज्ञापन कर उनके अमूल्य श्रम का अवमूल्यन नहीं करना चाहतीं । बस, इतना ही कहेंगी कि इस सम्पूर्ण कार्य के निमित्त उन्हें ज्ञान के इस अथाह सागर में बार-बार डुबकियाँ लगाने का जो सुअवसर प्राप्त हुआ, वह उनके लिए महान सौभाग्य है। __तत्पश्चात् अनवरत शिक्षा के क्षेत्र में सफल मार्गदर्शन देनेवाले शिक्षा गुरुजनों के प्रति भी कृतज्ञता ज्ञापन करना हमारा परम कर्तव्य है। बी. ए. [प्रथम खण्ड] से लेकर आजतक हमारे शोध निर्देशक माननीय डॉ. श्री अखिलेशकुमारजी राय सा. द्वारा सफल निर्देशन, सतत प्रोत्साहन एवं निरन्तर प्रेरणा को विस्मत नहीं किया जा सकता, जिसके परिणाम स्वरूप अध्ययन के क्षेत्र में हम प्रगतिपथ पर अग्रसर हुईं । इसी कड़ी में श्री पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध-संस्थान वाराणसी के निदेशक माननीय डॉ. श्री सागरमलजी जैन के द्वारा प्राप्त सहयोग को भी जीवन में कभी भी भुलाया नहीं जा सकता, क्योंकि पार्श्वनाथ विद्याश्रम के परिसर में सालभर रहकर हम साध्वी द्वय ने 'आचारांग का नीतिशास्त्रीय अध्ययन' और 'आनन्दघन का रहस्यवाद' – इन दोनों शोधप्रबन्ध-ग्रन्थों को पूर्ण किया था, जो पीएच.डी. की उपाधि के लिए अवधेश प्रतापसिंह विश्वविद्यालय रीवा (म.प्र) ने स्वीकृत किये । इन दोनों शोधप्रबन्ध ग्रन्थों को पूर्ण करने में डॉ. जैन सा. का अमूल्य योगदान रहा है । इतना ही नहीं, प्रस्तुत ग्रन्थों के अनुरूप मन्तव्य लिखने का कष्ट किया । तदर्थ भी हम आभारी हैं। इनके अतिरिक्त विश्रुत पण्डितवर्य माननीय श्रीमान् दलसुख भाई मालवणियाजी, विद्वद्वर्य डॉ. श्री नेमीचन्दजी जैन, शास्त्रसिद्धान्त रहस्यविद् ? पण्डितवर्य श्री गोविन्दरामजी व्यास, विद्वद्वर्य पं. श्री जयनन्दनजी झा, पण्डितवर्य श्री हीरालालजी शास्त्री एम.ए., हिन्दी अंग्रेजी के सुप्रसिद्ध मनीषी श्री भागचन्दजी जैन, एवं डॉ. श्री अमृतलालजी गाँधी ने भी मन्तव्य लिखकर स्नेहपूर्ण उदारता दिखाई, तदर्थ हम उन सबके प्रति भी हृदय से अत्यन्त आभारी हैं। अन्त में उन सभी का आभार मानती हैं जिनका हमें प्रत्यक्ष व परोक्ष सहकार / सहयोग मिला है। ____ यह कृति केवल हमारी बालचेष्टा है, अत: सुविज्ञ, उदारमना सज्जन हमारी त्रुटियों के लिए क्षमा करें । पौष शुक्ला सप्तमी - डॉ. प्रियदर्शनाश्री 5 जनवरी, 1998 - डॉ. सुदर्शनाश्री अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-5.17 Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुकृत सहयोगी श्रुतज्ञानानुरागी श्रेष्ठिवर्य, श्रीमान् मीठालालजी उकचन्दजी हीराणी ! परमगुरुभक्त धर्मानुरागी श्रावकरत्न रेवतड़ा निवासी शा. मीठालालजी हीराणी सामाजिक, धार्मिक एवं सांस्कृतिक कार्यक्रमों में अतिशय उत्साह एवं उल्लासपूर्वक तन-मन-धन से सदैव सहयोग देते हैं । आपका विद्यानुराग उत्कृष्ट है । यद्यपि वे लक्ष्मीवन्त हैं, फिरभी विनम्रता उनका उत्कृष्ट गुण है । साथ ही आप सूझबूझ के धनी हैं । निश्चय ही उनका लक्ष्य है : ‘सा विद्या या विमुक्तये' । 'कुमारपाल प्रतिबोध' में कहा है : "ज्ञान मोहान्धकार को नाश करने में सूर्य के समान है । ज्ञान कल्पवृक्ष के समान है । ज्ञान देर्जय कुंजरों की घटाओं को भेदने में सिंह के समान है। ज्ञान जीव-अजीव वस्तु-विचार का स्वरूप बतानेवाली तीसरी आँख है। उन्होंने अत्यन्त श्रद्धा-भक्तिभावपूर्वक प.पूज्यपाद राष्ट्रसंत वर्तमानाचार्यदेवेश श्रीमद्विजयजयन्तसेन सूरीश्वरजी म.सा. का अपने ग्राम में ऐतिहासिक-यशस्वी चातुर्मास करवाया। __ गुरुतीर्थ जन्मभूमि भरतपुर में निर्माणाधीन विश्वपूज्य प्रभु श्रीमद् राजेन्द्रसूरि कीर्तिमंदिर के आप ट्रस्टी हैं । आपके पहले उनके पिताश्री भरतपुर गुरुमंदिर के उपाध्यक्ष रहे हैं। ____ आप वर्तमान में अ.भा.श्री राजेन्द्र जैन नवयुवक परिषद के उपाध्यक्ष पद को सुशोभित कर रहे हैं। श्रीनवकार तीर्थ के निर्माण में आपका पूर्ण सहयोग है। इस प्रकार आप अनेकानेक सत्कार्यों में उत्साहपूर्वक रुचि लेते हैं। ___आप "अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति सुधारस" (पंचम खण्ड) का प्रकाशन करवा रहे हैं। उनकी इस शुभ भावना के लिए हमारी जीवन-निर्मात्री प. श्रद्धेया प.पू. साध्वीरत्ना श्री महाप्रभाश्रीजी म. (पृ.दादीजी म.) 'आशीष देती हैं तथा हमारी ओर से आभार और धन्यवाद । वे भविष्य में भी ऐसे सुकृतकार्यों सदा सहयोग देते रहेंगे। यही हमें आशा है। - डॉ. प्रियदर्शनाश्री -डॉ. सदर्शनाश्री अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-5018 Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ • डॉ. जवाहरचन्द्र पटनी, एम. ए. (हिन्दी - अंग्रेजी), पीएच. डी., बी.टी. विश्वपूज्य श्रीमद् राजेन्द्रसूरिजी विरले सन्त थे । उनके जीवन-दर्शन से यह ज्ञात होता है कि वे लोक मंगल के क्षीर-सागर थे। उनके प्रति मेरी श्रद्धाभक्ति तब विशेष बढ़ी, जब मैंने कलिकाल कल्पतरू श्री वल्लभसूरिजी पर 'कलिकाल कल्पतरू' महाग्रन्थ का प्रणयन किया, जो पीएच. डी. उपाधि के लिए जोधपुर विश्वविद्यालय ने स्वीकृत किया । विश्वपूज्य प्रणीत 'अभिधान राजेन्द्र कोष' से मुझे बहुत सहायता मिली । उनके पुनीत पद-पद्मों में कोटिशः वन्दन N 8 फिर पूज्या डॉ. साध्वी द्वय श्री प्रियदर्शनाश्रीजी म. एवं डॉ. श्री सुदर्शनाश्रीजी म. के ग्रन्थ 'अभिधान राजेन्द्र कोष में, जैनदर्शन वाटिका', 'अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस' [1 से 7 खण्ड ], 'विश्वपूज्य' [ श्रीमद् राजेन्द्रसूरि : जीवन-सौरभ), 'अभिधान राजेन्द्र कोष में, कथा - कुसुम', 'सुगन्धित सुमन', 'जीवन की मुस्कान' एवं 'जिन खोजा तिन पाइयाँ' आदि ग्रन्थों का अवलोकन किया । विदुषी साध्वी द्वय ने विश्वपूज्य की तपश्चर्या, कर्मठता एवं कोमलता का जो वर्णन किया है, उससे मैं अभिभूत हो गया और मेरे सम्मुख इस भोगवादी आधुनिक युग में पुरातन ऋषि-महर्षि का विराट् और विनम्र करुणार्द्र तथा सरल, लोक-मंगल का साक्षात् रूप दिखाई दिया । आमुख - - श्री विश्वपूज्य इतने दृढ़ थे कि भयंकर झंझावातों और संघर्षों में भी अडिग रहे । सर्वज्ञ वीतराग प्रभु के परमपुनीत स्मरण से वे अपनी नन्हीं देहकिश्ती को उफनते समुद्र में निर्भय चलाते रहें । स्मरण हो आता है, परम गीतार्थ महान् आचार्य मानतुंगसूरिजी रचित महाकाव्य भक्तामर का यह अमर श्लोक 'अम्भो निधौ क्षुभित भीषण नक्र चक्र, पाठीन पीठ भय दोल्बण वाडवाग्नौ । रङ्गतरंग शिखर स्थित यान पात्रा स्त्रासं विहाय भवतः स्मरणाद् व्रजन्ति ॥' अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-5 • 19 - Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हे स्वामिन् ! क्षुब्ध बने हुए भयंकर मगरमच्छों के समूह और पाठीन तथा पीठ जाति के मत्स्य व भयंकर वडवानल अग्नि जिसमें है, ऐसे समद्र में जिनके जहाज लहरों के अग्रभाग पर स्थित हैं; ऐसे जहाजवाले लोग आपका मात्र स्मरण करने से ही भयरहित होकर निविघ्नरूप से इच्छित स्थान पर पहुँचते हैं। विदुषी डॉ. साध्वी द्वय ने विश्वपूज्य के विराट और कोमल जीवन का यथार्थ वर्णन किया है। उससे यह सहज प्रतीति होती है कि विश्वपूज्य कर्मयोगी महर्षि थे, जिन्होंने उस युग में व्याप्त भ्रष्टाचार और आडम्बर को मिटाने के लिए ग्राम-ग्राम, नगर-नगर, वन-उपवन में पैदल विहार किया । व्यसनमुक्त समाज के निर्माण में अपना समस्त जीवन समर्पित कर दिया । ___विदुषी लेखिकाओंने यह बताया है कि इस महर्षि ने व्यक्ति और समाज को सुसंस्कृत करने हेतु सदाचार-सुचरित्र पर बल दिया तथा सत्साहित्य द्वारा भारतीय गौरवशालिनी संस्कृति को अपनाने के लिए अभिप्रेरित किया । इस महर्षि ने हिन्दी में भक्तिरस-पूर्ण स्तवन, पद एवं सज्झायादि गीत लिखे हैं । जो सर्वजनहिताय, स्वान्तः सुखाय और भक्तिरस प्रधान हैं । इनकी समस्त कृतियाँ लोकमंगल की अमृत गगरियाँ हैं । गीतों में शास्त्रीय संगीत एवं पूजा-गीतों की लावणियाँ हैं जिनमें माधुर्य भरपूर हैं । विश्वपूज्य ने रूपक, उपमा, उत्प्रेक्षा एवं दृष्टान्त आदि अलंकारों का अपने काव्य में प्रयोग किया है, जो अप्रयास है । ऐसा लगता है कि कविता उनकी हृदय वीणा पर सहज ही झंकृत होती थी। उन्होंने यद्यपि स्वान्तः सुखाय गीत रचना की है, परन्तु इनमें लोकमाङ्गल्य का अमृत स्रवित होता है। उनके तपोमय जीवन में प्रेम और वात्सल्य की अमी-वृष्टि होती है । ___ विश्वपूज्य अर्धमागधी, प्राकृत एवं संस्कृत भाषाओं के अद्वितीय महापण्डित थे। उनकी अमरकृति - 'अभिधान राजेन्द्र कोष' में इन तीन भाषाओं के शब्दों की सारगर्भित और वैज्ञानिक व्याख्याएँ हैं । यह केवल पण्डितवरों का ही चिन्तामणि रत्न नहीं है, अपितु जनसाधारण को भी इस अमृत-सरोवर का अमृत-पान करके परम तृप्ति का अनुभव होता है । उदाहरण के लिए - जैनधर्म में 'नीवि' और 'गहँली' शब्द प्रचलित हैं । इन शब्दों की व्याख्या मुझे कहीं भी नहीं मिली । इन शब्दों का समाधान इस कोष में है । 'नीवि' अर्थात् नियमपालन करते हुए विधिपूर्वक आहार लेना । गहुँली गुरु-भगवंतों के शुभागमन पर मार्ग में अक्षत का स्वस्तिक करके उनकी वधामणी करते हैं और गुरुवर के प्रवचन के पश्चात् गीत द्वारा गहुँली गीत गाया जाता है। इनकी अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-5 • 20 Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्युत्पत्ति-व्याख्या 'अभिधान राजेन्द्र कोष' में मिली । पुरातनकाल में गेहूँ का स्वस्तिक करके गुरुजनों का सत्कार किया जाता था । कालान्तर में अक्षतचावल का प्रचलन हो गया । यह शब्द योगरूढ़ हो गया, इसलिए गुरु भगवंतों के सम्मान में गाया जानेवाला गीत भी गहुँली हो गया । स्वर्ण मोहरों या रत्नों से गहुँली क्यों न हो, वह गहुँली ही कही जाती है। भाषा विज्ञान की दृष्टि से अनेक शब्द जिनवाणी की गंगोत्री में लुढ़क-लुढक कर, घिस-घिस कर शालिग्राम बन जाते हैं। विश्वपूज्य ने प्रत्येक शब्द के उद्गम-स्रोत की गहन व्याख्या की है। अतः यह कोष वैज्ञानिक है, साहित्यकारों एवं कवियों के लिए रसात्मक है तथा जनसाधारण के लिए शिव-प्रसाद है। जब कोष की बात आती है तो हमारा मस्तक हिमगिरि के समान विराट गुरुवर के चरण-कमलों में श्रद्धावनत हो जाता है । षष्टिपूर्ति के तीन वर्ष बाद 63 वर्ष की वृद्धावस्था में विश्वपूज्य ने 'अभिधान राजेन्द्र कोष' का श्रीगणेश किया और 14 वर्ष के अनवरत परिश्रम व लगन से 76 वर्ष की आयु में इसे परिसम्पन्न किया । इनके इस महत्दान का मूल्याङ्कन करते हुए मुझे महर्षि दधीचि की पौराणिक कथा का स्मरण हो आता है, जिसमें इन्द्र ने देवासुर संग्राम में देवों की हार और असुरों की जय से निराश होकर इस महर्षि से अस्थिदान की प्रार्थना की थी। सत् विजयाकांक्षा की मंगल-भावना से इस महर्षि ने अनशन तप से देह सुखाकर अस्थिदान इन्द्र को दिया था, जिससे वज्रायुध बना । इन्द्र ने वज्रायुध से असुरों को पराजित किया। इसप्रकार सत् की विजय और असत् की पराजय हुई । 'सत्यमेव जयते' का उद्घोष हुआ । सचमुच यह कोष वज्रायुध के समान सत्य की रक्षा करनेवाला और असत्य का विध्वंस करनेवाला है। • विदुषी साध्वी द्वय ने इस महाग्रन्थ का मन्थन करके जो अमृत प्राप्त किया है, वह जनता-जनार्दन को समर्पित कर दिया है। सारांश में - यह ग्रन्थ 'सत्यं-शिवं-संदरम' की परमोज्ज्वल ज्योति सब युगों में जगमगाता रहेगा – यावत्चन्द्रदिवाकरौ । इस कोष की लोकप्रियता इतनी है कि साण्डेराव ग्राम (जिला-पालीराजस्थान) के लघु पुस्तकालय में भी इसके नवीन संस्करण के सातों भाग विद्यमान हैं। यही नहीं, भारत के समस्त विश्वविद्यालयों, श्रेष्ठ महाविद्यालयों तथा पाश्चात्त्य देशों के विद्या-संस्थानों में ये उपलब्ध हैं । इनके बिना विश्वविद्यालय और शोध-संस्थान रिक्त लगते हैं । अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-5 • 21 - Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विदुषी साध्वी द्वय नि:संदेह यशोपात्रा हैं, क्योंकि उन्होंने विश्वपूज्य के पाण्डित्य को ही अपने ग्रन्थों में नहीं दर्शाया है; अपितु इनके लोक-माङ्गल्य का भी प्रशस्त वर्णन किया है । ये महान् कर्मयोगी पत्थरों में फूल खिलाते हुए, मरूभूमि में गंगा-जमुना की पावन धाराएँ प्रवाहित करते हुए, बिखरे हुए समाज को कलह के काँटों से बाहर निकाल कर प्रेम-सूत्र में बाँधते हुए, पीड़ित प्राणियों की वेदना मिटाते हुए, पर्यावरण - शुद्धि के लिए आत्म-जागृति का पाञ्चजन्य शंख बजाते हुए 80 वर्ष की आयु में प्रभु शरण में कल्पपुष्प के समान समर्पित हो गए। श्री वाल्मीकि ने रामायण में यह बताया है कि भगवान् राम ने 14 वर्षों के वनवास काल में अछूतों का उद्धार किया, दुःखी-पीड़ित प्राणियों को जीवन-दान दिया, असुर प्रवृत्ति का नाश किया और प्राणि-मैत्री की रसवन्ती गंगधारा प्रवाहित की। इस कालजयी युगवीर आचार्य ने इसीलिए 14 वर्ष कोष की रचना में लगाये होंगे। 14 वर्ष शुभ काल है - मंगल विधायक है। महर्षियों के रहस्य को महर्षि ही जानते हैं । लाखों-करोडों मनुष्यों का प्रकाश-दीप बुझ गया, परन्तु वह बुझा नहीं है। वह समस्त जगत् के जन-मानसों में करूणा और प्रेम के रूप में प्रदीप्त विदुषी साध्वी द्वय के ग्रन्थों को पढ़कर मैं इस निष्कर्ष पर पहुँचा हूँ कि विश्वपूज्य केवल त्रिस्तुतिक आम्नाय के ही जैनाचार्य नहीं थे, अपित समस्त जैन समाज के गौरव किरीट थे, वे हिन्दुओं के सन्त थे, मुसलमानों के फकीर और ईसाइयों के पादरी । वे जगद्गुरु थे। विश्वपूज्य थे और हैं। विदुषी डॉ. साध्वी द्वय की भाषा-शैली वसन्त की परिमल के समान मनोहारिणी है। भावों को कल्पना और अलंकारों से इक्षुरस के समान मधुर बना दिया है। समरसता ऐसी है जैसे - सुरसरि का प्रवाह । दर्शन की गम्भीरता भी सहज और सरल भाषा-शैली से सरस बन गयी है। इन विदुषी साध्वियों के मंगल-प्रसाद से समाज सुसंस्कारों के प्रशस्तपथ पर अग्रसर होगा । भविष्य में भी ये साध्वियाँ तृष्णा तृषित आधुनिक युग को अपने जीवन-दर्शन एवं सत्साहित्य के सुगन्धित सुमनों से महकाती रहेंगी ! यही शुभेच्छा ! - पूज्या साध्वीजी द्वय को विश्वपूज्य श्रीमद् राजेन्द्रसूरीश्वरजी म. सा. की पावन प्रेरणा प्राप्त हुई, इससे इन्होंने इन अभिनव ग्रन्थों का प्रणयन किया । ( अभिधान राजेन्द्र कोष में. सूक्ति-सुधारस • खण्ड-5 • 22 Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 यह सच है कि रवि - रश्मियों के प्रताप से सरोवर में सरोज सहज ही प्रस्फुटित होते हैं । वासन्ती पवन के हलके से स्पर्श से सुमन सौरभ सहज ही प्रसृत होते हैं। ऐसी ही विश्वपूज्य के वात्सल्य की परिमल इनके ग्रन्थों को सुरभित कर रही हैं । उनकी कृपा इनके ग्रन्थों की आत्मा है । जिन्हें महाज्ञानी साहित्यमनीषी राष्ट्रसन्त प. पू. आचार्यदेवेश श्रीमद्जयन्तसेनसूरीश्वरजी म. सा. का आर्शीवाद और परम पूज्या जीवन निर्मात्री (सांसारिक दादीजी) साध्वीरत्ना श्री महाप्रभाश्रीजी म. का अमित वात्सल्य प्राप्त हों, उनके लिए ऐसे ग्रन्थों का प्रणयन सहज और सुगम क्यों न होगा ? निश्चय ही । वात्सल्य भाव से मुझे आमुख लिखने का आदेश दिया पूज्या साध्वी द्वय ने । उसके लिए आभारी हूँ, यद्यपि मैं इसके योग्य किञ्चित् भी नहीं हूँ । इति शुभम् ! पौष शुक्ल सप्तमी 5 जनवरी, 1998 कालन्द्री जिला - सिरोही (राज.) पूर्वप्राचार्य श्री पार्श्वनाथ उम्मेद कॉलेज, फालना (राज.) अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-5 • 23 Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मन्तव्य - डॉ. लक्ष्मीमल्ल सिंघवी (पद्म विभूषण, पूर्व भारतीय राजदूत-ब्रिटेन) आदरणीया डॉ. प्रियदर्शनाजी एवं डॉ. सुदर्शनाजी साध्वीद्वय ने "विश्वपूज्य' (श्रीमद् राजेन्द्रसूरि : जीवन-सौरभ)', "अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्तिसुधारस" (1 से 7 खण्ड), एवं अभिधान राजेन्द्र कोष में, जैनदर्शन वाटिका" की रचना में जैन परम्परा की यशोगाथा की अमृतमय प्रशस्ति की है । ये ग्रंथ विदुषी साध्वी-द्वय की श्रद्धा, निष्ठा, शोध एवं दृष्टि-सम्पन्नता के परिचायक एवं प्रमाण हैं । एक प्रकार से इस ग्रंथत्रयी में जैन-परम्परा की आधारभूत रत्नत्रयी का प्रोज्ज्वल प्रतिबिम्ब है। युगपुरुष, प्रज्ञामहर्षि, मनीषी आचार्य श्रीमद् राजेन्द्रसूरिजी के व्यक्तित्व और कृतित्व के विराट् क्षितिज और धरातल की विहंगम छवि प्रस्तुत करते हुए साध्वी-द्वय ने इतिहास के एक शलाकापुरुष की यश-प्रतिमा की संरचना की है, उनकी अप्रतिम उपलब्धियों के ज्योतिर्मय अध्याय को प्रदीप्त और रेखांकित किया है । इन ग्रंथों की शैली साहित्यिक है, विवेचन विश्लेषणात्मक है, संप्रेषण रस-सम्पन्न एवं मनोहारी है और रेखांकन कलात्मक पुण्य श्लोक प्रात:स्मरणीय आचार्य श्रीमद् राजेन्द्रसूरिजी अपने जन्म के नाम के अनुसार ही वास्तव में 'रत्नराज' थे। अपने समय में वे जैनपरम्परा में ही नहीं बल्कि भारतीय विद्या के विश्रुत विद्वान् एवं विद्वत्ता के शिरोमणि थे। उनके व्यक्तित्व और कृतित्व में सागर की गहराई और पर्वत की ऊँचाई विद्यमान थी । इसीलिए उनको विश्वपूज्य के अलंकरण से विभूषित करते हुए वह अलंकरण ही अलंकृत हुआ । भारतीय वाङ्मय में "अभिधान राजेन्द्र कोष" एक अद्वितीय, विलक्षण और विराट कीर्तिमान है जिसमें संस्कृत, प्राकृत एवं अर्धमागधी की त्रिवेणी भाषाओं और उन भाषाओं में प्राप्त विविध परम्पराओं की सूक्तियों की सरल और सांगोपांग व्याख्याएँ हैं, शब्दों का विवेचन और दार्शनिक संदर्भो की अक्षय सम्पदा है। लगभग ६० हजार शब्दों की व्याख्याओं एवं साढ़े चार लाख श्लोकों के ऐश्वर्य से महिमामंडित यह ग्रंथ जैन परम्परा एवं समग्र भारतीय विद्या का अपूर्व भंडार है। साध्वीद्वय डॉ. प्रियदर्शनाश्री एवं डॉ. सुदर्शनाश्री की यह प्रस्तुति एक ऐसा साहसिक सारस्वत अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-5 • 24 - Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रयास हे जिसकी सराहना और प्रशस्ति में जितना कहा जाय वह स्वल्प ही होगा, अपर्याप्त ही माना जायगा । उनके पूर्वप्रकाशित ग्रंथ "आनंदघन का रहस्यवाद" एवं आचारांग सूत्र का नीतिशास्त्रीय अध्ययन" प्रत्यूष की तरह इन विदुषी साध्वियों की प्रतिभा की पूर्व सूचना दे रहे थे। विश्व पूज्य की अमर स्मृति में साधना के ये नव दिव्य पुष्प अरुणोदय की रश्मियों की तरह हैं। 24-4-1998 4F, White House, 10. Bhagwandas Road. New Delhi-110001 अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्टु-5 • 25 Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 'दो शब्द - पं. दलसुख मालवणिया पूज्या डॉ. प्रियदर्शनाश्रीजी एवं डॉ. सुदर्शनाश्रीजी साध्वीद्वयने "अभिधान राजेन्द्र कोष में, जैनदर्शन वाटिका" एवं "अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्तिसुधारस" (1 से 7 खण्ड), आदि ग्रन्थ लिखकर तैयार किए हैं, जो अत्यन्त महत्त्वपूर्ण एवं गौरवमयी रचनाएँ हैं । उनका यह अथक प्रयास स्तुत्य है । साध्वीद्वय का यह कार्य उपयोगी तो है ही, तदुपरान्त जिज्ञासुजनों के लिए भी उपकारक हो, वैसा है। इसप्रकार जैनदर्शन की सरल और संक्षिप्त जानकारी अन्यत्र दुर्लभ है। जिज्ञासु पाठकों को जैनधर्म के सद् आचार-विचार, तप-संयम, विनय-विवेक विषयक आवश्यक ज्ञान प्राप्त हो जाय, वैसी कृतियाँ हैं । पूज्या साध्वीद्वय द्वारा लिखित इन कृतियों के माध्यम से मानव-समाज को जैनधर्म-दर्शन सम्बन्धी एक दिशा, एक नई चेतना प्राप्त होगी । ऐसे उत्तम कार्य के लिए साध्वीद्वय का जितना उपकार माना जाय, वह स्वल्प ही होगा। दिनांक : 30-4-98 माधुरी-8, आपेरा सोसायटी, पालड़ी, अहमदाबाद-380007 अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-5 • 26 Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 11 सूक्ति-सुधारस: मेरी दृष्टि डॉ. नेमीचन्द जैन संपादक "तीर्थंकर" I 'अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस' के एक से सात खण्ड तक में, मैं गोते लगा सका हूँ। आनन्दित हूँ । रस-विभोर हूँ । कवि बिहारी के दोहे की एक पंक्ति बार - बार आँखों के सामने आ-जा रही है : "बूड़े अनबूड़े, तिरे जे बूड़े सब अंग" । जो डूबे नहीं, वे डूब गये हैं और जो डूब सके हैं सिर-से-पैर तक वे तिर गये हैं । अध्यात्म, विशेषतः श्रीमद् राजेन्द्रसूरीश्वरजी के 'अभिधान राजेन्द्र कोष' का यही आलम है । डूबिये, तिर जाएँगे; सतह पर रहिये, डूब जाएँगे । वस्तुत: 'अभिधान राजेन्द्र कोष' का एक-एक वर्ण बहुमुखीता का धनी है। यह अप्रतिम कृति 'विश्वपूज्य' का 'विश्वकोश' (एन्सायक्लोपीडिया) है। जैसे-जैसे हम इसके तलातल का आलोड़न करते हैं, वैसे-वैसे जीवन की दिव्य छबियाँ थिरकती-ठुमकती हमारे सामने आ खड़ी होती हैं । हमारा जीवन सर्वोत्तम से संवाद बनने लगता है । ‘अभिधान राजेन्द्र' में संयोगत: सम्मिलित सूक्तियाँ ऐसी सूक्तियाँ हैं, जिनमें श्रीमद् की मनीषा-स्वाति ने दुर्लभ / दीप्तिमन्त मुक्ताओं को जन्म दिया है। ये सूक्तियाँ लोक-जीवन को माँजने और उसे स्वच्छ-स्वस्थ दिशा-दृष्टि देने में अद्वितीय हैं। मुझे विश्वास है कि साध्वीद्वय का यह प्रथम पुरुषार्थ उन तमाम सूक्तियों को, जो 'अभिधान राजेन्द्र' में प्रसंगतः समाविष्ट हैं, प्रस्तुत करने में सफल होगा । मेरे विनम्र मत में यदि इनमें से कुछेक सूक्तियों का मन्दिरों, देवालयों, स्वाध्याय-कक्षों, स्कूल-कॉलेजों की भित्तियों पर अंकन होता है तो इससे हमारी धार्मिक असंगतियों को तो एक निर्मल कायाकल्प मिलेगा ही, राष्ट्रीय चरित्र को भी नैतिक उठान मिलेगा। मैं न सिर्फ २६६७ सूक्तियों के ७ बृहत् खण्डों की प्रतीक्षा करूँगा, अपितु चाहूँगा कि इन सप्त सिन्धुओं के सावधान परिमन्थन से कोई 'राजेन्द्र सूक्ति नवनीत' जैसी लघुपुस्तिका सूरज की पहली किरण देखे । ताकि संतप्त मानवता के घावों पर चन्दन - लेप संभव हो । 27-04-1998 65. पत्रकार कालोनी, कनाड़िया मार्ग, इन्दौर (म.प्र.) - 452001 अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-5 • 27 Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12 मन्तव्य । डॉ. सागरमल जैन पूर्व निर्देशक पार्श्वनाथ विद्यापीठ, वाराणसी 'अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस' (१ से ७ खण्ड) नामक इस कृति का प्रणयन पूज्या साध्वीश्री डॉ. प्रियदर्शना श्रीजी एवं डॉ. सुदर्शना श्रीजी ने किया है । वस्तुत: यह कृति अभिधानराजेन्द्रकोष में आई हुई महत्त्वपूर्ण सूक्तियों का अनूठा आलेखन हैं। लगभग एक शताब्दि पूर्व ईस्वीसन् १८९० आश्विन शुक्ला दूज के दिन शुभ लग्न में इस कोष ग्रन्थ का प्रणयन प्रारम्भ हुआ और पूज्य आचार्य भगवन्त श्रीमद् राजेन्द्रसूरिजी के अथक प्रयासों से . लगभग १४ वर्ष में यह पूर्ण हुआ फिर इसके प्रकाशन की प्रक्रिया प्रारम्भ हुई जो पुनः १७ वर्षो में पूर्ण हुई। जैनधर्म सम्बन्धी विश्वकोषों में यह कोष ग्रन्थ आज भी सर्वोपरि स्थान रखता है । प्रस्तुत कोष में जैन धर्म, दर्शन, संस्कृति और साहित्य से सम्बन्धित महत्त्वपूर्ण शब्दों का अकारादि क्रम से विस्तारपूर्वक विवेचन उपलब्ध होता है। इस विवेचना में लगभग शताधिक ग्रन्थों से सन्दर्भ चुने गये हैं । प्रस्तुत कृति में साध्वी - द्वय ने इसी कोषग्रन्थ को आधार बनाकर सूक्तियों का आलेखन किया हैं । उन्होंने अभिधान राजेन्द्र कोष के प्रत्येक खण्ड को आधार मानकर इस 'सूक्ति-सुधारस' को भी सात खण्डों में ही विभाजित किया हैं । इसके प्रथम खण्ड में अभिधान राजेन्द्र कोष के प्रथम भाग से सूक्तियों का आलेखन किया है । यही क्रम आगे के खण्डों में भी अपनाया गया हैं । 'सूक्ति-सुधारस' के प्रत्येक खण्ड का आधार अभिधान राजेन्द्र कोष का प्रत्येक भाग ही रहा हैं । अभिधान राजेन्द्र कोष के प्रत्येक भाग. को आधार बनाकर सूक्तियों का संकलन करने के कारण सूक्तियों को न तो अकारादिक्रम से प्रस्तुत किया गया है और न उन्हें विषय के आधार पर ही वर्गीकृत किया गया हैं, किन्तु पाठकों की सुविधा के लिए परिशिष्ट में अकारादिक्रम से एवं विषयानुक्रम से शब्द - सूचियाँ दे दी गई हैं, इससे जो पाठक अकारादि क्रम से अथवा विषयानुक्रम से इन्हें जानना चाहे उन्हें भी सुविधा हो सकेगी । इन परिशिष्टों के माध्यम से प्रस्तुत कृति अकारादिक्रम अथवा विषयानुक्रम की कमी की पूर्ति कर देती है । प्रस्तुतकृति में प्रत्येक I अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-5• 28 Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूक्ति के अन्त में अभिधान राजेन्द्र कोष के सन्दर्भ के साथ-साथ उस मूल ग्रन्थ का भी सन्दर्भ दे दिया गया है, जिससे ये सूक्तियाँ अभिधान राजेन्द्र कोष में अवतरित की गई। मूलग्रन्थों के सन्दर्भ होने से यह कृति शोध-छात्रों के लिए भी उपयोगी बन गई हैं। वस्तुतः सूक्तियाँ अतिसंक्षेप में हमारे आध्यात्मिक एवं सामाजिक जीवन मूल्योंको उजागर कर व्यक्ति को सम्यक्जीवन जीने की प्रेरणा देती हैं। अतः ये सूक्तियाँ जन साधारण और विद्वत् वर्ग सभी के लिए उपयोगी हैं। आबालवृद्ध उनसे लाभ उठा सकते हैं। साध्वीद्वय ने परिश्रमपूर्वक जो इन सूक्तियों का संकलन किया है वह अभिधान राजेन्द्र कोष रूपी महासागर से रत्नों के चयन के जैसा हैं । प्रस्तुत कृति में प्रत्येक सूक्ति के अन्त में उसका हिन्दी भाषा में अर्थ भी दे दिया गया है, जिसके कारण प्राकृत और संस्कृत से अनभिज्ञ सामान्य व्यक्ति भी इस कृति का लाभ उठा सकता हैं। इन सूक्तियों के आलेखन में लेखिका-द्वय ने न केवल जैनग्रन्थों में उपलब्ध सूक्तियों का संकलन/संयोजन किया है, अपितु वेद, उपनिषद, गीता, महाभारत, पंचतन्त्र, हितोपदेश आदि की भी अभिधान राजेन्द्र कोष में गृहीत सूक्तियों का संकलन कर अपनी उदारहृदयता का परिचय दिया है। निश्चय ही इस महनीय श्रम के लिए साध्वी-द्वय-पूज्या डॉ. प्रियदर्शनाश्रीजी एवं डॉ. सुदर्शनाश्रीजी साधुवाद की पात्रा हैं । अन्त में मैं यही आशा करता हूँ कि जन सामान्य इस 'सूक्तिसुधारस' में अवगाहन कर इसमें उपलब्ध सुधारस का आस्वादन करता हुआ अपने जीवन को सफल करेगा और इसी रूप में साध्वी द्वय का यह श्रम भी सफल होगा। दिनांक 31-6-1998 पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध-संस्थान वाराणसी (उ.प्र.) अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-5 . 29 Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 13 मन्तव्य विद्याव्रती शास्त्र सिद्धान्त रहस्य विद् ? पं. गोविन्दराम व्यास 1 उक्तियाँ और सूक्त - सूक्तियाँ वाङ् मय वारिधि की विवेक वीचियाँ हैं । विद्या संस्कार विमर्शिता विगत की विवेचनाएँ हैं । विवर्द्धित - वाड्मय की वैभवी विचारणाएँ हैं । सार्वभौम सत्य की स्तुतियाँ हैं । प्रत्येक पल की परमार्शदायिनी - पारदर्शिनी प्रज्ञा पारमिताएँ हैं । समाज, संस्कृति और साहित्य की सरसता की छवियाँ हैं । क्रान्तदर्शी कोविदों की पारदर्शिनी परिभाषाएँ हैं । मनीषियों की मनीषा की महत्त्व प्रतिपादिनी पीपासाएँ हैं । क्रूर-काल के कौतुकों में भी आयुष्मती होकर अनागत का अवबोध देती रही हैं । ऐसी सूक्तियों को सश्रद्ध नमन करता हुआ वाग्देवता का विद्या - प्रिय विप्र होकर वाङ् मी पूजा में प्रयोगवान् बन रहा हूँ । श्रमण- - संस्कृति की स्वाध्याय में स्वात्म-निष्ठा निराली रही है । आचार्य हरिभद्र, अभय, मलय जैसे मूर्धन्य महामतिमान्, सिद्धसेन जैसे शिरोमणि, सक्षम, श्रद्धालु जिनभद्र जैसे - क्षमाश्रमणों का जीवन वाङ्मयी वरिवस्या का विशेष अंग रहा है । स्वाध्याय का शोभनीय आचार अद्यावधि - हमारे यहाँ अक्षुण्ण पाया जाता । इसीलिए स्वाध्याय एवं प्रवचन में अप्रमत्त रहने का समादश शास्त्रकारों स्वीकार किया है । वस्तुतः नैतिक मूल्यों के जागरण के लिए, आध्यात्मिक चेतना के ऊर्ध्वकरण के लिए एवं शाश्वत मूल्यों के प्रतिष्ठापन के लिए आर्याप्रवरा द्वय द्वारा रचित प्रस्तुत ग्रन्थ 'अभिधान राजेन्द्र कोष में, जैनदर्शन वाटिका' एक उपादेय महत्त्वपूर्ण गौरवमयी रचना है । आत्म-अभ्युदयशीला, स्वाध्याय-परायणा, सतत अनुशीलन उज्ज्वला आर्या डॉ. श्री प्रियदर्शनाजी एवं डॉ. श्री सुदर्शनाजी की शास्त्रीय - साधना सराहनीया है । इन्होंने अपने आम्नाय के आद्य-पुरुष की प्रतिभा का परिचय प्राप्त करने का प्रयास कर अपनी चारित्र - सम्पदा को वाङ् मयी साधना में समर्पिता करती अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-5 • 30 Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हुई 'विश्वपूज्य' (श्रीमद् राजेन्द्रसूरि : जीवन-सौरभ' ) का रहस्योद्घाटन किया विदुषी श्रमणी द्वय ने प्रस्तुत कृति 'अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्तिसुधारस' (1 से 7 खण्ड) को कोषों के कारागारों से मुक्तकर जीवन की वाणी में विशद करने का विश्वास उपजाया है । अतः आर्या युगल, इसप्रकार की वाङ् मयी - भारती भक्ति में भूषिता रहें एवं आत्मतोष में तोषिता होकर सारस्वत इतिहास की असामान्या विदुषी बनकर वाङ् मय के प्रांगण की प्रोन्नता भूमिका निभाती रहें । यही मेरा आत्मीय अमोघ आशीर्वाद है । इनका विद्या - विवेकयोग, श्रुतों की समाराधना में अच्युत रहे, अपनी निरहंकारिता को अतीव निर्मला बनाता रहे और उत्तरोत्तर समुत्साह- समुन्नत होकर स्वान्तः सुख को समुल्लसित रचता रहे । यही सदाशया शोभना शुभाकांक्षा 1 चैत्रसुदी 5 बुध 1 अप्रैल, 98 हरजी जिला जालोर (राज.) अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-5 • 31 Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 14 मन्तव्य - पं. जयनंदन झा, व्याकरण साहित्याचार्य, साहित्य रत्न एवं शिक्षाशास्त्री मनुष्य विधाता की सर्वोत्तम सृष्टि है । वह अपने उदात्त मानवीय गुणों के कारण सारे जीवों में उत्तरोत्तर चिन्तनशील होता हुआ विकास की प्रक्रिया में अनवरत प्रवर्धमान रहा है। उसने पुरुषार्थ चतुष्टय की प्राप्ति ही जीवन का परम ध्येय माना है, पर ज्ञानीजन ने इस संसार को ही परम ध्येय न मानकर अध्यात्म ज्ञान को ही सर्वोपरि स्थान दिया है । अतः जीवन के चरम लक्ष्य मोक्ष-प्राप्ति में धर्म, अर्थ और काम को केवल साधन मात्र माना है।। इसलिये अध्यात्म चिन्तन में भारत विश्वमंच पर अति श्रद्धा के साथ प्रशंसित रहा है । इसकी धर्म सहिष्णुता अनोखी एवं मानवमात्र के लिये अनुकरणीय रही है। यहाँ वैष्णव, जैन तथा बौद्ध धर्माचार्यों ने मिलकर धर्म की तीन पवित्र नदियों का संगम "त्रिवेणी" पवित्र तीर्थ स्थापित किया है जहाँ सारे धर्माचार्य अपने-अपने चिन्तन से सामान्य मानव को भी मिल-बैठकर धर्मचर्चा के लिये विवश कर देते हैं । इस क्षेत्र में किस धर्म का कितना योगदान रहा है, यह निर्णय करना अल्प बुद्धि साध्य नहीं है । पर, इतना निर्विवाद है कि जैन मनीषी और सन्त अपनी-अपनी विशिष्ट विशेषताओं के लिये आत्मोत्कर्ष के क्षेत्र में तपे हुए मणि के समान सहस्रसूर्य-किरण के कीतिस्तम्भ से भारतीय दर्शन को प्रोद्भासित कर रहे हैं, जो काल की सीमा से रहित है । जैनधर्म व दर्शन शाश्वत एवं चिरन्तन है, जो विविध आयामों से इसके अनेकान्तवाद को परिभाषित एवं पुष्ट कर रहे हैं । ज्ञान और तप तो इसकी अक्षय निधि है। जैन धर्म में भी मन्दिर मार्गी-त्रिस्तुतिक परम्परा के सर्वोत्कृष्ट साधक जैनधर्माचार्य "श्रीमद राजेन्द्रसूरीश्वरजी म. सा. अपनी तप:साधना और ज्ञानमीमांसा से परमपूत होने के कारण सार्वकालिक सार्वजनीन वन्द्य एवं प्रातः स्मरणीय भी हैं जिनका सम्पूर्ण जीवन सर्वजन हिताय एवं सर्वजन सुखाय समर्पित रहा है। इनका सम्पूर्ण-जीवन अथाह समुद्र की भाँति है, जहाँ निरन्तर गोता लगाने अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-5 • 32 ) - Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर केवल रत्न की ही प्राप्ति होती हैं, पर यह अमूल्य रत्न केवल साधक को ही मिल पाता है । साधक की साधना जब उच्च कोटि की हो जाती है तब साध्य संभव हो पाता है । राजेन्द्र कोष तो इनकी अक्षय शब्द मंजूषा है, जो शब्द यहाँ नहीं है, वह अन्यत्र कहीं नहीं है । ऐसे महान् मनीषी एवं सन्त को अक्षरशः समझाने के लिये डॉ. प्रियदर्शना श्री जी एवं डॉ. सुदर्शनाश्री जी साध्वीद्वय ने (१) अभिधान राजेन्द्र कोष में, "सूक्ति-सुधारस" (१ से ७ खण्ड) (२) अभिधान राजेन्द्र कोष में, "जैनदर्शन वाटिका” तथा (३) ‘विश्वपूज्य' (श्रीमद् राजेन्द्र सूरि : जीवन - सौरभ ) इन अमूल्य ग्रन्थों की रचना कर साधक की साधना को अतीव सरल बना दिया है । परम पूज्या ! साध्वीद्वय ने इन ग्रन्थों की रचना में जो अपनी बुद्धिमत्ता एवं लेखन - चातुर्य का परिचय दिया है वह स्तुत्य ही नहीं; अपितु इस भौतिकवादी युग में जन-जन के लिये अध्यात्मक्षेत्र में पाथेय भी बनेगा। मैंने इन ग्रन्थों का विहंगम अवलोकन किया है। भाषा की प्रांजलता और विषयबोध की सुगमता तो पाठक को उत्तरोत्तर अध्ययन करने में रूचि पैदा करेगी, वह सहज ही सबके लिये हृदयग्राहिणी बनेगी । यही लेखिकाद्वय की लेखनी की सार्थकता बनेगी । I अन्त में यहाँ यह कथन अतिशयोक्तिपूर्ण नहीं होगा कि " रघुवंश" महाकाव्य-रचना के प्रारंभ में कालिदास ने लिखा है कि “तितीर्षुर्दुस्तरं मोहादुडुपेनास्मि सागरम्" पर वही कालिदास कवि सम्राट् कहलाये । इसीतरह आप दोनों का यह परम लोकोपकारी अथक प्रयास भौतिकवादी मानवमात्र के लिये शाश्वत शान्ति प्रदान करने में सहायक बन पायेगा । इति । शुभम् । 25-7-98 उघ 12 मधुबन हा. बो. बासनी, जोधपुर ६६ अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति सुधारस • खण्ड-5033 Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मन्तव्य पं. हीरालाल शास्त्री एम.ए. विदुषी साध्वीद्वय डॉ. प्रियदर्शना श्री एम. ए., पीएच. डी. एवं डॉ. सुदर्शनाश्री एम. ए. पीएच. डी. द्वारा रचित ग्रन्थ 'अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस' (1 से 7 खण्ड) सुभाषित सूक्तियों एवं वैदुष्यपूर्ण हृदयग्राही वाक्यों के रूप में एक पीयूष सागर के समान है । आज के गिरते नैतिक मूल्यों, भौतिकवादी दृष्टिकोण की अशान्ति एवं तनावभरे सांसारिक प्राणी के लिए तो यह एक रसायन है, जिसे पढ़कर आत्मिक शान्ति, दृढ इच्छा-शक्ति एवं नैतिक मूल्यों की चारित्रिक सुरभि अपने जीवन के उपवन में व्यक्ति एवं समष्टि की उदात्त भावनाएँ गहगहायमान हो सकेगी, यह अतिशयोक्ति नहीं, एक वास्तविकता है। ___आपका प्रयास स्वान्तःसुखाय लोकहिताय है । 'सूक्ति-सुधारस' जीवन में संघर्षों के प्रति साहस से अडिग रहने की प्रेरणा देता है। ऐसे सत्साहित्य 'सत्यं शिवं सुन्दरम्' की महक से व्यक्ति को जीवंत बनाकर आध्यात्मिक शिवमार्ग का पथिक बनाते हैं । आपका प्रयास भगीरथ प्रयास है । भविष्य में शुभ कामनाओं के साथ । महावीर जन्म कल्याणक, गुरुवार निवृत्तमान संस्कृत व्याख्याता दि. 9 अप्रैल, 1998 राज. शिक्षा-सेवा ज्योतिष-सेवा राजस्थान राजेन्द्रनगर जालोर (राज.) अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-5 • 34 Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 16 मन्तव्य डॉ. अखिलेशकुमार राय साध्वीद्वय डो. प्रियदर्शनाश्रीजी एवं डॉ. सुदर्शना श्रीजी द्वारा रचित प्रस्तुत पुस्तक का मैंने आद्योपान्त अवलोकन किया है । इनकी रचना 'सूक्ति-सुधारस' (1 से 7 खण्ड) में श्रीमद् राजेन्द्रसूरीश्वर जी की अमरकृति 'अभिधान राजेन्द्र कोष' के प्रत्येक भाग को आधार बनाकर कुछ प्रमुख सूक्तियों का सुंदर - सरस व सरल हिन्दी भाषा में अनुवाद प्रस्तुत किया गया है। साध्वीद्वय का यह संकल्प है कि 'अभिधान राजेन्द्र कोष' में उपलब्ध लगभग २७०० सूक्तियों का सात खण्डों में संचयन कर सर्वसाधारण के लिये सुलभ कराया जाय । इसप्रकार का अनूठा संकल्प अपने आपमें अद्वितीय कहा जा सकता है । मेरा विश्वास है कि ऐसी सूक्ति सम्पन्न रचनाओं से पाठकगण के चरित्र निर्माण की दिशा निर्धारित होगी । दिनांक 9 अप्रैल, 1998 चैत्र शुक्ला त्रयोदशी 1/1 प्रोफेसर कालोनी, महाराजा कॉलेज, छतरपुर (म. प्र. ) अब सुहृद्जनों का यह पुनीत कर्तव्य है कि वे इसे अधिक से अधिक लोगों के पठनार्थ सुलभ करायें । मैं इस महत्त्वपूर्ण रचना के लिये साध्वीद्वय की सराहना करता हूँ; इन्हें साधुवाद देता हूँ और यह शुभकामना प्रकट करता हूँ कि ये इसप्रकार की और भी अनेक रचनायें समाज को उपलब्ध करायें । * अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-5 • 35 Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - डॉ. अमृतलाल गाँधी सेवानिवृत्त प्राध्यापक, सम्यग्ज्ञान की आराधना में समर्पिता विदुषी साध्वीद्वय डॉ. प्रियदर्शनाश्रीजी म. एवं डॉ. सुदर्शना श्रीजी म. ने 'सूक्ति-सुधारस' (1 से 7 खण्ड) की 2667 सूक्तियों में अभिधान राजेन्द्र कोष के मन्थन का मक्खन सरल हिन्दी भाषा में प्रस्तुत कर जनसाधारण की सेवार्थ यह ग्रन्थ लिखकर जैन साहित्य के विपुल ज्ञान भण्डार में सराहनीय अभिवृद्धि की है। साध्वीद्वय ने कोष के सात भागों की सूक्तियों । सुकथनों की अलग-अलग सात खण्डों में व्याख्या करने का सफल सुप्रयास किया है, जिसकी मैं सराहना एवं अनुमोदना करते हुए स्वयं को भी इस पवित्र ज्ञानगंगा की पवित्र धारा में आंशिक सहभागी बनाकर सौभाग्यशाली मानता हूँ। वस्तुतः अभिधान राजेन्द्र कोष पयोनिधि है। पूज्या विदुषी साध्वीद्वयने सूक्ति-सुधारस रचकर एक ओर कोष की विश्वविख्यात महिमा को उजागर किया है और दूसरी ओर अपने शुभ श्रम, मौलिक अनुसंधान दृष्टि, अभिनव कल्पना और हंस की तरह मुक्ताचयन की विवेकशीलता का परिचय दिया है। मैं उनको इस महान् कृति के लिए हार्दिक बधाई देता हूँ। दिनांक : 16 अप्रैल, 1998 738, नेहरूपार्क रोड, जोधपुर (राजस्थान) जयनारायण व्यास विश्व विद्यालय, जोधपुर अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-5. 360 .खण्ड-5.36 Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मन्तब्य । - भागचन्द जैन कवाड प्राध्यापक (अंग्रेजी) प्रस्तुत ग्रंथ "अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस" (1 से 7 खण्ड) 5 परिशिष्टों में विभक्त 2667 सूक्तियों से युक्त एक बहुमूल्य एवं अमृत कणों से परिपूर्ण ग्रन्थ है । विश्वपूज्य श्रीमद् राजेन्द्रसूरिजी द्वारा प्रस्तुत ग्रन्थ में अन्यान्य उपयोगी जीवन दर्शन से सम्बन्धित विषयों का समावेश किया गया है। उदाहरण स्वरूप जीवनोपयोगी, नैतिकता तथा आध्यात्मिक जगत् को स्पर्श करने वाले विषय यथा - 'धर्म में शीघ्रता', 'आत्मवत् चाहो', 'समाधि', 'किञ्चिद् श्रेयस्कर', 'अकथा', 'क्रोध परिणाम', 'अपशब्द', सच्चा भिक्षु, धीर साधक, पुण्य कर्म, अजीर्ण, बुद्धियुक्त वाणी, बलप्रद जल, सच्चा आराधक, ज्ञान और कर्म, पूर्ण आत्मस्थ, दुर्लभ मानव-भव, मित्र-शत्रु कौन ?, कर्ताभोक्ता आत्मा, रत्नपारखी, अनुशासन, कर्म विपाक, कल्याण कामना, तेजस्वी वचन, सत्योपदेश, धर्मपात्रता, स्यावाद आदि । सर्वत्र ग्रन्थ में अमृत-कणों का कलश छलक रहा है तथा उनकी सुवास व्याप्त है जो पाठक को भाव विभोर कर देती है, वह कुछ क्षणों के लिए अतिशय आत्मिक सुख में लीन हो जाता है । विदुषी महासतियाँ द्वय डॉ. प्रियदर्शना श्री जी एवं डॉ. सुदर्शना श्री जी ने अपनी प्रखर लेखनी के द्वारा गूढ़तम विषयों को सरलतम रूप से प्रस्तुत कर पाठकों को सहज भाव से सुधा का पान कराया है। धन्य है उनकी अथक साधना लगन व परिश्रम का सुफल जो इस धरती पर सर्वत्र आलोक किरणें बिखेरेगा और धन्य एवं पुलकित हो उठेंगे हम सब । चैत्र शक्ला त्रयोदशी अग्रवाल गर्ल्स कोलेज दिनांक 9 अप्रैल 1998 मदनगंज (राज.) विजय निवास, कचहरी रोड़, किशनगढ़ शहर (राज.) अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-5 • 37 Page #46 --------------------------------------------------------------------------  Page #47 --------------------------------------------------------------------------  Page #48 --------------------------------------------------------------------------  Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस' ग्रन्थ का प्रकाशन 7 खण्डों में हुआ है। प्रथम खण्ड में 'अ' से 'ह' तक के शीर्षकों के अन्तर्गत सूक्तियाँ संजोयी गई हैं। अन्त में अकारादि अनुक्रमणिका दी गई हैं। प्रायः यही क्रम 'सूक्ति सुधारस' के सातों खण्डों में मिलेगा। शीर्षकों का अकारादि क्रम है। शीर्षक सूची विषयानुक्रम आदि हर खण्ड के अन्त में परिशिष्ट में दी गई है। पाठक के लिए परिशिष्ट में उपयोगी सामग्री संजोयी गई है। प्रत्येक खण्ड में 5 परिशिष्ट हैं । प्रथम परिशिष्ट में अकारादि अनुक्रमणिका, द्वितीय परिशिष्ट में विषयानुक्रमणिका, तृतीय परिशिष्ट में अभिधान राजेन्द्र : पृष्ठ संख्या, अनुक्रमणिका, चतुर्थ परिशिष्ट में जैन एवं जैनेतर ग्रन्थः गाथा/श्लोकादि अनुक्रमणिका और पञ्चम परिशिष्ट में 'सूक्ति-सुधारस' में प्रयुक्त सन्दर्भ-ग्रन्थ सूची दी गई है। हर खण्ड में यही क्रम मिलेगा । 'सूक्ति-सुधारस' के प्रत्येक खण्ड में सूक्ति का क्रम इसप्रकार रखा गया है कि सर्व प्रथम सूक्ति का शीर्षक एवं मूल सूक्ति दी गई है। फिर वह सूक्ति अभिधान राजेन्द्र कोष के किस भाग के किस पृष्ठ से उद्धृत है । सूक्ति-आधार ग्रन्थ कौन-सा है ? उसका नाम और वह कहाँ आयी है, वह दिया है। अन्त में सूक्ति का हिन्दी भाषा में सरलार्थ दिया गया सूक्ति-सुधारस के प्रथम खण्ड में 251 सूक्तियाँ हैं । · सूक्ति-सुधारस के द्वितीय खण्ड में 259 सूक्तियाँ हैं । सूक्ति-सुधारस के तृतीय खण्ड में 289 सूक्तियाँ हैं । सूक्ति-सुधारस के चतुर्थ खण्ड में 467 सूक्तियाँ हैं । सूक्ति-सुधारस के पंचम खण्ड में 471 सूक्तियाँ हैं । सूक्ति-सुधारस के षष्टम खण्ड में 607 सूक्तियाँ हैं । सूक्ति-सुधारस के सप्तम खण्ड में 323 सूक्तियाँ हैं । कुल मिलाकर 'सूक्ति सुधारस' के सप्त खण्डों में 2667 सूक्तियाँ हैं। इस ग्रन्थ में न केवल जैनागमों व जैन ग्रन्थों की सूक्तियाँ हैं, अपितु वेद, अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-5 • 41 Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपनिषद, गीता, महाभारत, आयुर्वेद शास्त्र, ज्योतिष, नीतिशास्त्र, पुराण, स्मृति पंचतन्त्र, हितोपदेश आदि ग्रन्थों की भी सूक्तियाँ हैं । 1. विश्वपूज्य प्रणीत सम्पूर्ण वाङ्मय 2. लेखिका द्वय की महत्त्वपूर्ण कृतियाँ अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस खण्ड-5 • 42 Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'विश्वपूज्यः जीवन-दर्शन Page #52 --------------------------------------------------------------------------  Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 20 जीवन-दर्शन महिमामण्डित बहुरत्नावसुन्धरा से समलंकृत परम पावन भारतभूमि की वीर प्रविनी राजस्थान की ब्रजधरा भरतपुर में सन् 1827 - 3 दिसम्बर को पौष शुक्ला सप्तमी, गुरुवार के शुभ दिन एक दिव्य नक्षत्र संतशिरोमणि विश्वपूज्य आचार्य श्रीमद् राजेन्द्रसूरिजी ने जन्म लिया, जिन्होंने अस्सी वर्ष की आयु तक लोकमाङ्गल्य की गंगधारा समस्त जगत् में प्रवाहित की। . उनका जीवन भारतीय संस्कृति को पुनर्जीवित करने के लिए समर्पित हुआ । वह युग अंग्रेजी राज्य की धूमिल घन घटाओं से आच्छादित था। पाश्चात्त्य संस्कृति की चकाचौंध ने भारत की सरल आत्मा को कुण्ठित कर दिया था। नव पीढ़ी ईसाई मिशनरियों के धर्मप्रचार से प्रभावित हो गई थी। अंग्रेजी शासन में पद-लिप्सा के कारण शिक्षित युवापीढ़ी अतिशय आकर्षित थी। ऐसे अन्धकारमय युग में भारतीय संस्कृति की गरिमा को अक्षुण्ण रखने के लिए जहाँ एक ओर राजा राममोहनराय ने ब्रह्मसमाज की स्थापना की, तो दूसरी ओर दयानन्द सरस्वती ने वैदिक धर्म का शंखनाद किया। उसी युग में पुनर्जागरण के लिए प्रार्थना समाज और एनी बेसेन्ट ने थियोसोफिकल सोसायटी की स्थापना की। 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम को अंग्रेजी शासन की तोपों ने कुचल दिया था। भारतीय जनता को निराशा और उदासीनता ने घेर लिया था। जागृति का शंखनाद फूंकने के लिए लोकमान्य बालगंगाधर तिलक ने यह उद्घोषणा की - 'स्वराज्य मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है।' महामना मदनमोहन मालवीय ने बनारस हिन्दु विश्वविद्यालय की स्थापना की। अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-5 • 45 ) Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री मोहनदास कर्मचन्द गान्धी (राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी) को 1 महान् संत श्रीमद् राजचन्द्र की स्वीकृति से उनके पिताश्री कर्मचन्दजी ने इंग्लैंड में बार-एट-लॉ उपाधि हेतु भेजा । गाँधीजी ने महान् संत श्रीमद् राजचन्द्र की तीन प्रतिज्ञाएँ पालन कर भारत की गौरवशालिनी संस्कृति को उजागर किया। ये तीन प्रतिज्ञाएँ थीं 1. मांसाहार त्याग 2. मदिरापान त्याग और 3. ब्रह्मचर्य का पालन । ये प्रतिज्ञाएँ भारतीय संस्कृति की रवि - रश्मियाँ हैं, जिनके प्रकाश से भारत जगद्गुरु के पद पर प्रतिष्ठित हैं, परन्तु आँग्ल शासन ने हमारी उज्ज्वल संस्कृति को नष्ट करने का भरसक प्रयास किया । — ऐसे समय में अनेक दिव्य एवं तेजस्वी महापुरुषों ने जन्म लिया जिनमें श्री रामकृष्ण परमहंस, स्वामी विवेकानंद, श्री आत्मारामजी (सुप्रसिद्ध जैनाचार्य श्रीमद् विजयानन्द सूरिजी ) एवं विश्वपूज्य श्रीमद् राजेन्द्रसूरिजी म. आदि हैं। श्रीमद् राजेन्द्रसूरिजी ने चरित्र निर्माण और संस्कृति की पुनर्स्थापना के लिए जो कार्य किया, वह स्वणाक्षरों में अङ्कित है । एक ओर उन्होंने भारतीय साहित्य के गौरवशाली, चिन्तामणि रत्न के समान 'अभिधान राजेन्द्र कोष' को सात खण्डों में रचकर भारतीय वाङ् मय को विश्व में गौरवान्वित किया, तो दूसरी और उन्होंने सरल, तपोनिष्ठ, त्याग, करुणार्द्र और कोमल जीवन से सबको मैत्री- - सूत्र में गुम्फित किया । विश्वपूज्य की उपाधि उनको जनता जनार्दन ने उनके प्रति अगाध श्रद्धा-प्रीति और भक्ति से प्रदान की है, यद्यपि ये निर्मोही अनासक्त योगी थे तो किसी उपाधि-पदवी के आकाङ्क्षी थे और न अपनी यशोपताका फहराने के लिए लालायित थे । उनका जीवन अनन्त ज्योतिर्मय एवं करुणा रस का सुधा - सिन्धु था ! उन्होंने अपने जीवनकाल में महनीय 61 ग्रन्थों की रचना की है. जिनमें काव्य, भक्ति और संस्कृति की रसवंती धाराएँ प्रवाहित हैं। अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-5 • 46 Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वस्तुतः उनका मूल्यांकन करना हमारे वश की बात नहीं, फिरभी हम प्रीतिवश यह लिखती हैं कि जिस समय भारत के मनीषीसाहित्यकार एवं कवि भारतीय संस्कृति और साहित्य को पुनर्जीवित करना चाहते थे, उस समय विश्वपूज्य भी भारत के गौरव को उद्भासित करने के लिए 63 वर्ष की आयु में सन् 1890 आश्विन शुक्ला 2 को कोष के प्रणयन में जुट गए । इस कोष के सप्त खण्डों को उन्होंने सन् 1903 चैत्र शुक्ला 13 को परिसम्पन्न किया। यह शुभ दिन भगवान् महावीर का जन्म कल्याणक दिवस है। शुभारम्भ नवरात्रि में किया और समापन प्रभु के जन्म-कल्याणक के दिन वसन्त ऋतु की मनमोहक सुगन्ध बिखेरते हुए किया । यह उल्लेख करना समीचीन है कि उस युग में मैकाले ने अंग्रेजी भाषा और साहित्य को भारतीय विद्यालयों एवं महाविद्यालयों में अनिवार्य कर दिया था और नई पीढ़ी अंग्रेजी भाषा तथा साहित्य को पढ़कर भारतीय साहित्य व संस्कृति को हेय समझने लगी थी, ऐसे पराभव युग में बालगंगाधर तिलक ने 'गीता रहस्य', जैनाचार्य श्रीमद बुद्धिसागरजी ने 'कर्मयोग', श्रीमद् आत्मारामजी ने 'जैन तत्त्वादर्श' व 'अज्ञान तिमिर भास्कर',' महान् मनीषी अरविन्द घोष ने 'सावित्री' महाकाव्य लिखकर पश्चिम-जगत् को अभिभूत कर दिया । उस युग में प्रज्ञा महर्षि जैनाचार्य विश्वपूज्य श्रीमद् राजेन्द्रसूरिजी गुरुदेव ने 'अभिधान राजेन्द्र कोष' की रचना की । उनके द्वारा निर्मित यह अनमोल ग्रन्थराज एक अमरकृति है । यह एक ऐसा विशाल कार्य था, जो एक व्यक्ति की सीमा से परे की बात थी, किन्तु यह दायित्व विश्वपूज्य ने अपने कंधों पर ओढ़ा । भारतीय संस्कृति और साहित्य के पुनर्जागरण के युग में विश्वपूज्य ने महान् कोष को रचकर जगत् को ऐसा अमर ग्रन्थ दिया जो चिर नवीन है। यह ‘एन साइक्लोपिडिया' समस्त भाषाओं की करुणा 1 अज्ञान तिमिर भास्कर को पढ़कर अंग्रेज विद्वान् हार्नेल इतने प्रसन्न हुए कि उन्होंने श्रीमद आत्मारामजी को 'अज्ञान तिमिर भास्कर' के अलंकरण से विभूषित किया तथा उन्होंने अपने ग्रन्थ 'उपासक दशांग' के भाष्य को उन्हें समर्पित किया । अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-5 • 47 Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माता संस्कृत, जनमानस में गंग-धारा के समान बहनेवाली जनभाषा अर्धमागधी और जनता-जनार्दन को प्रिय लगनेवाली प्राकृत भाषा - इन तीनों भाषाओं के शब्दों की सुस्पष्ट, सरल और सहज व्याख्या उद्भासित करता है। ___ इस महाकोष का वैशिष्ट्य यह है कि इसमें गीता, मनुस्मृति, ऋग्वेद, पद्मपुराण, महाभारत, उपनिषद, पातंजल योगदर्शन, चाणक्य नीति, पंचतंत्र, हितोपदेश आदि ग्रन्थों की सुबोध टीकाएँ और भाष्य उपलब्ध हैं । साथ ही आयुर्वेद के सुप्रसिद्ध ग्रन्थ 'चरक संहिता' पर भी व्याख्याएँ हैं। 'अभिधान राजेन्द्र कोष' की प्रशंसा भारतीय एवं पाश्चात्त्य विद्वान् करते नहीं थकते । इस ग्रन्थ रत्नमाला के सात खण्ड सात अनुपम दिव्य रत्न हैं, जो अपनी प्रभा से साहित्य-जगत् को प्रदीप्त कर रहे हैं। इस भारतीय राजर्षि की साहित्य एवं तप-साधना पुरातन ऋषि के समान थी । वे गुफाओं एवं कन्दराओं में रहकर ध्यानालीन रहते थे। उन्होंने स्वर्णगिरि, चामुण्डावन, मांगीतुंगी आदि गुफाओं के निर्जन स्थानों में तप एवं ध्यान-साधना की । ये स्थान वन्य पशुओं से भयावह थे, परन्तु इस ब्रह्मर्षि के जीवन से जो प्रेम और मैत्री की दुग्धधारा प्रवाहित होती थी, उससे हिंस्र पशु-पक्षी भी उनके पास शांत बैठते थे और भयमुक्त हो चले जाते थे। ऐसे महापुरुष के चरण कमलों में राजा-महाराजा, श्रीमन्त, राजपदाधिकारी नतमस्तक होते थे । वे अत्यन्त मधुर वाणी में उन्हें उपदेश देकर गर्व के शिखर से विनय-विनम्रता की भूमि पर उतार लेते थे और वे दीन-दुखियों, दरिद्रों, असहायों, अनाथों एवं निर्बलों के लिए साक्षात् भगवान् थे। उन्होंने सामाजिक कुरीतियों-कुपरम्पराओं, बुराइयों को समाप्त करने के लिए तथा धार्मिक रूढ़ियों, अन्धविश्वासों, मिथ्याधारणाओं और कुसंस्कारों को मिटाने के लिए ग्राम-ग्राम, नगर-नगर पैदल विहार कर विभिन्न प्रवचनों के माध्यम से उपदेशामृत की अजस्रधारा प्रवाहित अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-5 • 48 Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ की । तृष्णातुर मनुष्यों को संतोषामृत पिलाया । कुसंपों के फुफकारते फणिधरों को शांत कर समाज को सुसंप का सुधा-पान कराया । विश्वपूज्य ने नारी-गरिमा के उत्थान के लिए भी कन्यापाठशालाएँ, दहेज उन्मूलन, वृद्ध-विवाह निषेध आदि का आजीवन प्रचार-प्रसार किया। 'यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवताः' के अनुरूप सन्देश दिया अपने प्रवचनों एवं साहित्य के माध्यम से। गुरुदेव ने पर्यावरण-रक्षण के लिए वृक्षों के संरक्षण पर जोर दिया । उन्होंने पशु-पक्षी के जीवन को अमूल्य मानते हुए उनके प्रति प्रेमभाव रखने के लिए उपदेश दिए । पर्वतों की हरियाली, वनउपवनों की शोभा, शान्ति एवं अन्तर-सुख देनेवाली है। उनका रक्षण हमारे जीवन के लिए अत्यावश्यक है । इसप्रकार उन्होंने समस्त जीवराशि के संरक्षण के लिए उपदेश दिया । काव्य विभूषा : उनकी काव्य कला अनुपम है । उन्होंने शास्त्रीय राग-रागिनियों में अनेक सज्झाय व स्तवन गीत रचे हैं । उन्होंने शास्त्रीय रागों में ठुमरी, कल्याण, भैरवी, आशावरी आदि का अपने गीतों में सुरम्य प्रयोग किया है। लोकप्रिय रागिनियों में वनझारा, गरबा, ख्याल आदि प्रियंकर हैं । प्राचीन पूजा गीतों की लावनियों में 'सलूणा', 'रखता', 'तीरथनी आशातना नवि करिए रे' आदि रागों का प्रयोग मनमोहक हैं । उन्होंने उर्दू की गजल का भी अपने गीतों में प्रयोग किया है। . चैत्यवंदन - स्तुतियों में - दोहा, शिखरणी, स्रग्धरा, मालिनी, पद्धडी प्रमुख हैं । पद्धडी छन्द में रचित श्री महावीर जिन चैत्यवंदन की एक वानगी प्रस्तुत है - "संसार सागर तार धीर, तुम विण कोण मुझ हरत पीर । मुझ चित्त चंचल तुं निवार, हर रोग सोग भयभीत वार ॥ एक निश्छल भक्त का दैन्य निवेदन मौन-मधुर है। साथ ही अपने परम तारक परमात्मा पर अखण्ड विश्वास और श्रद्धा-भक्ति को प्रकट करता है। । जिन - भक्ति - मंजूषा भाग - । अभिधान राजेन्द्र कोष में, सृक्ति-सुधारस • खण्ड-5 • 49 Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौपड़ क्रीड़ा- सज्झाय में अलौकिक निरंजन शुद्धात्म चेतन रूप प्रियतम के साथ विश्वपूज्य की शुद्धात्मा रूपी प्रिया किस प्रकार चौपड़ खेलती है ? वे कहते हैं - 'रंग रसीला मारा, प्रेम पनोता मारा, सुखरा सनेही मारा साहिबा। पिउ मोरा चोपड़ इणविध खेल हो ॥ चार चोपड़ चारों गति, पिउ मोरा चोरासी जीवा जोन हो । कोठा चोरासिये फिरे, पिउ मोरा सारी पासा वसेण हो ॥" | यह चौपड़ का सुन्दर रूपक है और उसके द्वारा चतुर्गति रूप संसार में चौपड़ का खेल खेला जा रहा है। साधक की शुद्धात्म-प्रिया चेतन रूप प्रियतम को चौपड़ के खेल का रहस्योद्घाटन करते हुए कहती है कि चौपड़ चार पट्टी और 84 खाने की होती है। इसीतरह चतुर्गति रूप चौपड़ में भी 84 लक्षयोनि रूप 84 घर-उत्पत्ति-स्थान होते हैं। चतुर्गति चौपड़ के खेल को जीतकर आत्मा जब विजयी बन जाती है, तब वह मोक्ष रूपी घर में प्रवेश करती है। अध्यात्मयोगी संत आनंदघन ने भी ऐसी ही चौपड़ खेली है - "प्राणी मेरो, खेलै चतुरगति चोपर। नरद गंजफा कौन गिनत है, मानै न लेखे बुद्धिवर ॥ राग दोस मोह के पासे, आप वणाए हितधर । . जैसा दाव परै पासे का, सारि चलावै खिलकर ॥" 2 विश्वपूज्य का काव्य अप्रयास हृदय-वीणा पर अनुगुंजित है। 'पिउ' [प्रियतम] शब्द कविता की अंगूठी में हीरककणी के समान मानो जड़ दिया। ____ विश्वपूज्य की आत्मरमणता उनके पदों में दृष्टिगत होती है । वे प्रकाण्ड विद्वान् - मनीषी होते हुए भी अध्यात्म योगीराज आनन्दघन की तरह अपनी मस्त फकीरी में रमते थे। उनका यह पद मनमोहक है - 'अवधू आतम ज्ञान में रहना, किसी कु कुछ नहीं कहना ॥'.. 1. जिन भक्ति मंजूषा भाग - 1 3. जिन भक्ति मंजूषा भाग - 1 2 आनन्दघन ग्रन्थावला . अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-5.50 Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ I 'मौनं सर्वार्थ साधनम्' की अभिव्यंजना इसमें मुखरित हुई है । उनके पदों में व्यक्ति की चेतना को झकझोर देने का सामर्थ्य है, क्योंकि वे उनकी सहज अनुभूति से निःसृत है । विश्वपूज्य का अंतरंग व्यक्तित्व उनकी काव्य-कृतियों में व्याप्त है । उनके पदों में कबीरसा फक्कड़पन झलकता है । उनका यह पद द्रष्टव्य है I ― " ग्रन्थ रहित निर्ग्रन्थ कहीजे, फकीर फिकर फकनारा । ज्ञानवास में बसे संन्यासी, पंडित पाप निवारा रे सद्गुरु ने बाण मारा, मिथ्या भरम विदारा रे ॥” 1 विश्वपूज्य का व्यक्तित्व वैराग्य और अध्यात्म के रंग में रंगा था । उनकी आध्यात्मिकता अनुभवजन्य थी । उनकी दृष्टि में आत्मज्ञान ही महत्त्वपूर्ण था । 'परभावों में घूमनेवाला आत्मानन्द की अनुभूति नहीं " कर सकता। उनका मत था कि जो पर पदार्थों में रमता है वह सच्चा साधक नहीं है । उनका एक पद द्रष्टव्य है 'आतम ज्ञान रमणता संगी, जाने सब मत जंगी । पर के भाव लहे घट अंतर, देखे पक्ष दुरंगी ॥ सोग संताप रोग सब नासे, अविनासी अविकारी । तेरा मेरा कछु नहीं ताने, भंगे भवभय भारी ॥ अलख अनोपम रूप निज निश्चय, ध्यान हिये बिच धरना । दृष्टि राग तजी निज निश्चय, अनुभव ज्ञानकुं वरना ॥ 2 उनके पदों में प्रेम की धारा भी अबाधगति से बहती है । उन्होंने शांतिनाथ परमात्मा को प्रियतम का रूपक देकर प्रेम का रहस्योद्घाटन किया है । वे लिखते हैं . 'श्री शांतिजी पिउ मोरा, शांतिसुख सिरदार हो । प्रेमे पाम्या प्रीतड़ी, पिउ मोरा प्रीतिनी रीति अपार हो ॥ 1 शांति सलूणी म्हारो, प्रेम नगीनो म्हारो, स्नेह समीनो म्हारो नाहलो । पिउ पल एक प्रीति पमाड हो, प्रीत प्रभु तुम प्रेमनी, पीउ मोरा मुज मन में नहिं माय हो ॥ " 3 1. जिन भक्ति मंजूषा भाग 1 2 जिन भक्ति मंजूषा भाग - 1 3. जिन भक्ति मंजूषा भाग अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-551 - 1 Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यद्यपि उनकी दृष्टि में प्रेम का अर्थ साधारण-सी भावुक स्थिति न होकर आत्मानभवजन्य परमात्म-प्रेम है, आत्मा-परमात्मा का विशद्ध निरूपाधिक प्रेम है । इसप्रकार, विश्वपूज्य की कृतियों में जहाँ-जहाँ प्रेम-तत्त्व का उल्लेख हुआ है, वह नर-नारी का प्रेम न होकर आत्मब्रह्म-प्रेम की विशुद्धता है। विश्वपूज्य में धर्म सद्भाव भी भरपूर था । वे निष्पक्ष, निस्पृही मानव-मानव के बीच अभेद भाव एवं प्राणि मात्र के प्रति प्रेम-पीयूष की वर्षा करते थे । उन्होंने अरिहन्त, अल्लाह-ईश्वर, रूद्र-शिव, ब्रह्मा-विष्णु को एक ही माना है । एक पद में तो उन्होंने सर्व धर्मों में प्रचलित परमात्मा के विविध नामों का एक साथ प्रयोग कर समन्वय-दृष्टि का अच्छा परिचय दिया है। उनकी सर्व धर्मों के प्रति समादरता का निम्नांकित पद मननीय है - 'ब्रह्म एक छे लक्षण लक्षित, द्रव्य अनंत निहारा । सर्व उपाधि से वर्जित शिव ही, विष्णु ज्ञान विस्तारा रे ॥ ईश्वर सकल उपाधि निवारी, सिद्ध अचल अविकारा । शिव शक्ति जिनवाणी संभारी, रुद्र है करम संहारा रे ॥ अल्लाह आतम आपहि देखो, राम आतम रमनारा । कर्मजीत जिनराज प्रकासे, नयथी सकल विचारा रे ।। विश्वपूज्य के इस पद की तुलना संत आनंदघन के पद से की जा सकती है । यह सच है कि जिसे परमतत्त्व की अनुभूति हो जाती है, वह संकीर्णता के दायरे में आबद्ध नहीं रह सकता । उसके लिए रामकृष्ण, शंकर-गिरीश, भूतेश्वर, गोविन्द, विष्णु, ऋषभदेव और महादेव 1. जिन भक्ति मंजूषा भाग - 1 . 2 2. 'राम कहो रहिमान कहौ, कोउ कान्ह कहौ महादेव री । पारसनाथ कहो कोउ ब्रह्मा, सकल ब्रह्म स्वयमेवरी ॥ भाजन भेद कहावत नाना, एक मृत्तिका रूप री। तैसे खण्ड कलपना रोपित, आप अखण्ड सरूप री ॥ निज पद रमे राम सो कहिये, रहम करे रहमान री । करणे करम कान्ह सो कहिये, महादेव निरवाण री ॥ परसै रूप सो पारस कहिये, ब्रह्म चिन्हें सो ब्रह्म री । इहविध साध्यो आप आनन्दघन, चेतनमय नि:कर्मरी ॥' आनंदघन ग्रन्थावली, पद ६५ अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-5 • 52 Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ या ब्रह्म आदि में कोई अन्तर नहीं रह जाता है । उसका तो अपना एक धर्म होता है और वह है आत्म- धर्म ( शुद्धात्म-धर्म) । यही बात विश्वपूज्य पर पूर्णरूपेण चरितार्थ होती है । सामान्यतया जैन परम्परा में परम तत्त्व की उपासना तीर्थंकरों के रूप में की जाती रही है; किन्तु विश्वपूज्य ने परमतत्त्व की उपासना तीर्थंकरों की स्तुति के अतिरिक्त शंकर, शंभु भूतेश्वर महादेव, जगकर्ता, स्वयंभू, पुरूषोत्तम, अच्युत, अचल, ब्रह्म-विष्णु-गिरीश इत्यादि के रूप में भी की है । उन्होंने निर्भीक रूप से उद्घोषणा की है। "शंकर शंभु भूतेश्वरो ललना, मही माहें हो वली किस्यो महादेव, जिनवर ए जयो ललना । जगकर्ता जिनेश्वरो ललना, स्वयंभू हो सहु सुर करे सेव, जिनवर ए जयो ललना ॥ - वेद ध्वनि वनवासी ललना, चौमुखे हो चारे वेद सुचंग, जिन. । वाणी अनक्षरी दिलवसी ललना, ब्रह्माण्डे बीजो ब्रह्म विभंग, जि. ॥ पुरुषोत्तम परमातमा ललना, गोविन्द हो गिस्वो गुणवंत, जि. । अच्युत अचल छे ओपमा ललना, विष्णु हो कुण अवर कहंत, जि. ॥ नाभेय रिषभ जिणंदजी ललना, निश्चय थी हो देख्यो देव दमीश । एहिज सूरिशजेन्द्र जी ललना, तेहिज हो ब्रह्मा विष्णु गिरीश, जि. ॥ ॥ वास्तव में, विश्वपूज्य ने परमात्मा के लोक प्रसिद्ध नामों का निर्देश कर समन्वय - दृष्टि से परमात्म-स्वरूप को प्रकट किया है । इसप्रकार कहा जा सकता है कि विश्वपूज्य ने धर्मान्धता, संकीर्णता, असहिष्णुता एवं कूपमण्डूकता से मानव समाज को ऊपर उठाकर एकता का अमृतपान कराया । इससे उनके समय की राजनैतिक एवं धार्मिक परिस्थिति का भी परिचय मिलता है । 'अभिधान राजेन्द्र कोष' कथाओं का सुधासिन्धु है । कथाओं में जीवन को सुसंस्कृत, सभ्य एवं मानवीय गुण - सम्पदा से विभूषित करने का सरस शैली में अभिलेखन हुआ है । कथाएँ इक्षुरस के समान मधुर, सरस और सहज शैली में आलेखित हैं । शैली में प्रवाह हैं, प्राकृत और संस्कृत शब्दों को हीरक कणियों के समान तराश कर जिन भक्ति मंजूषा भाग 1 - 1 पृ. 72 अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-553 Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कथाओं को सुगम बना दिया है । उपसंहार : विश्वपूज्य अजर-अमर है । उनका जीवन 'तप्तं तप्तं पुनरपि पुनः काञ्चनं कान्त वर्णम्' की उक्ति पर खरा उतरता है । जीवन में तप की कंचनता है, कवि-सी कोमलता है । विद्वत्ता के हिमाचल में से करुणा की गंग-धारा प्रवाहित है। उन्होंने जगत् को 'अभिधान राजेन्द्र कोष' रूपी कल्पतरू देकर इस धरती को स्वर्ग बना दिया है, क्योंकि इस कोष में ज्ञान-भक्ति और कर्मयोग का त्रिवेणी संगम हुआ है । यह लोक माङ्गल्य से भरपूर क्षीर-सागर है। उनके द्वारा निर्मित यह कोष आज भी आकाशी ध्रुवतारे की भाँति टिमटिमा रहा है और हमें सतत दिशा-निर्देश दे रहा है । विश्वपूज्य के लिए अनेक अलंकार ढूँढ़ने पर भी हमें केवल एक ही अलंकार मिलता है - वह है - अनन्वय अलंकार - अर्थात् विश्वपूज्य विश्वपूज्य ही है। उनका स्वर्गवास 21 दिसम्बर सन् 1906 में हुआ, परन्तु कौन कहता है कि विश्वपूज्य विलीन हो गये ? वे जन-जन के श्रद्धा केन्द्र सबके हृदय-मंदिर में विद्यमान हैं ! अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-5054 - Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिधान राजेन्द्र कोष में, ) सूक्ति-सुधारस ___ (पंचम खण्ड) Page #64 --------------------------------------------------------------------------  Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1. धर्मशास्त्र का सार कपिलः प्राणिनां दया । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 2] . एवं [भाग 7 पृ. 70] - तीत्थोगाली 22 कल्प प्राणियों पर दया (करुणा भाव) रखो । आयुर्वेद शास्त्र का सार जीर्णे भोजनमात्रेयः । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 2] एवं [भाग 7 पृ. 70] - तीत्थोगाली 22 कल्प पहले खाए हुए का पाचन होने के बाद ही खाओ अर्थात् पूर्व का अन्न हजम न हो तबतक नहीं खाना चाहिए। 3. कामशास्त्र का सार पाञ्चाल: स्त्रीषु मार्दवम् । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 2] एवं [भाग 7 पृ. 70] - तीत्थोगाली 22 कल्प स्त्रियों पर कठोर मत बनो, कोमल रहो । नीतिशास्त्र का सार बृहस्पतिरविश्वासः । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 2] एवं [भाग 7 पृ. 70] - तीत्थोगाली 22 कल्प कहीं पर भी विश्वास मत रखो। 5. आहारोद्देश्य वेयणवेयावच्चे, इरियट्ठाए य संजमट्ठाए । तह पाण वत्तियाए, छटुं पुण धम्मचिंताए । _अभिधान राजे अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-5 . 57 Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 9] उत्तराध्ययन 26/32 छः कारणों से आहार करता हुआ साधु प्रभु आज्ञा का उल्लंघन नहीं करता । वे कारण ये हैं - - (१) क्षुधावेदनीय को शान्त करने के लिए (२) वैयावृत्य – सेवा करने के लिए (३) ईर्यासमिति का पालन करने के लिए (४) संयम पालन करने के लिए (५) प्राण-रक्षा के लिए और (६) धर्म - चिन्तन करने के लिए । करे । 7. 6. स्वाध्याय तप the सज्झायं तु तओ कुज्जा सव्वभावविभावणं । श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 10] उत्तराध्ययन 26/36 समस्त भावों का प्रकाशक (अभिव्यक्त करनेवाला) स्वाध्याय तप श्रमण-रात्रिचर्या पढमं पोरिसि सज्झायं, बिइए झाणं झियायई । तइयाए निमोक्खं तु, सज्झायं तु चउथिए || श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 10] - उत्तराध्ययन 26/43 संयमी साधक प्रथम प्रहर में स्वाध्याय, दूसरे प्रहर में ध्यान, तीसरे प्रहर में निद्रा-त्याग और चौथे प्रहरमें पुनः स्वाध्याय करें । 8. सबमें एक हथिस्स य कुंथुस्स समे चेव जीवे ? श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 38] भगवतीसूत्र 1/8/2 आत्मा की दृष्टि से हाथी और कुंथुआ - दोनों में आत्मा एक समान BOUG अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-5 • 58 Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यावहारिक-अव्यावहारिक जे से पुरिसे देइ वि सन्नवेइ वि से पुरिसे ववहारी । जे से पुरिसे णो देति णो सन्नवेइ सेणं अववहारी ॥ श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 5 पृ. 38] राजप्रश्नीय 185 जो व्यापारी ग्राहक को अभीष्ट वस्तु देता है और प्रीतिवचन से संतुष्ट भी करता है, वह व्यवहारी है। जो न देता है और न प्रीति वचन से संतुष्ट ही करता है; वह अव्यवहारी है । 9. 10. वन्दना जत्थेव धम्मायरियं पासिज्जा, तत्थेव वंदेज्जा णमंसेज्जा । श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 39-40] राजप्रश्नीय 191 जहाँ कहीं भी अपने धर्माचार्य को देखें, वहीं पर उन्हें वन्दना - - - नमस्कार करना चाहिए | 11. जीवन अरमणीय नहीं ! माणं तुमं पएसी ! पुव्विं रमणिज्जे भवित्ता पच्छा अरमणिज्जे भविज्जासि । श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 40] राजप्रश्नीय 194-199 हे राजन् ! तुम जीवन के पूर्वकाल में रमणीय होकर उत्तरकाल में - अरमणीय मत बन जाना । 12. साधक-चर्या साता गारवणि हुए, उवसंते णिहे चरे । श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 59] एवं [भाग 6 पृ. 1406] सूत्रकृतांग 1/8/18 साधक सुख-सुविधा की भावना से अनपेक्ष रहकर, उपशान्त एवं दंभरहित होकर विचरे । अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड़-559 Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 13. प्रत्याख्यान पच्चक्खाणेणं इच्छा निरोहं जणयइ । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 103] - उत्तराध्ययन 29/13 प्रत्याख्यान (प्रतिज्ञा) से इच्छा-निरोध होता है। 14. प्रत्याख्यान-लाभ पच्चक्खाणेणं आसव दाराइं निरंभइ । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 103] - उत्तराध्ययन 29/13 प्रत्याख्यान (प्रतिज्ञा) से जीव आश्रव द्वार का निरोध करता है। 15. तपश्चरण-प्रयोजन राग-द्वेषौ यदि स्यातां, तपसा किं प्रयोजनम् ? तावेव यदि न स्यातां, तपसा किं प्रयोजनम् ? ॥ - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 104] - पंचाशक सटीक 5 विव. तप करने पर भी यदि राग-द्वेष बने रहें, राग-द्वेष की मात्रा में न्यूनता न हो, तो उस तपश्चरण से भी क्या लाभ ? और यदि राग-द्वेष सर्वथा निर्मूल हो चुके हैं तो फिर ऐसी स्थिति में भी तप करने का क्या औचित्य ? वस्तुत: तपश्चरण के पीछे राग-द्वेष न्यून हो, यही उद्देश्य रहा हुआ है। 16. प्रतिक्रमण स्वस्थानाद् यत् परं स्थानं, प्रमादस्य वशाद् गतः । तत्रैव क्रमणं भूयः, प्रतिक्रमणमुच्यते ॥ क्षायोपशमिकाद् भावा-दौदयिकस्य वशंगतः । तत्रापि च स एवार्थः प्रतिकूलगमात् स्मृतः ॥ - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 261) - आवश्यक - 4 . अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-5 • 60 Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमादवश अपने स्थान को छोड़कर दूसरे स्थान-हिंसा आदि में गई हुई आत्मा का लौटकर अपने स्थान-आत्मगुणों में आ जाना 'प्रतिक्रमण' है तथा क्षायोपशमिक भाव से औदयिक भाव में गई हुई आत्मा का पुन: मूल भाव में आ जाना 'प्रतिक्रमण' है। 17. विनय बिन विद्या विणया हीआ विज्जा, दिति फलं इह परे अ लोगम्मि। न फलंति विणया हीणा, सस्साणि व तोयहीणाणि ॥ - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 267] एवं भाग 6 पृ. 1089 - बृह. भाष्य 5203 विनयपूर्वक पढ़ी गई विद्या, लोक-परलोक में सर्वत्र फलवती होती है । विनयहीन विद्या उसीप्रकार निष्फल होती है, जिसप्रकार जल के बिना धान्य की खेती। 18. मन्त्र-सिद्धि आयरिय नमुक्कारेण, विज्जामंता य सिझंति । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 267] - आवश्यक नियुक्ति 2010 आचार्य भगवन्त को नमस्कार करने से विद्या-मंत्र सिद्ध होते हैं। 19. भक्ति से कर्मक्षय भत्तीइ जिनवराणं खिज्जंती पुव्वसंचिआ कम्मा । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 267] - आवश्यक नियुक्ति 24110 श्री जिनेश्वर परमात्मा की भक्ति से पूर्व संचित कर्म क्षय होते हैं । 20. प्रतिक्रमण क्यों ? पडिसिद्धाणं करणे, किच्चाणमकरणे य पडिक्कमणं । असद्दहणे य तहा, विवरीय परुवणाए य ॥ - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 271] अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-5 . 61 Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - आवश्यकनियुक्ति 1268 हिंसादि निषिद्ध कार्य करने का, स्वाध्याय प्रतिलेखनादि कार्य नहीं करने का, तत्त्वों में अश्रद्धा उत्पन्न होने का एवं शास्त्रविरुद्ध प्ररुपणा करने का प्रतिक्रमण किया जाना चाहिए। 21. क्षमापना, प्राणी मात्र से सव्वस्स जीवरासिस्स, भावओ धम्मनिहिय नियचित्तो। सव्वं खमावइत्ता, अहयंपि खमामि सव्वेसिं ॥ - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 317] - संस्तारक प्रकीर्णक 105 धर्म में स्थिर चित्त होकर मैं सद्भावपूर्वक सर्व जीवों से अपने अपराधों की क्षमा माँगता हूँ और उनके सब अपराधों को मैं भी सद्भावपूर्वक क्षमा करता हूँ। 22. क्षमापना सव्वस्स समण संघस्स, भगवओ अंजलि करिअ सीसे। सव्वं खमावइत्ता, खमामि सव्वस्स अहयंपि ॥ - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 317-1358] - मरणसमाधि-प्रकीर्णक 336 मैं नतमस्तक होकर समस्त पूज्य श्रमण संघ से अपने सर्व अपराधों की क्षमा माँगता हूँ और उनके प्रति मैं भी क्षमा भाव रखता हूँ। 23. प्रतिक्रमण-लाभ पडिक्कमणेणं वयच्छिद्दाई पिहेइ । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 318] - उत्तराध्ययन 29/03 प्रतिक्रमण से जीव व्रत के छिद्रों को रोक देता है। 24. कच्छपवत् साधक कुम्मो इव गुत्तिदिए अल्लीण पल्लीणे चिट्ठइ । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 357] अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-5.62 Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - भगवतीसूत्र 250 __ साधक कछुए की भाँति समस्त इन्द्रियों एवं अंगोपांग को समेट करके रहे। 25. ज्ञानी नाणी न विणा णाणं । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 361] - निशीथभाष्य 75 ज्ञान के बिना कोई ज्ञानी नहीं हो सकता। 26. इन्द्रिय-निग्रह सद्देसु य रूवेसु य, गंधेसु, रसेसु तह फासेसु । न वि रज्जइ न वि दुस्सइ, एसा खलु इंदिअप्पणिही । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 381] - दशवैकालिक नियुक्ति 295 - शब्द, रूप, गंध, रस और स्पर्श में जिसका चित्त न तो अनुरक्त होता है और न द्वेष करता है, उसीका इन्द्रियनिग्रह प्रशस्त होता है। 27. कुमार्गगामी इन्द्रियाँ जस्स खलु दुप्पणिहिया-णिदियाइं तवं चरंतस्स । सो हीरइ असहीणेहिं सारही वा तुरंगेहिं ॥ - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 382] - दशवकालिकनियुक्ति 298 जिस साधक की इन्द्रियाँ कुमार्गगामिनी हो गई हैं; वह दुष्ट घोड़ों के वश में पड़े सारथि की तरह उत्पथ में भटक जाता है। 28. गजस्नान जस्स वि य दुप्पणिहिआ, होंति कसाया तवं चरंतस्स । सो बाल तवस्सी वि व, गयण्हाण परिस्समं कुणइ ॥ - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 382] - दशवैकालिक नियुक्ति 300 अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-5 • 63 Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिस तपस्वी ने कषायों को निगृहीत नहीं किया, वह बाल तपस्वी है। उसके तप रूपमें किए गए सब कायकष्ट गजस्नान की तरह व्यर्थ है। 29. ज्ञानावरणीय बंध ज्ञानस्य ज्ञानिनां चैव, निंदा-प्रद्वेष-मत्सरैः । उपघातैश्च विघ्नेश्च, ज्ञानजं कर्मबध्यते ॥ - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 389] - उत्तराध्ययन पाइ टीका 2 अ. ज्ञान व ज्ञानियों की निंदा, द्वेष, ईर्ष्या एवं उनका नाश करने से और उनमें विघ्न डालने से ज्ञानावरणीय कर्म बंधता है । 30. गुण-दोष जो उ गुणो दोसकरो, ण सो गुणो दोसमेव तं जाणे। अगुणो वि होति उ गुणो, विणिच्छओ सुंदरो जस्स ॥ - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 398] - निशीथ भाष्य 5877 - बृहदावश्यक भाष्य 4052 जो गुण, दोष का कारण है, वह वस्तुत: गुण होते हुए भी दोष ही है और वह दोष भी गुण है; जिसका परिणाम सुन्दर है अर्थात् जो गुण का कारण है। 31. पञ्च पवित्र सिद्धान्त पंचैतानि पवित्राणि, सर्वेषां धर्मचारिणाम् । अहिंसासत्यमस्तेयं, त्यागो मैथुनवर्जनम् ॥ - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 473] - हारिभद्रीय अष्टक 132 अहिंसा, सत्य, अस्तेय, अपरिग्रह और मैथुनत्याग-ये पाँच सभी धर्मचारियों के लिए पवित्र हैं । अत: इनका पूर्ण आचरण करना चाहिए। 32. पञ्च प्रमाद मज्जं विसय कसाया निद्दा विगहा य पंचमी भणिया। या नावही यापनमा भाणय इअ पंच पमाया, जीवं पाडेंति संसारे ॥ अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-5 • 64 Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 479] - उत्तराध्ययन नियुक्ति 180 मद्य, विषय, कषाय, निद्रा और विकथा-यह पाँच प्रकार का प्रमाद है जो जीव को संसार में गिराता है। 33. एकान्त सुख, मोक्ष णाणस्स सव्वस्स पगासणाए, .. अन्नाण मोहस्स विवज्जणाए । रागस्स दोसस्स य संखएणं, एगंत सोक्खं समुवेइ मोक्खं ॥ - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 482] - उत्तराध्ययन 3212 ज्ञान के समग्र प्रकाश से, अज्ञान और मोह के विसर्जन से तथा राग-द्वेष के क्षय से आत्मा एकान्त सुख रूप मोक्ष को प्राप्त करती है। 34. समाधिकामी तपस्वी .समाहि कामे समणे तवस्सी । . - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 483] - उत्तराध्ययन 32/4 जो श्रमण समाधि की कामना करता है, वही तपस्वी है। 35. मोह-तृष्णा जहा य अंडप्पभवा बलागा, अंडं बलागप्पभवं जहा य । एमेव मोहायतणं खु तण्हा, मोहं च तण्हायतणं वयंति ॥ - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 483] - उत्तराध्ययन 32/6 जिसप्रकार बलाका (बगुली) अंडे से उत्पन्न होती है और अंडा बलाका से; इसीप्रकार मोह तृष्णा से उत्पन्न होता है और तृष्णा मोह से। व तण्हा , अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-5.65 Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 36. शुद्ध मितभुक् आहारमिच्छे मितमेसणिज्जं । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 483] - उत्तराध्ययन 3212 आत्मार्थी साधक परिमित और शुद्ध आहार की इच्छा करे । गुरु-वृद्ध-सेवा तस्सेस मग्गो गुरूविद्ध सेवा । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 483] - उत्तराध्ययन 323 व्यवहार धर्म का यह मार्ग है कि गुरु और वृद्धों की सेवा करो। 38. मोक्ष-मार्ग तस्सेस मग्गो गुरूविद्ध सेवा, विवज्जणा बाल जणस्स दूरा । सज्झाय एगंत निसेवणा य, सुत्तत्थ संचिंतणया धिती य ॥ - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 483] - उत्तराध्ययन 328 गुरु और वृद्धजनों (स्थविर मुनियों) की सेवा करना, अज्ञानी जनों के संपर्क से दूर रहना, स्वाध्याय करना, एकान्तवास करना, सूत्र और अर्थ का सम्यक् चिंतन करना तथा धैर्य रखना-ये मोक्ष प्राप्ति के मार्ग हैं। 39. अतिमात्रा में रस-वर्जन रसापगामं न निसेवियव्वा । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 484] - उत्तराध्ययन 3200 ब्रह्मचारी को अधिक मात्रा में रसों का सेवन नहीं करना चाहिए। अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-5 • 66 Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 40. 42. उत्तराध्ययन 32/10 उद्दीप्त पुरुष के निकट कामभावनाएँ वैसे ही चली आती हैं। जैसेस्वादिष्ट फलवाले वृक्ष के पास पक्षी चले आते हैं । 41. वास्तविक दुःख 43. काम-भावना दित्तं च कामा समभिद्दवंति, दुमं जहा सादुफलं व पक्खी ॥ 44. दुक्खं च जाई मरणं वयंति । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 5 पृ. 484] उत्तराध्ययन 32/7 बार-बार जन्म और बार-बार मरण, यही वस्तुतः दुःख हैं । - जन्म-मरण- मूल कम्मं च जाई मरणस्स मूलं । श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 484] - उत्तराध्ययन 32/7 कर्म ही जन्म-मरण का मूल है । मोह से कर्म श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 5 पृ. 484 ] कम्मं च मोहप्पभवं वदंति । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 484 ] उत्तराध्ययन 32/7 कर्म, मोह से ही उत्पन्न होते हैं । रस, उद्दीपक पायंरसा दित्तिकरा नराणां । श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 484 ] उत्तराध्ययन 32/10 अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-567 Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रस प्राय: मनुष्यों की धातुओं को उत्तेजित करते हैं अर्थात् उन्माद बढ़ानेवाले होते हैं। 45. कर्मबीज रागो य दोसो वि य कम्मबीयं । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 484] - उत्तराध्ययन 32/M राग और द्वेष, ये दो ही कर्म के बीज हैं। 46. मोहक्षय, दुःखक्षय दुक्खं हयं जस्स न होइ मोहो । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 484] - उत्तराध्ययन 32/8 ... जिसे मोह नहीं होता, उसका समग्र दु:ख नष्ट हो जाता है । 47. तृष्णा-त्याग मोहो हओ जस्स न होइ तण्हा । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 484] - उत्तराध्ययन 32/8 जिसके हृदय में तृष्णा नहीं है उसका समग्र मोह नष्ट हो जाता है। 48. निर्लोभ तण्हा हया जस्स न होइ लोहो । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 484] - उत्तराध्ययन 32/8 जिसमें लोभ नहीं होता, उसकी तृष्णा नष्ट हो जाती है। 49. अपरिग्रह लोहो हओ जस्स न किंचणाई । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 484] - उत्तराध्ययन 3278 जिसके पास कुछ नहीं है, उसका लोभ नष्ट हो जाता है। अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-5 • 68 Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 50. ब्रह्मचर्यरत अदंसणं चेव अपत्थणंच, अचिंतणं चेव अकित्तणं च। इत्थी जणस्सारिय झाणजोग्गं,हियंसया बंभचेरेरयाणं॥ - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 485] - उत्तराध्ययन 32/15 वे साधक जो ब्रह्मचर्य की साधना में लीन हैं, उनके लिए स्त्रियों को 'राग दृष्टि से न देखना; न उनकी अभिलाषा करना, न तन में उनका चिन्तन करना और न ही उनकी प्रशंसा करना-ये सब सदा के लिए हितकर है। 51. ब्रह्मचारी-निवास एमेव इत्थी निलयस्स मज्झे, न बंभचारिस्स खमो निवासो। - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 485] - उत्तराध्ययन 32/13 जिस घरमें स्त्री रहती हो, वहाँ ब्रह्मचारी का रहना उचित नहीं है। 52. जितेन्द्रिय न राग सत्तू धरिसेइ चित्तं, पराइओ वाहिरिवोसहेहिं । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 485] - उत्तराध्ययन 32/12 जिसप्रकार उत्तम जाति की औषधि रोग को दबा देती है या नष्ट कर देती है और पुन: उभरने नहीं देती, उसीप्रकार जितेन्द्रिय पुरुष के चित्त को राग-द्वेष रूपी कोई शत्रु सता नहीं सकता। 53. प्रकाम भोजन-वर्जन जहा दवग्गी पउरिंधणे वणे, समारूओ नोवसमं उवेइ । एविदियग्गी वि पगामभोइणो, न बंभचारिस्स हियाय कस्सई ॥ - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 485] अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-5 • 69 Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - उत्तराध्ययन 32ml जैसे प्रचुर इंधनवाले वन में लगी हुई और प्रचण्ड पवन के झोकों से प्रेरित दावाग्नि शांत नहीं होती, वैसे ही प्रकामभोजी अर्थात् सरस एवं अधिक मात्रा में भोजन करनेवाले साधक की इन्द्रियाग्नि (कामाग्नि) शांत नहीं होती । अत: किसी भी ब्रह्मचारी के लिए प्रकाम भोजन कदापि श्रेयस्कर नहीं है। 54. काम, किंपाक जहा य किंपाग फला मणोरमा, रसेण वण्णेण य भुज्जमाणा । ते खुद्दए जीविए पच्चमाणा, एओवमा कामगुणा विवागे ॥ - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 486] - उत्तराध्ययन 32/20 जैसे किंपाक फल रूप, रंग और रस की दृष्टि से प्रारंभ में देखने और खाने में तो अत्यन्त मधुर और मनोरम लगते हैं, किंतु बाद में जीवन के नाशक हैं; वैसे ही काम-भोग भी प्रारंभ में बड़े मीठे और मनोहर प्रतीत होते हैं; किन्तु विपाककाल (अन्तिम परिणाम) में अत्यन्त दु:खप्रद सिद्ध होते हैं। 55. एकान्त प्रशस्त विवित्तवासो मुणिणं पसत्थो । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 486] - उत्तराध्ययन 3246 मुनि के लिए एकान्तवास प्रशस्त होता है । 56. दुःख-मूल कामाणुगिद्धिप्पभवं खु दुक्खं । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 486] - उत्तराध्ययन 3249 समग्र संसार में जो भी दु:ख हैं, वे सब कामासक्ति के कारण ही हैं। अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-5 • 70 Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 57. काम-विजय एए य संगे समइक्कमित्ता, सुहत्तरा चेव भवंति सेसा । जहा महासागर मुत्तरित्ता, नदी भवे अवि गंगासमाणा ॥ . - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 486] - उत्तराध्ययन 3218 जो मनुष्य स्त्री-विषयक आसक्तियों का पार पा जाता है उसके लिए शेष समस्त आसक्तियाँ वैसे ही सुगम हो जाती हैं। जैसे महासागर को पार पा जानेवाले के लिए गंगा जैसी महानदी को पार करना आसाना होता है। 58. राग-द्वेष के हेतु रागस्स हेउं समणुन्नमाहु दोसस्स हेउं अमणुन्नमाहु । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 487] - उत्तराध्ययन 32/23 .. मनोज्ञ शब्दादि राग के हेतु होते हैं और अमनोज्ञ द्वेष के हेतु । 59. रूपासक्ति रूवेसु जो गेहिमुवेइ तिव्वं, अकालियं पावइ से विणासं । रागाउरे से जह वा पयंगे, आलोगलोले समुवेइ मच्चु । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 487] - उत्तराध्ययन 32/24 रूप के मोह में तीव्र अनुरक्ति रखनेवाला प्राणी असमय में विनाश के गर्त में जा गिरता है। जैसे-दीपक की चमकती लौ के राग में आतुर बना पतंगा मृत्यु को प्राप्त होता है। 60. रूप-वीतराग चक्खुस्स रुवं गहणं वयंति, तं रागहेउं तु मणुन्नमाहु। तं दोसहेउं अमणुन्नमाहु, समो उजो तेसु स वीयरागो॥ अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-5.71 Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5. पृ. 487] - उत्तराध्ययन 32/22 चक्षु का विषय रूप है । जो रूप राग का हेतु होता है, उसे मनोज्ञ कहा जाता है और जो द्वेष का हेतु होता है, उसे अमनोज्ञ कहा जाता है।' जो मनोज्ञ-अमनोज्ञ रूपों में समान रहता है; वहीं वीतराग होता है। 61. मनोनिग्रह जे इंदियाणं विसया मणुन्ना, न तेसु भावं निसिरे कयाइ ॥ - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 487] - - उत्तराध्ययन 3221 इन्द्रियों के सुमनोज्ञ विषयों में मन को कभी भी संलग्न न करें। 62. रूप में अतृप्त रूवे अत्तित्ते य परिग्गहम्मि, सत्तोवसत्तो न उवेइ तुहूिँ। अतुट्ठिदोसेणं दुही परस्स, लोभाविले आययई अदत्तं ॥ - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 488-489] - उत्तराध्ययन 32/29 जो रूप में अतृप्त होता है, उसकी आसक्ति बढ़ती ही जाती हैं । इसलिए उसे संतोष नहीं होता। असंतोष के दोष से दुःखित होकर वह दूसरे की सुंदर वस्तुओं को लोभी बनकर चुरा लेता है। 63. माया-मृषा मायामसं वड्ढइ लोभदोसा । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 489-490] - उत्तराध्ययन 32/30-43 लोभ के दोष से मनुष्य का माया सहित झूठ बढ़ता है । 64. चोरी लोभाविले आययई अदत्तं । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 489] अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-5 • 72 Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययन 32/29 व्यक्ति लोभ से कलुषित होकर चोरी करता है 65. दुःखदायी कर्म पदुट्ठचित्तो अ चिणाइ कम्मं । जंस पुणो होइ दुहं विवागे ॥ - - उत्तराध्ययन 32/46 आत्मा प्रदुष्ट चित्त (राग-द्वेष से कलुषित) होकर कर्मों का संचय करती है। वे कर्म परिणाम में बहुत दुःखदायी होते हैं । 66. श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 489] असत्य दुःखान्त मोसस्स पच्छा य पुरत्थओ य पओगकाले य दुही दुरंते । श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 489] - - उत्तराध्ययन 32/31 बोलने से पहले और उसके बाद तथा झूठ असत्यभाषी पुरुष झूठ बोलने के समय भी दु:खी होता है । उसका अन्त भी दु:खद होता है । 67. शब्द - परिग्रह में अतृप्ति सद्दाणुवाएण परिग्गहेण, उपाय रक्खण सन्निओगे । वए विओगे य कहिं सुहं से ? संभोगकाले य अतित्तिलाभे ॥ श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 490] उत्तराध्ययन 32/41 शब्द के प्रति अनुराग और परिग्रह (ममत्व ) के कारण मनुष्य उसके उत्पादन, संरक्षण और प्रबन्ध की चिंता करता है और उसका व्यय तथा वियोग होता है, अत: इन सबमें उसे सुख कहाँ है ? और तो क्या ? उसके उपभोग काल में भी उसे तृप्ति नहीं मिलती । अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस खण्ड-5• 73 Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 68. स्वार्थवश जीवपीड़ा सद्दाणुगासाणुगए य जीवे, चराचरे हिंसइ गरुवे । चित्तेहिं ते परितावेइ बाले, पीलेइ अत्तट्ठगुरु किलिटे ॥ - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 490] - उत्तराध्ययन 32/40 मनोज्ञ शब्द की तृष्णा के वशीभूत अज्ञानी पुरुष अपने स्वार्थ के लिए चराचर जीवों की हिंसा करता है । उन्हें कई प्रकार से परितप्त और पीड़ित करता है। 69. शब्द-वीतराग सोयस्स सदं गहणं वयंति, तं रागहेउं तु मणुन्नमाहु । तं दोसहेउं अमणुन्नमाहु, समो य जो तेसु स वीयरागो॥ - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 490] - उत्तराध्ययन 32.35 श्रोत्र का विषय शब्द है । जो शब्द राग का हेतु होता है उसे मनोज्ञ कहा जाता है और जो द्वेष का हेतु होता है उसे अमनोज्ञ कहा है । जो मनोज्ञ-अमनोज्ञ शब्दों में समान रहता है, वहीं वीतराग है। 70. सतृष्ण आश्रयहीन अदत्ताणि समाययंतो । सद्दे अतित्तो दुहिओ अणिस्सो ॥ - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 490] - उत्तराध्ययन 32/44 चोरी में प्रवृत्त और शब्दादि में अतृप्त हुई आत्मा दुःख पाती है तथा उसका कोई भी संरक्षक नहीं होता। 71. शब्दासक्त-अकाल मृत्यु सद्देसु जो गिद्धिमुवेइ तिव्वं । अकालियं पावइ से विणासं ॥ - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 490] अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-5 • 74 Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययन 32/37 जो मनोज्ञ शब्दों में तीव्रासक्ति रखता है वह रागातुर अकाल में ही - विनष्ट हो जाता है | 72. निर्लिप्त आत्मा न लिप्पई भवमज्झे वि संतो, जलेण वा पुक्खरिणी पलासं ॥ HO उत्तराध्ययन 32/47 जो आत्मा विषयों के प्रति अनासक्त है, वह संसार में रहती हुई भी उसमें लिप्त नहीं होती । जैसे पुष्करिणी के जल में रहा हुआ पलाश कमल 73. असंतुष्ट श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 5 पृ. 490 ] सद्दे अत्तित्ते य परिग्गहम्मि । सत्तो व सत्तो न उवेइ तुट्ठि ॥ - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 5 पृ. 490] उत्तराध्ययन 32/42 शब्द आदि विषयों में अतृप्त और परिग्रह में आसक्त रहनेवाली आत्मा को कभी संतोष नहीं होता । 74. वीतराग कौन ? समो य जो तेसु स वीयरागो । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 490] उत्तराध्ययन 32/87 जो मनोज्ञ और अमनोज्ञ शब्दादि विषयों में सम रहता है, वह वीतराग है । 75. गंध - वीतराग 1 घाणस्स गंधं गहणं वयंति, तं रागहेडं तु मणुन्नमाहु । तं दोसउं अमणुन्नमाहु, समो य जो तेसु स वीयरागो ॥ अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-5 • 75 Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 5 पृ. 490] उत्तराध्ययन 32/48 घ्राणेन्द्रिय का विषय गंध है। जो गंध राग का हेतु होता है, उसे मनोज्ञ कहा जाता है और जो द्वेष का हेतु होता है, उसे अमनोज्ञ कहा जाता है। जो मनोज्ञ-अमनोज्ञ गंध, दोनों में समदृष्टि रखता है, वही वीतराग होता है । SE - 76. समाया मृषा - वृद्धि तण्हाभिभूयस्स अदत्तहारिणो, सद्दे अतित्तस्स परिग्गहे य । मायामुखं वड्ढइ लोभदोसा, तत्थावि दुक्खा न विमुच्चई से ॥ उत्तराध्ययन 32/43 तृष्णा से अभिभूत-चौर्य-कर्म में प्रवृत्त, शब्दादि विषयों तथा परिग्रह में अतृप्त व्यक्ति लोभ-दोष से माया सहित मृषा (कपट प्रधान झूठ) की वृद्धि करता है, तथापि वह दु:ख से मुक्त नहीं होता ! 77. गंधासक्ति सकता है ? 78. - गन्धाणुरत्तस्स नरस्स एवं, कत्तो सुहं होज्ज कयाइ किंचि । श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 490] - उत्तराध्ययन 32/58 सुगन्ध में अनुरक्त मनुष्य को जरा भी सुख कैसे और कब हो M श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 5 पृ. +91] रसासक्त-अकाल मृत्यु रसेसु जो गेहिमुवेइ तिव्वं, अकालियं पावइ से विणासं । श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 491 ] उत्तराध्ययन 32/63 - अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस खण्ड-5 76 Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जो मनुष्य रस (स्वाद) में शीघ्र आसक्त होकर असंयमपूर्वक उसका सेवन करता है वह असमय में ही विनाश को प्राप्त हो जाता है । 79. रसना-वीतराग जिब्भाए रसं गहणं वयंति, तं रागहेउं तु मणुन्नमाहु। तं दोसहेउं अमणुन्नमाहु, समो य जो तेसु स वीयरागो॥ - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 491] - उत्तराध्ययन 32/61 ... रसनेन्द्रिय का विषय रस है, जो रस राग का हेतु होता है, उसे मनोज्ञ कहा जाता है और जो द्वेष का हेतु होता है, उसे अमनोज्ञ कहा जाता है । जो मनोज्ञ-अमनोज्ञ रसों में समदृष्टि रखता है, वही वीतराग होता है। 80. त्वचेन्द्रियासक्ति से विनाश फासेसु जो गेहिमुवेइ तिव्वं, अकालियं पावइ से विणासं ॥ - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 492] - उत्तराध्ययन 3246 जो मनोज्ञ स्पर्शनेन्द्रिय के भोगों में तीव्र आसक्ति रखता है वह अकाल में ही विनाश को प्राप्त हो जाता है । 81. स्पर्श-वीतराग कायस्स फासं गहणं वयंति, तं रागहेउं तु मणुन्नमाहु। तं दोसहेउं अमणुन्नमाहु, समो य जो तेसु स वीयरागो॥ - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 492] - उत्तराध्ययन 3204 स्पर्शनेन्द्रिय का विषय स्पर्श है । जो स्पर्श राग का हेतु होता है, उसे मनोज्ञ कहा जाता है और जो द्वेष का हेतु होता है, उसे अमनोज्ञ कहा जाता है । जो मनोज्ञ-अमनोज्ञ स्पर्शों में समदृष्टि रखता है, वही वीतराग कहलाता है। - - अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-5 • 77 Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 82. रागात्मा एविदियत्था य मणस्स अत्था, दुक्खस्स हेउं मणुयस्स रागिणो । ते चेव थोवंपि कयाइ दुक्खं, न वीयरागस्स करेंति किंचि ॥ - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 493] - उत्तराध्ययन 32/100 मन एवं इन्द्रियों के विषय रागात्मा को ही दु:ख के हेतु होते हैं। वीतराग को तो वे किंचित् मात्र भी दु:खी नहीं कर सकते । 83. मोह-विकार न कामभोगा समयं उवेंति, न यावि भोगा विगई उवेति । जे तप्पदोसी य परिग्गहीय, सो तेसु मोहा विगइं उवेति ॥ - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 493) एवं [भाग 6 पृ. 457] - उत्तराध्ययन 32101 काम-भोग-शब्दादि विषय न तो स्वयं समता के कारण होते हैं और न विकृति के ही, किंतु जो उनमें राग या द्वेष करता है वह उनमें मोह से राग-द्वेष रूप विकार को उत्पन्न करता है । 84. इन्द्रियवशी आवज्जई इन्दियचोरवस्से । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 494] - उत्तराध्ययन 32004 इन्द्रिय रूपी चोर के वशीभूत आत्मा संसार में ही भ्रमण करती है। 85. तृष्णा क्षीण. एवं ससंकप्पविकप्पणासु संजायइ समयमुवट्ठियस्स। अत्थेय संकप्पयओ तओ से पहीयए कामगुणेसुतण्हा ।। अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-5 • 78 Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 495] - उत्तराध्ययन 32007 राग-द्वेष आदि दोषों के हेतु इन्द्रियों के विषय नहीं है बल्कि व्यक्ति के अपने ही राग-द्वेषादिरूप संकल्प-विकल्प ही कारणभूत है । यदि व्यक्ति के मनमें ऐसी विरक्ति या समता जागृत हो जाए तो उस समता से उसकी काम-भोगों की बढ़ी हुई तृष्णा (राग-द्वेषादि विकार) क्षीण हो जाती है । 86. बाल, अशरणभूत न सरणं बाला पंडितमाणिणो । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 524] - सूत्रकृतांग IMAN अपने आपको पंडित माननेवाले बालजन (अज्ञानी) शरणरहित होते हैं। 87. मुनि की तटस्थ यात्रा ____अणुक्कसे अप्पलीणे, मज्झेण मुणि जावते । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 525] - सूत्रकृतांग IMAN उत्कर्ष रहित और अनासक्त मुनि मध्यस्थ (तटस्थ) भाव से यात्रा करे। 88. काम, खुजली नाति कंडूइ तं सेयं, अरूयस्सा वरज्झती । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 546] - सूत्रकृतांग 1/3303 . घाव को अधिक खुजलाना ठीक नहीं है, क्योंकि खुजलाने से घाव अधिक फैलता है। 89. अजातशत्रु जेणऽण्णो ण विसज्झेज्जा तेण तं तं समायरे । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 547] अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-5 • 79 Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___ - सूत्रकृतांग 1/3/3/19 ऐसा सम्यक अनुष्ठान का आचरण करें जिससे दूसरा कोई व्यक्ति अपना विरोधी न बने। 90. सिद्धि-सूत्र सवणे णाणे य विण्णाणे, पच्चक्खाणे य संजमे । अण्णहवे तवे चेव, वोदाणे अकिरिया सिद्धिं ॥ - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 549] एवं [भाग 7 पृ. 412] - भगवतीसूत्र 2/5 सत्संग से धर्मश्रवण, धर्मश्रवण से तत्त्वज्ञान, तत्त्वज्ञान से विज्ञानविशिष्ट तत्त्वबोध, विज्ञान से प्रत्याख्यान (सांसारिक पदार्थों से विरक्ति), प्रत्याख्यान से संयम, संयम से अनाश्रव (नवीन कर्म का अभाव), अनाश्रव से तप, तप से पूर्वबद्ध कर्मों का नाश, पूर्वबद्ध कर्म नाश से निष्कर्मता (सर्वथा कर्मरहित स्थिति) और निष्कर्मता से सिद्धि प्राप्त होती है। 91. परिग्रह-वटवृक्ष लोभ कलिकसाय महक्खंधो, चिंतासयनिचिय विपुलसालो । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 553] - प्रश्नव्याकरण 1/547 परिग्रह रूपी वृक्ष के तने लोभ, क्लेश और कषाय हैं और उसकी चिंतारूपी सैकड़ों ही संघन और विस्तीर्ण शाखाएँ हैं। 92. ममता मूर्छा परिग्रहः । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 553] - तत्त्वार्थ 7/12 मूर्छा (ममता) ही परिग्रह है। अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-5 • 80 Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 93. त्रिविध-परिग्रह तिविहे परिग्गहे पन्नते । तं जहा-कम्म परिग्गहे, सरीर परिग्गहे, बाहिरगभंडमत्तोवगरण परिग्गहे । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 553] - भगवतीसूत्र 1800 परिग्रह तीन प्रकार का है - कर्म परिग्रह, शरीर परिग्रह और बाह्य भण्ड-मात्र-उपकरण परिग्रह। 94. परिग्रहः अर्गला मोक्ख वरमोत्तिमग्गस्स फलिह भूयो । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 553-555] - प्रश्नव्याकरण 1/507 उत्तम मोक्ष-मार्ग रूप मुक्ति के लिए यह परिग्रह अर्गला रूप है । 95. देव भी अतृप्त देवा वि सइंदगा न तत्तिं न तुढि उवलभंति । . - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 555] - प्रश्नव्याकरण 1/509 देवता और इन्द्र भी भोगों से न कभी तृप्त होते हैं और न संतुष्ट । 96. परिग्रह: जाल नत्थि एरिसो पासो पडिबंधो अत्थि सव्वजीवाणं सव्वलोए । __- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 555] - प्रश्नव्याकरण 1509 - समूचे संसार में परिग्रह के समान प्राणियों के लिए दूसरा कोई जाल एवं बंधन नहीं है। 97. परिग्रह के विविध रूप अणंत असरणं दुरतं अधुवमणिच्चं असासयं पावकम्मणेम्मं । अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-5 • 81 Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अवकिरियव्वं विणासमूलं वहबंध परिकिलेस बहुलं अणंत संकिलेसं कारणं । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 555] - प्रश्नव्याकरण 1/509 यह परिग्रह अनंत है, यह किसी को शरण देनेवाला नहीं है । यह अस्थिर, अनित्य और अशाश्वत है, पाप-कर्मों की जड़ है, विनाश का मूल है, वध-बंधन और संक्लेश से व्याप्त है और अनन्त संक्लेश इसके साथ जुड़े हुए हैं। 98. दुःखों का घर सव्वदुक्ख संनिलयणं । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 555] - प्रश्नव्याकरण 1/509 यह परिग्रह समस्त दु:खों का घर है । 99. मन्दमति संचिणंति मंदबुद्धी । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 555] - प्रश्नव्याकरण 1/5/19 मंदबुद्धि मनुष्य परिग्रह का संचय करते हैं। 100. परिग्रहासक्त अत्ताणा अणिग्गहिया करेंति कोहमाणमायालोभे । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 555] - प्रश्नव्याकरण 1/5/19 शरणरहित परिग्रहासक्त व्यक्ति मन और इन्द्रियनिग्रह से रहित होकर क्रोध, मान, माया और लोभ करते हैं। 101. परिग्रह-विपाक परलोगम्मि य णट्ठा तमं पविट्ठा । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 555] अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-5 • 82 - वी अभियान गोत्र कोष (या 2. Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - प्रश्नव्याकरण 1/520 परिग्रहासक्त प्राणी परलोक में नष्ट-भ्रष्ट होते हैं और अज्ञानान्धकार में प्रविष्ट होते हैं। 102. परिग्रह-पाप का कटु फल एसो सो परिग्गहस्स फलविवागो इहलोईओ परलोइओ अप्पसुहो बहुदुक्खो महब्भओ । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 555] - प्रश्नव्याकरण 1/5/28 परिग्रह का उभयलोक सम्बन्धी यह फल विपाक अल्प-सुख और अधिक दु:ख देनेवाला है और अत्यन्त भयानक है । 103. बाह्य निर्ग्रन्थता वृथा चित्तेऽन्तर्ग्रन्थगहने बहिनिपॅथता वृथा । त्यागात्कंचुकमात्रस्य, भुजगो न हि निर्विषः ॥ - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 556] - ज्ञानसार 254 यदि चित्त अंतरंग परिग्रह से व्याकुल हो तो बाह्य निर्ग्रन्थता निरर्थक है। केंचुली छोड़ने मात्र से सर्प विषरहित नहीं हो जाता। 104. परिग्रहः ग्रह परिग्रहग्रहः कोऽयं विडम्बितजगत्त्रयः । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 556] - ज्ञानसार 254 . न जाने परिग्रह रूपी यह ग्रह कैसा है ? जिसने त्रिलोक को विडम्बित (पीड़ित) किया है। 105. त्रिलोकपूजित कौन ? यस्त्यक्त्वा तृणवद् बाह्यमान्तरं च परिग्रहम् । उदास्ते तत्पदाम्भोजं, पर्युपास्ते जगत्त्रयी ॥ अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-5 • 83 Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 556] - ज्ञानसार 253 जो तृण के समान बाह्य-आभ्यन्तर परिग्रह को छोड़कर सदा उदासीन रहते हैं, तीनों लोक उनके चरण-कमलों की सेवा में रहते हैं। 106. स्पृही की दृष्टि में: जगत् मूर्छाच्छन्नधियां सर्वं, जगदेव परिग्रहः । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 556] - ज्ञानसार 2518 मूर्छा से आच्छादित बुद्धिवाले जीवों के लिए समस्त जगत् परिग्रह रूप हैं। 107. निस्पृही की दृष्टि में: जगत् मूर्च्छया रहितानां तुः जगदेवापरिग्रहः । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 556] - ज्ञानसार 25/8 मूर्छा विहीन (ममता रहित) नि:स्पृही पुरुषों के लिए तीनों लोकों का ऐश्वर्य भी अपरिग्रह रूप है। 108. परिग्रहत्यागः कर्मक्षय त्यक्ते परिग्रहे साधोः प्रयाति सकलं रजः । पालित्यागे क्षणादेव सरसः सलिलं यथा ॥ - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 556] - ज्ञानसार 25/5 जैसे पाल टूटते ही तालाब का सारा पानी क्षणभर में बह जाता है वैसे ही बाह्याभ्यन्तर परिग्रह का त्याग करते ही साधु के सारे पाप-कर्म क्षय हो जाते हैं। 109. श्रमण कौन ? अपरिग्गह संवुडे य समणे, आरंभ परिग्गहातो विरते । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 557] अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-5 • 84 Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - प्रश्नव्याकरण 20028 जो ममत्व-भाव से रहित हैं, संवृतेन्द्रिय हैं और आरंभ-परिग्रह से विरत हैं, वे ही श्रमण होते हैं। 110. अहर्निश जागरुकता अहो य राओ य अप्पमत्तेण होइ सततं । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 560] - प्रश्नव्याकरण 2 10/29 सुविहित श्रमण को दिन और रात निरन्तर सजग रहना चाहिए। 111. समभावी श्रमण समे य जे सव्वपाणभूतेसु से हु समणे । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 560] - प्रश्नव्याकरण 240/29 जो समस्त प्राणियों पर समभाव रखता है, वही वास्तव में श्रमण 112. साधक कैसा हो ? पुक्खरपत्तं व निरुवलेवे........ आगासं विव णिरालंबे........ । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 561-562] - प्रश्नव्याकरण 24029 साधक को कमल-पत्र के समान निर्लेप और आकाश के समान निरावलम्ब होना चाहिए। 113. मुनिः भारण्ड पक्षी भारण्डे चेव अप्पमत्ते । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 562] - प्रश्नव्याकरण 200/29 मुनि भारण्ड पक्षी के समान सदा सजग रहता है। अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-5 • 85 Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 114. निरपेक्ष मुनि खग्गि विसाणव्वं एगजाते । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 562) - प्रश्नव्याकरण 2/10/29 निर्ग्रन्थ मुनि गेंडे के सींग के समान अकेला होता है अर्थात् वह अन्य की अपेक्षा रखनेवाला नहीं होता है। 115. जीवन-मरण से निरपेक्ष निरवकंखे जीवियमरणासविप्पमुक्के । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 562] - प्रश्नव्याकरण 2/10/29 मुनि जीवन और मृत्यु की आशा-आकांक्षा से सर्वथा मुक्त होते 116. शरदसलिलसम मुनिहृदय सारयसलिलं सुद्ध हियये । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 562] - प्रश्नव्याकरण 210/29 मुनि शरत्कालीन जल के समान स्वच्छ हृदयवाला होता है। 117. श्रुति-दमन ण सक्का ण सोउं सद्दा, सोत्त विसयमागया । रागदोसा उ जे तत्थ, ते भिक्खू परिवज्जए । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 563) - आचारांग 2345/130 यह शक्य नहीं है कि कानों में पड़नेवाले अच्छे या बुरे शब्द सुने न जाए, अत: शब्दों का नहीं, शब्दों के प्रति जगनेवाले राग-द्वेष का त्याग करना चाहिए। 118.. संवृतेन्द्रिय पणिहि इंदिए चरेज्ज धम्मं । अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-5 • 86 Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 564-565-566] - प्रश्नव्याकरण 210/29 संवृतेन्द्रिय होकर धर्म का आचरण करें । 119. धर्माचरण मणुन्नाऽमणुन्नसुब्भिदुब्भि-राग-दोसप्पणिहियप्पासाहू। मणवयण कायगुत्ते संवुडे पणिहि इंदिए चरेज्ज धम्मं ॥ - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 564-566] - प्रश्नव्याकरण 240/29 मनोज्ञ-अमनोज्ञ रूप शुभ-अशुभ शब्दों में राग-द्वेष वृत्ति का संवरण करनेवाला और मन-वचन-काया का गोपन करनेवाला मुनि संवृतेन्द्रिय होकर धर्म का आचरण करें । 120. दृष्टि-दमन ण सक्का रूवमदटुं, चक्खू विसयमागतं । · रागदोसा उ जे तत्थ, ते भिक्खू परिवज्जए ॥ - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 565] - आचारांग 23/15/131 यह शक्य नहीं है कि आँखों के सामने आनेवाला अच्छा या बुरा रूप न देखा जाए, अत: रूप का नहीं, किन्तु रूप के प्रति जाग्रत होनेवाले राग-द्वेष का त्याग करना चाहिए। . 121. गंध-दमन णो सक्का ण गंधमग्घाउं, णासा विसयमागतं । रागदोसा उ जे तत्थ, ते भिक्खू परिवज्जए । . - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 565] - आचारांग 2/315132 यह शक्य नहीं है कि नाक के समक्ष आई हुई सुगन्ध या दुर्गन्ध सूंघने में न आए, अत: गंध का नहीं; किंतु गंध के प्रति जगनेवाली रागद्वेष की वृत्ति का त्याग करना चाहिए। अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-5 • 87 )) Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 122. रसना - दमन ण सक्का रसमणासातुं, जीहा विसयमागतं । राग दोसा उ जे तत्थ, ते भिक्खू परिवज्जए ॥ श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 5 पृ. 566] आचारांग 2/3/15/133 - यह शक्य नहीं है कि जीभ पर आया हुआ अच्छा या बुरा रस चखने में न आये; अत: रस का नहीं; किंतु रस के प्रति जगनेवाले राग-द्वेष का त्याग करना चाहिए । 123. स्पर्श - दमन णो सक्का ण फासं संवेदेतुं, विसयमागतं । राग दोसा उ जे तत्थ, ते भिक्खू परिवज्जए ॥ श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 5 पृ. 567] आचारांग 2/3/15/134 यह शक्य नहीं है कि शरीर से स्पर्श होनेवाले अच्छे या बुरे स्पर्श की अनुभूति न हो, अतः स्पर्श का नहीं; किंतु स्पर्श के प्रति जगनेवाले रागद्वेष का त्याग करना चाहिए । - 124. परिग्रहः महाभय एतदेवेगेसिं महब्भयं भवति । श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 5 पृ. 567] आचारांग 152/154 यह परिग्रह ही परिग्रहियों के लिए महाभय का कारण होता है । 125. विरत अणगार एत्थ विरते अणगारे दोहरायं तितिक्खते । श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 5 पृ. 568] आचारांग 1/5/2/156 परिग्रह से विरत अणगार क्षुधा - पिपासादि परिषहों को जीवनभर सहन करे । - - अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-5 • 88 Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 126. मौन - उपासना एतं मोणं सम्मं अणुवासिज्जासि । - मुनि मौन की सदैव सम्यक् प्रकार से उपासना करें । 127. बंध - मोक्षः स्वयं के भीतर बंधपमोक्खो तुज्झऽज्झत्थेव । श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 568] आचारांग 152/155 बंध और मोक्ष हमारी आत्मा में ही है अर्थात् बंध - मोक्ष - - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 5 पृ. 568] आचारांग 1/5/2/57 वस्तुतः स्वयं के भीतर ही है 1 128. परम चक्षुष्मान् ! पुरिसा परमचक्खु ! विपरिक्कम । हे परम चक्षुष्मान् पुरुष ! तू पुरुषार्थ कर ! 129. आत्मा ही अहिंसा - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 5 पृ. 568] आचारांग 1/52/155 आया चेव अहिंसा | - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 2] ओघनियुक्ति 754 निश्चय दृष्टि से आत्मा ही अहिंसा है। - 130. अहिंसकत्व अज्झप्प विसोहीए, जीवनिकाएहिं संथडे लोए । देसियमहिंसगतं, जिणेहिं तेलोक्कसीहिं || श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 612 ] अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-5 • 89 Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ओघनियुक्ति 747 त्रिलोकदर्शी जिनेश्वर देवों का कथन है कि अनेकानेक जीवसमूहों से परिव्याप्त विश्व में साधक का अहिंसकत्व अन्तर में अध्यात्म विशुद्धि की दृष्टि से ही है, बाह्य हिंसा या अहिंसा की दृष्टि से नहीं । 131. ईर्यासमित साधक निष्पाप उच्चालियम्मि पाए, ईरियासमियस्स संकमट्ठाए । वावज्जेज्ज कुलिंगी, मरिज्जतं जोगमासज्जा । नय तस्स तन्निमित्तो, बंधो सुहुमो विदेसिओ समए । अणवज्जो उपओगेण, सव्वभावेण सो जम्हा ॥ __- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 612] - ओघनियुक्ति 748-749 कभी-कभार ईर्यासमित साधु के पैर के नीचे भी कीट-पतंगादि क्षुद्र प्राणी आ जाते हैं, परन्तु उक्त हिंसा के निमित्त से उस साधु को सिद्धान्त में सूक्ष्म भी कर्म-बन्ध नहीं बताया है; क्योंकि वह अन्तर में सर्वतोभावेन उस हिंसा-व्यापार से निर्लिप्त होने के कारण निष्पाप है। 132. प्रमत्त-अप्रमत्त आया चेव अहिंसा, आया हिंसंति निच्छओ एसो । जो होइ अप्पमत्तो, अहिंसओ हिंसओ इयरो ॥ - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 612] - ओघनिर्यक्ति 754 निश्चय दृष्टि से आत्मा ही हिंसा है और आत्मा ही अहिंसा । जो प्रमत्त है, वह हिंसक है और जो अप्रमत्त है, वह अहिंसक । 133. हिंसा-वृत्ति जो य पमत्तो पुरिसो, तस्स य जोगं पडुच्च जे सत्ता। वा वज्जंते नियमा, तेसिं सो हिंसओ होइ । जे वि न वावज्जती, नियमा तेसिं पि हिंसओ सोउ । सावज्जो उपओगेण, सव्वभावेण सो जम्हा ॥ अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-5 • 90 Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - जो प्रमत्त व्यक्ति है, उसकी किसी भी चेष्टा से जो भी प्राणी मर जाते हैं; वह निश्चित रूप से उन सबका हिंसक होता है, परन्तु जो प्राणी नहीं मारे गए हैं वह प्रमत्त व्यक्ति उनका भी हिंसक ही है; क्योंकि वह अन्तर में सर्वतोभावेन हिंसावृत्ति के कारण सावद्य है, पापात्मा है । 134. कर्म - निर्जरा - हेतु श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 612] ओघनियुक्ति 752-753 जा जयमाणस्स भवे, विराहणा सुत्तविहि समग्गस्स । सा होइ निज्जरफला, अज्झत्थ विसोहिजुत्तस्स ॥ श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 613] ओघनियुक्ति 759 - - जो यतनावान् साधक अन्तर (अध्यात्म) विशुद्धि से युक्त है और आगम विधि के अनुसार आचरण करता है, उसके द्वारा होनेवाली विराधनाहिंसा भी कर्म-निर्जरा का कारण है । 135. अबूझ निच्छयमवलंबंता, निच्छयओ निच्छयं अयाणंता । नासंति चरणकरणं, बाहिर करणालाइ || श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 613] ओघनिर्युक्ति 761 जो निश्चय दृष्टि से सालम्बन का आग्रह तो रखते हैं, परन्तु वस्तुतः उसके सम्बन्ध में कुछ जानते-बुझते नहीं हैं, वे सदाचार की व्यवहारसाधना के प्रति उदासीन हो जाते हैं और इसप्रकार सदाचार को ही मूलत: नष्ट कर डालते हैं । - ॐ 136. मात्र बाह्य हिंसा, हिंसा नहीं ! न य हिंसा मित्तेणं, सावज्जेणा विहिंसओ होइ । सुद्धस्स उ संपत्ती, अफला भणिया जिणवरेहिं ॥ श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 613] अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-5 • 91 Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओघनियुक्ति 758 केवल बाहर में दृश्यमान् पापरूप हिंसा से ही कोई हिंसक नहीं हो जाता। यदि साधक अन्दर में राग-द्वेष से रहित शुद्ध है, तो जिनेश्वर देवों ने उसकी बाह्य हिंसा को कर्म-बन्ध का हेतु न होने से निष्फल बताया है। 137. सहिष्णु देहे दुक्खं महाफलं । श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 5 पृ. 643] दशवैकालिक 8/27 शारीरिक कष्टों को समतापूर्वक सहने से महाफल की प्राप्ति होती है । 138. विशिष्टात्मा सक्षम अग्गं वणिएहिं आहियं, धारेंति राईणिया इहं । एवं परमामहव्वया, अक्खाया उ सराइभोयणा ॥ श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 5 पृ. 645] सूत्रकृतांग 123/3 जिसप्रकार दूर-देशान्तर से व्यापारी द्वारा लाए हुए बहुमूल्य रत्नों को राजा लोग ही धारण कर सकते हैं इसीप्रकार तीर्थंकर द्वारा कथित रात्रिभोजन त्याग के साथ पंच महाव्रतों को कोई विशिष्ट आत्मा ही धारण कर सकती है। 139. भोग, रोग - अद्दक्खू कामाई रोगवं । - - 140. संतीर्ण श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 5 पृ. 645] सूत्रकृतांग 1/23/2 सच्चे साधक की दृष्टि में कामभोग रोग के समान है । जे विण्ण वाहिऽज्झो सिया संतिण्णेहिं समं वियाहिया । श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 5 पृ. 645] अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-5 • 92 Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - सूत्रकृतांग - 12/32 जो साधक स्त्रियों से सेवित नहीं हैं, वे मुक्त पुरुषों के समान कहे गए हैं। 141. प्रबुद्ध मरणं हेच्च वयंति पंडिता । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 645] - सूत्रकृतांग 12/3/8 प्रबुद्ध साधक ही मृत्यु की सीमा को पार कर अजर-अमर होते हैं । 142. कामासक्त मूछित गिद्धनरा कामेसु मुच्छिया । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 646] - सूत्रकृतांग 1/23/8 - गृद्ध मनुष्य (अविवेकी मनुष्य) ही काम-भोगों में मूर्छित होते 143. निर्बल, खिन्न नाइति वहति अबले विसीयति । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 646] - सूत्रकृतांग 12/3/5 निर्बल व्यक्ति भार वहन करने में असमर्थ होकर मार्ग में ही खिन्न होकर बैठ जाता है। 144. जीवनसूत्र न य संखयमाहु जीवियं । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 646] - सूत्रकृतांग 1222 जीवन-सूत्र टूट जाने के बाद पुन: नहीं जुड़ पाता है । अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-5 • 93 Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 145. कामेच्छु क्या न करें ? कामी कामे ण काम, लद्धे वावि अलद्ध कण्हुई । श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 646] - सूत्रकृतांग 1/2/3/6 कामी काम-भोगों की कामना न करे, प्राप्त भोगों को भी अप्राप्तवत् - कर दे अर्थात् उपलब्ध भोगों के प्रति भी नि:स्पृह रहें । 146. आत्मानुशासन मा पच्छ असाहुया भवे, अच्चे ही अणुसास अप्पगं । श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 5 पृ. 646] सूत्रकृतांग 123/7 आगे तुम्हें दु:ख न भोगना पड़े, अत: अभी से अपने आपको com - विषय-वासना से दूर रखकर अनुशासित करो । 147. अज्ञ, अभिमानी बालणे पगब्भती । - - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 5 पृ. 646] सूत्रकृतांग 1/2/3/10 अज्ञ अभिमान करते हैं । 148. परिषह सहिष्णु णविता अहमेवलुप्पए, लुप्पंती लोगंसि पाणिणो । एवं सहिएऽधिपासते, अणि पुट्ठोऽधियास ॥ श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 647] सूत्रकृतांग 12A13 कष्ट तथा आपत्ति के आने पर ज्ञान - सम्पन्न पुरुष खेद रहित मन से इसप्रकार विचार करें कि कष्टों से केवल मैं ही पीड़ित नहीं हूँ, किंतु संसार में दूसरे भी इनसे पीड़ित हैं । अतः जो कष्ट आए हैं; उन्हें संयमी साधक समभावपूर्वक सहन करें । अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-5 94 Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 149. कष्ट सहिष्णु अणिहे से पुट्ठोऽधियासए । श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 647] सूत्रकृतांग 12113 आत्मविद साधक को नि:स्पृह होकर आनेवाले कष्टों को सहन B करना चाहिए । 150. देह - कृश धुणिया कुलियं व लेववं, कसए देहमणासणादिहिं । श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 5 पृ. 647] - सूत्रकृतांग 1214 जैसे लीपी हुई दीवार गिराकर पतली कर दी जाती है, वैसे ही अनशन आदि तपश्चरण के द्वारा देह को कृश करो । - 151. समाधिकामी सहिष्णु अरतिं रतिं च अभिभूय भिक्खू, तणाइफासं तह सीतफासं । उन्हं च दंसं च हियासएज्जा, सुब्भि च दुब्भि च तितिक्खएज्जा । श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 647] सूत्रकृतांग 1/10/14 समाधिकामी मुनि संयम में अरति ( खेद) और असंयम में रति (रूचि) को जीतकर तृणादि स्पर्श, शीतस्पर्श, उष्णस्पर्श और दंशमसक स्पर्श को समभाव से सहन करे तथा सुगन्ध - दुर्गन्ध को भी सहन करे । 152. चार्वाक दर्शन - मान्यता - HONOR पिब ! खाद च चारुलोचने, यदतीते वरगात्रि ! तन्नते । नहि भीरु ! गतं निवर्तते, समुदयमात्रमिदं हि कलेवरम् ॥ श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 647] अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-595 Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षड्दर्शनसमुच्चय - 82 हे सुनयने ! खाओ और पीओ । जो चला गया वह लौटकर कभी नहीं आता, इसलिए अतीत अपना नहीं है । सिर्फ वर्तमान मात्र अपना है । वर्तमान में आनंद से रहो । यह शरीर तो मात्र पाँच भूतों का समुदाय है। जब समुदाय बिखर जाएगा तो सब कुछ यहीं समाप्त हो जाएगा । 153. मूढ़, विषादानुभव तत्थ मंदा विसीयंति मच्छा पविट्ठा व केयणे । श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 5 पृ. 647] सूत्रकृतांग 1/31/13 जैसे जाल में फंसी हुई मछलियाँ तड़फती हैं, विषाद का अनुभव करती हैं, वैसे ही मूर्ख साधक भी मुनिधर्म में विषाद का अनुभव करते हैं, क्लेश पाते हैं । 154. त्रिविध - पर्षदा - सा समासओ तिविहा पणत्ता । तं जहा जाणिया अजाणिया दुव्विअडा । श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 5 पृ. 648] बृहत्कल्पवृत्ति सभाष्य 1/3 सभा (पर्षदा) तीन प्रकार की होती है - ज्ञा (जाननेवाली), अज्ञा ― - (नहीं जाननेवाली) और दुर्विदग्धा । 155. कायर पलायनवादी aasaaraा हिं । 156. स्मृति - सूत्रकृतांग 13A17 परिषहों से विवश होकर वे ही संयम छोड़कर घर चले जाते हैं जो - असमर्थ हैं, कायर हैं । श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 648] नातीणं सरती बाले, इत्थी वा कुद्धगामिणी । अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-5 • 96 Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 648] - सूत्रकृतांग 13006 कमजोर और अज्ञानी साधक कष्ट आनेपर अपने सम्बन्धियों को वैसे ही याद करता है, जैसे झगड़कर घर से भागी हुई स्त्री चोरों से प्रताड़ित होने पर अपने घरवालों को याद करती है। 157. पुण्य-पाप क्या ? परोपकारः पुण्याय, पापाय परपीड़नम् । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 697] - पंचतंत्र 301 एवं 4101 उपकार जैसा कोई पुण्य नहीं है और दूसरों को पीड़ा पहुँचाने जैसा कोई पाप नहीं है। 158. वाचालता बनाम झूठ मोहरिते सच्चवयणस्स पलिमंथू । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 725] - स्थानांग 6/6/529 वाचालता सत्यवचन का विघात करती है। 159. निष्काम सव्वत्थ भगवता अणिताणता पसत्था । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 725] - स्थानांग 6/6/529 भगवान् ने सर्वत्र निष्कामता (अनिदानता) को श्रेष्ठ बताया है । 160. लोभ इच्छालोभिते मोत्तिमग्गस्स पलिमंथू । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 725] - स्थानांग 6/6/529 लोभ मूक्ति-मार्ग का बाधक है। अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-5.97 Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 161. हिंसा अट्ठा हणंति अणट्ठा हणंति । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 835] - प्रश्नव्याकरण 143 कुछ लोग प्रयोजन से हिंसा करते हैं और कुछ लोग बिना प्रयोजन भी हिंसा करते हैं। 162. हिंसा-प्रयोजन कुद्धा हणंति लुद्धा हणंति मुद्धा हणंति । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 835] - प्रश्नव्याकरण 143 कुछ लोग क्रोध से हिंसा करते हैं, कुछ लोग लोभ से हिंसा करते हैं और कुछ लोग अज्ञान से हिंसा करते हैं। 163. महाभयंकर प्राणवध पाणवहो चंडो रुद्दो खुद्दो अणारिओ निग्घिणो निस्संसो महब्भओ.......॥ - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 843] - प्रश्नव्याकरण IMA प्राणवध (हिंसा) चण्ड है, रौद्र है, क्षुद्र है, अनार्य है, करुणारहित है, क्रूर है और महाभयंकर है। 164. हिंसा-परिणाम न य अवेदयित्ता, अस्थि हु मोक्खो त्ति । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 843] - प्रश्नव्याकरण 14/4 हिंसा के कटु फल को भोगे बिना छुटकारा नहीं है। 165. धर्म, प्राणों से भी बढ़कर ! प्राणेभ्योऽपि गुरुर्धर्मः, सत्यामस्यामस्यामसंशयम् । प्राणांस्त्यजन्ति धर्मार्थं, न धर्म प्राणसङ्कटे ॥ ( अभिधान राजेन अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-5 • 98 Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 848] - योगदृष्टि समुच्चय 58 एवं द्वात्रिंशद् द्वात्रिंशिका सटीक 20 दीप्रा दृष्टि में रहा हुआ साधक का मन:स्तर इतना ऊँचा हो जाता है कि वह निश्चित रूप से धर्म को प्राणों से भी बढ़कर मानता है। वह धर्म के लिए प्राणों का त्याग कर देता है, किन्तु प्राणघातक संकट आ जाने पर भी धर्म को नहीं छोड़ता। 166. त्रिविध-प्राणायाम रेचकः स्याद् बहिर्वृत्ति-रन्तर्वृत्तिश्च पूरकः । कुम्भकस्तम्भवृत्तिश्च, प्राणायामस्त्रिधेत्ययम् ॥ - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 848] - द्वात्रिंशद् द्वात्रिंशिका 22/17 प्राणायाम तीन प्रकार के होते हैं-रेचक, पूरक और कुम्भक । बहिर्वृत्ति को, बाह्यभाव को बाहर फेंकना 'रचक' है, अन्तर्वृत्ति ग्रहण करना 'पूरक' है और उसी अन्तर्वृत्ति को हृदय में स्थिर करना 'कुंभक' है । 167. प्रायश्चित्त प्रायः पाप विनिर्दिष्टं, चित्तं तस्य च विशोधनम् । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 855] - धर्मसंग्रह - 3 अधि. 'प्राय:' शब्द का अर्थ पाप है और 'चित्त' का अर्थ है उस पाप का शोधन करना अर्थात् पाप को शुद्ध करनेवाली क्रिया को 'प्रायश्चित्त' कहते हैं। 168. प्रायश्चित्त-महत्ता पायच्छित्तकरणेणं पावकम्मविसोहिं जणयइ निरइगारे यावि भवइ । सम्मं च णं पायच्छित्तं पडिवज्जमाणे मग्गं च मग्गफलं च विसोहेइ आयारं च आयरफलं च आराहेइ । अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-5 • 99 Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 856] - उत्तराध्ययन 29/08 प्रायश्चित्त करने से जीव पापों की विशुद्धि करता है एवं निरतिचार निर्दोष बनता है । सम्यक् प्रकार से प्रायश्चित्त स्वीकार करनेवाला साधक मार्ग और मार्गफल को निर्मल करता है । आचार और आचार-फल की आराधना करता है। 169. दोष न्यूनाधिकता तुल्लम्मि वि अवराहे, परिणामवसेण होइ णाणत्तं । __- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 858] - बृह. भाष्य 4974 बाहर में समान अपराध होने पर भी अन्तर में परिणामों की तीव्रता व मन्दता सम्बन्धी तरतमता के कारण दोष की न्यूनाधिकता होती है। 170. पाप-परिभाषा पातयति नरकाऽऽदिष्विति पापम् । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 876] - आवश्यक नरकादि दुर्गतियों में जो गिराता है, वह पाप है। 171. पाप-निरक्ति पातयति पांशयतीति वा पापं । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 880] - उत्तराध्ययन चूर्णि-2 एवं आचारांग 122 सटीक जो आत्मा को बांधता है अथवा गिराता है, वह पाप है । 12. दुर्लभ बोधि-लाभ सुदुल्लहं लहिउं बोहिलाभं विहरेज्ज । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 881] - उत्तराध्ययन 174 अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-5 • 100 Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सेवाव्रती सुदुर्लभ बोधि-लाभ की प्राप्ति के लिए विचरण करे । 173. पापश्रमण आयरिय-उवज्झाएहिं सुयं विणयं च गाहिए । ते चेव खिसई बाले, पाव समणेत्ति वुच्चई ॥ श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 5 पृ. 881] - उत्तराध्ययन 17/4 जिन आचार्य, उपाध्याय से श्रुत और विनय सीखा है उन्हीं की जो निंदा करता है, वह अज्ञ भिक्षु पापश्रमण कहलाता है । 174. पापश्रमण जे केइ उ इमे पव्वइए निद्दासीले पकासो । भुच्चा पिच्चा सुहं सुयई, पावसमणेति वच्चई ॥ श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 881 ] - उत्तराध्ययन 173 जो श्रमण प्रव्रजित होकर बहुत नींद लेता है और खा पीकर आराम से लेट जाता है, वह 'पापश्रमण' कहलाता है । 175. पापश्रमण विवायं च उदीरे, अधम्मे अत्तपन्नहा । दुग्गहे कलहे रत्ते, पाव समणेत्ति वुच्चई ॥ उत्तराध्ययन 17/12 जो श्रमण शान्त हुए विवाद को फिर से भड़काता है, जो सदाचार से शून्य होता है; जो अपनी प्रज्ञा का हनन करता है तथा जो कदाग्रह और में रहता है, वह 'पापश्रमण' कहलाता है । कलह 176. पापश्रमण श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 5 पृ. 882 ] असंविभागी अचियत्ते पावसमणेत्ति वुच्चई । श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 5 पृ. 882 ] उत्तराध्ययन 17/01 अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस खण्ड-5 • 101 - - Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जो श्रमण असंविभागी है (प्राप्त सामग्री को साथियों में नहीं बाँटता है और परस्पर प्रेमभाव नहीं रखता है) वह 'पापश्रमण' कहलाता 177. आहार-शुद्धि से चारित्र-शुद्धि एए विसोहयंतो, पिंडं सोहेइ संसओ नत्थि । एए अविसोहिते, चरित्तभेयं वियाणाहि ॥ . - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 928] - पिंडनियुक्तिगाथा 98 यह निस्सन्देह है कि जो निर्दोष आहार वापरते हैं, उनका चारित्र नष्ट नहीं होता और जो सदोष आहार वापरते हैं, उनका चारित्र नष्ट होता है अर्थात् आहार-शुद्धि से चारित्र-शुद्धि होती है । 178. श्रमणत्व-सार समणत्तणस्स सारो भिक्खायरिया जिणेहिं पन्नत्ता । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 928] - पिण्डनियुक्ति - गाथा 99 भिक्षा-शुद्धि करना अर्थात् निर्दोष आहार-प्राप्ति का प्रयास करना, यह श्रमणत्व का सार है। 179. दीक्षा निरर्थक कब ? पिंड असोहयंतो अचरित्ती एत्थ संसओ नत्थि । चारित्तंमि असंते, निरथिआ होइ दिक्खा उ ॥ - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 928] - पिण्डनियुक्ति गाथा - 101 जो आहार की गवेषणा नहीं करते हैं, वे चारित्रहीन हैं, यह नि:सन्देह है । चारित्र के अभाव में उनकी दीक्षा निरर्थक होती है । 180. भिक्षा-शुद्धि नाणचरणस्समूलं, भिक्खायरिया जिणेहिं पन्नत्ता । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 928] अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-5 • 102 Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - पिण्डनियुक्ति गाथा - 100 'ज्ञान और चारित्र का मूल भिक्षाशुद्धि है', ऐसा जिनेश्वरोंने कहा पणा 181. चारित्र-शुद्धि से मोक्षप्राप्ति चारित्तंमि असंतंमि निव्वाणं न उ गच्छइ । निव्वाणम्मि असंतंमि सव्वा दिक्खा निरत्थगा ॥ - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 928) - पिण्डनियुक्ति गाथा 102 जिनमें चारित्र नहीं हैं, वे मुक्ति में नहीं जाते हैं (अर्थात् चारित्रशुद्धि से मोक्ष-प्राप्ति सम्भव है ।) और मुक्ति के अभाव में उनकी संपूर्ण दीक्षा निरर्थक है। 182. प्रणीत पदार्थ-त्याग पणीअं वज्जए रसं । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 931] - दशवैकालिक 5/2/42 बुद्धिमान् स्निग्ध रसयुक्त पदार्थों का त्याग करें। 183. तपश्चरण तवं कुव्वइ मेहावी। - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 931] - दशवैकालिक 52/42 मेधावी तपश्चरण करता है। 184. जीवन-दान यो दद्यात् काञ्चनं मेरुं, कृत्स्नां चैव वसुन्धराम् । एकस्य जीवितं दद्यान्न च तुल्यं युधिष्ठिर ! ॥ - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 936] - कल्पसुबोधिका टीका 218 अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-5 • 103 - Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ____ एक मनुष्य मेरुपर्वत के बराबर स्वर्ण किसी को दान में दें और एक व्यक्ति संपूर्ण पृथ्वी का दान दें तथा एक मनुष्य किसी भी प्राणी को अभयदान दें, तो भी प्रथम के दोनों दानी अभयदान देनेवाले के समक्ष हीन हैं; क्योंकि इस संसार में अहिंसा के समान कुछ भी नहीं है। 185. पैशुन्य-परिणाम पीई सुन्नति पिसुणो। - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 939 - निशीथ भाष्य 6212 . जो प्रीति से शून्य करता है, वह पैशुन्य (चुगली) है और वह प्रेम- . स्नेह को समाप्त कर देता है। 186. पुंडरीक कमल अहवा वि नाण दंसण चरित्त विणए तहेव अज्झप्पे । जे पवरा होति मुणी, ते पवरा पुंडरीया उ ॥ - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 944] . - सूत्रकृतांग नियुक्ति 156 जो साधक अध्यात्मभाव रूप ज्ञान, दर्शन, चारित्र और विनय में श्रेष्ठ हैं, वे ही विश्व के सर्वश्रेष्ठ पुंडरीक कमल हैं। 187. भवितव्यता प्राप्तव्यो नियतिबलाऽऽश्रयेण योऽर्थः, सोऽवश्यं भवति नृणां शुभोऽशुभो वा । भूतानां महति कृतेऽपि प्रयत्ने, ना भाव्यं भवति न भाविनोऽस्ति नाशः ॥ - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 953] - सूत्रकृतांग 24 सटीक अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-5 • 104 Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मानव को शुभ या अशुभ जो भी फल प्राप्त होता है वह नियति (भाग्य) के बल का ही आश्रयी फल समझना चाहिए। प्राणियों के महान् प्रयत्न करने पर भी जो भवितव्य नहीं है, वह होगा नहीं एवं जो भवितव्यता है, होनेवाला है वह टल नहीं सकता । जो होनेवाला है, उसका कभी नाश सम्भव नहीं । वह अवश्य ही होगा। 188. पाप से अलिप्त कौन ? यस्य बुद्धि न लिप्येत, हत्वा सर्वमिदं जगत् । आकाशमिव पङ्केन, नासौ पापेन लिप्यते ॥ - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 953] - ज्ञानसार 43 जिनकी बुद्धि निर्लिप्त हैं। जो विषयों से लिप्त नहीं हैं, जो जितेन्द्रिय हैं, जो काम, क्रोध, मोहादि कषायों से परे हैं, स्थितप्रज्ञ हैं, वे संसार का संहार करने पर भी पाप से लिप्त नहीं होते । यथा-आकाश कभी कीचड़ से लिप्त नहीं होता । भले ही वह जल की एक बूंद में भासमान आकाश हो या संपूर्ण जलाशय में भासमान आकाश हो; उसीप्रकार अनासक्त आत्मा भी कभी पाप लिप्त नहीं होता। 189. अशरण भावना इह खलु ! नाइ संजोगा नो ताणाए वा, नो सरणाए वा । पुरिसे वा एगया पुट्वि नाइ संजोगो विप्पजहइ । नाइ संजोगा वा एगया पुव्वि पुरिसं विप्पजहंति । सेकिमंग!पुणवयं अन्नमन्नेहिं नाइसंजोगे हिं मुच्छामो ? - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 956] - - सूत्रकृतांग 24/13 इस संसार में ज्ञाति-स्वजनों के संयोग भी दु:खों से रक्षा करने वाले नहीं हैं। कभी पहले ही पुरुष इन्हें छोड़कर चल देता है एवं कभी ये पुरुष को छोड़ चलते हैं। फिर अपने से भिन्न-इन ज्ञाति-संयोगों में हम मूर्च्छित क्यों हो रहे हैं ? अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-5 • 105 Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 190 अशरण चिन्तन सरणाए वा इह खलु काम - भोगा नो ताणाए वा, नो पुरिसे वा एगया पुवि काम - भोगे विप्पजहइ काम - भोगा वा एगया पुवि पुरिसं विप्पजहंति से किमंग पुणवयं, अन्नमन्नेहिं काम - भोगेहिं मुच्छामो ? श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 5 पृ. 956] www सूत्रकृतांग 2/1/13 - इस संसार में निश्चय ही ये काम भोग दुःखों से रक्षा करनेवाले नहीं है। कभी पहले ही पुरुष इन्हें छोड़कर चल देता है और कभी वे पुरुष को छोड़ चलते हैं। फिर हम इन काम-भोगों में आसक्त क्यों हो रहे हैं ? - 191. जन्म-मृत्यु और हूँ । पत्तेयं जायति, पत्तेयं मरइ । श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 5 पृ. 956] सूत्रकृतांग 2/1/13 प्रत्येक प्राणी अकेला ही जन्म लेता है और अकेला ही मरता है । 192. दुःख का बँटवारा नहीं ! अण्णस्स दुक्खं अण्णो नो परियाइयति । श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 5 पृ. 956] सूत्रकृतांग 21 /13 किसी अन्य का दु:ख कोई अन्य बाँट नहीं सकता । 193. जड़ पृथक्, आत्मा पृथक् अन्ने खलु कामभोगा, अन्नो अहमंसि । श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 5 पृ. 956] सूत्रकृतांग 2013 शब्द, रूप आदि काम-भोग (जड़ पदार्थ) और हैं, मैं ( आत्मा ) - अभिधान राजेन्द्र कोप में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-5 • 106 Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 194. क्षणभङ्गर शरीर जंपिय इमं सरीरए उरालं आहारोवइयं । एयं पिय अणुपुव्वेण विप्पजहियव्वं भविस्सति ॥ - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 957] - सूत्रकृतांग 24/13 आहार से बढ़ा हुआ जो यह उत्तम औदारिक शरीर है, उसे भी क्रमश: अवधि पूरी होने पर छोड़ देना पड़ेगा। 195. प्रत्येक शरीरी संति पाणा पूढोसिता । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 979] - आचारांग 1Aml प्राणी पृथक-पृथक् शरीरों में आश्रित रहते हैं अर्थात् वे प्रत्येक शरीरी होते हैं। 196. आतुर आतुरा परितावेंति । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 979] - आचारांग11/6/49 विषयातुर मनुष्य ही परिताप देते हैं । 197. पूर्णता अपूर्णः पूर्णतामेति । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 991] . - ज्ञानसार 16 'अपूर्ण' पूर्णता प्राप्त करे। (अर्थात् जीव अपूर्ण है, शिव पूर्ण है । अपूर्णता के घोर अंधकार में से पूर्णता के उज्ज्वल प्रकाश की ओर जाएँ। समग्र धर्मपुरुषार्थ का ध्येय पूर्णता की प्राप्ति है।) अभिधान राजेन्द्र कीप में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-5 . 107 Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 198. ज्ञानदृष्टि, गारूड़ी मंत्रवत् जागर्ति ज्ञानदृष्टिश्चेत्, तृष्णा-कृष्णाहि जागुली । पूर्णानन्दस्य तत् किं स्याद्, दैन्यवृश्चिकवेदना ॥ - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 991] - ज्ञानसार 14 जब तृष्णा रूपी काले सर्प के विष को नष्ट करनेवाली गारूडी मन्त्र के समान ज्ञानदृष्टि खुलती है, तब दीनता रूपी बिच्छू की पीड़ा कैसे हो सकती है ? 199. पूर्णता की प्रभा पूर्णता या परोपाधेः सा याचित कमण्डनम् । या तु स्वाभाविकी सैव, जात्यरत्नविभानिभा ॥ - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 991] - ज्ञानसार 12 परायी वस्तु के निमित्त से प्राप्त पूर्णता, किसी से उधार मांगकर लाये गए आभूषण के समान है, जबकि वास्तविक पूर्णता अमूल्य रत्न की चकाचौंध कर देनेवाली अलौकिक कान्ति के समान है। 200. पुण्यानुबन्धी पुण्य-हेतु दया भूतेषु वैराग्यं, विधिवद् गुरुपूजनम् । विशुद्धाशीलवृत्तिश्च, पुण्यं पुण्यानुबन्ध्यदः ॥ - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 993 | - हारिभद्रीय अष्टक 24/8 सब प्राणियों पर दया, वैराग्य, विधिपूर्वक गुरु की सेवा एवं अहिंसा आदि व्रतों का निर्दोष पालन-ये सब पुण्यानुबन्धी पुण्य के कारण हैं । 201. विरले हैं गुणी गुणानुरागी ना गुणी गुणिनं वेत्ति, गुणी गुणीषु मत्सरी । गुणी गुणानुरागी च, विरलः सरलोजनः ॥ - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग.5 पृ. 116 | अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-5 • 108 Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - धर्मरत्नप्रकरणसटीक 1 अधि. 12 गुण . अवगुणी व्यक्ति गुणवानों को नहीं जान सकता। (अवगुणी गुणवानों को नहीं परख सकता ।) गुणवान् गुणीजनों के प्रति आदर रखने के बजाय उल्टा उनके प्रति मत्सर-ईर्ष्या रखते हैं । वस्तुत: सरलमना-सच्चे गुणवान और गुणानुरागी मिलना बड़ा दुर्लभ है। 202. पुरुष-प्रकार चत्तारि पुरिस जाता-पन्नत्ता । तं जहा आवात भद्दतेणामेगे णो संवास भद्दते, संवास भद्दते णामेगे णो आवात भद्दणए, एगे आवात भद्दते वि संवास भद्दते वि, एगे णो आवात भद्दते नो संवास भद्दए । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 1018] - स्थानांग 440256 चार तरह के पुरुष होते हैं - कुछ व्यक्तियों की मुलाकात अच्छी होती है, किन्तु सहवास अच्छा नहीं होता। कुछ का सहवास अच्छा रहता है, मुलाकात नहीं । कुछ एक की मुलाकात भी अच्छी होती है और सहवास भी। कुछ एक का न सहवास ही अच्छा होता है और न मुलाकात ही। 203. दोष-विकल्प चत्तारि पुरिस जाता-पणत्ता । तं जहाअप्पणो मेगे वज्जं पासति, णो परस्स, परस्स, णामेगे वज्जं पासति, णो अप्पणो, एगे अप्पणो वज्जं पासइ परस्स वि, एगे णो अप्पणो वज्जं पासइ णो परस्स ॥ - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 1018] - स्थानांग 440256 अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-5 • 109 Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरुष चार तरह के होते हैं - कुछ व्यक्ति अपना दोष देखते हैं, दूसरों का नहीं । कुछ दूसरों का दोष देखते हैं, अपना नहीं । कुछ अपना दोष भी देखते हैं, दूसरों का भी । कुछ न अपना दोष देखते हैं, न दूसरों का । 204. पुत्र- प्रकार चत्तारि सुता - पन्नत्ता । तं जहाअतिजाते, अणुजाते, अवजाते, कुलिंगाले । श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 5 पृ. 1018 ] स्थानांग 4/41/240 पुत्र चार तरह के होते हैं - अतिजात, अनुजात, अवजात और कुलांगार । 205. पुरुष - प्रकृति चत्तारि फला- पणत्ता । तं जहा आमे णामं एगे आम महुरे, आमे णामेगे पक्क महुरे, पक्के णामेगे आम महुरे, पक्के णामेगे पक्क महुरे एवामेव चत्तारि पुरिसजाता पन्नत्ता । w श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 1018 ] स्थानांग 41 फल चार प्रकार के होते हैं-कुछ फल कच्चे होकर भी थोड़े मधुर होते हैं। कुछ फल कच्चे होने पर भी पके की तरह अतिमधुर होते हैं। कुछ फल पके होकर भी थोड़े मधुर होते हैं और कुछ फल पके होने पर अति मधुर होते हैं। फल की तरह मनुष्य के भी चार प्रकार होते हैं - लघुवय में साधारण समझदार । लघुवय में बड़ी उम्रवालों की तरह समझदार । बड़ी उम्र में भी कम समझदार । बड़ी उम्र में पूर्ण समझदार । अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-5 • 110 - Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 206. स्वभाव-वैचित्र्य चत्तारि पुरिस जाता-पन्नता । तं जहाअप्पणो णाममेगे पत्तितं, करेति णो परस्स, परस्स णाममेगे पत्तियं करेति णो अप्पणो । एगे अप्पणो वि पत्तितं करेति परस्स वि, एगेणो अप्पणो पत्तितं करेइ नो परस्स ॥ - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 1024] - स्थानांग 443312 [4] कुछ व्यक्ति ऐसे होते हैं जो सिर्फ अपना ही भला चाहते हैं, दूसरों का नहीं । कुछ उदार व्यक्ति अपना भला चाहे बिना भी दूसरों का भला करते कुछ अपना भला भी करते हैं और दूसरों का भी । और कुछ न अपना भला करते हैं और न दूसरों का । 207. सुमन-सौरभवत् चत्तारि पुफ्फा-पन्नत्ता । तं जहारूव संपन्ने णाम मेगे णो गंधसंपन्ने, गंध संपन्ने णाममेगे नो रूवसंपन्ने, एगे रूव सम्पन्ने वि गंधसम्पन्ने वि, एगे णो रूव सम्पन्ने णो गंधसम्पन्ने, एवामेव चत्तारि पुरिस जाता पन्नता । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 1026] -- स्थानांग 4/4/3/319 [4] फूल चार प्रकार के होते हैं - सुन्दर, किन्तु गंधहीन । गन्धयुक्त, किन्तु सौन्दर्यहीन । सुन्दर भी, सुगन्धित भी। अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-5 • 111 Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न सुन्दर, न गंधयुक्त । फूल के समान मनुष्य भी चार तरह के होते हैं । (भौतिक संपत्ति सौन्दर्य है तो आध्यात्मिक संपत्ति सुगन्ध है ।) 208. धर्मी - लक्षण चत्तारि पुरिस जाया- पन्नता । तं जहापियधम्मे नाममेगे नो दढधम्मे, धम्मे नाममेगे नो पियधम्मे, एगे पियधम्मे वि दढधम्मेविं, एगे नो पियधम्मे नो दढधम्मे ॥ पुरुष चार तरह के होते हैं कुछ व्यक्ति प्रियधर्मी होते हैं, किंतु दृढधर्मी नहीं होते । कुछ व्यक्ति दृढधर्मी होते हैं, किन्तु प्रियधर्मी नहीं होते । कुछ व्यक्ति प्रियधर्मी भी होते हैं और दृढ़धर्मी भी । और कुछ व्यक्ति प्रियधर्मी भी नहीं होते हैं और दृढधर्मी भी नहीं । 209. पुरुष - गुण श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 5 पृ. 1026-1027] स्थानांग 4/4/3/319 चत्तारि पुरिस जाता अटुकरे णाममेगे णो माण करे, माण करे णाममेगे णो अट्ठकरे, . एगे अट्करे वि माण करे वि, एगे जो अटुकरे णो माण करे । - - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 5 पृ. 1026 1034] स्थानांग 4/4/3/319 अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-5 • 112 Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १. कुछ व्यक्ति सेवा आदि महत्त्वपूर्ण कार्य करते हैं, किंतु उसका अभिमान नहीं करते। २. कुछ व्यक्ति अभिमान करते हैं, किन्तु कार्य नहीं करते । ३. कुछ व्यक्ति कार्य भी करते हैं, और अभिमान भी करते हैं। ४. और कुछ व्यक्ति न कार्य करते हैं, न अभिमान ही करते हैं। 210. धर्म और वेष चत्तारि पुरिस जाया-पन्नता । तं जहारूव नाममेगे जहइ नो धम्म, धम्मं नामेगे जहइ नो स्वं, एगे रूवंपि जहइ धम्मं पि जहइ, एगे नो रूवं जहइ नो धम्मं जहइ । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 1026] - स्थानांग 109043 चार तरह के पुरुष होते हैंकुछ व्यक्ति वेष छोड़ देते हैं, किन्तु धर्म नहीं छोड़ते। कुछ धर्म छोड़ देते हैं, किन्तु वेष नहीं छोड़ते । कुछ वेष भी छोड़ देते हैं और धर्म भी छोड़ देते हैं। और कुछ ऐसे भी होते हैं जो न वेष छोड़ते और न धर्म । 211. फलवद् आचार्य चत्तारि फला पणत्ता । तं जहाआमलगमहुरे, मुद्दिता महुरे, खीर महुरे, खण्ड महुरे । एवामेव चत्तारि आयरिया पन्नता । तं जहा-आमलगमहुरफल समाणे, मुद्दिया महुरफल समाणे, खीर महुरफल समाणे, खंड महुरफल समाणे। अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-5 • 113 Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 1026] - स्थानांग 443/319 चार तरह के फल होते हैं-आँवले के मीठे फल, द्राक्ष के मीठे फल, खीर के मीठे फल और इक्षु खंड के मीठे फल । इसीतरह चार प्रकार के आचार्य कहे गए हैं । यथा-१. आँवले के मीठे फल समान २. द्राक्षा के मीठे फल समान ३. खीर के मीठे फल समान ४. और इक्षु खंड के मीठे फल समान । ये आचार्य उपशमादि गुणों में क्रमश: एक-एक से उत्कृष्ट होते 212. निरभिमान सेवा अट्ठकरे णाममेगे णो माण करे। - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 1026 ____1034] - स्थानांग 4/4/3/319 कुछ लोग सेवा के कार्य करते हैं, फिरभी उनका अभिमान नहीं करते। 213. ज्योति तमे नाममेगे जोती, जोती णाममेगे तमे । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 1028] - स्थानांग 4/A/3/327 कभी-कभी अंधकार (अज्ञानी मानव) में से भी ज्योति (सदाचार का प्रकाश) जल उठती है, इसीप्रकार ज्ञानीपुरुष से भी किसीसमय अज्ञान का आर्विभाव हो जाता है। 214. चार प्रकार के श्रमण चत्तारि पुरिस जाता-पन्नत्तासीहत्ताते णाममेगे निक्खंते सीहत्ताते विहरइ, सीहत्ताते नाममेगे निक्खंते सियालताए विहरइ, सियालत्ताए नाममेगे निक्खंते सीहत्ताए विहरइ, सियालत्ताए नाममेगे निक्खंते सियालत्ताए विहरइ ॥ अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-5 • 114 Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - श्रमण चार प्रकार के होते हैं १. कुछ सिंह की तरह संयम लेते हैं और सिंह की तरह ही पालते हैं। २. कुछ सिंह की तरह संयम लेते हैं और सियाल की तरह पालते हैं । ३. कुछ सियाल की तरह संयम लेते हैं और सिंह की तरह पालते हैं ४. और कुछ ऐसे भी होते हैं जो सियाल की तरह संयम लेते हैं और सियाल की तरह ही पालते हैं । 215. मेघवत् दानी श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 5 पृ. 1029] स्थानांग 4/4/3/329 गज्जित्ता णाममेगे णो वासित्ता, वासित्ता णाममेगे णो गज्जित्ता, एगे गज्जित्ता विवासित्तावि, एगेणो गज्जिता णो वासित्ता, एवामेव चत्तारि पुरिस जाता पन्नत्ता । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 5 पृ. 1030] स्थानांग 4/4/4/346 [4] मेघ की तरह दानी भी चारप्रकार के होते हैंकुछ बोलते हैं, देते नहीं । कुछ देते हैं, किंतु कभी बोलते नहीं । कुछ बोलते भी हैं और देते भी हैं और कुछ न बोलते हैं, न देते हैं । 216. संकल्प - विकल्प - समुहं तरामी तेगे समुहं तरति, समुद्दं तरामी तेगे गोप्पतं तरति । गोप्पतं तरामी तेगे, समुहं तरति, गोप्पतं तरामी तेगे, गोप्पतं तरति । श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 1032 ] अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-5 • 115 Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - स्थानांग 4/A/A/359 कुछ व्यक्ति समुद्र तैरने का महान् संकल्प करते हैं और समुद्र तैरने जैसा ही महान कार्य भी करते हैं। कुछ व्यक्ति छोटा काम करते हुए भी महान् काम करने का संकल्प नहीं करते हैं और समुद्र तैरने जैसा महान् काम भी नहीं करते हैं । 217. कुम्भवत् पुरुष महुकुंभे नामं एगे महुप्पिहाणे, महुकुंभे णामं एगे विसप्पिहाणे, विस कुंभे णामं एगे महुप्पिहाणे, विसकुंभे णामं एगे विसप्पिहाणे । एवामेव चत्तारि पुरिस जाता पन्नता ॥ - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 1033] - स्थानांग 4/AA/360 [4] चार तरह के घड़े होते हैं । यथामधु का घड़ा, मधु का ढक्कन । माधु का घड़ा, विष का ढक्कन । विष का घड़ा, मधु का ढक्कन । विष का घड़ा, विष का ढक्कन । इसीप्रकार पुरुष भी चार प्रकार के होते हैं। (मानव पक्ष में हृदय घट है और वचन ढक्कन) 218. मधु-कलश हिययमपावमकलुसं, जीहा वियं मधुरभासिणी निच्चं । जम्मि पुरिसम्मि विज्जति, से मधुकुंभे महुपिहाणे ॥ - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 1033] - स्थानांग 4/AA/360 [26 ] जिसका अन्तर्हृदय निष्पाप और निर्मल है, साथ ही वाणी भी मधुर है; वह मनुष्य मधु के घड़े पर मधु के ढक्कन के समान है। अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-5 • 116 Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 219. हृदय-घट पर विष-ढक्कन हिययमपावमकलुसं, जीहा विय कडुयभासिणी निच्चं । जम्मि पुरिसम्मि विज्जति, से मधुकुंभे विसपिधाणे ॥ - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 1033] - - स्थानांग 1A/A/360 [27] जिसका हृदय तो निष्पाप और निर्मल है, किंतु वाणी से कटु एवं कठोरभाषी है; वह मनुष्य मधु के घड़े पर विष के ढक्कन के समान है। 220. विषकुम्भ पयोमुखम् जं हिययं कलुसमयं, जीहा विय मधुरभासिणी निच्चं । जम्मि पुरिसम्मि विज्जति, से विसकुंभे मधुपिधाणे ॥ - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 1033] - स्थानांग 4/44/360 [28 ] जिसका हृदय कलुषित और दंभयुक्त है, किन्तु वाणी से मीठा बोलता है; वह मनुष्य विष के पड़े पर मधु के ढक्कन के समान है। 221. जहर ही जहर जं हिययं कलुसमयं, जीहा विय कडुयभासिणी निच्चं । जम्मि पुरिसम्मि विज्जति, से विसकुंभे विसपिधाणे ॥ . - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 1033] - स्थानांग 4/AA/360 [29] जिसका हृदय भी कलुषित है और वाणी से भी सदा कटु बोलता है; वह पुरुष विष के घड़े पर विष के ढक्कन के समान है । 222. साध्य-असाध्य सज्झमसज्झं कज्जं, सझं, साहिज्जए न उ असज्झं । जो उ असज्झं साहइ, किलिस्सइ न तं च साहेइ ॥ - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 1071] - निशीथभाष्य 4157 - बृहदावश्यक भाष्य 5279 अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-5 . 117 Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कार्य के दो रूप हैं-साध्य और असाध्य | बुद्धिमान् साध्य को साधने में ही प्रयत्न करें; चूँकि असाध्य को साधने में व्यर्थ का क्लेश ही होता है और कार्य भी सिद्ध नहीं हो पाता । 223. आत्मदेव - पूजा दयाम्भसा कृतस्नानः, संतोष शुभवस्त्रभृत् । विवेकतिलकभ्राजी, भावना पावनाशयः ॥ भक्ति श्रद्धान घुसणो, न्मिश्रपाटीरजद्रवैः । नवब्रह्माङ्गतोदेवं, शुद्धमात्मानमर्चय ॥ - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 5 पृ. 1073] एवं [ भाग 2 पृ. 233] ज्ञानसार 29/12 दयारूपी जल से स्नान कर, संतोष रूपी वस्त्र धारण कर, विवेक रूपी तिलक लगाकर, भक्ति और श्रद्धा रूपी - केशर तथा मिश्रित विलेपन तैयार कर, भावना से आशय को पवित्र बनाकर शुद्ध आत्म- देव के नव प्रकार के ब्रह्मचर्य रूपी नव अंगों की पूजन करें । 224. विधिवत् दान पात्रे दीनादि वर्गे च दानं विधिवदिष्यते । पोष्यवर्गाविरोधेन, न विरुद्धं स्वतश्च यत् ॥ श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 5 पृ. 1076] एवं [भाग 6 पृ. 2003] योगबिन्दु 121 आश्रित जनों को संतोष रहे. विरोध न हो तथा स्वतः विरुद्ध कर्म न हो; इसप्रकार सुपात्र, दीन व अनाथ आदि को देना; वह विधिवत् दान कहलाता है । 225. दान, प्रथम सीढ़ी धर्मस्याऽऽदिपदं दानं दानं दारिद्रय नाशनम् । 1 जनप्रियकरं दानं दानं कीर्त्यादिवर्धनम् ॥ अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-5118 Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 1076] योगबिन्दु 125 धर्म का प्रथम सोपान दान है और वह दरिद्रता का नाशक है । लोगों को प्रिय करनेवाला तथा कीर्ति आदि को बढ़ानेवाला है । 226. उपयुक्त दान दत्तं यदुपकाराय, द्वयोरप्युपजायते । नातुरापथ्यतुल्यं तु तदेतद् विधिवन्मतम् ॥ - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 5 पृ. 1076 ] योगबिन्दु 124 दिया हुआ दान, दाता और गृहीता दोनों के लिए उपकारजनक होता है, वह दान उपयुक्त दान है । दान बीमार को अपथ्य दिए जाने जैसा नहीं चाहिए अर्थात् किसी रुग्ण व्यक्ति को कोई सुस्वादु और पौष्टिक पदार्थ दे, जो उसके लिए अहितकर हो; तो वह सर्वथा अनुचित है । इसीप्रकार दिया गया दान लेनेवाले के लिए अहितकर न होकर हितकर होना चाहिए और उसीतरह देनेवाले के लिए भी । 227. दान के योग्य पात्र M व्रतस्थालिङ्गिन: पात्र -मपचारस्तु विशेषतः । स्वसिद्धान्ताविरोधेन वर्तन्ते ये सदैव हि ॥ श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 1076 ] योगबिन्दु 122 व्रतपालक, साधु वेश में स्थित, सदा अपने सिद्धान्त के अविरुद्ध चलनेवाले जन दान के पात्र हैं, उनमें भी विशेषत: वे, जो अपने लिए भोजन नहीं बनाते । 228. दानाधिकारी दीनान्धकृपणा ये तु व्याधिग्रस्ता विशेषतः । निःस्वा: क्रियान्तराशक्ता एतद्वर्गो हि मीलकः ॥ श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 1076] अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-5 • 119 Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगबिन्दु 123 कार्य करने में सक्षम नहीं हैं, अन्धे हैं, दु:खी हैं; विशेषतः रोगपीड़ित हैं, निर्धन हैं; और जिनके आजीविका का कोई सहारा नहीं है; ऐसे लोग भी निश्चय ही दान के अधिकारी हैं। 229. कर्णेन्द्रिय विराग एवं तितिक्षा कण्णसोक्खेहिं सहेहिं, पेमं नाभिनिवेसए । दारुणं कक्कसं फासं, कारण अहियासए * ॥ श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 5 पृ. 1093 दशवैकालिक 8/26 कानों को सुख देनेवाले मधुर शब्दों में आसक्ति नहीं रखनी चाहिए तथा दारुण और कर्कश स्पर्शो को शरीर से समभावपूर्वक सहन करना चाहिए। 230. पुद्गल - लक्षण सबंधयार- उज्जोओ पहा छायाऽऽतवेति वा । वण्ण-रस-गंध-फासा, पोग्गलाणां तु लक्खणं ॥ श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 5 पृ. 1097 | - उत्तराध्ययन 28/12 स्पर्श-ये शब्द, अंधकार, उद्योत, प्रभा, छाया, आतप, वर्ण, रस, गंध और पुद्गल के लक्षण हैं । 231. पौषधव्रत आहार-तणुसत्काराऽब्रह्मसावद्यकर्मणाम् । त्यागः पर्वचतुष्टयां तद् विदुः पौषधव्रतम् ॥ श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 5 पृ. 1133-1139] धर्मसंग्रह 1/37 आहार, शरीर-सत्कार, अब्रह्मचर्य और सावद्यकार्य - चारों पर्वतिथियों (अष्टमी, चतुर्दशी, अमावस्या और पूर्णिमा) में इन सबका त्याग करना पौषव्रत है । अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-5 • 120 - - Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 232. सामायिक का महत्त्व सामाइय-वयजुत्तो, जावमणे होइ नियमसंजुत्तो। छिन्नइ असुहं कम्म, सामाइय जत्तिया वारा ॥ - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 1136] - आवश्यक नियुक्ति 800/2 चंचल मन को नियन्त्रण में रखते हुए जबतक सामायिक व्रत की अखण्ड धारा चालू रहती है, तबतक अशुभ कर्म बराबर क्षीण होते रहते 233. भाषा-विवेक तहेव फरुसा भासा, गुरु भूओवघाइणी । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 1143] - दशवकालिक 71 ____ जो भाषा कठोर और दूसरों को पीड़ा पहुँचानेवाली हो, वैसी भाषा न बोलें। 234. सत्य भी हेय सच्चा वि सा न वत्तव्वा, जओ पावस्स आगमो । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 1143] - दशवैकालिक 741 ऐसा सत्य भी नहीं बोलना चाहिए जिससे पापागम (अनिष्ट) होता हो। 235. द्विविध-बंधन • दुविहे बंधे पन्नत्ते, तं जहा-पेज्जबंधे चेव, दोस बंधे चेव । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 1165] - स्थानांग 2MA107 बन्धन के दो प्रकार हैं - प्रेम का बन्धन और द्वेष का बन्धन । अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-5 . 121 Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 236. पापकर्म का बन्ध नहीं सव्वभूयऽप्पभूयस्स सम्मं भूयाई पासओ । पिहियासवस्स दंतस्स पावं कम्मं न बंधई ॥ - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 1190] - दशवैकालिक 4/32 जो सब जीवों को अपने ही समान मानता है, जो अपने-पराये को समानदृष्टि से देखता है, जिसने सब आश्रवों का निरोध कर लिया है और जो चंचल इन्द्रियों का दमन कर चुका है, उसे पाप कर्म का बंध नहीं होता। 237. संयम जीवाऽजीवे अयाणंतो, कहं सो नाहिइ संजमं ? - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 1190] - दशवकालिक 435 जो न जीव (चैतन्य) को जानता है और न अजीव (जड़) को, वह संयम को कैसे जान पाएगा ? 238. श्रेयस्कर आचरण जं छेयं तं समायरे । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 1190 | - दशवैकालिक 4/34 जो श्रेयस्कर (हितकर) हो, उसीका अनुसरण करना चाहिए । 239. श्रेयस्कर ग्राह्य सोच्चा जाणइ कल्लाणं, सोच्चा जाणइ पावगं । उभयपि जाणइ सोच्चा, जं छेयं तं समायरे ॥ - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 1190 | - दशवैकालिक 4/34 व्यक्ति सुनकर ही कल्याण को जानता है और सुनकर ही पाप को जानता है । कल्याण और पाप दोनों को सुनकर ही मनुष्य जान पाता है । तत्पश्चात् उनमें से जो श्रेयस्कर है, उसका आचरण करता है । ... अभिधान राजेन्द्र कोप में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-5 • 122 Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 240. परिग्रह बुद्धि, दुःख-दूती चित्तमंतमचित्तं वा, परिगिज्झ किसामवि । अन्नं वा अणुजाणाति, एवं दुक्खाण मुच्चइ ॥ - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 1191] - सूत्रकृतांग 1402 जो व्यक्ति सजीव या निर्जीव, थोड़ी या अधिक वस्तु को परिग्रह बुद्धि से रखता है अथवा दूसरे को रखने की अनुज्ञा देता है; वह दु:ख से छुटकारा नहीं पाता। 241. ममत्त्व मति ममाती लुप्पती बाले । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 1191] - सूत्रकृतांग 1ANA 'यह मेरा है, यह मेरा है' इस ममत्व बुद्धि के कारण ही मूर्ख लोग संसार में भटकते रहते हैं। 242. बंधन से मोक्ष की ओर बुज्झिज्ज तिउट्टेज्जा बंधणं परिजाणिया । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 1191] - सूत्रकृतांग 1AAM सर्वप्रथम बन्धन को समझो और समझने के बाद उसे तोड़ो । 243. हिंसा से वैर सयं तिवायए पाणे, अदुवा अण्णेहिं घायए । हणन्तं वाऽणुजाणाइ, वेरं वड्ढेति अप्पणो ॥ - - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 1191] - सूत्रकृतांग 1AMB जो व्यक्ति स्वयं प्राणियों की हिंसा करता हैं दूसरों से करवाता है और करनेवालों का अनुमोदन करता है; वह संसार में अपने लिए वैर को ही बढ़ाता है। ( अभिधान राजेन्द्र कोष में, सृक्ति-सुधारस • खण्ड-5 . 123 Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 244. वैर, स्वशत्रुता वेरं वड्ढेति अप्पणो। - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 1191] - सूत्रकृतांग 1AMB व्यक्ति अपने लिए वैर बढ़ाता है अर्थात् अपनी आत्मा के साथ शत्रुता बढ़ाता है। 245. अशरण अनुप्रेक्षा वित्तं सोयरिया चेव, सव्वमेतं न ताणए । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 1192] - सूत्रकृतांग IANS धन-धान्य, स्वजन-कुटुम्ब आदि कोई भी जीवात्मा को इस संसार के परिभ्रमण से नहीं बचा सकते । 246. मानवमात्र एक एक्का मणुस्स जाई। - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 1257) - आचारांग नियुक्ति 16 समग्र मानव जाति एक है। 247. ब्रह्मचर्य, मूल बंभचेरं उत्तमतव नियम-णाण-दंसण चरित-सम्मत्त विणय मूलं । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 1259) - प्रश्नव्याकरण 28/27 ब्रह्मचर्य-उत्तम तप, नियम, ज्ञान, दर्शन, चारित्र, सम्यक्त्व और विनय का मूल है। 248. ब्रह्मचर्यनाशः सर्वनाश जम्मिय भग्गम्मि होइ सहसा सव्व....गुण समूहं । अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्टु-5 • 124 - Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 1259) - प्रश्नव्याकरण 29/27 एक ब्रह्मचर्य के नष्ट होने पर सहसा अन्य सभी-विनय, शील, तप, नियम आदि गुणों का समूह फूटे घड़े की तरह खंडित हो जाता है अर्थात् मर्दित, मथित, चूर्णित(दुकड़ा-टुकड़ा), खण्डित, गलित और विनष्ट हो जाता है। 249. सार्थक तभी ? तो पढियं तो गुणियं, तो मुणियं तो य चेइओ अप्पा । आवडिय पेल्लियामंतिओऽवि जइ न कुणइ अकज्जं ॥ - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 1259) - उपदेशमाला 64 शास्त्रों का पढ़ना, गुनना-मनन करना, ज्ञानी होना और आत्मबोध तभी सार्थक है, जब विपत्ति आ पड़ने पर और सामने से आमन्त्रण मिलने पर भी मनुष्य अकार्य अर्थात् अब्रह्म सेवन न करे । 250. मद्यपान-मांसभक्षण में महापाप एकश्चतुरोवेदाः, ब्रह्मचर्यं च एकतः । एकतः सर्वपापानि, मद्यं मांसं च एकतः ॥ - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 1259] - सुभाषितरत्न भांडागार पृ. 104 जैसे चारों वेद एक तरफ हैं और ब्रह्मचर्य एक तरफ है, वैसे ही जगत् के सारे पाप एक तरफ हैं और मद्यपान व मांसभक्षण का पाप एक तरफ हैं। 251. व्रतराज ब्रह्मचर्य व्रतानां ब्रह्मचर्यं हि, निर्दिष्टं गुरुकं व्रतम् । तज्जन्यपुण्यसंभार संयोगाद् गुरुरुच्यते ॥ - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 1259] - आगमीय सूक्तावली पृ. 35 जस चार अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-5 • 125 Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ प्रश्नव्याकरण सूक्तानि 29 (133) ] सभी व्रतों में ब्रह्मचर्य को ही सबसे महान् व्रत कहा गया है और उनसे उत्पन्न पुण्य-संभार के संयोग से वह बड़ा कहा जाता है । 252. ब्रह्मचर्य प्रधान इत्तो य बंभचे...... यमनियमगुणप्पहाण जुत्तं । श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 5 पृ. 1259] प्रश्नव्याकरण 2/4 यह ब्रह्मचर्य अहिंसा आदि यमों और गुणों में प्रधान नियमों से युक्त है। 253. ब्रह्मचर्य बिन सब व्यर्थ जइ ठाणी, जइ मोणी, जइ मुंडी वक्कली तवस्सीवा । पत्थंतो अ अबंभं, बंभावि न रोयए मज्झं ॥ श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 1259] उपदेशमाला 63 ध्यान यदि कोई कायोत्सर्ग में स्थित रहे, भले ही कोई मौन रखे, में मग्न रहे, भले ही छाल के वस्त्र पहन ले या तपस्वी हो, किन्तु यदि वह अब्रह्मचर्य की कामना करता हो तो मुझे वह नहीं सुहाता । फिर भले ही वह साक्षात् ब्रह्मा ही क्यों न हो ? 254. श्रेष्ठदान Bes S दाणाणं चेव अभय दाणं । श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 5 पृ. 1260] प्रश्नव्याकरण 2/9/27 सब दोनों में 'अभयदान' श्रेष्ठ है । 255. रागी - निरागी चिन्तन क्व यामः क्व नु तिष्ठामः, किं कुर्मः किं न कुर्महे ? रागिणश्चिन्तयन्त्येवं, नीरागाः सुखमासते ॥ श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 5 पृ. 1260] - अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-5 • 126 Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - प्रश्नव्याकरण सूत्र सटीक । संवर द्वार कहाँ जाऊँ ? कहाँ बैलूं ? क्या करूँ ? और क्या नहीं करूँ ? इस तरह रागी सोचता रहता है, और नीरागी इन संकल्प-विकल्पों से मुक्त होता है। 256. ब्रह्मचर्य-फल अणेगा गुणा अहीणा भवंति एकम्मि बंभचेरे । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 1260] - प्रश्नव्याकरण 29/27 एक ब्रह्मचर्य की साधना करने से अनेक गुण स्वयं अधीन हो जाते 257. एक साधे सब सधै एक्कम्मि बंभचेरे जम्मि य आराहियम्मि, आराहियं वयमिणं सव्वं सीलं तवो य विणओ य संजमो य खंती गुत्ती मुत्ती । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 1260-1261] - प्रश्नव्याकरण 2427 एक ब्रह्मचर्य की आराधना कर लेने पर शील, तप, विनय, संयम, क्षमा, निर्लोभता आदि सभी उत्तमोत्तम व्रतों एवं गुणों की सम्यक् आराधना हो जाती है। - 258. ब्रह्मचर्य, व्रतसम्राट् ! तं बंभं भगवंतं.......वेरुलिओ चेव जहा मणीणं, जहा महुडो चेव भूसणाणं, वत्स्थाणं चेव खोमजुयलं, अरविंदंचेवपुफ्फजे,गोसीसंचेवचंदणाणं,हिमवंचेव ओसहीणं, सीतोदा चेव तिन्नगाणं, उदहीसु जहा संयभूरमणो...एरावण एव कुंजराणां, कप्पाणां चेव बंभलीए... दाणाणं चेव अभयदाणं....तित्थयरेचेव जहा मुणीणं.... वणेसु जहा नंदणवणं पवरं । अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-5 • 127 Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 1260] - प्रश्नव्याकरण 2927 . जैसे मणियों में वैडूर्य मणि श्रेष्ठ है, भूषणों में मुकुट प्रवर है, वस्त्रों में क्षोभ-युगल (बहुमूल्य रेश्मी वस्त्र) मुख्य है, पुष्पों में अरविंद पुष्प उत्कृष्ट है, चंदनों में गोशीर्ष चंदन प्रकृष्ट है, औषिधयुक्त पर्वतों में हिमवान् श्रेष्ठ है, नदियों में सीतोदा बड़ी है, समुद्र में स्वयम्भूरमण बृहत्तम है तथा हाथियों में ऐरावत, स्वर्गों में ब्रह्मस्वर्ग (पंचम स्वर्ग), दानों में अभयदान, मुनियों में तीर्थंकर और वनों मे नन्दनवन उत्कृष्ट है; वैसे ही व्रतों में ब्रह्मचर्य सर्वश्रेष्ठ है। 259. ब्रह्मचर्य, भगवान् तं बंभं भगवंतं । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 1260] - प्रश्नव्याकरण 2427 यह ब्रह्मचर्य ही भगवान् है। 260. सारभूत ब्रह्मचर्य सव्वपवित्त सुनिम्मियसारं । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 1261) - प्रश्नव्याकरण 29/27 यह ब्रह्मचर्य जगत् के सभी पवित्र अनुष्ठानों को सारयुक्त बनानेवाला 261. ब्रह्मचर्य, महातीर्थ सव्वसमुद्दमहोदधि तित्थं । ___ - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 1261] - प्रश्नव्याकरण 29/27 - यह ब्रह्मचर्य समस्त समुद्रो में स्वयंभूरमण समुद्र के समान दुस्तर है, किंतु तैरने का उपाय होने के कारण यह तीर्थ स्वरूप है। अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-5 • 128 Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 262. सुरनरपूजित, ब्रह्मचर्य देवरिंदणमंसिय पूर्य, सव्वजगुत्तममंगलमग्गं । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 1261] - प्रश्नव्याकरण 20/27 यह ब्रह्मचर्य देवेन्द्रों-नरेन्द्रों द्वारा पूजित है और नमस्कृत है तथा समस्त जगत् में उत्कृष्ट मंगल-मार्ग है । 263. ब्रह्मचर्य, अद्वितीय गुणनायक दुद्धरिसंगुणनाशकमेक्कं मोक्खपहस्सऽवडिंसगभूयं । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 1261] - प्रश्नव्याकरण 29/27 यह ब्रह्मचर्य दुर्द्धर्ष है अर्थात् इसको कोई पराजित नहीं कर सकता है । यह गुणों का अद्वितीय नायक है । ब्रह्मचर्य ही एक ऐसा साधन है जो आराधक को अन्य सभी सदगुणों की ओर प्रेरित करता है। 264. ब्रह्मचर्य, मुक्ति-द्वार सिद्धिविमाण अवंगुयदारं । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 1261] - प्रश्नव्याकरण 2027 और तो क्या ? यह ब्रह्मचर्य मुक्ति और स्वर्ग के द्वार भी खोल देता 265. ब्रह्मचर्य श्रेयस्कर तहेव इहलोइय पारलोइय जसे य कित्ती य । पच्चओ य तम्हा निहुएण बंभचेरं चरियव्वं ॥ - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 1261] . . - प्रश्नव्याकरण 29/27 ब्रह्मचर्य के प्रभाव से इस लोक-परलोक में यश-कीर्ति और विश्वास प्राप्त होता है, इसलिए निश्चल भाव से ब्रह्मचर्य का आचरण करना चाहिए। ___ अभिधान सजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-5 . 129 Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 266. महाव्रत-मूल पंच महव्वय सुव्वयमूलं । . - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 1261] - प्रश्नव्याकरण 2827 यह ब्रह्मचर्यव्रत पंच महाव्रत रूप शोभन व्रतों का मूल है अर्थात् यह ब्रह्मचर्य महाव्रतों और अणुव्रतों का मूल है । 267. ब्रह्मचर्य समण मणाइल साहुसुचिण्णं । ___- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 1261] - प्रश्नव्याकरण 29/27 ___यह ब्रह्मचर्य शुद्ध हृदयवाले साधु पुरुषों द्वारा आचरित है। 268. वैरनाशक औषध वेर विरमण पज्जवसाणं । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 1261] . - प्रश्नव्याकरण 28/27 यह ब्रह्मचर्य वैरभाव की निवृत्ति और उसका अन्त करनेवाला है। 269. सच्चा भिक्षु ! स एव भिक्खू जो सुद्धं चरति बंभचेरं । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 1262] - प्रश्नव्याकरण 29/27 जो शुद्ध भाव से ब्रह्मचर्य का पालन करता है, वस्तुत: वही भिक्षु है । 270. ब्रह्मचर्य-गरिमा जेण सुद्ध चरिएण भवइ सुबंभणो सुसमणो सुसाहू। - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 1262] - प्रश्नव्याकरण 227 - ब्रह्मचर्य के शुद्ध आचरण से ही उत्तम ब्राह्मण, उत्तम श्रमण और उत्तम साधु होता है। अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-5 . 130 Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 271. ब्रह्मचारी क्या करें ? तव संजम बंभचेर घातोवघातियाई अनुचरमाणेणं बंभचेरं वज्जेयव्वाइं सव्वकालं । श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 1262] प्रश्नव्याकरण 2/9/27 जिन-जिन कार्यों से तपश्चर्या, संयम और ब्रह्मचर्य का आंशिक या पूर्णत: विनाश ह्येता है, ब्रह्मचारी को सदैव के लिए उनका त्याग कर देना चाहिए । S - 272. ब्रह्मचर्य दृढ़ कैसे ? णियमा तव गुण - विनयमादिएहिं जहा से थिस्तरकं होइ बंभचेरं । - प्रश्नव्याकरण 2/9/27 तप, नियम, मूलगुण और विनयादि से अन्त:करण को वासित करना चाहिए, जिससे ब्रह्मचर्य खूब स्थिर - दृढ़ हो । 273. जिनोपदेश श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 1262] इमं च अबंभचेर विरमण परिरक्खणट्टयाए पावयणं भगवयासुकहियं । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 5 पृ. 1262] प्रश्नव्याकरण 2/9/27 अब्रह्मचर्य निवृत्ति (ब्रह्मचर्य की रक्षा) के लिए भगवान् ने यह प्रवचन दिया है । 274. ब्रह्मचारी क्या न करें ? MIC तव-संजम बंभचेर घातोवघातियाओ अणुचरमाणेणं बंभचेरं ण कहेयव्वा ण सुणेयव्वा ण चिंतेयव्वा । श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 5 पृ. 1263] प्रश्नव्याकरण 2/9/27 अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-5 • 131 Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ब्रह्मचर्य का पालन करनेवाले साधक तप-संयम और शील- सदाचार का घात-उपघात करनेवाली कथाएँ न कहें, न सुनें और न ही उन्का मन में चिन्तन करें । 275. वही निर्ग्रन्थ ति भत्त पाण भोयणभोई से णिग्गंथे । श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 1264] आचारांग 2/3/15 जो आवश्यकता से अधिक भोजन नहीं करता है, वही ब्रह्मचर्य का साधक सच्चा निर्ग्रन्थ है । 276. ब्रह्मचारी का व्यवहार तव-संयम-बंभचेर घातोवघातियाई अणुचरमाणेणं बंभचेरं ण चक्खुसा, ण मणसा ण वयसा पत्थेयव्वाइं पावकम्माई । श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 5 पृ. 1264] प्रश्नव्याकरण 2/9/27 जिन व्यवहारों से ब्रह्मचर्य और तप - नियम का नाश - विनाश होता है, उन्हें ब्रह्मचारी न नेत्रों से देखें, न मन से सोचें और न उनके सम्बन्ध ' में वचन से कुछ बोले तथा न पापमय कार्यों की कामना करे । 277. ब्रह्मचारी का कार्यकलाप तव - संजम - बंभचेर घातोवघातियाई अणुचरमाणेणं बंभचेरं ण तातिं समणेण लब्भादट्टु ण कहेउं णवि सुमरिडं । श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 5 पृ. 1264] प्रश्नव्याकरण 2/9/27 जो कार्य - व्यवहार तप-संयम और सदाचार का घात - उपघात करनेवाले हैं, उन्हें ब्रह्मचर्यपालक साधक नहीं देखे, इनसे सम्बन्धित वार्तालाप नहीं करे और पूर्वकाल में जो देखे सुने हों; उनका स्मरण भी नहीं करे । - अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-5 • 132 D Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 278. भोजन ऐसा हो ! तहा भोत्तव्वं-जहा से जाया माता य भवति । न य भवति विब्भमो, न भंसणा य धम्मस्स ॥ - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 1265] - प्रश्नव्याकरण 2027 ऐसा हित-मित भोजन करना चाहिए जो जीवनयात्रा एवं संयमयात्रा के लिए उपयोगी हो सके और जिससे न किसी प्रकार का विभ्रम हो; और न धर्म की भर्त्सना। 279. साधु ऐसा आहार न करें ! ण दप्पणं न बहुसोण णितिक न सायसूपाहिकंणखद्धं । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 1265] - प्रश्नव्याकरण 2927 - संयमशील सुसाधु इन्द्रियोत्तेजक आहार न करें। दिनमें बहुत बार न खाए, प्रतिदिन लगातार नहीं खाए और न दाल-शाकादि अधिकतावाला प्रचुर भोजन करें। 280. ब्रह्मचर्य पालन दुष्करतम शक्यं ब्रह्मव्रतं घोरं, शूरैश्च न तु कातरैः । करि पर्याणमुद्वाह्यं करिभि न तु रासभैः ॥ - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 1266 1282] - समवायांगसूत्रसटीक। सम. . जैसे हाथी का पलाण हाथी ही उठा सकते हैं, गधे नहीं, वैसे ही घोर ब्रह्मचर्यव्रत का शूरपुरुष ही पालन कर सकते हैं; कायर नहीं । 281. अप्रमादी साधक गुतिदिए गुत्त बम्भयारी, सया अप्पमत्ते विहरेज्जा । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 1267] अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-5 . 133 Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - उत्तराध्ययन 164 जितेन्द्रिय और गुप्त ब्रह्मचारी सदा अप्रमादी होकर ही विचरण करें। 282. स्त्री-कथा-वर्जन नो निग्गंथे इत्थीणं कहं कहेज्जा । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 1268] - उत्तराध्ययन 16/12 जो स्त्रियों की कथा नहीं करता है, वह निर्ग्रन्थ है । 283. स्त्री-सौन्दर्य-विरक्ति नो निग्गंथे इत्थीणं इन्दियाइं मणोहराई । मणोरमाई आलोइत्ता, निज्झाइत्ता ॥ - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 1268] - उत्तराध्ययन 16/4 निर्ग्रन्थ स्त्रियों के मनोहर और मनोरम अंगोपांग रूप इन्द्रियों को न तो देखें और न ही उनका चिंतन करें। 284. पूर्वभुक्त भोग की विस्मृति नो निग्गंथे इत्थीणं पुव्वरयं, पुव्वकीलियं अणुसरेज्जा । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 1269] - उत्तराध्ययन 16/6 निर्ग्रन्थ स्त्रियों के साथ पूर्वकाल में भोगे हुए भोगों को याद नहीं करें। 285. स्निग्धाहार वर्जित नो निग्गंथे पणीयं आहारं आहारेज्जा। - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 1269) - उत्तराध्ययन 16/निर्ग्रन्थ सरस एवं पौष्टिक आहार नहीं करें । अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-5 • 134 Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 286. अति आहार-वर्जन .. णो निग्गंथे अइमायाए पाणभोयणं भुंजेज्जा। - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 1269] - उत्तराध्ययन 1618 निर्ग्रन्थ मर्यादा से अधिक मात्रा में आहार-पानी नहीं करे । 287. श्रृंगार-वर्जन नो निग्गंथे विभूसाणुवाई सिया । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 1269] - उत्तराध्ययन 169 निर्ग्रन्थ श्रृंगारवादी नहीं बने। 288. कामवर्धक आहार पणीयं भत्तपाणं तु खिप्पं मय विवड्ढणं । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 1270] - उत्तराध्ययन 16/1 साधक के लिए विषय-विकार को शीघ्र बढ़ानेवाला प्रणीत भक्तपान (सरस स्निग्ध) वर्जनीय है। 289. विभूषा-निषेध विभूसं परिवज्जेज्जा, सरीर परिमंडणं ।। बंभचेररओ भिक्खू, सिंगारत्थ न धारए ॥ - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 1270] - उत्तराध्ययन 1641 ब्रह्मचर्य-साधनारत भिक्षु श्रृंगार का त्याग करें और शरीर की शोभा बढ़ानेवाले केश, दाढ़ी आदि को श्रृंगार के लिए धारण न करें। 290. भोजन-मर्यादा नाइमत्तं तु भुंजेज्जा, बंभचेररओ सया । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 1270) अभिधान राजेन्द्र, कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-5 • 135 - - Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - उत्तराध्ययन 1600 ब्रह्मचर्यरत साधक मात्रा से अधिक भोजन नहीं करें। 291. काम-वर्जन पंचविहे कामगुणे, निच्चे सो परिवज्जए । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 1270 - उत्तराध्ययन 16/12 ब्रह्मचारी पाँच प्रकार के कामभोगों को सदा के लिए छोड़ दे । 292. काम, तालपुट विसं तालउडं जहा । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 1270] - उत्तराध्ययन 16/15 काम-भोग साक्षात् तालपुट जहा के समान है । 293. काम, दुर्जेय काम भोगा य दुज्जया । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 1270) - उत्तराध्ययन 16/15 काम-भोग दुर्जेय हैं। 294. धर्म-वाटिका धम्माराम चरे भिक्खू । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 1271) - उत्तराध्ययन 1617 भिक्षु धर्मरूपी वाटिका में ही विचरण करे । 295. नमनीय कौन ? देवदाणवगंधव्वा, जक्खरक्खस्स किन्नरा । बभयारिं नमसंति, दुक्करं जे करंति तं । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 1271) .. अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-5 . 136 Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययन 16/18 उस ब्रह्मचारी को देव, दानव, गंधर्व, यक्ष-राक्षस और किन्नर - ये सभी नमस्कार करते हैं जो दुष्कर ब्रह्मचर्य का पालन करता है । 296. ब्रह्मचर्य से सिद्धि एस धम्मे धुवे नियमे सासए जिणदेसिए । सिद्धा सिज्झति चाणेणं, सिज्झिस्संति तहाऽवरे ॥ श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 5 पृ. 1271] - उत्तराध्ययन 16/19 यह ब्रह्मचर्य धर्म ध्रुव है, नित्य है, शाश्वत है और जिनेश्वरों द्वारा उपदिष्ट है । इस धर्म के द्वारा अनेक साधक सिद्ध हुए हैं, हो रहे हैं और भविष्य में होंगे । 297. काम, दुस्त्याज्य दुज्जए काम भोगे य, निच्चसो परिवज्जए । उत्तराध्ययन 16/16 स्थिरचित्त साधक भिक्षु कठिनाई से छोड़ने योग्य काम - भोगों को - 299. सत्कर्म हमेशा के लिए छोड़ दे । 298. अवश्यमेव भोक्तव्य कडाण कम्माण न मोक्खो अस्थि । श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 1276] एवं [भाग 7 पृ. 57] उत्तराध्ययन 4/3 एवं 13/10 कृतकर्मों को भोगे बिना मोक्ष नहीं हो सकता है । श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 5 पृ. 1271] - - सव्वं सुचिण्णं सफलं नराणं । श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 1276] उत्तराध्ययन 13/10 अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-5 137 - Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मानव के सभी सुचरित (सत्कर्म) सफल होते हैं । 300. दुःखद क्या ? सव्वे कामा दुहावहा । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 1277] - उत्तराध्ययन 1346 सभी काम-भोग अन्तत: दु:खावह ही होते हैं । 301. नाचरंग-विडम्बना सव्वं नटं विडम्बियं । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 1277] - उत्तराध्ययन 1306 सभी नाच रंग विडम्बना से भरे हैं। 302. आभूषण, भार सव्वे आभरणा भारा । . - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 1277] - उत्तराध्ययन 1346 सभी आभूषण भार स्वरूप हैं । 303. शुभफल पूर्वकृत इहं तु कम्माइं पुरेकडाइं । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 1277] - उत्तराध्ययन 13/09 यहाँ पर जो शुभ कर्म फल दे रहे हैं, वे पूर्वकृत हैं; पहले बाँधे हुए 304. अभिनिष्क्रमण आदाण हेउं अभिनिक्खमाहि । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 1277] - उत्तराध्ययन 13/20. अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-5 • 138 Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अशाश्वत-भोगों का परित्याग करके मुक्ति के लिए अभिनिष्क्रमण करो। 305. अन्तसमय रक्षक नहीं ? न तस्स माया व पिया व भाया, कालम्मि तम्मं सहरा भवन्ति । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 1278] - उत्तराध्ययन 13/22 मृत्यु के समय माता-पिता अथवा भ्राता उसके जीवन की रक्षा के लिए अपने जीवन का अंश देनेवाले नहीं होते । 306. कर्म-छाया कत्तारमेव अणुजाइ कम्मं । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 1278] - उत्तराध्ययन 13/23 . कर्म सदा कर्ता के पीछे दौड़ता है। 307. यथा कर्म तथा गति सकम्मबिइओ अवसो पयाइ, परं भवं सुन्दर पावगं वा । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 1278) - उत्तराध्ययन 13/24 यह जीव अपने कृत कर्मों को साथ लेकर अच्छे या बुरे जन्म में 'चला जाता है। 308. क्यों पीछे पछताय ? से सोयई मच्चु मुहोवणीए, धम्म अकाऊण परंमि लोए ॥ - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 1278] - उत्तराध्ययन 1321 जो बिना धर्माचरण किए ही मृत्यु के मुख में चला गया है, वह परलोक में दु:खी होता है । पश्चात्ताप करता है। अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-5 • 139 Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 309. मृत्यु की निर्दयता जहेह सीहोव मियं गहाय, मच्चू नरं नेइ हू अंतकाले । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 1278 - उत्तराध्ययन 13/22 सिंह जैसे मृग को पकड़कर ले जाता है, वैसे ही अन्तसमय में मृत्यु भी मनुष्य को ले जाती है। 310. अकेला दुःखभोक्ता न तस्स दुक्खं विभयंति नाइओ, न मित्तवग्गा न सुया न बंधवा । _ - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 1278] - उत्तराध्ययन 13/23 ज्ञाति-सम्बन्धी, मित्र-वर्ग, पुत्र और बांधव कोई भी मनुष्य के दु:ख में भाग नहीं बँट सकते। 311. सर सूखे, पंछी उड़े ! उवेच्च भोगा पुरिसं चयंति, दुमं जहा खीणफलं व पक्खी । - - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 1279) - उत्तराध्ययन 13/31 जैसे वृक्ष के फल समाप्त हो जाने पर पक्षी उसे छोड़कर चले जाते हैं वैसे ही मनुष्य का पुण्य समाप्त हो जाने पर भोग-साधन उसे छोड़ देते हैं । 312. जरा जर, जर वण्ण जरा हरइ नरस्स रायं । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 1279] - उत्तराध्ययन 1326 हे राजन् ! जरा (वृद्धावस्था) मनुष्य की सुन्दरता को समाप्त कर देती है। अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-5 • 140 Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 313. घोरपाप-वर्जन माकासी कम्माणि महालयाणि । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 1279] - उत्तराध्ययन 13/26 महती दुर्गति देनेवाले घोरपाप कर्म मत करो। 314. जीवन मृत्यु की ओर उवणिज्जइ जीवियमप्पमायं । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 1279] - उत्तराध्ययन 1326 यह जीवन शीघ्रातिशीघ्र मृत्यु की ओर चला जा रहा है । 315. समय अच्चेइ कालो। - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 1279] - उत्तराध्ययन 1331 समय बीता जा रहा है। 316. निशा तूरन्ति राइओ। - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 1279] - उत्तराध्ययन 1381 रात्रियाँ तेजी से दौड़ी जा रही हैं। 317. काम-भोग अनित्य न या वि भोगा पुरिसाण निच्चा । - - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 1279] - उत्तराध्ययन 13/31 मनुष्यों के काम-भोग नित्य नहीं है । 318. काम, कर्मबन्धकारक भोगा इमे संगकरा हवंति । - अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-5 • 141 Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 1279] - उत्तराध्ययन 13/27 ये काम-भोग कर्मों का बंध करनेवाले होते हैं। 319. आर्य-कर्म अज्जाई कम्माइं करेहि। - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 1280] - उत्तराध्ययन 13/32 आर्य-कर्मों को (श्रेष्ठ कामों को) करो । 320. दयापरायण धम्मे ठिओ सव्व पयाणुकम्पी । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 1280] - उत्तराध्ययन 13/32 धर्म में स्थर होकर सभी जीवोंपर दया परायण बनो। 321. अदूषित मन मणंपि न पओसए । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 1294) - उत्तराध्ययन - 21 एवं 246 मन को दूषित मत करो। 322. आत्मा अमर नत्थि जीवस्स नासोत्ति । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 1294] - उत्तराध्ययन 2/29 आत्मा का कभी नाश नहीं होता। 323. क्षमापरायण धर्मस्य दयामूलं न चाऽक्षमावान् दयां समाधत्ते । तस्माद्यः क्षान्ति परः, स साधयत्युत्तमं धर्मं ॥ अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-5 • 142 Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 1294] । प्रशमरति 168 'धर्म का मूल दया है' और क्षमारहित व्यक्ति दया को धारण नहीं कर सकता । अतः जो क्षमापरायण है, वही इस उत्तम धर्म को साधा है। W 324. अबहुश्रुत कौन ? जे यावि होइ निव्विज्जे थद्धे लुद्धे अनिग्गहे । अभिक्खणं उल्लवई अविणीए अबहुस्सुए ॥ 1 उत्तराध्ययन 11 2 जो विद्याविहीन है और जो विद्यासम्पन्न होते भी अहंकारी है, जो रस-लोलुप है, जो अजितेन्द्रिय है, जो बार - बार असम्बद्ध बोलता है और जो अविनीत है, वह अबहुश्रुत है । श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 5 पृ. 1306] 325. शिक्षा- शत्रु अह पंचर्हि ठाणेहिं जेहिं सिक्खा न लब्भई । थंभा कोहा पमाएणं रोगेणाऽऽलस्सएण य ॥ उत्तराध्ययन 11 3 शिक्षा के लिए अयोग्य पात्र को 5 कारणों से शिक्षा प्राप्त नहीं होती । वे पाँच कारण हैं - अभिमान, क्रोध, प्रमाद, रोग और आलस्य । श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 1306] 326. अष्ट शिक्षाङ्ग - अह अट्ठहिं ठाणेहिं, सिक्खा सीलेत्ति वुच्चई । अहस्सिरे सयादंते, ण य मम्ममुयाहरे ॥ नासीले पण विसीले, ण सिया अइलोलुए । अकोहणे सच्चरए, सिक्खा सीति वुच्चई ॥ - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 1306] उत्तराध्ययन 11 4-5 अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-5 • 143 Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । आठ प्रकार से साधक को शिक्षाशील कहा जाता है । जो हास्य न करे, जो सदा इन्द्रिय और मन का दमन करे, जो मर्म प्रकाशित न करे, जो चरित्र से हीन न हो, जिसका चरित्र दोषों से कलुषित न हो, जो रसों में अतिलोलुप न हो, जो क्रोध न करें और जो सत्यरत हो । 327. सुविनीत कौन ? हिरिमं पडिसंलीणे सुविणीए त्ति वुच्चई । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 1507] - उत्तराध्ययन 11/13 जो शिष्य लज्जाशील और इन्द्रिय-विजेता होता है, वह सुविनीत बनता है। 328. गुरुकुलवास वसे गुरुकुले निच्चं । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 1307] - उत्तराध्ययन 1104 साधक नित्य गुरुकुल में (ज्ञानियों की संगति में) रहें। 329. प्रियंकर-प्रियवादी पियंकरे पियंवाई, से सिक्खं लद्धमरिहई। - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 1307] - उत्तराध्ययन 1104 प्रियकार्य करनेवाला और प्रियवचन बोलनेवाला अपनी अभीष्ट शिक्षा प्राप्त करने में सफल होता है। 330. सुशिक्षित न य पावपरिक्खेवी, न य मित्तेसु कुप्पई । अप्पियस्सावि मित्तस्स, रहे कल्लाण भासई ॥ - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 1307] - उत्तराध्ययन 1102. अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-5 • 144 Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुशिक्षित व्यक्ति स्खलना होने पर भी किसी पर दोषारोपण नहीं करता है और न कभी मित्रों पर क्रोध ही करता है । और तो क्या, मित्र से मतभेद होने पर भी परोक्ष में उसकी भलाई की बात करता है । 331. बहुश्रुत, सिंहवत् सीहे मियाण पवरे, एवं भवइ बहुस्सुए। - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 1308] - उत्तराध्ययन 11/20 जैसे सिंह मृगों में श्रेष्ठ होता है, वैसे ही बहुश्रुत व्यक्ति जनता में श्रेष्ठ होता है। 332. बहुश्रुत, अजेय जहाऽऽ इण्ण समारूढे, सूरे दढपरक्कमे । उभओ नंदिघोसेणं, एवं भवइ बहुस्सुए ॥ - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 1308] - उत्तराध्ययन 1147 . जिसप्रकार उत्तम जाति के अश्व पर चढ़ा हुआ महान् पराक्रमी शूरवीर योद्धा दोनों ओर बजनेवाले विजयवाद्यों के आघोष से सुशोभित होता है, उसीप्रकार बहुश्रुत विद्वान् भी परवादियों से शास्त्रार्थ में पराजित नहीं होता हुआ सुशोभित होता है अर्थात् वह स्वाध्याय के मांगलिक स्वरों से अलंकृत होता है। 333. बहुश्रुत, तपोज्ज्व ल जहा से तिमिर विद्धं से, उत्तिद्वं ते दिवाकरे । जलंते इव तेएणं एवं भवइ बहुस्सुए ॥ - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 1309] - उत्तराध्ययन 11/24 जैसे तिमिरनाशक उदीयमान सूर्य अपने तेज से जाज्वल्यमान प्रतीत होता है, वैसे ही बहुश्रुत ज्ञानी तप की प्रभा से उज्ज्वल प्रतीत होता - अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-5 . 145 Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 334. बहुश्रुत, सुधाकर जहा से उडुवई चंदे, नक्खत्त परिवारिए । पडिपुण्णे पुण्णमासीए, एवं भवइ बहुस्सुए ॥ - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 1309] - उत्तराध्ययन 11/25 जिसप्रकार नक्षत्र परिवार से परिवृत्त गृहपति चंद्रमा पूर्णिमा को परिपूर्ण होता है । उसीप्रकार संतवृन्द-परिवार से परिवृत्त बहुश्रुत ज्ञानी समस्त कलाओं से परिपूर्ण होता है । 335. बहुश्रुतता मुक्तिदायिनी सुयस्स पुण्णा विपुलस्स ताइणो,' खवेत्तु कम्मं गइमुत्तमं गया ॥ - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 1310] - उत्तराध्ययन 11/31 विपुल श्रुतज्ञान से पूर्ण और षट्कार्यरक्षक महात्मा कर्मों को सर्वथा क्षय करके उत्तम गति में पहुंचे हैं। 336. मोक्षान्वेषक सुय महिद्विज्जा उत्तमट्ठ गवेसए । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 1310] - उत्तराध्ययन 1132 श्रुत शास्त्र का अध्ययन करके और ज्ञान में सुस्थित होकर मोक्ष की गवेषणा करे एवं अनंतता की खोज करे । 337. बहुश्रुत, सर्वश्रेष्ठ जहा सा नईण पवरा, सलिला सागरंगमा । सीया नीलवंत पहवा, एवं भवइ बहुस्सुए ॥ - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 1310] - उत्तराध्ययन 11/28 अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-5 • 146 Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिसप्रकार नीलवान् पर्वत से निकलकर सागर में मिलनेवाली सीता नदी सब नदियों में श्रेष्ठतम है । उसीप्रकार बहुश्रुत आत्मा सर्व साधुओं में श्रेष्ठ होता है । 338. बहुश्रुत, रत्नाकर जहा से सयंभुरमणे, उदही अक्खओदए । णाणारयण पडिपुणे, एवं भवइ बहुस्सु ॥ उत्तराध्ययन 11/30 जिसप्रकार अगाधजल से परिपूर्ण स्वयंभूरमण समुद्र अनेक प्रकार के रत्नों से भरा हुआ होता है । उसीप्रकार बहुश्रुत - आत्मा अक्षय ज्ञान गुण से परिपूर्ण होता है । 339. बहुश्रुत, मन्दराचल श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 5 पृ. 1310] जहा से नागाण पवरे, सुमहं मंदरे गिरी । नाणो सहिपज्जलिए, एवं भवइ बहुस्सुए ॥ BOX उत्तराध्ययन 11/29 A जिसप्रकार अनेक औषधियों से प्रदीप्त अति महान् मन्दराचल पर्वत सभी पर्वतों में श्रेष्ठ है । उसीप्रकार बहुश्रुत आत्मा सर्व साधुओं में श्रेष्ठ होता है । 340. बाल-संग श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 1310] अलं बालस्स संगेणं । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 1316] [ भाग 6 पृ. 735] आचारांग 1/2/5/94 अपरिपक्व बालजीव (अज्ञानी) की संगति से क्या प्रयोजन ?. - अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-5• 147 Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 341. जिज्ञासु के अष्ठ गुण ५ सुस्सूसइ' पडिपुच्छइ सुणेइ ३ गिण्हइ ४ य इहए ' यावि । तत्तो अपोहए वा, ६ धारेइ " करेइ वा सम्मं ' ॥ ७ ८ श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 1327] नंदीसूत्र 120/85 विद्याग्रहण करनेवाला व्यक्ति सर्वप्रथम १. सुनने की इच्छा करता है २. पूछता है ३. उत्तर को सुनता है ४. ग्रहण करता है ५. तर्क-वितर्क से ग्रहण किए हुए अर्थ को तोलता है ६ तोलकर निश्चय करता है ७. निश्चित अर्थ को धारण करता है ८. और फिर उसके अनुसार आचरण करता है। - 342. चतुर्धा - बुद्धि चडव्विहा बुद्धी पन्नत्ता, तं जहा उप्पत्तिया, वेणइया, कम्मया, पारिणामिया । श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 1328] स्थानांग 4/4/4/364 चार प्रकार की बुद्धि कही है - औत्पातिकी, वैनयिकी, कार्मिकी और पारिणामिकी | CANCE - 343. कथनी-करनी में एकरूपता पाठकाः पठिताश्च ये चान्ये शास्त्रचिन्तकाः । 1 सर्वे व्यसनिनो मूर्खाः, यः क्रियावान् स पण्डितः ॥ श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 5 पृ. 1329] G स्थानांगसूत्र सटीक 4/4 जो पढ़ने-पढ़ानेवाले हैं तथा जो शास्त्रों का केवल चिन्तन करनेवाले हैं, वे सब पठनव्यसनी एवं मूर्ख हैं। वस्तुतः पण्डित तो वही है, जो पठनपाठनादि के अनुसार क्रिया (आचरण) करता है । - 344. ज्ञानानुरूप आचरण यः क्रियावान् स पण्डितः । अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-5 • 148 Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 1329] - स्थानांगसूत्र सटीक 4A वास्तविक पण्डित तो वही है, जो पठन-पाठनादि के अनुसार आचरण करता है। 345. कषाय कृशता इंदियाणि कसाए य, गारवे य किसे गुरु। न चेयं ते पसंसामो, किसं साहु सरीरगं ॥ - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 1349] - निशीथ भाष्य 3758 ... हम केवल साधक के, अनशन आदि से कृश हुए शरीर के प्रशंसक नहीं हैं, वस्तुत: तो इन्द्रियाँ (वासना), कषाय और अहंकार को ही कृश करना चाहिए। 346. कार्य-कुशलता . जो जत्थ होई कुसलो, सो उन हावेइ तं सयं बलम्मि। - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 1353] - व्यवहारभाष्य 10/508 जो जिस कार्य में कुशल है, उसे शक्ति रहते हुए वह कार्य करना ही चाहिए। 347. साधनहीन असमर्थ उवकरणेहि विहूणो, जहवा पुरिसो न साहए कज्जा । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 1356] - व्यवहारभाष्य 10/540 साधनहीन व्यक्ति अभीष्ट कार्य को नहीं कर पाता है । 348. पाप-मिथ्या जं जं मणेण बद्धं, जं जं वायाए भासिअं पावं । काएण य जं च कयं, मिच्छा मे दुक्कडं तस्स ॥ - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 1358] अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-5 • 149 Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - धर्मसंग्रह 3 अधि. मन, वचन और शरीर से मैंने जो पाप किए हैं, वे मेरे सब पाप मिथ्या हो। 349. संघ-क्षमापना आयरिय - उवज्झाए, सीसे साहम्मिए कुल-गणे य। जम्मि कसाओ कोई वि, सव्वे तिविहेण खामेमि ॥ - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 1361. _____1358. 317. 418] - मरण समाधि प्रकीर्णक 335 आचार्य, उपाध्याय, शिष्यगण, साधर्मिक बन्धु, कुल और गण के प्रति मैंने जो भी कषाय भाव किये हों, उसके लिए मैं त्रियोग से क्षमाप्रार्थी 350. सम्यग्दर्शन रत्न-पूजा सम्मइंसणरयणं, नऽग्घइ ससुराऽसुरे । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 1362] - भक्तपरिज्ञा प्रकीर्णक 68 लोक में सुर-असुर सभी सम्यग्दर्शन रत्न की पूजा करते हैं। 351. भयंकर आत्मशत्रु न वितं करेइ अग्गी, ने य विसं ने य किण्ह सप्पोवि। जं कुणइ महादोसं तिव्वं जीवस्स मिच्छत्तं ॥ - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 1362] - भक्तपरिज्ञा प्रकीर्णक 61 तीव्र मिथ्यात्व आत्मा का जितना अहित एवं बिगाड़ करता है, उतना बिगाड़ अग्नि, विष और काला नाग भी नहीं करते। 352. संसार-बीज संसारमूलबीयं मिच्छत्तं । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 1362] अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-5 . 150 Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - भक्तपरिज्ञा प्रकीर्णक 59 संसार का मूलबीज मिथ्यात्व है। 353. जीवों के प्रति आत्मवत् आदर्श जह ते न पियं दुक्खं जाणिय एमेव सव्वजीवाणं । सव्वायरमुवउत्तो, अत्तोवम्मेण कुणसु दयं ॥ - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 1362] - भक्तपरिज्ञा प्रकीर्णक 90 जैसे तुम्हें दु:ख अप्रिय लगता है वैसे ही सभी जीवों को भी दु:ख अप्रिय लगता है। ऐसा जानकर सभी प्राणियों के प्रति आत्मवत्.आदर और उपयोग के साथ दया करें। 354. हिंसा-फल जावइयाइं दुक्खाई होति चउगइ गयस्स जीवस्स । सव्वाइं ताइं हिंसा फलाई निउणं वियाणाहि ॥ - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 1362] - भक्तपरिज्ञा प्रकीर्णक 94 ___ यह सुनिश्चित समझो कि चारगति में रहे हुए जीवों को जितने भी दु:ख भोगने पड़ते हैं, वे सब हिंसा के फल हैं । 355. अहिंसा-फल जं किंचि सुहमुयारं, पहुत्तणं पयइ सुंदरं जं च । आरोग्गं सोहग्गं तं तमहिं साफलं सव्वं ॥ - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 1362] - भक्तपरिज्ञा प्रकीर्णक 95 संसार में जितने भी उदार, सुख, प्रभुता, सहज सुंदरता, आरोग्य और सौभाग्य दिखाई देते हैं, वे सब वास्तव में अहिंसा के फल हैं। 356. हत्या और दया जीव अप्पवहो, जीवदया अप्पणो दया होइ । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 1362] __ अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-5 • 151 Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - भक्तपरिज्ञा प्रकीर्णक 93 किसी भी अन्य प्राणी की हत्या वस्तुत: अपनी ही हत्या है और अन्य जीव की दया अपनी ही दया है। 357. दर्शनभ्रष्ट, भ्रष्ट दसणभट्ठो भट्ठो, दंसणभट्ठस्स नत्थि निव्वाणं । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 1362] - भक्तपरिज्ञा प्रकीर्णक 66 . जो सम्यग्दर्शन से भ्रष्ट है, वस्तुत: वही भ्रष्ट है, पतित है; क्योंकि दर्शन से भ्रष्ट को मोक्ष प्राप्त नहीं होता। 358. चंचल मन जह मक्कडओ खणमवि, मज्झत्थो अत्थिउंन सक्केइ। तह खणमवि मज्झत्थो, विसएहि विणा न होइ मणो॥ . - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 1362] - भक्तपरिज्ञा प्रकीर्णक 84 जैसे बंदर क्षणभर भी शांत होकर नहीं बैठ सकता, वैसे ही मन भी संकल्प-विकल्प से क्षणभर के लिए भी शांत नहीं होता। 359. अहिंसाधर्म, श्रेष्ठ धम्ममहिंसा समं नत्थि । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 1362] - भक्तपरिज्ञा प्रकीर्णक 91 अहिंसा के समान दूसरा कोई धर्म नहीं है। 360. अहिंसा परमो धर्म तुंगं न मंदराओ, आगासाओ विसालयं नत्थि । जह तह जयम्मि जाणसु, धम्ममहिंसा समं नत्थि ॥ - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 1362] - भक्तपरिज्ञा प्रकीर्णक 91 पारिजा प्रकोप [भाग 5 पर जैसे बंदर अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-5 • 152 Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - जैसे विश्व में सुमेरू से ऊँचा और आकाश से विशाल कोई नहीं है वैसे ही सम्पूर्ण विश्व में अहिंसा से बढ़कर अन्य कोई धर्म नहीं है। 361. भ्रष्ट कौन ? दसणभट्ठो भट्ठो, न हु भट्ठो होइ चरणपब्भट्ठो । दंसणमणुपत्तस्स उ, परियडणं नत्थि संसारे ॥ - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 1362] , - भक्तपरिज्ञा प्रकीर्णक 65 चारित्र भ्रष्ट आत्मा भ्रष्ट नहीं है, किंतु दर्शन भ्रष्ट (श्रद्धा से गिरा हुआ) आत्मा ही वास्तव में भ्रष्ट है। सम्यादृष्टि जीव संसार में परिभ्रमण नहीं करता। 362. सत्यवादी-महिमा विस्ससणिज्जो माया व होइ पुज्जो गुरुव्व लोयस्स । सयणुव्व सच्चवाई, पुरिसो सव्वस्स होइ पिओ ॥ - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 1363] - भक्तपरिज्ञा प्रकीर्णक 99 सत्यवादी पुरुष माता की तरह लोगों का विश्वासपात्र होता है, गुरु की तरह पूज्य होता है एवं स्वजन की तरह सभी को प्रिय लगता है। 363. हीरा छोड़ काँच को धावे अवगणिय जो मुक्खसुहं, कुणइ नियाणं असारसुहहेउं । सो कायमणि कएणं वेरुलियमणि पणासेइ ॥ - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 1363 एवं 1364] - भक्तपरिज्ञा प्रकीर्णक 138 जो मोक्ष सुख की अवगणना कर संसार के असार सुखों के लिए निदान करता है, वह काँच के टुकड़े के लिए वैडूर्यमणि को हाथ से खो बैठता है । 364. काम-भोगों की असारता सुटुवि मग्गिज्जंतो कत्थवि कयलीइ नत्थि जह सारो। इन्दियविसएसु तहा नत्थि सुहं सुट्ठ वि गविटुं॥ - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष (भाग 5 पृ. 1564] अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-5 • 153 Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - भक्तपरिज्ञा प्रकीर्णक 114 जैसे कदली (केले) में खूब गवैषणा करने पर भी कहीं सार नहीं मिलता, वैसे ही तत्त्वज्ञों ने इन्द्रिय विषय-भोगों में खूब खोज करके भी कहीं सुख नहीं देखा हैं। 365. विषयासक्ति इंदिय विसयपसत्ता पडंति संसार सायरे जीवा । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 1364] - भक्तपरिज्ञा प्रकीर्णक 141 इन्द्रिय विषयों में आसक्त जीव संसार ल्प समुद्र में डूब जाते हैं। 366. सात्त्विकी भक्ति दुर्लभा सात्त्विकी भक्तिः, शिवावधि सुखावहा । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 1365] - धर्मसंग्रह2/134 मोक्ष पर्यन्त सुख को देनेवाली सात्त्विकी भक्ति दुर्लभ है । 367. शरीरंव्याधि मंदिरम् विविहाऽऽहि वाहिगेहं गेहं पिव जज्जरं इमं देहं । . ___ - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 1368) - धर्मरत्न। अधि.14 गुण जर्जरित यह शरीर भी विविध आधि-व्याधियों का मंदिर है, घर 368. निम्नोत्कृष्ट तप-संयम पुव्वतवसंजमा हों-ति एसिणा पच्छिमो अगारस्स । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 1380] - निशीथभाष्य 3332 रागात्मा के तप-संयम निम्न कोटि के होते हैं, जबकि वीतराग के तप-संयम उत्कृष्टतम होते हैं। अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-5 • 154 Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 369. शीघ्र मोक्ष अप्पबंधो जयाणं, बहुणिज्जरणे तेण मोक्खो तु । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 1380] - निशीथभाष्य 3335 यतनाशील साधक का कर्मबंध अल्प, अल्पतर होता जाता है और निर्जरा तीव्र तीव्रतर । अत: वह शीघ्र मोक्ष प्राप्त कर लेता है। 370. निर्भय ज्ञानाधिपति मुनि चितेपरिणतं यस्य, चारित्रमकुतोभयम् ? अखण्ड ज्ञानराज्यस्य, तस्य साधोः कुतो भयम् ? - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 1381] - ज्ञानसार 178 जिसे किसी से कोई भय नहीं है, ऐसा चारित्र जिस के चित्त में परिणत है; उस अखण्ड ज्ञानरूपी राज्य के अधिपति मुनि को भला भय कहाँ से ? 371. ज्ञानकवचधर वीर ! कृत मोहास्त्र वैफल्यं, ज्ञानवर्म बिभर्ति यः । क्व भीस्तस्य क्व वा भङ्गः, कर्मसङ्गरकेलिषु ॥ - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 1381] - ज्ञानसार 17/6 जिसने ज्ञानरूप कवच धारण कर मोहराजा के सर्व शस्त्रों को निष्फल कर दिया है, उसे कर्म-संग्राम की क्रीड़ा में भय या पराजय कैसे संभव है ? 372. मुनि, गजवत् निर्भय एकं ब्रह्मास्त्रमादाय निजन् मोहच{ मुनिः । बिभेति नैव संग्राम-शीर्षस्थ इव नागराट् ॥ - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 1381] अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-5 . 155. Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानसार 17/4 मुनि एक ब्रह्म-ज्ञानरूपी अस्त्र लेकर मोह सैन्य का संहार करता है और संग्राम-मैदान में ऐरावत हाथी की भाँति वह भयभीत नहीं होता है । 373. उस मुनि को भय कहाँ ? न गोप्यं क्वापि ना रोप्यं, हेयं देयं च न क्वचित् । क्व भयेन मुनेः स्थेयं, ज्ञेयं ज्ञानेन पश्यतः ॥ श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 5 पृ. 1381] • - ज्ञानसार 17/3 जहाँ न कुछ गोप्य है, न आरोप्य है और न ही हेय या देय है। मात्र ज्ञान से ज्ञेय हैं, उस मुनि को भय कहाँ ? - 374. भयमुक्त ज्ञानसुख भवसौख्येन किं भूरिभयज्वलनभस्मना । सदा भयोज्झितज्ञान- सुखमेव विशिष्यते ॥ श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 5 पृ. 1381] ज्ञानसार 172 जो असंख्य भय रूपी अग्नि- ज्वालाओं से जलकर राख हो गया है. ऐसे सांसारिक सुख से भला क्या लाभ? प्राय: भयमुक्त ज्ञानसुख ही श्रेष्ठ है। 375. सशक्त और अशक्त - B तुलवल्लाघवमूढा भमन्त्य भयाऽनिलैः । नैकं रोमापि तैर्ज्ञानगरिष्ठानां तु कम्पते ॥ श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 5 पृ. 1381 ] ज्ञानसार 17/7 आक की रुई की तरह हलके और मूढ लोग भयरूपी वायु के प्रचण्ड झोंके के साथ आकाश में उड़ते हैं, जबकि ज्ञान की शक्ति से परिपुष्ट सशक्त महापुरुषों का एकाध रोंगटा भी नहीं फड़कता । 376. ज्ञानदृष्टि HO E मयूरी ज्ञानदृष्टिश्चेत्, प्रसर्पति मनोवने । वेष्टनं भयसर्पाणां, न तदानन्दचन्दने ॥ अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-5 • 156 Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 1381 ] ज्ञानसार 17/5 यदि ज्ञान-दृष्टि रूपी मयूरी, मन रूपी बगीचे में क्रीड़ा करती है तो आनन्द रूपी बावनाचंदन वृक्ष पर भयरूपी सर्प लिपटे नहीं रहते । 377. भवसागर से भयभीत - यस्य गम्भीरमध्यस्याऽज्ञानवज्रमयं तलम् । रुद्धा व्यसनशैलौघैः पन्थानो यत्र दुर्गमाः || पातालकलशा यत्र, भृतास्तृष्णामहानिलैः । कषायाश्चित्तसंकल्पवेलावृद्धि वितन्वते ॥ स्मरौर्वाग्नि ज्वलत्यन्त र्यत्र स्नेहेन्धनः सदा । यो घोररोगशोकादिमत्स्यकच्छपसंकुलः ॥ दुर्बुद्धिमत्सर द्रोहैविद्युद्दुर्वात गर्जितैः । यत्र सांय्यात्रिका लोकाः पतन्त्युत्पातसङ्कटे ॥ ज्ञानी तस्माद् भवाम्भोधेर्नित्योद्विग्नोऽति दारुणात् । तस्य सन्तरणोपायं सर्वयत्नेन कांक्षति ॥ श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 1479] STAR 22/1-2-3-4-5 जिसका मध्यभाग गंभीर है, जिसका ( भवसमुद्र का) पेंदा (तलभाग) अज्ञान रूपी वज्र से बना हुआ है, जहाँ संकट और अनिष्ट रूपी पर्वतमालाओं से घिरे दुर्गम मार्ग है, जहाँ (संसार - समुद्र में) तृष्णा स्वरूप प्रचण्ड वायु से युक्त पाताल कलश रूपी चार कषाय, मन के संकल्प रूपी ज्वारभाटे को अधिकाधिक विस्तीर्ण करते हैं, जिसके मध्य में हमेशा स्नेह स्वरूप इंधन से कामरूप वडवानल प्रज्वलित है और जो भयानक रोगशोकादि मत्स्य और कछुओं से भरा पड़ा है, दुर्बुद्धि, ईर्ष्या और द्रोह-स्वरूप बिजली, तूफान और गर्जन से जहाँ समुद्री व्यापारी तूफान रूपी संकट में पड़ते हैं, ऐसे भीषण संसार-समुद्र से भयभीत ज्ञानी पुरुष उससे पार उतरने के प्रयत्नों की इच्छा रखते हैं । - अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-5 • 157 - Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 378. काँटे से काँटा विषं विषस्य वह्वेश्च वह्निरेव यदौषधम् । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 1480] ज्ञानसार 22/1 यह कहावत सत्य है कि 'जहर की दवा जहर है' और 'अग्नि की दवा अग्नि ।' 379. भवभीरु मुनि तैलपात्रधरो यद्वद्, राधावेधोद्यतो यथा ।। क्रियास्वनन्यचित्तः स्याद्, भवभीतस्तथा मुनिः ॥ - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 1480] - ज्ञानसार 22/6 जैसे तेल से भरे हुए पात्र को उठाकर चलनेवाला और राधावेध को साधनेवाला अपनी क्रिया में एकाग्रचित्त होता है, वैसे ही भवभीरू मुनि अपनी चारित्र-क्रिया में एकाग्रचित्त होता है। 380. किल्बिषिक भावना माई अवणवाई, किदिवसिणं भावणं कुणइ। - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 1513] बृहदावश्यक भाष्य 1302 जो मायावी है और सत्पुरुषों की निंदा करता है; वह अपने लिए किल्बिषिक भावना (पापयोनि की स्थिति) पैदा करता है। 381. निष्काम साधना भावणाजोगसुद्धप्पा, जले णावा व आहिया । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 1515] - सूत्रकृतांग 1/15/5 जिस साधक की अन्तरात्मा भावनायोग (निष्काम साधना) से शुद्ध है, वह जल में नौका के समान है अर्थात् वह संसार-सागर को तैर जाता है, उसमें डूबता नहीं है । अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-5 • 158 Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 382. कर्म - मुक्ति तिउट्टंतिपावकम्माणि, नवं कम्ममकुव्वओ । श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 5 पृ. 1515] सूत्रकृतांग 1/15/6 जो नए कर्मों का बंधन नहीं करता है, उसके पूर्वबद्ध पापकर्म भी नष्ट हो जाते हैं । - 383. साधक, जलकमलवत् तिउट्टति तु उ मेधावी, जाणं लोगंसि पावगं । श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 1515] सूत्रकृतांग 1/15/6 पापकर्म के स्वरूप को जाननेवाला मेधावी पुरुष संसार में रहता हुआ भी पाप से मुक्त हो जाता है । GIVE 384. भाव - विशुद्धि भावसच्चेणं भाव विसोहिं जणयइ । - - उत्तराध्ययन 29/52 भाव सत्य से आत्मा भाव विशुद्धि को प्राप्त करता है । श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 1517] 385. अर्हद् धर्माराधन भाव विसोही वट्टमाणे जीवे अरहंतपन्नस्स । धम्मस्स आराहणयाए अब्भुट्ठेइ । श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 5 पृ. 1517] COM उत्तराध्ययन 29/52 भाव - विशुद्धि में वर्तमान जीव अर्हत् धर्म की आराधना के लिए समुद्यत होता है । 386. दूषित भाषा त्याग भासा दोसं परिहरे । श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 5 पृ. 1543 ] - अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-5 • 159 Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययन 1/24 साधक दूषित (संदिग्ध एवं सावद्य आदि) भाषा का त्याग करें । 387. असत्य - वर्जन मुसं परिहरे भिक्खू । - उत्तराध्ययन 1/24 भिक्षु झूठ का परित्याग करे । श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 5 पृ. 1543] 388. कपट- त्याग मायं च वज्जए सया । कपट मत करो । 389. भाषा - विवेक श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 5 पृ. 1543] उत्तराध्ययन 1/21 न लवेज्ज पुट्ठो सावज्जं, निरत्थं न मम्मयं । - उत्तराध्ययन 1/25 पूछने पर पापयुक्त एवं निरर्थक भाषा मत बोलो । श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 1543 ] 20 390. वचन - विवेक तहेव काणं 'काणे' त्ति, पंडगं 'पंडगे' त्ति वा । वाहियं वावि 'रोग' त्ति, तेणं 'चोरे' त्ति नो वए ॥ श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 15431545] दशवैकालिक 7/12 काने को काना, नपुंसक को नपुंसक, रोगी को रोगी और चोर को चोर नहीं कहना चाहिए । 391. निश्चयात्मक वचन त्याज्य जत्थ संका भवे तंतु, एवमेयंति नो वए । अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-5 160 Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 1544] - दशवैकालिक 70 जिस सम्बन्ध में कुछ भी शंका जैसा लगता हो, उस संबंध में 'यह ऐसा ही है', ऐसी निश्चयात्मक भाषा का प्रयोग न करें। . 392. निश्चयात्मक भाषा-वर्जन जमटुं तु न जाणेज्जा 'एवमेवं' ति ना वए । . - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 1544] - दशवकालिक 718 जिस बात का स्वयं को पता न हो, तो उस सम्बन्ध में 'यह ऐसा ही है' ऐसी निश्चयात्मक भाषा न बोलें। 393. विचारयुत वार्तालाप जहारिहमभिगिज्झ, आलवेज्ज लवेज्ज-वा । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 1545] - दशवैकालिक 747-20 श्रमण यथायोग्य गुण-दोष आदि का विचार कर बातचीत करे । 394. भाषा-विवेक भूओवघाइणि भासं, नेवं भासेज्ज पण्णवं । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 1546] - दशवकालिक 7/29 प्राज्ञ पुरुष जीवोपघातिनी (मर्मभेदी) भाषा न बोले । 395. निष्पाप वाणी सावज्जं नाऽऽलवे मुणी। - - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 1547] - दशवैकालिक 7/40 मुनि पापयुक्त (सावद्य) भाषा न बोलें । 396. निरवद्य भाषा अणवज्जं वियागरे। simary अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-5 . 161.. Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 1548] - दशवकालिक 7/46 निरवद्य-पापरहित बोलो। · 397. अप्रिय वचन-निषेध अचियत्तं चेव णो वए। - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 1548] - दशवैकालिक 7/43 अप्रीतिकर वचन मत बोलो। 398. संयत साधु कौन ? नाणदंसण सम्पन्नं, संजमे य तवे रयं । एवं गुण-समाउत्तं, संजय साहुमालवे ॥ - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 1548] - दशवकालिक 7/49 जो ज्ञान-दर्शन से सम्पन्न हो, संयम और तपश्चरण में लीन हो और सदा सद्गुणों को धारण करनेवाला हो, उसे सच्चा संयत साधु कहना चाहिए। 399. बोल, तराजू तोल अणुवीइ सव्वं सव्वत्थ एवं भासेज्ज पण्णवं । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 1548] .. - दशवैकालिक 7/44 प्रज्ञावान् सबप्रकार के वचन सम्बन्धी विधि-निषेधों का पूर्वापर विचार करके बोले ! 400. वाणी-विवेक न लवे असाहुं साहुं त्ति, साई साहुति आलवे । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 1548] - दशवकालिक 7/48 अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-5 • 162 Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किसी के दबाव से असाधु को साधु नहीं कहना चाहिए । साधु को ही साधु कहना चाहिए। 401. बोलो, हँसते हुए नहीं ! न हासमाणो वि गिरं वएज्जा । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 1548] - दशवकालिक 7/54 हँसते हुए नहीं बोलना चाहिए। 402. साधु-वाणी तहेव सावज्जणुमोयणी गिरा, ओहारिणी जा य परोवघाइणी । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 1548] - दशवैकालिक 7/54 श्रेष्ठसाधु पापकारी, निश्चयकारी और जीवोपघातकारी भाषा का प्रयोग न करे। 403. निष्पक्ष साधक देवाणं मणुयाणंच, तिरियाणं च वुग्गहे। अमुयाणं जओ होउ, मा वा होउत्ति नो वए । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 1548] - दशवैकालिक 7/50 देव, मनुष्य तथा तिर्यञ्च जब परस्पर युद्ध करते हों, तब 'इसकी जय हो और इसकी पराजय हो'-ऐसा वचन नहीं बोलना चाहिए, क्योंकि ऐसा बोलने से एक प्रसन्न होता है और दूसरा अप्रसन्न । अत: ऐसी दु:खद स्थिति साधक को उपस्थित करना उपयुक्त नहीं है। 404. वाक्-शुचिता सवक्कसुद्धि समुपेहिया मुणी । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 1549] ( अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-5 . 163 ) Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - दशवैकालिक 7/35. मुनि सदा वचन-शुद्धि का विचार करें । 405. दुर्वचन त्याज्य गिरं च दुटुं परिवज्जए सया । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 1549] - दशवैकालिक 7/35 दुष्ट भाषा का सदा परित्याग करें। 406. अहितकारिणी भाषा-वर्जन अप्पत्तियं जेण सिया, आसु कुप्पेज्ज वा परो । सव्वसो तं न भासेज्जा, भासं अहियगामिणि ॥ - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 1549] - दशवैकालिक 8/47 जिस भाषा के बोलने से अप्रीति या अप्रतीति (अविश्वास) पैदा हो अथवा दूसरा सुननेवाला शीघ्र ही कुपित होता हो, ऐसी अहित करनेवाली भाषा सर्वथा मत बोलो। 407. संतजनों की मीठी वाणी अयंपिरमणुव्विग्गं भासं निसिर अत्तवं । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 1549] - दशवैकालिक 8/48 आत्मार्थी साधक वाचालता रहित और किसीको भी उद्विग्न नहीं करनेवाली वाणी बोले। 408. वाणी कैसी हो ? दिटुं मियं असंदिद्धं, पडिपुण्णं वियं जियं । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 1549] - दशवैकालिक 8/48 आत्मविद् साधक दृष्ट (अनुभूत) सीमित, असंदिग्ध, परिपूर्ण और स्पष्टवाणी का प्रयोग करे। _ अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-5 • 1640 for • खण्ड-5.164 Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 409. कौन प्रशंसनीय ? मिअं अदुटुं अणुवीई भासए, सयाण मज्झे लहई पसंसणं । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 1549] - दशवैकालिक 7/55 जो सोच समझकर सुन्दर और परिमित शब्द बोलता है, वह नजनों के बीच प्रशंसा पाता है। 410. बोले, बीच में नहीं अपुच्छिओ न भासेज्जा, भासमाणस्स अंतरा । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 1549] - दशवैकालिक 8/46 बिना पूछे व्यर्थ ही किसी के बीच में नहीं बोलना चाहिए। 411. पैशुन्य, पीठमांस-भक्षण पिट्ठिमंसं न खाएज्जा। . - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 1549] - - दशवकालिक 8/46 पीठ पीछे किसी की चुगली नहीं खाना चाहिए, क्योंकि किसी की चुगली खाना, पीठ का माँस नोचने के समान है। 412. परिहास-वर्जन आयारपण्णत्तिधरं, दिट्ठिवायमहिज्जगं । वइविक्खलियं णच्चा, न तं उवहसे मुणी ॥ - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 1549] • - दशवकालिक 8/49 आचारप्रज्ञप्ति के ज्ञाता, दृष्टिवाद के अध्येता साधु भी कदाचित बोलते समय वचन से स्खलित हो जाय, तो मुनि उनकी हंसी न करे । 413. मनीषी-अभिव्यक्ति वएज्ज बुद्धे हियमाणुलोमियं । अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-5 . 165 Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 1549] - दशवैकालिक 7/56 प्रबुद्ध ऐसी भाषा बोले जो सभी के लिए हितकर और प्रियंकर हो। 414. सदोष भाषा-वर्जन भासाए दोसे य गुणे य जाणिया, तीसे य दुट्ठाए विवज्जए सया । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 1549] - दशवकालिक 7/56 भाषा के गुण-दोषों को जानकर दोषपूर्ण भाषा सदा के लिए छोड़ देनी चाहिए। 415. भिक्षाचरी जिण सासणस्स मूलं भिक्खायरिया जिणेहि पन्नत्ता। - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 1560] - धर्मरत्नप्रकरण 3 अधि. 7 लक्ष. जिनेश्वरों ने भिक्षाचरी को जिनशासन का मूल कहा है। . 416. भाव भिक्षु जो भिदेइ खुहं खलु, सो भिक्खू भावतो होइ । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 1563] - उत्तराध्ययन नियुक्ति 375 जो मन की भूख (तृष्णा) का भेदन करता है, वही भाव-भिक्षु है। 417. भिक्षु-लक्षण खंती यमद्दऽज्जव, विमुत्तया तहअदीणयति तिक्खा। आवस्सग परिसुद्धी, य होंति, भिक्खुस्स लिंगाई॥ . - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 1564] - दशवैकालिक नियुक्ति 349 क्षमा, विनम्रता, सरलता, निर्लोभता, अदीनता, तितिक्षा और आवश्यक क्रियाओं की परिशुद्धि-ये सब भिक्षु के वास्तविक चिह्न हैं। अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-5 • 166 Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 418. सच्चा भिक्षु वंतं नो पडिया वियति जे, स भिक्खू । श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 5 पृ. 1565] दशवैकालिक 101 त्याग किए हुए पदार्थों का जो फिर सेवन नहीं करता है, वही भिक्षु है । 419. भिक्षु कौन ? पंच य फासे महव्वयाई, पंचासव संवरए जे स भिक्खू । श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 5 पृ. 1565] दशवैकालिक 10/5 जो पाँच महाव्रतों का पालन करता है एवं मिथ्यात्व आदि पाँच - आस्रवों को रोकता है, वह 'भिक्षु' है । 420 आत्मवत् सर्वजीव अत्तसमे मन्नेज्ज छप्पिकाए । श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 1565] दशवैकालिक 10/5 षट्काय अर्थात् पृथ्वी, अग्नि, वायु, वनस्पति और त्रस जीवों को अपनी आत्मा के समान समझो । - - 421. गुणहीन भिक्षु भिक्खू गुणरहिओ, भिक्खंगिण्हइन होइ सो भिक्खू । वणेण जुत्ति सुवण - गंव असई गुणनिहिम्मि ॥ श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 5 पृ. 1565] दशवैकालिक नियुक्ति 356 जो भिक्षु गुणहीन है, वह भिक्षावृत्ति करने पर भी भिक्षु नहीं कहला सकता । सोने का झोल चढ़ा देने भर से पीतल आदि सोना नहीं हो सकता । 422. भिक्षु कौन ? - मणवयकाय सुसंवुडे जे, स भिक्खू । अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-5 • 167 Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 1566] - दशवकालिक 100 मन-वचन-काया से जो संवृत्त है, वह भिक्षु है । 423. स्वाध्यायरत सज्झायरए य जे, स भिक्खू । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 1566] - दशवैकालिक 10 जो स्वाध्याय में रत है, वह साधु है । 424. कषाय त्याज्य चत्तारि वमे सया कसाए । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 . 1566) - दशवकालिक 10/6 चारों कषाय सदा त्याज्य हैं। 425. सम्यक्दृष्टि सम्मदिट्ठी सया अमूढे। - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 1566] - दशवकालिक 100 जिसकी दृष्टि सम्यक है, वह कभी कर्तव्य-विमूढ़ नहीं होता। 426. कैसा मत बोलो ? न य वुग्गहिअं कहं कहेज्जा । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 1566] - दशवकालिक 1000 कलहवर्धक बात मत कहो। 427. वही भिक्षु उवसंते अविहेडए जे स भिक्खू । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 1566-1571] - दशवैकालिक 1010 अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-5 • 168 - - Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जो उपशान्त और अपने कर्तव्य के प्रति जागरुक है, वही श्रेष्ठ भिक्षु है। 428. वही अणगार गिहि जोगं परिवज्जए जे, स भिक्खू । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 1566] - दशवकालिक 10/6 जो गृहस्थों से अति-स्नेह सूत्र नहीं जोड़ता, वह भिक्षु है । 429. श्रमण वही अज्झप्परए सुसमाहियप्पा, सुत्तत्थं च वियाणई जे, स भिक्खू । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 1567] - दशवैकालिक 10/15 जो अध्यात्मरत रहता है, जो अपने आपको सुन्दर रीति से समाहित रखता है, जो सूत्र और अर्थ को यथार्थ रूप से जानता है, वही भिक्षु है। 430. भिक्षु कौन ? तवे रए सामणिए जे, स भिक्खू । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 1567] - - दशवैकालिक 1014 जो तप और संयम में लीन रहता है, वह 'भिक्षु' है । 431. सच्चा भिक्षु • अत्ताणं न समुक्कसे जे, स भिक्खू । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 1567] - दशवकालिक 108 ___ जो अपनी आत्मा को सर्वोत्कृष्ट मानकर अहंकार नहीं करता, वही भिक्षु है। अभिधान राजेन्द्र कोप में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-5 . 169 Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 432. वही भिक्षु सव्व संगावगाए अ जे, स भिक्खू । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 1567] - दशवकालिक 1016 जो सभी द्रव्य और भावासक्ति से दूर है, वही सच्चा भिक्षु है । 433. कुपितकारी भाषा-त्याग जेणऽन्नो कुप्पेज्ज न तं वएज्जा । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 1567] - दशवैकालिक 1018 जिससे दूसरा कुपित हो, ऐसी बात भी मत कहो । 434. रस-अनासक्ति अलोलो भिक्खू न रसेसु गिद्धे । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 1567] - दशवकालिक 1017 अलोलुप होता हुआ भिक्षु रसों में आसक्त न हो । 435. निःस्पृही भिक्षु इड्डिं च सक्कार ण पूयणं च, चए ठियप्पा अणिहे जे, स भिक्खू । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 1567] - दशवकालिक 1047 जो ऋद्धि, सत्कार और पूजा की स्पृहा का त्याग कर देता है, ज्ञानादि में स्थितात्मा है और आसक्ति रहित है, वही भिक्षु है । 436. अनुच्छंखल भिक्षु उंछं चरे जीविय नाभिकंखे । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 1567] - दशवकालिक 1017 अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-5 • 170 Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भिक्षु उच्छृखल-असंयमी जीवन की आकांक्षा नहीं करें। 437. पृथ्वीवत् क्षमाशील मुनि पुढवि समे मुणी हवेज्जा। . - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 1567] - दशवैकालिक 1013 मुनि को पृथ्वी के समान क्षमाशील होना चाहिए। 438. धर्म में स्थिर धम्मे ठिओ ठावयई परं पि । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 1567] - दशवकालिक 10/20 स्वयं धर्म में स्थिर रहकर दूसरों को भी धर्म में स्थिर करना चाहिए। 439. आत्म-प्रशंसा से दूर अत्ताणं न समुक्कसे। - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 1567] - दशवकालिक 8/30 अपनी बढ़ाई मत करो। 440. धर्मध्यानरत भिक्षु धम्मज्झाणरए य जे, स भिक्खू । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 1567] - दशवकालिक 1019 जो धर्म-ध्यान में सतत रत रहता है, वही सच्चा भिक्षु है । 441. अनासक्त श्रमण जे कर्मिहचि न मुच्छिए स भिक्खू । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 1568] - उत्तराध्ययन 152 जो किसी भी वस्तु में मूर्छा भाव न रखे, वही सच्चा भिक्षु है। अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-5 • 171 Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 442. वही श्रमण असिप्पजीवी अगि, अमित्ते, जिइदिए सव्वओ विप्यमुक्के । अणुक्कसाई न हु अप्पभक्खी, चेच्चा गिहं एगं चरे स भिक्खू ॥ SA श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग पृ. 1571] उत्तराध्ययन 15 16 जो शिल्प - जीवी नहीं है, जिसके घर नहीं है, जिसके मित्र नहीं है, जो जितेन्द्रिय और सर्वप्रकार के परिग्रह से मुक्त है, जो अल्पकषायी है, जो निस्सार और वह भी अल्पभोजन करता है और जो घर का त्याग कर अकेला राग-द्वेष रहित होकर विचरण करता है; वही भिक्षु है । 443. सर्वभयमुक्त साधक ण भातियव्वं भयस्स वा, वाहिस्स वा रोगस्स वा । जराए वा मच्चुस्स वा एगस्स वा एवमादियस्स ॥ श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 1590] , प्रश्नव्याकरण 2/7/25 साधक को देव मनुष्यादि भय से, कुष्ठादि व्याधि से, ज्वरादि रोगों से, बुढ़ापे से और तो क्या मृत्यु से या इसीतरह के अन्य किसी भी भय से नहीं डरना चाहिए । 444. भीरु, असमर्थ - सप्पुरिस निसेवियं च मग्गं भीतो न समत्थो अणुचरिउं । श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 5 पृ. 1590] प्रश्नव्याकरण 2/7/25 भयभीत व्यक्ति सत्पुरुषों द्वारा आचरित मार्ग का अनुसरण करने में समर्थ नहीं होता । 445. निर्भय रहो न भाइयव्वं । अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-5 • 172 Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 1590] - प्रश्नव्याकरण 2125 भयभीत नहीं होना चाहिए। 446. भीरु, भयग्रस्त भीतं खु भया अइति लहुयं । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 1590] - प्रश्नव्याकरण 2125 भीरु मनुष्य को अनेक भय शीघ्र ही जकड़ लेते हैं। 447. भीरु साधक भीती य भरं ण नित्थरेज्जा । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 1590] - प्रश्नव्याकरण 2025 भयभीत साधक स्वीकृत कार्यभार का भलीभाँति निर्वाह नहीं कर 'सकता। 448. भयभीत मानव भीतो तपसंजमं पि हु मुएज्जा । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 1590] - प्रश्नव्याकरण ?M/25 भयभीत बना हुआ पुरुष निश्चत ही तप और संयम की साधना • भी छोड़ बैठता है। 449. असहाय भीतो अबितिज्जओ मणूसो । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 1590] - प्रश्नव्याकरण 2425 भयभीत मनुष्य असहाय रहता है। 450. भूताक्रान्त भीतो भूतेहिं घिप्पइ । अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-5 . 173 Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 1590] - प्रश्नव्याकरण 20/25 भयाकुल व्यक्ति भूत-प्रेतों द्वारा आक्रान्त कर लिया जाता है। 451. भीरु की दशा भीतो अण्णं पि हु भेसेज्जा। - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 1590] - प्रश्नव्याकरण 20.25 भयभीत मनुष्य स्वयं तो डरता ही है, साथ ही दूसरों को भी भयभीत बना देता है। 452. धर्मतरुमूल, विनय मूलाउखंधप्पभओदुमस्स,खंधाउपच्छासमुवेंति साहा। साहप्पसाहाविरुहंतिपत्ता,तओसिपुफ्फंचफलंस्सोय ॥ एवं धम्मस्स विणओ, मूलं से परमं मुक्खं । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 1593] एवं [भाग 6 पृ. 1170] - दशवैकालिक 920 वृक्ष के मूल से स्कन्ध उत्पन्न होता है। स्कन्ध के पश्चात् शाखाएँ निकलती हैं । शाखाओं में से प्रशाखाएँ फूटती हैं और इसके बाद पत्र-पुष्प और रस उत्पन्न होता है । इसीतरह विनय धर्मरूपी वृक्ष का मूल है और उसका सर्वोत्तम रस है-मोक्ष। 453. भोग से निरपेक्ष... भोगेहिं निरवयक्खा , तरंति संसार कंतारं । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 1604] - ज्ञाताधर्मकथा 1/31 ___ जो विषयो भोगों से निरपेक्ष रहते हैं, वे संसार वन को पार कर जाते हैं। अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-5 • 174 Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 454. समर्थ त्यागी, कर्मनिर्जरा भोगी भोगे परिच्चयमाणे, महानिज्जरे महापज्जवसाणे भवइ । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 1604] - भगवती 7020 भोग-समर्थ होते हुए भी जो भोगों का परित्याग करता है, वह कर्मों की महान् निर्जरा करता है; उसे मोक्ष रूपी महाफल प्राप्त होता है। 455. धर्मोत्पन्न भोग भी अनर्थ धर्मादपि भवन् भोगः प्रायोऽनर्थाय देहिनाम् । चन्दनादपि संभूतो, दहत्येव हुताशनः ॥ - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 1604] - योगदृष्टि समुच्चय 160 धर्म से भी उत्पन्न भोग प्राणियों के लिए प्राय: अनर्थकर ही होता है। जैसे चन्दन से भी उत्पन्न अग्नि जलाती ही है। 456. आशा-तृष्णा-त्याग आसं च छंदं च विगिंच धीरे । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 1607] - आचारांग12/4/43 हे धीरपुरुष ! तुम आशा-तृष्णा और स्वच्छंदता का त्याग करो। * 457. मृगतृष्णा जेण सिया, तेण णो सिया । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 1607] . - आचारांग 124/83 तुम जिन-वस्तुओं से सुख की आशा रखते हो, वस्तुत: वे सुख के कारण नहीं हैं। 458. संप्रेक्षा संतिमरण संपेहाए । अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-5 • 175 . Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 1607] आचारांग 1/2/4/85 शांति (मोक्ष) और मरण (संसार) को देखनेवाला साधक प्रमाद - न करे । 459. विषय - अनासक्ति अप्पमादो महामोहे | विषयों के प्रति अनासक्त रहें । 460. मोहावृत्त पुरुष श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 5 पृ. 1607] आचारांग 1/2/4/85 इणमेव णावबुज्झंति जे जणा मोह पाउडा । श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 5 पृ. 1607] आचारांग 1/2/4/83 जो मनुष्य मोह की सघनता से घिरे हुए हैं, वे इस तथ्य को नहीं समझ पाते कि पौद्गलिक भोगसुख क्षणभंगुर हैं और वे ही शल्य रूप हैं । 461. भोगासक्ति, शल्य FRE - तुमं चेव तं सल्लाहट्टु | - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 1607] आचारांग 1/2/4/83 तूने ही उस भोगासक्ति रूप शल्य अर्थात् काँटे का सृजन किया है। 462. पंडितजन - धारणा नरगतिरिक्खाए । श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 1607] ते भो ! वदंति एयाई ******** आचारांग 1/2/4/84 पंडितजन कहते हैं हे पुरुष ! ये स्त्रियाँ आयतन अर्थात् भोगसामग्री हैं। उनकी यह धारणा है कि उनके दुःख मोह, मृत्यु और नरक तथा नरक के बाद तिर्यंच गति के लिए हैं । अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-5 • 176 Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 463. संसार व्यथित थीभि लोए पव्वहिते । - आचारांग 1/2/4/84 यह संसार स्त्रियों से पीड़ित है, व्यथित है । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 1607] 464. शरीर, क्षणभङ्गुर भेरधम्मं संपेहा | यह शरीर क्षणभंगुर है, इसकी संप्रेक्षा करे । श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 1607] आचारांग 1/2/4/85 465. हिंसा - वर्जन नातिवातेज्ज कंचणं । किसी भी जीव की हिंसा मत करो । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 1608] आचारांग 1/2/4/85 466. वीर प्रशंसनीय ! - एस वीरे पसंसिते जेण णिव्विज्जति आदाणाए । श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 1608] आचारांग 12/4/86 वही वीर प्रशंसनीय होता है जो संयमी जीवन से खिन्न नहीं होता । 467. साधक क्रुद्ध न हो ण मे देति ण कुप्पेज्जा । श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 5 पृ. 1608] आचारांग 1/2/4/86 'यह मुझे नहीं मिला', 'यह मुझे नहीं देता' - यह सोचकर साधक उसपर क्रुद्ध न हो । अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस खण्ड-5 • 177 Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 468. प्रशान्त मुनि पडिसेहितो परिणमेज्जा । - आचारांग 1/2/4/86 गृहस्वामी निषेध करे तो शांतभाव से वहाँ से वापस लौट जाए । - 469. अल्पभोजी निरोगी यो हि मितं भुङ्क्ते स बहुं भुङ्क्ते । श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 1608] श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 1611] नीतिवाक्यामृत 25/38 एवं धर्मसंग्रह अधि. 1 जो परिमित खाता है, वह बहुत खाता है अर्थात् स्वास्थ्य की दृष्टि से कम खाना ज्यादा हितकारी है । 470. स्वचिकित्सक - - हियाहारा मियाहारा, अप्पाहारा य जे नरा । न ते विज्जा तिगिच्छंति, अप्पाणं ते तिगिच्छगा । श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 1619] एवं [भाग 2 पृ. 549] ओघनियुक्ति 578 - - जो मनुष्य हिताहारी, मिताहारी और अल्पाहारी हैं, उन्हें किसी वैद्य से चिकित्सा करवाने की आवश्यकता नहीं, वे स्वयं ही अपने वैद्य हैं, चिकित्सक हैं। 471. परिणाम - बंध अणुमित्तोऽविन कस्सइ, बंधो परवत्थु पच्चओ भणिओ । श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 1621] ओघनियुक्ति 57 बाह्य वस्तु के आधार पर किसी को अणुमात्र भी कर्मबंध नहीं होता । कर्मबंध अपनी भावना के आधार पर ही होता है । अभिधान राजेन्द्र कोण में, सूक्ति-सुधारस खण्ड-5 178 Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम परिशिष्ट अकारादि अनुक्रमणिका Page #188 --------------------------------------------------------------------------  Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाग 490 अकारादि अनुक्रमणिका सूक्ति अभिवान राजेन्द्र काप सक्ति का अश अ 50. अदंसणं चेव अपत्थणं च । 485 70. . अदत्ताणि समाययंतो । 87. अणुक्कसे अप्पलीणे । 525 97. अणंत असरणं दुरंतं । 555 100. अत्ताणा अणिग्गहिया करेंति । 555 109. अपरिग्गह संवुडे य समणे । 557 110. अहो य राओ य अप्पमत्तेण । 560 130. अज्झप्प विसोहीए । 612 138. अग्गं वणिएहिं आहियं । 645 139. अद्दक्खू कामाइं रोगवं ।। 645 149. अणिहे से पुढे अहियाराऐ । 647 151. अरति रतिं च अभिभूय भिक्खू । 647 161. अट्ठा हणंति अणट्ठा हणंति । 176. असंविभागी अचियत्ते । 882 186. अहवा वि नाण दंसण चरित्त विणए । 944 192. अण्णस्स दुक्खं अण्णो । 956 193. अन्ने खलु कामभोगा । 956 197. अपूर्णः पूर्णतामेति । 991 209. चत्तारि पुरिस जाता-अट्ठ करे णाम । 5 1026-1034 212. अट्ठकरे णाम मेगेणो माणकरे । 5 1026-1034 256. अणेगा गुणा अहीणा भवंति । 1260 315. अच्चेइ कालो। 1279 319. अज्जाई कम्माई करेहि । 1280 325. अह पंचहि ठाणेहिं जेहिं । 1306 326. अह अट्ठहिँ ठाणेहिं । 1306 340. अलं बालस्स संगणं । 1316 363. अवगणियं जो मुक्खसुहं । 5 1363-1364 369. अप्पबंधो जयाणं.। 5 1380 ( अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-5 . 181 835 Uiui ui ui ui ui ui ui ui ui ui ui ui ui ui ui ui ui ui ui ui ui ui ui ui uiuiui Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभियान का 1548 1548 1548 1549 1549 1549 1565 ui ui ui ui ui ui ui ui ui ui ui ui uiui 1567 1567 1567 1567 396. अणवज्जं वियागरे । 397. अचियत्तं चेव णो वए। 399. अणुवीइ सव्वं सव्वत्थ । 406. अप्पत्तियं जेणसिया। 407. अयंपिरमणुविग्गं । 410. अपुच्छिओ न भासेज्जा । 420. अत्तसमे मन्नेज्ज छप्पिकाए । 429. अज्झप्परए सुसमाहियप्पा । 431. अत्ताणं न समुक्कसे जे । 434. अलोलो भिक्ख न रसेस गिद्धे । 439. अत्ताणं न समुक्कसे। 442. असिप्प जीवी अगिहे अमित्ते । 459. अप्पमादो महामोहे । 471. अणुमित्तोऽवि न कस्सइ । आ 18. आयरिय नमुक्कारेण । 36. आहारमिच्छे मितमेसणिज्जं । 84. आवज्जई इन्द्रियचोरवस्से । 129. आया चेव अहिंसा । 132. आया चेव अहिंसा आया हिंसंति । 173. आयरिय-उवज्झाएहि । 196. आतुरा परितावेंति । 231. आहार-तणु सत्काराऽ । 304. आदाणहेडं अभिनिक्खमाहि । 349. आयरिय-उवज्झाए। 1571 1607 1621 267 5 483 494 5 612 5 612 881 979 5 1133-113 5 1277 5 1361 1358, 317, 418 5. 1549 5 1607 ui ui ui ui ui ui ui ui ui 412. आयारपण्णत्तिधरं । 456. आसं च छंदं च विगिंच धीरे । 160. इच्छालोभिते मोत्तिमग्गस्स पलिमंथू । 725 __ अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-50 182 Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 956 956 सक्ति नम्बर सक्ति का मन 189. इह खलु ! नाइ संजोगा नो ताणाए वा । 190. इह खलु काम-भोगा नो ताणाएवा । 252. इत्तो य बंभचेर....यमनियमगुणप्पहाणजुत्तं ।। 273. इमं च अबंभ चेर विरमण । 303. इहं तु कम्माइं पुरेकडाई । 435. इड्डि च सक्कारण ण पूयणं च । 460. इणमेव णावबुझंति जे जणा । 1259 1262 1277 1567 1607 Ur 1349 345. इंदियाणि कसाए य । 365. इंदिय विसयपसत्ता । 1364 612 1279 131. उच्चालियम्मि पाए । 311. उवेच्च भोगा पुरिसं चयंति । 314. उवणिज्जइ जीवियमप्पमायं । 347. उवकरणेहिं विहूणो । 427. उवसंते अविहेडए जे स भिक्खू । 1279 1356 1566-1571 5 436. उंछं चेर जीविय नाभिकंखे । 1567 485 486 493 555 51. एमेव इत्थी निलयस्स मज्झे । 57. एए य संगे समइक्क मित्ता । 82. एविदियत्थाय मणस्स अत्था । 102.1 एसो सो परिग्गहस्स फल । 124/ एतदेवेगेसिं महब्भयं भवति । 125. एत्थ विरते अणगारे दीहरायं तितिक्खते । 126. एतं मोणं सम्म अणुवासिज्जासि । 177. एए विसहोयंतो, पिंडं सोहेइ । 246. एक्का मणुस्स जाई । 250. एकश्चतुरोवेदाः ।। ui ui ui ui ui ui ui uiui 567 568 568 928 1257 1259 u ( अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-5 . 183 ) Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सक्ति माग पृष्ठ 5 1260-1261 1381 सत्ति का अश 257. एक्कम्मि बंभचेरे जम्मि य । 372. एकं ब्रह्मास्त्रमादाय । 296. एस धम्मे धुवे नियमे सासए । 466. एस वीरे पसंसिते । 85. एवं ससंकप्प विकप्पणासु । 1271 ui ui ui VI 1608 1. कपिलः प्राणिनां दया । 484 484 42. कम्मं च जाई मरणस्समूलं । 43. कम्मं च महोप्पभवं वदंति । 229. कण्णसोक्खेहिं सद्देहिं । 298. कडाण कम्माण न मोक्खो अस्थि । ui vui ui uiui vui 1093 1276 57 1278 486 . 492 306. कतारमेवा अणुजाइ कम्मं । का 56. कामाणुगिद्धिप्पभवं खु दुक्खं । 81. कायस्स फासं गहणं वयंति । 145. कामी कामे ण कामए । 293. कामभोगा य दुज्जया ।। की 155. कीवाऽवसगता गिहं। uiuiuium 646 1270 ui 648 357 24. कुम्मो इव गुत्तिदिए। 162. कुद्धा हणंति लुद्धा हणंति ।। uiu 835 371. कृत मोहास्त्रवैफल्यं । ui 1381 255. क्व यामः क्व नु तिष्ठामः । ui 1260 अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-5 . 184 Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुक्ति का अश अभिधान राजेन्द्रकोष भाग पष्ठ 562 114. खग्गि विसाणव्वं एगजाते । खं 417. खंती य मद्दऽज्जव, विमुत्तया । uiui 1564 1030 491 215. गज्जित्ता णाममेगे णो वासित्ता । 77. गन्धाणुरत्तस्स नरस्स एवं । गि 142. गिद्धनरा कामेसु मुच्छिया । 405. गिरं च दुटुं परिवज्जए सया । 428. गिहि जोगं परिवज्जए जे । 646 uiui ui uiuiui 1549 1566 281. गुतिदिए गुत्त बम्भयारी । 1267 YIN 75. घाणस्स गंधं गहणं वयंति ।। ui 490 487 1018 1018 1018 1018 1024 60. चक्खुस्स रुवं गहणं वयंति । 202. चत्तारि पुरिस जाता पन्नत्ता । 203. चत्तारि पुरिस जाता पणता । 204. चत्तारि सुता पन्नता । 205. चत्तारि फला-पणता । 206. चत्तारि पुरिस जाता-पन्नता । 207. चत्तारि पुफ्फा -पन्नत्ता । 208. चत्तारि पुरिस जाया-पन्नता । 210. चत्तारि पुरिस जाया-पन्नता । 214. चत्तारि पुरिस जाता-पन्नत्ता । 342. चउव्विहा बुद्धी पन्नत्ता, तं जहा । 424. चत्तारि वमे सया कसाए । vi vi ui ui ui ui ui ui ui ui ui ui 1026 5 1026-1027 1026 1029 1328 1566 अभिधान राजेन्द्र कोप में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-5 . 185 -- Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सक्ति का अंश माग छ । चा 5 928 181. चारितंमि असंतंमि निव्वाणं ।। चि 103. चित्तेऽन्तर्ग्रन्थगहने । 240. चित्तमंतमचित्तं वा । 370. चिते परिणतं यस्य । ui ui 556 1191 1381 u 39-40 382 382 493 485 486 1259 1259 1278 1308 10. जत्थेव धम्मायरियं पासिज्जा । 27. जस्स खलु दुप्पणिहिया । 28. जस्स वि य दुप्पणिहिआ । 35. जहा य अंडप्पभवा बलागा । 53. जहा दवग्गीपउरिंधणे वणे । 54. जहा य किंपागफला मणोरमा । 248. जम्मिय भग्गम्मि होइ सहसा । 253. जइ ठाणी, जइ मोणी जइ मुंडी । 309. जहेह सीहोव मियं गहाय मच्चू । 332. जहाऽऽइण्ण समारूढे । 333. जहा से तिमिर विद्धं से । 334. जहा से उडुवई चंदे । 337. जहा सा नईण पवरा । 338. जहा से सयंभुरमणे । 339. जहा से नागाण पवरे । 353. जह ते न पियं दुक्खं । 358. जह मक्कडओ खणमवि । 391. जत्थ संका भवे तं तु । 392. जमटुं तु न जाणेज्जा । 393. जहारिहमभिगिज्झ । ui ui ui ui ui ui ui ui ui uiuiuui ui ui uiuuu 1309 1309 1310 1310 1310 1362 1362 1544 1544 1545 134. जा जयमाणस्स भवे । 5 613 u अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-5 • 186 Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रिका अङ्ग 198. जागर्ति ज्ञान दृष्टिश्चेत् । 354. जावइयाई दुक्खाई होंति । जि 79. जिब्भाए रसं गहणं वयंति । 415. जिणसासणस्स मूलं भिक्खायरिया । जी 2. जीर्णे भोजनमात्रेयः । 237. जीवाऽजीवे अयाणंतो । 356. जीव अप्पवहो । जे 9. जे से पुरिसे देवि सन्नवेइ वि । 61. जे इंदियाणं विसयामणुन्ना । 89. जेणऽण्णो ण विसज्झेज्जा । 140. जे विण्ण वाहिऽज्झो सिया । 174. जे केइ उ इमे पव्वइए । 270. जेण सुद्ध चरिएण भवइ । 324. जे यावि होइ निव्विज्जे । 433. जेणऽन्नो कुप्पेज्ज न तं वएज्जा । 441. जे कम्हिचि न मुच्छिए स भिक्खू । 457. जेण सिया, तेण णो सिया । जो ● 30. जो गुण दोस । 133. जो य पमत्तो पुरिसो, । 346. जो जत्थ होई कुसलो । 416. जो भिदेइ खुहं खलु । 421. जो भिक्खू गुण रहिओ । 194. जंपिय इमं सरीए उरालं । 220. जं हिययं कलुसमयं । अभिधान राजेन्द्र कोष पृष्ठ 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 10 5 10 10 5 5 in in 5 5 10 5 5 अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-5• 187 991 1362 491 1560 2 1190 1362 38 487 547 645 881 1262 1306 1567 1568 1607 398 612 1353 1563 1565 957 1033 Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सक्ति का अश 221. जं हिययं कलुसमयं । 238. जं छेयं तं समायरे । 348. जं जं मणेण बद्धं । 355. जं किंचि सुह मुयारं । 1033 1190 1358 1362 563 565 566 647 1265 1590 117. ण सक्काण सोउं सदा । 120. ण सक्का रूवमदटुं । 122. ण सक्का रसमणासातुं । 148. ण विता अहमेबलुप्पए । 279. ण दप्पणं न बहुसो । 443. ण भातियव्वं भयस्स वा । णा 33. णाणस्स सव्वस्स पगासणाए। 275. णाति भत्तपाणभोयणभोई से णिग्गंथे । णि 272. णियम तव गुण - विनय मादिएहि । णो 121. णो सक्का ण गंधमग्घाउं । 123. णो सक्काण फासं संवेदेतु । 286. णो निग्गंथे अइमायाए । 482 1264 u u u uu u uu uuuuuuuuuuuuuuuu 1262 565 567 1269 490 37. तस्सेस मग्गो गुरुविद्धसेवा । 483 38. तस्सेस मग्गो गुरुविद्ध सेवा विवज्जणा । 483 48. तहा हया जस्स न होइ लोहो । 5 484 76. तण्हाभिभूयस्स अदत्तहारिणो । 153. तत्थ मंदा विसयंति । 183. तवं कुब्वइ मेहावी । 5 931 213. तमे नाम मेगे जोती। 1028 233. तहेव फरुसा भासा । . 1143 (( अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-5 • 188 647 Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिधान राजेन्द्र कोष नम्बर 1261 1262 1263 1264 सक्ति का अंश 265. तहेव इह लोइय पारलोइय । 271. तव संजम बंभचेर घातोवघातियाई । 274. तव-संजम बंभचेर घातोवघातियाओ । 276. तव-संयम-बंभचेर घातोवघातियाई । 277. तव-संजम-बंभचेर घातोवघातियाई । 278. तहा भोत्तव्वं-जहा से । 390. तहेव काणं 'काणे'त्ति । 402. तहेव सावज्ज णुमो य णीगिरा । 430. तवे रए सामणिए जे। ति 93. तिविहे परिग्गहे पन्नते ।। 382. तिउति पावकम्माणि । 383. तिउति तु उ मेधावी । uiuui ui ui ui ui ui uie 1264 1265 1543-1545 - 1548 1567 553 ui ui ui 1515 1515 CAN 858 169. तुल्लम्मि वि अवराहे । 375. तुलवल्लाधवोमूढा । 461. तुमं चैव तं सल्लमाहछु । ui ui ui 1381 1607 316. तूरन्ति राइओ। ui 1279 462. ते भो ! वदंति एयाई....नरगतिरिक्खाए । ui 1607 379. तैलपात्रधरोयद्वद् । ui 1480 2. भाभ 249. तो पढियं तो गुणियं । ui 1259 1260 258. तं बंभं भगवंतं....वेरुलिओ । 259. तं बंभं भगवंतं । ui ui 1260 अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-5 • 189 Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 360. तुंगं न मंदराओ। 5 1362 108. त्यक्ते परिग्रहे साधोः। 556 463. थीभि लोए पव्वहिते । 1607 993 200. दया भूतेषु वैराग्यं । 223. दयाम्भसा कृत स्नानः । 226. दत्तं यदुपकाराय । 1073 1076 254. दाणाणं चेव अभयदाणं । 1260. 484 40. दित्तं च कामा समभिवंति । 408. दिटुं मियं असंदिद्धं । 1549 228. दीनान्ध कृपणा ये तु। 1076 484 1165 41. दुक्खकं च जाई मरणं वयंति । 46. दुक्खं हयं जस्स न होइ मोहो । 235. दुविहे बंधे पन्नत्ते, तं जहा । 263. दुद्धरिसंगुणनाशमेक्कं । 366. दुर्लभा सात्त्विकी भक्तिः । 297. दुज्जए कामभोगे य। 1261 1365 1271 95. देवावि सइंदगा न तत्तिं । 137. देहे दुक्खं महाफलं । 262. देवरिंद णमंसिय पूर्य । 1261 - - अभियान सबेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-50 190 Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिधान राजेन्द्रकोष सक्ति का अंशमागपत्र। 295. देव दाणव गंधव्वा । 403. देवाणं मणुयाणं च, तिरियाणं च वुग्गहे । 1271 1548 357. दंसणभट्ठा भट्ठा, दंसण भट्ठस्स । 361. दंसण भट्ठो भट्ठो। 1362 1362 1076 225. धर्मस्याऽऽदिपदं दानं । 294. धम्मारामे चरे भिक्खू । 320. धम्मे ठिओ सव्वपयाणुकम्पी । 323. धर्मस्य दयामूलं न चाऽक्षमावान् । 359. धम्ममहिंसा समं नत्थि । 438. धम्मे ठिओ ठावयई परंपि । • 440. धम्मज्झाणरए य जे । 455. धर्मादपि भवन् भोगः । धु 150. धुणिया कुलियं व लेववं । vi vi ui ui ui ui ui ui uiui ui 1271 1280 1294 1362 1567 1567 1604 u 647 485 490 493 ui ui ui ui vi vi 524 555 613 52. न राग सत्तू धरिसेइ चित्तं। 72. न लिप्पई भवमझे वि संतो । 83. न कामभोगा समयं उवेति । 86. न सरणं बाला पंडितमाणिणो । 96. नत्थि एरिसो पासो पडिबंधो । 136. न य हिंसामित्तेणं । 144. न य संखयमाहु जीवियं । 164. न य अवेदयित्ता । 305. न तस्स माया व पिया । 310. न तस्स दुक्खं विभयंति । 317. न या वि भोगा पुरिमाण निच्चा । 322. नत्थि जीवस्स ससोत्ति । 646 843 1278 1278 1279 .5. unui ui ui en 1294 अभियान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस खण्ड-5. 191 Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभियान राजेन्द्र कार सब 1307 1362 1381 1543 1548 .1548 1566 1590 1608 361 546 646 सूक्ति का अंश 330. न य पावपरिक्खेवी । 351. न वि तं करेइ अग्गी । 373. न गोप्यं क्वापि ना रोप्यं । 389. न लवेज्ज पुट्ठो सावज्जं । 400. न लवे असाहुं साहुत्ति । 401. न हासमाणो वि गिरं वएज्जा । 426. न च वुग्गहिअं कहं कहेज्जा । 445. न भाइयव्वं । 467. न मे देति ण कुप्पेज्जा । ना 25. नाणी न विणा णाणं । 88. नाति कंडूइ तं सेयं । 143. नाइती वहति अबले विसीयति । 156. नातीणं सरती बाले । 180. नाणचरणस्समूलं । 201. ना गुणी गुणिनं वेत्ति । 290. नाइमत्तं तु भुजेज्जा। 398. नाणदंसणसम्पन्न । 465. नाति वातेज्ज कंचणं । नि 115. निरवकंखे जीवियमरणास। 135. निच्छयमवलंबंता । नो 282. नो निग्गंथे इत्थीणं कहं कहेज्जा । 283. नो निग्गंथे इत्थीणं इन्दियाई मणोहराई । 284. नो निग्गंथे इत्थीणं पुव्वरयं । 285. नो निग्गंथे पणीयं आहारं आहारेज्जा । 289. नो निग्गंथे विभूसाणुवाई सिया । 648 928 1006 1270 । 1548 1608 562 613 1268 1268 1269 1269 1269 अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-5 • 192 - Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिधान राजन्द्र काष सक्ति का अश U. U U U 7. पढमं पोरिसि सज्झायं । 13. पच्चक्खाणेणं इच्छानिरोहं जणयइ। 14. पच्चक्खाणेणं आसवदाराई निरूंभइ । 20. पडिसिद्धाणंकरणे, किच्चाणमकरणे य । 23. पडिक्कमणेणं वयच्छिद्दाई पिहेइ । 65. पदुट्ट चित्तो अ चिणाइ कम्मं । 101. परलोगम्मि य गट्ठा तमं पविट्ठा । 104. परिग्रहग्रहः कोऽयं विडम्बितजगत्त्रयः । 118. पणिहितिदिय चरेज्ज धम्मं । 157. परोपकारः पुण्याय । 182. पणीअं वज्जए रसं । 191. पत्तेयं जायति, पत्तेयं मरइ । 288. पणीयं भत्तपाणं तु खिप्पं मयविवड्ढणं । 488. पडिसेहितो परिणमेज्जा । 5 10 5. 103 ...' 5 103 5 271 318 489 555 556 5 565-566 697 931 U U. U U U U U 956 U 1270 U 1608 U 2 U 484 0 843 0 856 3. पाञ्चालः स्त्रीषु मार्दवम् ।। 44. पायंरसा दित्तिकरा नराणां । 163. पाणवहो चंडो रूद्दो अणारिओ। 168. पायच्छित्त करणेणं पावकम्मविसोहि । 190. पातयति नरकाऽऽदिष्विति पापम् । 171. पातयति पांशयतीति वा पापं । 224. पात्रे दीनादि वर्गे च । 343. पाठकाः पठिताश्च । 0 876 0 880 0 1076 1329 0 X V 152. पिब ! खाद च चारुलोचने । 329. पियंकरे पियंवाई, से सिक्खं । 411. पिट्ठिमंसं न खाएज्जा । ... पी 185. पीई सुन्नति पिसुणो . 647 1307 1549 5 U 5 U 939 अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-5 • 193 Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिधान राजेन्द्र काय माग पृष्ठ मुक्ति का अंश 5 112. पुक्खरं पत्तं व निरुवलेवे । 128. पुरिसा परमचक्खु ! विपरिक्कम । 368. पुव्वतव संजमा हों-ति एसिणा । 437. पुढवि समे मुणी हवेज्जा । ei uiui 561-562 568 1380 1567 4 199. पूर्णता या परोपाधेः । 5 991 4. 473 31. पंचैतानि पवित्राणि । 266. पंच महव्वय सुव्वयमूलं । 291. पंचविहे कामगुणे। 419. पंच य फासे महव्वयाई । uiuiuiui 1261 1270 1565 179. पिंड असोहयंतो अचरिती । 928 प्रा ui uiuium 848 855 953 165. प्राणेभ्योऽपि गुरुर्धर्मः । 167. प्राय: पाप विनिर्दिष्टं । 189. प्राप्तव्यो नीयतिबला । फा 80. फासेसु जो गेहिमुवेइ तिव्वं ।। बा 147. बालजणे पगब्भती। 492 ui u 646 242. बुज्झिज्ज तिउटेज्जा । 1191 ui u 4. बृहस्पतिरविश्वासः 4. 127. बंधपमोक्खो तुझऽज्झत्थेव । 5 568 अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-5 . 194 Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सक्ति का श अभिधान राजेन्द्र काष मान पष्ट 5 . 1259 247. बंभचेरं उत्तम तव । 267 una 1381 562 1515 1517 ui ui ui ui viu 1517 19. भत्तीइ जिनवराणं खिज्जंती । 374. भवसौख्येन किं भूरिभय । भा 113. भारण्डे चेव अप्पमत्ते ।। 381. भावणाजोग सुद्धप्पा । 384. भाव सच्चेणं भावविसोहिं जणयइ । 385. भावविसोहीए वट्टमाणे जीवे । 386. भासादोसं परिहरे।। 414. भासाए दोसे य गुणे य जाणिया । भी 446. भीतं खु भया अइति लहुयं । 447. भीती य भर णं नित्थरेज्जा । 448. भीतो तपसंजमं पि हु मुएज्जा । 449. भीतो अबितिज्जओ मणूसो । 450. भीतो भूतेहिं घिप्पइ । 451. भीतो अण्णंपि हु भेसेज्जा । 1543 1549 1590 ui ui ui ui ui ui 1590 1590 1590 1590 1590 394. भूओवघाइणि भासं । ui 1546 464. भेउर धम्म संपेहाए । ui 1607 318: भोगा इमे संगकरा हवंति । 453. भोगेहिं निरवयक्खा । 454. भोगी भोगे परिच्चयमाणे । ui ui ui 1279 1604 1604 32. मज्जं विसय कसाया निद्दा विगहा । vi 479 अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-5 • 195 Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5 564-566 645 1033 ui ui ui ui ui ui ui 1191 1294 1381 1566 सति का अंश 119. मणुन्नाऽमणुन्न सुब्भि दुब्भि । 141. मरणं हेच्च वयंति पंडिता । 217. महुकुंभे नाम एगे महुप्पिहाणे । 241. ममाती लुप्पती बाले । 321. मणंपि न पओसए। 376. मयूरी ज्ञानदृष्टिश्चेत् । 422. मणवयकाय सुसंवुडे जे । मा 11. माणं तुमं पएसी ! पुवि रमणिज्जे । 63. मायमुसं वड्ढइ लोभदोसा । 146. मा पच्छ असाहुया भवे । 313. माकासी कम्माणि महालयाणि । 380. माई अवणवाई। 388. मायं च वज्जए सया । मि 409. मिअं अदुटुं अणुवीई भासए । 40 5 489-490 646 ui ui ui ui unui 1279 1513 1543 ui 1549 387. मुसं परिहरे भिक्खू । ui 1543 A6 553 556 viui ui ui 556 1593 92. मूर्छ परिग्रहः । 106. मूर्छाच्छन्नधियां सर्वं । 109. मूर्च्छया रहितानां तु ।। 452. मूलाउ खंधप्पभओ दुमस्स । मो 47. मोहो हओ जस्स न होइ तण्हा । 66. मोसस्स पच्छा य पुरत्थओ य । 94. मोक्ख वरमोतिमग्गस्स । 158. मोहरिते सच्च वयणस्स पलिमंथू । unui vi ni 484 . 489 553-55 725 अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-5• 196 ) Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 98060658399368558 का अंश अभिधान राजन्द्रकाप भाग पृष्ठ 303633 556 105. यस्त्यक्त्वा तृणवद् बाह्य । 188. यस्य बुद्धि न लिप्येत । 377. यस्य गम्भीरमध्यस्या । 953 1479 यो 936 184. यो दद्यात् काञ्चनं मेरूं । 469. यो हि मितं भुङ्क्ते स बहुं भुङ्क्ते । 1611 344. य: क्रियावान् स पण्डितः । 1329 u uuu uuu uu uuu 39. रसापगामं न निसेवियव्वा । . 78. रसेसु जोगेहिमुवेइ तिव्वं । 484 491 104 15. राग-द्वेषौ यदि स्यातां ? 45. रागो य दासो विय कम्मबीयं । 58. रागस्सहेउं समणुनमाहु । 484 487 59. रूवेसु जो गेहिमुवेइ तिव्वं ।। 62. रूवे अत्तित्ते य परिग्गहम्मि । 5 5 487 488-489 848 166. रेचकः स्याद् बहिवृत्ति । लो 49. लोहो हओ जस्स न किंचणाई । 64. लोभाविले आयंयई अदत्तं । 91. लोभकलिकसायमहक्खंधो । 5 5 5 484 489 553 1279 312. वण्णं जरा हरइ नरस्स रायं । 328. वसे गुरुकले निच्चं । 1307 अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-5• 197 Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आमधान राजन्न काम ui 1549 367 486 सत सूक्ति का अंश 413. वएज्ज बुद्धे हियमाणुलोमियं । वि 17. विणया हीआ विज्जा । 55. विवित्तवासो मुणिणं पसत्थो ।। 175. विवायं च उदीरेइ । 245. वित्त सोयरिया चेव । 289. विभूसं परिवज्जेज्जा । 292. विसं तालउडंजहा। 362. विस्ससणिज्जो माया व होइ । 367. विविहाऽऽहि वाहि गेहं । 378. विषं विषस्य वह्वेश्च । 882 1192 u i ui ui ui ui ui ui ui ui 1270 1270 1363 1368 1480 5. वेयण वेयावच्चे। 244. वेरं वड्ढेति अप्पणो। 268. वेर विरमण पज्जवसाणं । u i ui ui 1191 1261 418. वंतं नो पडिया वियति जे । ui 1565 227. व्रतस्थालिङ्गिनः पात्र । 251. व्रतानां ब्रह्मचर्यं हि । ui ui 1076 1259 10 6. सज्झायं तु तओ कुज्जा । 21. सव्वस्स जीवरासिस्स । 22. सव्वस्स समण संघस्स । ui ui ui 26. सद्देसु य रुवेसु य, गंधेसु । 34. समाहिकामे समणे तवस्सी । 67. सद्दाणुवाएण परिग्गहेण । 68. सद्दाणुणागा साणुगए य जीवे ।। ui ui ui ui 317 317 1358 381 483 490 490 अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-5 • 198 Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिधान राजेन्द्रकोष पष्ट 490 490 490 555 549 560 725 928 1032 1071 1097 1143 सक्ति का अंश 71. सद्देसु जो गिद्धिमुवेइ तिव्वं । 73. सद्दे अत्तित्ते य परिग्गहम्मि । 74. समो य जो तेसु स वीयरागो । 98. सव्वदुक्ख संनिलयणं । 90. सवणे णाणे य विण्णाणे । 111. समे य जे सव्वपाणभूतेसु । 159. सव्वत्थ भगवता अणिताणता पसत्था । 178. समणत्तणस्स सारो । 216. समुदं तरामी तेगे समुदं तरति । 222. सज्झमसझं कज्जं । 230. सबंधयार-उज्जोओ । 234. सच्चा वि सा न वत्तव्वा । 236. सव्वभूयऽप्प भूयस्स । 243. सयं तिवायए पाणे । 261. सव्वसमुद्दमहोदधि तित्थं । 260. सव्वपवित्त सुनिम्मियसारं । 267. समणमणाइल साहुसुचिण्णं । 269. स एव भिक्खू जो सुद्धं । 299. सव्वं सुचिण्णं सफलं नराणं । 300. सव्वे कामा दुहावहा । 301. सव्वं नटं विडम्बियं । 302. सव्वे आभरणा भारा । 307. सकम्मबिइओ अवसो पयाइ । 350. सम्मइंसण रयणं । 404. सवक्क सुद्धि समुपेहिया मुणी । 423. सज्झायरए य जे स भिक्खू । 425. सम्मदिट्ठी सया अमूढे । 432. सव्व संगावगाए अ जे । 444. सप्पुरिसनिसेवियं च मग्गं भीतो । ui ui ui ui ui ui ui ui ui ui ui ui ui ui ui ui ui ui ui ui ui ui ui ui ui ui ui VI VI 1190 1191 1261 1261 1261 1262 1276 1277 1277 1277 1278 1362 1549 1566 1566 1567 1590 अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-5 • 199 Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिधान राजन्द्र काप माम 559 u 562 मुक्ति का अंश सा 12. साता गारवणि हुए। 1.6. सारयसलिलं सुद्धहियये । 1:4. सा समासओ तिविहा पणत्ता । 232. सामाइय-वयजुत्तो। 395. सावज्जं नाऽऽलवे मुणी। सि 264 सिद्धिविमाण अवंगुयदारं । u u 648 1136 1547 un u 1261 331. सीहे मियाणपवरे । u 1308 E 881 13101 uu u uu 1310 1327 1364 172. सुदुल्लहं लहिउं । 335. सुयस्स पुण्णा विपुलस्स ताइणो । 336. सुयमिहिट्ठिज्जा उत्तमट्ठ गवेसए । 341. सुस्सूसा पडिपुच्छइ- सुणेइ। 364. सुट्टवि मग्गिजंतो कत्थवि । से 308. से सोचई मच्चु मुहोवणीए । सो 69. . सोयस्स सदं गहणं वयंति । 239. सोच्चा जाणइ कल्लाणं । 1278 uuu 490 1190 555 979 99. संचिणंति मंदबुद्धी। 195. संति पाणा पूढोसिता । 352. संसारमूलबीयं मिच्छत्तं । 458. संतिमरण संपेहाए। i u uu 1362 1607 16. स्वस्थानाद् यत् परं स्थानं । 5 261 अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-5 • 200 Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 3308888888888888888888888888 अभिधान राजेन्द्र कोष सूक्ति का अंश 398 98858788 280. शक्यं ब्रह्मव्रतं घोरं । 5 1266-1282 8. हत्थिस्स य कुंथुस्स य ? 538 1033 1033 218. हिययमपावमकलुसं । 219. हिययमपावमकलुसं 327. हिरिमं पडिसंलीणे । 490. हियाहारा मियाहारा । 1307 1619 ज्ञा ___29. ज्ञानस्य ज्ञानिनां चैव । 5 389 अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-5 • 201 Page #210 --------------------------------------------------------------------------  Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 888 द्वितीय परिशिष्ट विषयानुक्रमणिका 3000000000000000000 Page #212 --------------------------------------------------------------------------  Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयानुक्रमणिका सूक्ति नम्बर सूक्ति शीर्षक (क्रमाङ्क - अ 39 14 281 अतिमात्रा में रस-वर्जन अपरिग्रह असत्य दुःखान्त असंतुष्ट अजातशत्रु 110 अहर्निश जागरुकता 130 अहिंसकत्व 135 अबूझ 147 अज्ञ; अभिमानी 189 अशरण भावना 190 अशरण चिन्तन 245 अशरण अनुप्रेक्षा अप्रमादी साधक 286 अति आहार-वर्जन 298 अवश्यमेव भोक्तव्य 304 अभिनिष्क्रमण 305 अन्तसमय रक्षक नहीं ! 310 अकेला दु:खभोक्ता 321 अदूषित मन 324 अबहुश्रुत कौन ? 326 अष्ट शिक्षाङ्ग 355 अहिंसा-फल 359 अहिंसाधर्म, श्रेष्ठ अहिंसा परमो धर्म, 385 अर्हद् धर्माराधन असत्य-वर्जन 397 अप्रिय-वचन-निषेध 406 अहितकारिणी भाषा-वर्जन 436 अनुच्छृखल भिक्षु 441 अनासक्त श्रमण 449 . . असहाय अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-5 • 205 360 387 31 Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कमाष्ठ 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 सूक्ति नम्बर 469 2 5 129 146 177 196 319 223 302 322 420 439 456 26 84 131 226 373 3333355 257 24 45 134 149 229 306 आ इ उ ए क सूक्ति शीर्षक अल्पभोजी निरोगी आयुर्वेद शास्त्र का सार आहारोद्देश्य आत्मा ही अहिंसा आत्मानुशासन आहार -शुद्धि से चारित्र - शुद्धि आतुर आर्य-कर्म आत्मदेव - पूजा आभूषण, भार आत्मा अमर आत्मवत् सर्वजीव आत्म-प्रशंसा से आशा तृष्णा-त्याग इन्द्रिय - निग्रह इन्द्रियवशी इर्यासमित साधक निष्पाप दूर उपयुक्त दान उस मुनि को भय कहाँ ? एकान्त सुख, मोक्ष एकान्त-प्रशस्त एक साधे सब सधै कच्छपवत् साधक कर्मबीज कर्म - निर्जरा हेतु कष्ट सहिष्णु कर्णेन्द्रिय विराग एवं तितिक्षा कर्म - छाया अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-5 • 206 Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रमा सक्ति नम्बर 343 345 382 388 सूक्ति शीर्षक कथनी करनी में एकरूपता कषाय कृशता कर्म-मुक्ति कपट-त्याग कषाय त्याज्य 424 145 54 57 88 142 155 288 कामेच्छु क्या न करें? कामशास्त्र का सार काम-भावना काम, किंपाक काम-विजय काम, खुजली कामासक्त मूच्छित कायर पलायनवादी कामवर्धक आहार काम-वर्जन काम, तालपुट काम, दुर्जेय काम, दुस्त्याज्य काम-भोग अनित्य काम, कर्मबन्धकारक कार्य-कुशलता काम-भोगों की असारता 291 292 293 297 317 318 346 364 380 किल्बिषिक भावना 27 कुमार्गगामी इन्द्रियाँ कुपितकारी भाषा-त्याग 433 46 426 कैसा मत बोलो ? 409, कौन प्रशंसनीय ? अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-5 • 207 Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 3833388888888888888888888883 388888 क्रमाङ्क सूक्ति नम्बर सूक्ति शीर्षक 87 378 काँटे से काँटा 308 क्यों पीछे पछताय ? गजस्नान 30 37 328 421 गुण-दोष गुरु-वृद्ध-सेवा गुरुकुल वास गुणहीन भिक्षु 75 77 गंध-वीतराग गंधासक्ति गंध-दमन 121 313 घोरपाप-वर्जन क 342 चतुर्धा-बुद्धि 152 181 चार्वाक दर्शन-मान्यता चारित्र-शुद्धि से मोक्षप्राप्ति चार प्रकार के श्रमण 214 64 चोरी 358 चंचल मन 42 104 105 106 191 जन्म-मरण मूल जन्म-मृत्यु जड़ पृथक्, आत्मा पृथक् 193 अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-5 • 208 Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रमाङ्क सूक्ति नम्बर स क्ति शीर्षक जहर ही जहर जरा जर, जर 107 221 108 312 - 109 110 52 273 341 जितेन्द्रिय जिनोपदेश जिज्ञासु के अष्ठ गुण 111 11 115. 112 113 114 115 116 144 जीवन अरमणीय नहीं ! जीवन-मरण से निरपेक्ष जीवनसूत्र जीवन-दान जीवन मृत्यु की ओर जीवों के प्रति आत्मवत् आदर्श 184 314 117353 पा 118 213 ज्योति 119 15 तपश्चरण-प्रयोजन तपश्चरण 120 183 121 त्वचेन्द्रियासक्ति से विनाश 122 तृष्णा-त्याग तृष्णा, क्षीण 123 0 124 320. 125 . 357 दयापरायण दर्शनभ्रष्ट, भ्रष्ट 126 127 225 227 दान, प्रथम सीढ़ी दान के योग्य पात्र दानाधिकारी 128 228 129 179 दीक्षा निरर्थक कब ? अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-5 • 209 Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 28888888 क्रमाङ्क सूक्ति सक्ति शीर्षक GAN 130 172 दुर्लभ बोधि-लाभ दुर्वचन त्याज्य 131 405 ON 132 386 दूषित भाषा-त्याग N 133 120 दृष्टि दमन 134 150 देह-कृश देव भी अतृप्त 135 4 136 169 203 दोष न्यूनाधिकता दोष-विकल्प 137 56 138 139 140 98 दुःख-मूल दुःखदायी कर्म दुःखों का घर दुःखद क्या ? दुःख का बँटवारा नहीं ! 141 300 142 192 143 235 द्विविध-बंधन 1 144 145 119 146 147 165 208 148 210 धर्मशास्त्र का सार धर्माचरण धर्म प्राणों से भी बढकर ! धर्मी-लक्षण धर्म और वेष धर्म-वाटिका धर्मध्यानरत भिक्षु धर्मतरुमूलः विनय धर्मोत्पन्न-भोग भी अनर्थ धर्म में स्थिर 149 150 294 440 452 151 152 153 455 438 अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-5. 210 Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रमाङ्क 154 155 156 157 158 159 160 161 162 163 164 165 166 167 168 169 170 171 172 173 174 175 176 177 178 179 180 सूक्ति नम्बर 295 301 48 72 107 114 143 159 445 212 316 368 370 381 391 392 395 396 403 4 435 31 32 91 94 96 97 ना नि नी निः सूक्ति शीर्षक नमनीय कौन ? नाच रंग विडम्बना निर्लोभ निर्लिप्त आत्मा निस्पृही की दृष्टि में: जगत् निरपेक्ष मुनि निर्बल, खिन्न निष्काम निर्भय रहो निरभिमान सेवा निशा निम्नोत्कृष्ट तप-संयम निर्भय ज्ञानाधिपति मुनि निष्काम साधना निश्चयात्मक वचन त्याज्य निश्चयात्मक भाषा - वर्जन निष्पाप वाणी निरवद्य भाषा निष्पक्ष साधक नीतिशास्त्र का सार निःस्पृही भिक्षु पञ्चपवित्र सिद्धान्त पञ्च प्रमाद परिग्रहः वटवृक्ष परिग्रहः अर्गला परिग्रहः जाल परिग्रह के विविध रूप अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-5 • 211 Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुछ 8898679888888888888888888 क्रमाङ्क सूक्ति नम्बर सूक्ति शीर्षक 100 101 102 104 108 181 182 183 184 185 186 187 188 189 190 191 124 परिग्रहासक्त परिग्रह-विपाक परिग्रह-पाप का कटु फल परिग्रह: ग्रह परिग्रहत्यागः कर्मक्षय परिग्रह, महाभय परम चक्षुष्मान् ! परिषह सहिष्णु परिग्रह बुद्धि, दु:ख-दूती परिहास-वर्जन परिणाम-बंध 128 148 240 412 471 192 193 194 195 196 197 198 199 348 170 171 173. 174 पाप-मिथ्या पाप-परिभाषा पाप-निरुक्ति पापश्रमण पापश्रमण पापश्रमण पापश्रमण पाप से अलिप्त कौन ? पापकर्म का बन्ध नहीं 175 176 188 200 201 157 202 200 203 202 204 पुण्य-पाप क्या ? पुण्यानुबन्धीपुण्य-हेतु पुरुष-प्रकार पुत्र-प्रकार पुरुष-प्रकृति पुरुष-गुण पुरुष-पहचान पुदगल-लक्षण 204 205 209 217 205 206 207 208 230 209 197 पूर्णता पूर्णता की प्रभा 210 __ 199 अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-5 • 212 Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सक्ति शीर्षक पूर्वभुक्त भोग की विस्मृति 211 284 P 212 437 पृथ्वीवत् क्षमाशील मुनि 213 185 पैशुन्य-परिणाम पैशुन्य, पीठ-मांस-भक्षण 214 411 . 215 231 पौषधव्रत न 216 462 पंडितजन-धारणा 217 186 पुंडरीक साधक र 218 219 220 221 20 222 22353 224 225 141 प्रत्याख्यान प्रत्याख्यान-लाभ प्रतिक्रमण प्रतिक्रमण क्यों ? प्रतिक्रमण-लाभ प्रकाम भोजन-वर्जन प्रमत्त-अप्रमत्त प्रबुद्ध साधक प्रणीत पदार्थ-त्याग प्रशान्त मुनि प्रत्येक शरीरी .. 182 227 468 228 195 229 167 प्रायश्चित्त प्रायश्चित्त-महत्ता 230 168 च 231 231 329 329 प्रियंकर प्रियवादी न 232 211 फलवद् आचार्य 233 331 बहुश्रुत, सिंहवत् अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-5 • 213 - Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कमाङ्क सूक्ति नम्बर 332 235 236 सूक्ति शीर्षक बहुश्रुत, अजेय बहुश्रुत, तपोज्ज्वल बहुश्रुत, सुधाकर बहुश्रुतता मुक्तिदायिनी बहुश्रुत, सर्वश्रेष्ठ बहुश्रुत, रत्नाकर बहुश्रुत, मन्दराचल 333 334 335 337 338 237 238 239 240 339 बा 241 86 103 242 243 बाल, अशरणभूत बाह्य निर्ग्रन्थता वृथा बाल-संग 340 244 410 399 245 246 बोले, बीच में नहीं बोल तराजू तोल बोलो, हंसते हुए नहीं ! 401 बं 247 127 बंध-मोक्ष स्वयं के भीतर बंधन से मोक्ष की ओर 248 242 249 250 251 252 253 254 51 247 248 252 253 256 258 259 261 263 255 256 ब्रह्मचर्यरत ब्रह्मचारी-निवास ब्रह्मचर्य, मूल ब्रह्मचर्यनाशः सर्वनाश ब्रह्मचर्य प्रधान ब्रह्मचर्य बिन सब व्यर्थ ब्रह्मचर्य-फल ब्रह्मचर्यः व्रतसम्राट ब्रह्मचर्य, भगवान् ब्रह्मचर्यः महातीर्थ ब्रह्मचर्यः अद्वितीय गुणनायक ब्रह्मचर्यः मुक्तिद्वार ब्रह्मचर्य श्रेयस्कर 257 258 259 264 260 261 265 262 267 ब्रह्मचर्य अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-5 • 214 Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 263 270 271 264 265 272 सूक्ति शीर्षक ब्रह्मचर्य-गरिमा ब्रह्मचारी क्या करे? ब्रह्मचर्यदृढ़ कैसे ? ब्रह्मचारी क्या न करें ? ब्रह्मचारी का व्यवहार ब्रह्मचारी का कार्य-कलाप ब्रह्मचर्य पालन दुष्करतम ब्रह्मचर्य से सिद्धि 266 267 268 269 270 274 276 277 280 296 271 19 272 187 351 374 273 274 275 276 भक्ति से कर्मक्षय भवितव्यता भयंकर आत्मशत्रु भयमुक्त ज्ञानसुख भवभीरू मुनि भयभीत मानव भवसागर से भयभीत 379 448 277 377 भा 233 384 '278 279 280 281 389 394 भाषा-विवेक भाव-विशुद्धि भाषा-विवेक भाषा-विवेक भाव भिक्षु 282 416 283 284 285 180 415 417 419 भिक्षा-शुद्धि भिक्षाचरी भिक्षु-लक्षण भिक्षु कौन ? भिक्षु कौन ? भिक्षु कौन ? 286 422 287 288 430 289 290 291 444 446 447 भीरु, असमर्थ भीरु, भयग्रस्त भीरु साधक अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-50 215 - Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नम्बर सूक्ति शीर्षक भीरु की दशा 292 451 4 293 450 भूताक्रान्त में 294 295 139 278 290 453 296 भोग, रोग भोजन ऐसा हो ! भोजन-मर्यादा भोग से निरपेक्ष भोगासक्ति, शल्य 297 298 461 299 361 भ्रष्ट कौन ? 300 ०८ 301 302 303 99 163 304 मन्त्र-सिद्धि मनोनिग्रह ममता मन्दमति महाभयंकर प्राणवध मधु-कलश ममत्वमति महाव्रत-मूल मनीषी-अभिव्यक्ति मद्यपान-मांसभक्षण में महापाप 305 306 307 308 218 241 266 413 300 250 310 63 311 136 माया-मृषा मात्र बाह्य हिंसा, हिंसा नहीं ! मानवमात्र एक 312 246 मु 87 313 314 315 113 372 मुनि की तटस्थ यात्रा मुनि, भारण्ड पक्षी मुनि, गजवत् निर्भय 316 153 __मूढ, विषादानुभव अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-5 • 216 Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रमाङ्क सूक्ति नम्बर सूक्ति शीर्षक म 309 317 318 मृत्यु की निर्दयता मृग-तृष्णा 457 319 215 मेघवत् दानी म 32035 321 322 323 324 325 326 460 मोह-तृष्णा मोक्ष-मार्ग मोह से कर्म मोहक्षय, दु:खक्षय मोह-विकार मोक्षान्वेषक मोहावृत्त पुरुष * 327 126 मौन-उपासना 328 307 यथा कर्म तथा गति 329 330 331 78 79 रस, उद्दीपक रसासक्त-अकाल मृत्यु रसना-वीतराग रसना-दमन रस-अनासक्ति 332 333 434 334 58 33582 336 255 राग-द्वेष के हेतु रागात्मा रागी-निरागी चिन्तन 337 59 33860 339 रूपासक्ति रूप-वीतराग रूप में अतृप्त 340 160 लोभ अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-5 • 217 Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 88888888 88888888 क्रमाङ्क सक्ति नम्बर सक्ति शीर्षक 341 342 343 10 275 390 427 344 वन्दना वही निर्गन्थ वचन-विवेक वही भिक्षु वही अणगार वही भिक्षु वही श्रमण 428 345 346 432 347 442 वा 348 41 349 350 158 400 वास्तविक दुःख वाचालता बनाम झूठ वाणी-विवेक वाक्-शुचिता वाणी कैसी हो ? 351 404 408 352 353 354 125 355 356 357 358 138 201 220 विनय बिन विद्या विरत अणगार विशिष्टात्मा सक्षम विरले हैं गुणी गुणानुरागी विषकुम्भपयोमुखम् विधिवत् दान विभूषा-निषेध विषयासक्ति विचारयुत वार्तालाप विषय-अनासक्ति 224 289 359 360 361 365 393 362 459 363 74 पंकज वीतराग कौन ? वीर प्रशंसनीय 364 466 365 244 वैर, स्वशत्रुता वैरनाशक औषध 366 268 367 251 व्रतराज ब्रह्मचर्य अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-5 • 218 Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | क्रमाङ्क सूक्ति नम्बर सक्ति शीर्षक 3689 व्यावहारिक-अव्यावहारिक 3698 370 34 371 372 76 70 373 111 137 374 151 234 269 299 375 376 377 378 379 380 381 382 383 384 385 386 387 388 311 315 350 362 375 431 सब में एक समाधिकामी तपस्वी सतृष्ण आश्रयहीन समाया मृषा-वृद्धि समभावी श्रमण सहिष्णु समाधिकामी सहिष्णु सत्य भी हेय सच्चा भिक्षु ! सत्कर्म सरसूखे, पंछी उड़े ! समय सम्यग्दर्शन रत्न-पूजा सत्यवादी-महिमा सशक्त और अशक्त सच्चा भिक्षु सदोष भाषा-वर्जन सच्चा भिक्षु सम्यक्दृष्टि सर्वभय मुक्त साधक समर्थत्यागी, कर्मनिर्जरा 414 418 425 443 389 454 12 222 390 391 392 393 394 395 396 397 232 249 260 279 347 साधक-चर्या साध्य-असाध्य सामायिक का महत्त्व सार्थक तभी ! सारभूत ब्रह्मचर्य साधु ऐसा आहार न करें ! साधनहीन असमर्थ सात्त्विकी भक्ति 366 अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-5 • 219 Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रमाङ्क सक्ति नम्बर - सक्ति शीर्षक 398 399 383 402 112 साधक जलकमलवत् साधु-वाणी साधक कैसा हो ? साधक क्रुद्ध न हो ! 400 401 467 402 सिद्धि-सूत्र 403 404 207 262 327 सुमन-सौरभवत् सुरनरपूजित, ब्रह्मचर्य सुविनीत, सुशिक्षित 405 406 330 118 140 407 408 409 410 216 237 349 411 संवृतेन्द्रिय संतीर्ण संकल्प-विकल्प संयम संघ-क्षमापना संसार-बीज संयत साधु कौन ? संतजनों की मीठी वाणी संप्रेक्षा संसार व्यथित 412 352 398 413 414 415 407 458 416 463 81 417 418 206 470 419 420 '421 123 106 156 स्पर्श-वीतराग स्वभाव-वैचित्र्य स्वचिकित्सक स्पर्श दमन स्पृही की दृष्टि में: जगत् स्मृति स्वाध्याय तप स्वार्थवश जीवपीड़ा स्वाध्यायरत 422 423 424 425 423 अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-5 • 220 Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रमाङ्क 426 427 428 429 430 431 432 433 434 435 436 437 438 439 440 441 442 443 444 445 446 447 सूक्ति नम्बर 285 282 283 67 69 71 116 367 464 325 369 36 303 7 109 178 429 117 238 239 254 स्ि 287 स्त्री श शि शी शु श्र श्रु श्रृं सूक्ति शीर्षक स्निग्धाहार वर्जित स्त्री- कथा - वर्जन स्त्री-सौन्दर्य - विरक्त शब्द - परिग्रह में अतृप्ति शब्द- वीतराग शब्दासक्त-अकाल मृत्यु शरदसलिलसम मुनिहृदय शरीरं व्याधि मंदिरम् शरीर, क्षणभङ्गुर शिक्षा - शत्रु शीघ्र मोक्ष शुद्ध मितभुक् शुभफल पूर्वकृत श्रमण-रात्रिचर्या श्रमण कौन ? श्रमणत्व - सार श्रमण वही श्रुतिदमन श्रेयस्कर आचरण श्रेयस्कर ग्राह्य श्रेष्ठदान श्रृंगार - वर्जन अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस खण्ड-5 • 221 Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रमाङ्क सूक्ति नम्बर सूक्ति शीर्षक ho 448 356 हत्या और दया ho 449363 हीरा छोड़ काँच को धावे he 450 219 हृदय घट पर विष-ढक्कन the 451 133 161 162 452 453 454 455 456 164 हिंसा-वृत्ति हिंसा हिंसा-प्रयोजन हिंसा-परिणाम हिंसा से वैर हिंसा-फल हिंसा-वर्जन 243 354 457 465 458 21 22 459 460 क्षमापना, प्राणीमात्र से क्षमापना क्षणभङ्गर शरीर क्षमापरायण 194 461 323 462 93 463 154 त्रिविध-परिग्रह त्रिविध-पर्षदा त्रिविध-प्राणायाम त्रिलोकपूजित कौन ? 464 166 465 105 466 ज्ञानी 467 468 469 198 344 ज्ञानावरणीय बंध ज्ञानदृष्टि, गारुडी मंत्रवत् ज्ञानानुरूप आचरण ज्ञानकवचधर वीर !! ज्ञानदृष्टि 470 371 471 376 अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-5• 222 Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय परिशिष्ट अभिधान राजेन्द्रः पृष्ठ संख्या अनुक्रमणिका भाग-५ Page #232 --------------------------------------------------------------------------  Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिधान राजेन्द्रः पृष्ठ संख्या अनुक्रमणिका सक्कि पर भाग सूक्ति 473 479 1. 2. 3. 4. 2 2 2 2 एवं भाग 7 पृ. 70 एवं भाग 7 पृ. 70 एवं भाग 7 पृ. 70 एवं भाग 7 पृ. 70 482 483 483 483 483 6. 10 483 484 484 484 484 484 484 484 484 38 10. 39-40 11. 40 12. 59 एवं भाग 6 पू 1406 13. 103 14. 10 15. 104 6. 261 267 एवं भाग 6 पू. 1089 267 19. 267 271 317 317-1358 318 357 361 484 484 484 485 485 485 3. . 485 486 486 381 486 27. 382 486 487 382 389 487 487 398 अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-5 • 225 Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूक्ति 61. 62. 63. 64. 65. 66. 67. 68. 69. 70. 71. 72. 73. 74. 75. 76. 77. 78. 79. 80. 81. 82. 83. 84. 85. 86. 87. 88. 89. 90. 3 BREAT सूक्ति 22 487 488-489 489-490 संख्या 553 553 553 553-555 555 555 555 555 555 555 555 555 556 556 556 556 556 556 557 560 560 561-562 562 562 562 562 563 91. 92. 93. 94. 489 489 95. 489 96. 490 97. 490 98. 99. 490 490 100. 490 101. 490 102. 490 103. 490 104. 490 105. 490 106. 491 107. 491 108. 491 109. 110. 492 492 111. 493 112. 493 113. 494 114. 495 115. 524 116. 525 117. 546 118. 547 119. 120. 549 एवं भाग 7 पृ. 412 121. अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-5226 564-565-566 564-566 565 565 Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठ कम क्रम संख्या 122. 123. 124. .566 567 647 648 153. 154. 155. 156. 567 648 125. 568 648 126. 157. 697 568 568 127. 158. 725 128 725 568 612 129. 160. 725 612 161. 835 130. 131. 612 162. 835 132 163. 612 612 133. 164. 165. 134. 135. 613 613 166. 136. 613 643 843 843 848 848 855 856 858 876 880 881 137. 138. 645 139. 167. 168. 169. 170. 171. 172. 173. 174. 645 645 645 140. 141. 142. 143. 646 881 646 881 144. 646 175. 176. 882 882 145. 646 146. 177. 928 646 646 147. 928 647 928 148. 149. 647 928 178. 179. 180. 181. 182. 183. 150. 647 928 647 931 151. 152. 647 931 अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-5 • 227 Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सक्ति संख्या 936 215. 184. 185. 186. 939 216. 1030 1032 1033 944 217. 187. 953 1033 218. 219. 188. 953 1033 189. 190, 956 956 956 191. 222. 192. 956 193. 956 220. 1033 221. 1033 1071 223. 1073 29.233 224. , 1076 四师61 2003 225. 1076 1076 194. 957 979 195. 16. 197. 979 991 198. 226. 227. 228. 1076 199. 1076 1093 200. 201. 991 991 993 1006 1018 1018 1018 229. 230. 1097 202. 1133-1139 231. 232. 203. 1136 204. 233. 1143 205. 1018 234. 1143 1024 235. 1026 236. 206. 207. 208. 209. 1026-1027 237. 1165 1190 1190 1190 1190 1191 1026-1034 238. 210. 239. 211. 240. 1026 1026 1026-1034 1028 1029 241. 212. 213. 1191 242. 1191 214. 243. 1191 THIST 种 子 -THIS • QW-5 • 228 Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सख्या क्रम 275. 1264 244. 245. 246. 247. 248. 249. 250. 1191 1192 1257 1259 1259 1259 1259 1259 1259 1259 1260 1260 251. 252. 253. 254. 255. 256. 257. 258. 259. 260. 1260 1260-1261 1260 290. 1260 1261 276. 1264 277. 1264 278. 1265 279. 1265 280. 1266-1282 281. 1267 282. 1268 283. 1268 284. 1269 285. 1269 286. 1269 287. 1269 288. 1270 289. 1270 1270 291. 1270 292. 1270 293. 1270 294. 1271 295. 1271 296. 1271 297. 1271 298. 1276 एवं भाग 7 पृ. 57 में हैं । 299. 1276 300. 1277 301. 1277 302. 1277 303. 1277 304. 1277 261. 262. 263. 1261 1261 1261 1261 264. 265. 1261 266. 1261 267. 268. 269. 270. 271. 1261 1261 1262 1262 1262 1262 1262 1263 272. 273. 274. अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-5 • 229 Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूक्ति End 305. 306. 307. 308. 309. 310. 311. 312. 313. 314. 315. 316. 317. 318. 319. 320. 321. 322. 323. 324. 325. 326. 327. 328. 329. 330. 331. 332. 333. 334. 335. TE संख्या 1278 1278 1278 1278 1278 1278 1279 1279 1279 1279 1279 1279 1279 1279 1280 1280 1294 1294 1294 1306 1306 1306 1307 1307 1307 1307 1308 1308 1309 1309 1310 सूक्ति ER 336. 337. 338. 339. 340. 341. 342. 343. 344. 345. 346. 347. 348. 349. 350. 351. 352. 353. 354. 355. 356. 357. 358. 359. 360. 361. 362. 363. 364. 365. E संख्या 1310 1310 1310 1310 1316 1327 1328 1329 1329 1349 1353 1356 1358 1361-1358 317-418 1362 1362 1362 1362 1362 1362 1362 1362 1362 1362 1362 1362 1363 1363-1364 1364 1364 अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस खण्ड-5 • 230 Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ REER पृष्ठ सख्या 397. 366. 367. 1548 1548 368. 398. 399. 400. 1548 369. 1548 370. 401. 1548 371. 402. 1548 403. 372. 373. 374. 404. 405. 406. 407. 375. 1548 1549 1549 1549 1549 1549 1549 376. 377. 408. 378. 409. 379. 410. 1549 1549 380. 381. 1365 1368 1380 1380 1381 1381 1381 1381 1381 1381 1381 1479 1480 1480 1513 1515 1515 1515 1517 1517 1543 1543 1543 1543 1543-1545 1544 1544 1545 1546 1547 1548 411. 412. 382.. 383. 384. 385. 386. 387. 388. 389. 413. 414. 415. 416. 417. 418. 419. 420. 421. 422. 1549 1549 1549 1560 1563 1564 1565 1565 1565 1565 1566 1566 1566 1566 1566 1566, 1571 390. 391. 392. 423. 393. 394. 395. 396. 424. 425. 426. 427. अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-5 . 231 Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सख्या 1566 1567 1593 1567 428. 429. 430. 431. 432. 433. सक्ति पृष्ठ क्रम संख्या 451. 1590 452. एवं भाग 6 पृ. 1170 में हैं 1604 454. 1604 455. 1604 456. 1607 1567 453. 1567 1567 434. 1567 435. 1567 1567 457. 1607 436. 458. 1607 437. 1567 459. 1607 438. 460. 439. 461. 440. 1567 1567 1567 1568 1571 462. 441. 463. 442. 443. 464. 1590 465. 1607 1607 1607 1607 1607 1608 1608 1608 1608 1611 1619 444. 1590 466. 445. 467. 1590 1590 446. 468. 447. 469. 448. 470. 1590 1590 1590 1590 471. 449. 450. 1621 अभियन गजेन्द्र कोष में, कि सुवास खण्ड:. अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-5 • 232 Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ परिशिष्ट जैन एवं जैनेतर ग्रन्थः अध्ययन / गाथा/ श्लोकादि अनुक्रमणिका Page #242 --------------------------------------------------------------------------  Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 20 464 जैन एवं जैनेतर ग्रन्थः गाथा/श्लोकादि अनुक्रमणिका क्रमांक सूक्ति क्रम अ./उ./गाथादि | क्रमांक सूक्ति क्रम अ./उ./गाथादि | आचारांग सूत्र आवश्यक नियुक्ति 195 1/1/2/11 | 32 18 2/1110 196 1/1/6/49 19 2/1110 456 1/2/4/43 232 2/800 457 1/2/4/83 4/1285 460 1/2/4/83 । उत्तराध्ययन सत्र 461 1/2/4/83 462 1/2/4/84 386 1/24 463 1/2/4/84 387 1/24 458 1/2/4/85 388 1/24 459 1/2/4/85 389 1/25 1/2/4/85 321 2/11 एवं 16 465 1/2/4/85 322 2/29 466 1/2/4/86 324 11/2 467 1/2/4/86 325 11/3 468 1/2/4/86 326 11/4-5 126 1/5/2/57 330 11/12 17 340 1/5/2/94 327 11/13 18 . 124 1/5/2/154 328 11/14 127 1/5/2/155 329 11/14 128 1/5/0/155 332 11/17 125 1/5/2/156 331 11/20 117 2/3/15/130 333 11/24 120 2/3/15/131 334 11/25 121 2/3/15/132 337 11/28 122 2/3/15/133 11/29 123 2/3/15/134 11/30 275 2/3/15/787 11/31 आचारांग नियुक्ति 11/32 13/10 246 1 13/10 आगमीय सूक्तावलि 13/16 13/16 29 251 29/133 पृ. 35 302 13/16 आवश्यक सूत्र 13/19 303 304 13/20 30 164 308 13/21 31 1704 305 13/22 339 338 335 336 298 299 300 301 अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-5 • 235 Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रमांक सूक्ति क्रम अ. /उ. / गाथादि | क्रमांक सूक्ति क्रम अ. /उ. / गाथादि 107 7 108 230 109 13 110 23 111 14 112 168 113 384 114 385 115 33 116 36 117 37 118 38 119 34 120 35 121 41 122 42 123 43 124 45 125 46 126 47 127 48 128 49 129 39 130 40 131 44 132 53 133 52 134 51 135 50 136 55 137 57 138 56 139 54 140 61 141 60 142 58 143 59 144 62 145 64 146 63 67 309 68 306 69 310 70 307 71 312 72 313 73 314 74 318 75 311 76 315 77 316 78 317 79 319 80 320 81 441 82 442 83 281 16/1 84 282 16/2 85 283 16/4 86 284 16/6 87 285 16/7 88 286 16/8 89 287 16/9 90 288 16/9 91 290 16/10 92 289 16/11 291 16/12 94 292 16/15 95 293 16/15 96 297 16/16 97 294 16/17 98 295 16/18 99 296 16/19 100 172 17/1 101 174 17/3 102 173 17/4 103 176 17/11 104 175 17/12 105 5 26/32 106 6 26/36 བའ་བ 13/22 13/23 13/23 13/24 13/26 13/26 13/26 13/27 13/31 13/31 93 13/31 13/31 13/32 13/32 15/2 15/16 26/43 28/12 29/13 29/13 29/13 29/18 29/52 29/52 32/2 32/2 32/3 32/3 32/4 32/6 32/7 32/7 32/7 32/7 32/8 32/8 32/8 32/8 32/10 32/10 32/10 32/11 32/12 32/13 32/15 32/16 32/18 32/19 32/20 32/21 32/22 32/23 32/24 32/29 32/29 32/30 अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-5 • 236 Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 65 161 22 163 22 165 83 दशवकालिक सूत्र 8888888888888888888888 क्रमांक सूक्ति क्रम अ./उ./गाथादि | क्रमांकसूक्ति क्रम अ./3./गाथादि 147 66 32/31 178 133 752-753 148 69 32/35 179 129 754 149 71 32/37 180 132 754 150 68 32/40 181 136 758 151 67 32/41 182 134 759 152 73 32/42 183 135 761 153 76 32/43 कल्पसबाधिका टीका 154 70 32/44 155 32/46 184 184 2/8 156 72 32/47 157 75 32/48 158 77 32/58 185 92 7/12 159 __79 32/61 तित्योगाली पयत्रा। 160 78 32/63 81 32/74 186 162 80 32/76 187 2 22 74 32/87 188 3 164 82 32/100 189 4 22 32/101 166 32/104 167 85 32/107 190 2364/-/32 191 238 4/-/34 । उत्तराध्ययन नियुक्ति 192 239. 4/-/34 168 32 180 193 237 4/-/35 169 416 375 194 182 5/2/42 195 183 5/2/42 उत्तराध्ययन चूर्णि 196 392 7/-/8 . 170 171 2 197 391 7/-/9 233 7/-/11 उत्तराध्ययन पाइ टीका 199 234 7/-/11 171 29 2 390 7/-/12 393 7/-/17-20 394 7/-/29 172 253 63 395 7/-/40 173 249 64 204 397 7/-/43 205 399 7/-/44 206 396 7/-/46 174 471 57 7/-/48 175 470 208 398 7/-/49 176 130 747 209 403 7/-/50 177 131 748-749 210 401 7/-/54 84 198 | অৰচামালা ओपनियुक्ति 4c0 578 अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-5 • 237 Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 219 क्रमांकसूक्ति क्रम अ./उ./गाथादि | क्रमांक सूक्ति क्रम अ./उ./गाथादि 211 402 7/-/54 249 27. 298 212 404 7/-/55 250 28 300 213 405 7/-/55 251 417 349 214409 7/-/55 252 421 356 ___413 7/-/56 द्वात्रिंशद्-द्वात्रिंशिका 216 414 7/-/56 217 229 8/-/26 253 166 22/17 218 137 8/-/27 धर्मरल प्रकरण सटीक __439 8/-/30 220 410 8/-/46 254 201 1/12 221 411 8/-/46 255 367 1/14 222 406 8/-/47 256 415 3/7 223 407 8/-/48 धर्मसंग्रह सटीक 224 408 8/-/48 225412 8/-/49 257 231 1/37 226 452 9/2/1 258 366 2/134 227 418 10/-/1 259 1673/228 419 10/-/5 260 348 3/229 420 10/-/5 नीतिवाक्यामृत __424 10/-/6 428 10/-/6 261 469 25/38 232 422 10/-/7 निशीथ भाष्य 233 425 10/-/7 431 10/-/8 262 25 75 235 423 10/-/9 263 368 3332 236 426 10/-/10 264 369 3335 237 427 10/-/10 265 345 3758 238 437 10/-/13 266 222 4157 430 10/-/14 267 30 5877 10/-/15 268 185 6212 241 432 10/-/16 242 434 10/-/17 243 435 10/-/17 269 341 120/85 244 436 10/-/17 245 433 10/-/18 246 440 10/-/19 270 157 4/101 247 438 10/-/20 [पचाशक सटीक दशवकालिक नियुक्ति | 271 15 5 विवरण 248 26 295 429 dobaad 2800 अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-50 238 Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2/9/27 282 95 क्रमांकसूक्ति क्रम अ./उ./गाथादि | क्रमांकसूक्ति क्रम अ./उ./गाथादि (पिण्ड नियुक्ति 310 262 2/9/27 311 263 2/9/27 272 177 88 312 264 2/9/27 273 178 313 265 2/9/27 274 180 100 314 266 2/9/27 275 179 101 315 267 2/9/27 276 181 102 316 268 '2/9/27 317 269 318 270 2/9/27 277 161 1/1/3 319 271 2/9/27 278 162 1/1/3 320 272 2/9/27 279 163 1/1/4 321 273 2/9/27 280 164 1/1/4 322 274 2/9/27 281 91 1/5/17 323 276 2/9/27 94 1/5/17 324 277 2/9/27 283 1/5/19 325 278 2/9/27 284 96 1/5/19 326 279 285 97 2/9/27 1/5/19 286 98 1/5/19 327 2/10/28 109 287 99 1/5/19 328 110 2/10/29 288 100 1/5/19 329 111 2/10/29 289 ___101 1/5/20 330 112 2/10/29 290 ___102 1/5/20 331 113 2/10/29 252 2/4/ 332 114 2/10/29 443 2/7/25 333 115 2/10/29 444 2/7/25 334 116 12/10/29 445 2/7/25 335 118 2/10/29 295 446 2/7/25 336 119 2/10/29 296 447 2/7/25 । प्रश्नव्याकरण सूत्र सटीक 297 448 2/7/25 298 449 2/7/25 337 255 4 299 450 2/7/25 प्रशमरति प्रकरण 300 451 2/7/25 301 247 2/9/27 338 323 168 302 248 2/9/27 ( बृहत्कल्पवृत्ति सभाष्य 303 254 2/9/27 304 256 2/9/27 339 154 1/3 305 257 2/9/27 बहदावश्यक भाष्य 306 258 2/9/27 307 259 2/9/27 340 380 1302 308 260 2/9/27 341 169 4974 309 261 2/9/27 342 17 5203 388666668686888888888888888 3863868686888 अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-5 . 239 Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रमांक सूक्ति क्रम अ. /उ. / गाथादि | क्रमांक सूक्ति क्रम अ. /उ. / गाथादि भगवती सूत्र राजप्रश्नीय सूत्र 2/5/ 7/7/20 7/8/2 18/7/10 25/7/ भक्तपरिज्ञा प्रकीर्णक 352 351 350 361 351 357 352 350 353 358 354 353 355 359 356 360 357 356 343 90 344 454 345 8 346 93 347 24 348 349 59 61 65 66 68 84 90 91 91 93 94 95 360 362 99 361 363 138 362 365 141 363 364 144 358 354 359 355 मरणसमाथि प्रकीर्णक 364 349 335 365 336 योगबिन्द 366 224 367 227 368 228 3.69 226 370 225 371 372 121 122 123 124 125 योगदृष्टि समुच्चय 165 455 58 160 373 374 375 376 377 9 10 11 379 378 280 ECHNIC 346 10/508 347 10/540 समवायांग सूत्र सटीक 185 191 194-199 1 सुभाषित रत्न भाण्डागार 250 104 सूत्रकृतांग सूत्र 1/1/1/1 1/1/1/2 1/1/1/3 1/1/1/3 1/1/1/4 1/1/1/5 1/1/4/1 1/1/4/2 1/2/1/13 1/2/1/14 1/2/2/21 1/2/3/2 1/2/3/2 1/2/3/3 1/2/3/5 1/2/3/6 1/2/3/7 1/2/3/8 1/2/3/8 1/2/3/10 1/3/1/13 1/3/1/16 1/3/1/17 380 381 382 383 244 384 241 385 245 386 86 387 87 388 148 389 150 390 144 391 139 392 140 393 138 394 143 395 145 396 146 397 141 398 142 399 147 400 153 401 156 402 155 403 88 404 89 242 240 243 1/3/3/13 1/3/3/19 अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-5• 240 Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रमांकसूक्ति क्रम अ./3./गाथादि क्रमांकसूक्ति क्रम अ./3/गाथादि 405 12 1/8/-/18 438 220 4/4/4/360(28) 406 151 1/10/-/14 439 221 4/4/4/360(29) 407 381 1/15/-/5 440 342 4/4/4/364 408 382 1/15/-/6 441 158 6/6/-/529 409 383 1/15/-/6 442 159 6/6/-/529 410 187 2/1/-/ 443 160 6/6/-/529 411 149 2/1/-/13 444 210 10/9/-/743 412 189 2/1/-/13 स्यामरा सत्र सटीक 413 190 2/1/-/13 414 191 2/1/-/13 445 343 4/4 415 192 2/1/-/13 446 344 4/4 416 193 2/1/-/13 417 194 2/1/-/13 447 152_ 82 448 449 31 13/2 200 24/8 वाताधयकमा 453 1/9/31 SR00809 450 1/2 1/4 418 186 156 सस्तारक एकाका 419 • 21 105 स्यानाम पर 420 235 22/4/107 421 204 4/4/1/240 422 205 4/4/1/253 423 202 4/4/1256 424 203 4/4/1256 425 206 4/4/3/312(4) 207 4/4/3/319(4) 4/4/3/319 428 4/4/3/319 211 4/4/3/319 430 212 4/4/3/319 431 213 4/4/3/327 432 214 4/4/3/329 433 215 4/4/4/346(4) •434 216 4/4/4/359 435 217 4/4/4/360(4) 436 218 4/4/4/360(26) 219 4/4/4/360(27) 451 452 453 454 455 208 199 198 197 188 374 373 372 376 371 375 370 377 379 __1/6 4/3 17/2 17/3 17/4 17/5 17/6 209 460 17/7 462 17/8 22/1-2-3-4-5 22/6 22/7 25/1 25/3 378 465 6 104 105 अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-50 241 - Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रमांकसूक्ति क्रम अ./3/गाथादि | क्रमांकसूक्ति क्रम अ./3/गाथादि 467 103 25/4 | 470 107 25/8 468 108 25/5 471 223 29/1-2 469 106 25/8 जय गोद कर अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-5 • 242 लिया .१० Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चम परिशिष्ट 'सूक्ति-सुधारस' में प्रयुक्त संदर्भ-ग्रंथ सूची * Page #252 --------------------------------------------------------------------------  Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट-५ crimi triórios à 9 = 12. 13. 15. 16. आचारांग सूत्र आचारांग नियुक्ति आवश्यक सूत्र आवश्यक नियुक्ति आगमीय सूक्तावली उत्तराध्ययन सूत्र उत्तराध्ययन नियुक्ति उत्तराध्ययन चूर्णि उत्तराध्ययन पाइ टीका उपदेशमाला ओघनियुक्ति कल्पसुबोधिका टीका तत्त्वार्थ सूत्र तित्थोगालीय पयन्ना दशवैकालिक सूत्र दशवैकालिक नियुक्ति द्वात्रिंशत्-द्वात्रिंशिका धर्मसंग्रह धर्मरत्न प्रकरण सटीक नीतिवाक्यामृत निशीथ भाष्य नन्दी सूत्र . पञ्चाशक सटीक पञ्चतन्त्र पिण्ड नियुक्ति प्रश्नव्याकरण सूत्र प्रश्नव्याकरण सटीक प्रशमरति प्रकरण बृहत्कल्पवृत्ति सभाष्य बृहदावश्यक भाष्य भगवती सूत्र भक्तपरिज्ञा प्रकीर्णक 17. 18. 19. 20. अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-5 . 245 Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणसमाधि प्रकीर्णक योगबिन्दु योगदृष्टि समुच्चय राजप्रश्नीय सूत्र व्यवहार भाष्य समवायांग सूत्र सुभाषितरत्न भाण्डागार सूत्रकृतांग सूत्र सूत्रकृतांग नियुक्ति सूत्रकृतांग सटीक संस्तारक प्रकीर्णक स्थानांग सूत्र स्थानांग सूत्र सटीक षड्दर्शन समुच्चय हारिभद्रीयाष्टक ज्ञाताधर्मकथा सूत्र ज्ञानसाराष्टक 47. 49. अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-5 . 246 Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 388 &000000000288888888bandoi: Son2888 888 EHREEEEEEE विश्वपूज्य प्रणीत सम्पूर्ण वाङ्मय 8 988888 IBRARTHI L 93338 Page #256 --------------------------------------------------------------------------  Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विश्वपूज्य प्रणीत सम्पूर्ण वाङ्मय अभिधान राजेन्द्र कोष [1 से 7 भाग] अमरकोष (मूल) अघट कुँवर चौपाई अष्टाध्यायी अष्टाह्निका व्याख्यान भाषान्तर अक्षय तृतीया कथा (संस्कृत) आवश्यक सूत्रावचूरी टब्बार्थ उत्तमकुमारोपंन्यास (संस्कृत) उपदेश रत्नसार गद्य (संस्कृत) उपदेशमाला (भाषोपदेश) उपधानविधि उपयोगी चौवीस प्रकरण (बोल) उपासकदशाङ्गसूत्र भाषान्तर (बालावबोध) एक सौ आठ बोल का थोकड़ा कथासंग्रह पञ्चाख्यानसार कमलप्रभा शुद्ध रहस्य कर्तुरीप्सिततमं कर्म (श्लोक व्याख्या) करणकाम धेनुसारिणी कल्पसूत्र बालावबोध (सविस्तर) कल्पसूत्रार्थ प्रबोधिनी कल्याणमन्दिर स्तोत्रवृत्ति (त्रिपाठ) कल्याण (मन्दिर) स्तोत्र प्रक्रिया टीका काव्यप्रकाशमूल कुवलयानन्दकारिका केसरिया स्तवन खापरिया तस्कर प्रबन्ध (पद्य) गच्छाचार पयन्नावृत्ति भाषान्तर गतिषष्ठया - सारिणी अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-5 • 249 Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्रहलाघव चार (चतुः) कर्मग्रन्थ - अक्षरार्थ चन्द्रिका - धातुपाठ तरंग (पद्य) चन्द्रिका व्याकरण (2 वृत्ति) चैत्यवन्दन चौवीसी चौमासी देववन्दन विधि चौवीस जिनस्तुति चौवीस स्तवन ज्येष्ठस्थित्यादेशपट्टकम् . जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति बीजक (सूची) जिनोपदेश मंजरी तत्त्वविवेक तर्कसंग्रह फक्किका तेरहपंथी प्रश्नोत्तर विचार द्वाषष्टिमार्गणा - यन्त्रावली दशाश्रुतस्कन्ध सूत्रचूर्णी दीपावली (दिवाली) कल्पसार (गद्य) दीपमालिका देववन्दन दीपमालिका कथा (गद्य) देववंदनमाला घनसार - अघटकुमार चौपाई ध्रष्टर चौपाई धातुपाठ श्लोकबद्ध धातुतरंग (पद्य) नवपद ओली देववंदन विधि नवपद पूजा नवपद पूजा तथा प्रश्नोत्तर नीतिशिक्षा द्वय पच्चीसी पंचसप्तति शतस्थान चतुष्पदी पंचाख्यान कथासार पञ्चकल्याणक पूजा अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-5 • 250 Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चमी देववन्दन विधि पर्दूषणाष्टाह्निका - व्याख्यान भाषान्तर पाइय सद्दम्बुही कोश (प्राकृत) पुण्डरीकाध्ययन सज्झाय प्रक्रिया कौमुदी प्रभुस्तवन - सुधाकर प्रमाणनय तत्त्वालोकालंकार प्रश्नोत्तर पुष्पवाटिका प्रश्नोत्तर मालिका प्रज्ञापनोपाङ्गसूत्र सटीक (त्रिपाठ) प्राकृत व्याकरण विवृत्ति प्राकृत व्याकरण (व्याकृति) टीका प्राकृत शब्द रूपावली बारेव्रत संक्षिप्त टीप बृहत्संग्रहणीय सूत्र चित्र (टब्बार्थ) भक्तामर स्तोत्र टीका (पंचपाठ) भक्तामर (सान्वय - टब्बार्थ) भयहरण स्तोत्र वृत्ति भतरीशतकत्रय महावीर पंचकल्याणक पूजा महानिशीथ सूत्र मूल (पंचमाध्ययन) मर्यादापट्टक मुनिपति (राजर्षि) चौपाई रसमञ्जरी काव्य राजेन्द्र सूर्योदय लघु संघयंणी (मूल) ललित विस्तरा वर्णमाला (पाँच कक्का) वाक्य-प्रकाश बासठ मार्गणा विचार विचार - प्रकरण अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-5 • 251 Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विहरमाण जिन चतुष्पदी स्तुति प्रभाकर स्वरोदयज्ञान - यंत्रावली सकलैश्वर्य स्तोत्र सटीक सद्य गाहापयरण (सूक्ति-संग्रह) सप्ततिशत स्थान-यंत्र सर्वसंग्रह प्रकरण (प्राकृत गाथा बद्ध) साधु वैराग्याचार सज्झाय सारस्वत व्याकरण (3 वृत्ति) भाषा टीका सारस्वत व्याकरण स्तुबुकार्थ (1 वृत्ति) सिद्धचक्र पूजा सिद्धाचल नव्वाणुं यात्रा देववंदन विधि सिद्धान्त प्रकाश (खण्डनात्मक) सिद्धान्तसार सागर (बोल-संग्रह) सिद्धहैम प्राकृत टीका सिंदूरकर सटीक सेनप्रश्न बीजक शंकोद्धार प्रशस्ति व्याख्या षड् द्रव्य विचार षड्द्रव्य चर्चा षडावश्यक अक्षरार्थ शब्दकौमुदी (श्लोक) 'शब्दाम्बुधि' कोश शांतिनाथ स्तवन हीर प्रश्नोत्तर बीजक हैमलघुप्रक्रिया (व्यंजन संधि) होलिका प्रबन्ध (गद्य) होलिका व्याख्यान त्रैलोक्य दीपिका - यंत्रावली । अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-5 • 252 Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लेखिका द्वय की महत्त्वपूर्ण कृतियाँ 38888888888 अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-5. 295 अभिध रस खण्ड-5.253 Page #262 --------------------------------------------------------------------------  Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लेखिकाद्वय की महत्त्वपूर्ण कृतियाँ __ आचाराङ्ग का नीतिशास्त्रीय अध्ययन (शोध प्रबन्ध) . लेखिका : डॉ. प्रियदर्शनाश्री, एम. ए. पीएच.डी. २. आनन्दघन का रहस्यवाद (शोध प्रबन्ध) लेखिका : डॉ. सुदर्शनाश्री, एम. ए., पीएच.डी. ३. अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस (प्रथम खण्ड) ४. अभिधान राजेन्द्रकोष में, सूक्ति सुधारस (द्वितीय खण्ड) ५. अभिधान राजेन्द्रकोष में, सूक्ति-सुधारस (तृतीय खण्ड) ६. अभिधान राजेन्द्रकोष में, सूक्ति-सुधारस (चतुर्थ खण्ड) ७. अभिधान राजेन्द्रकोष में, सूक्ति-सुधारस (पंचम खण्ड) ८. अभिधान राजेन्द्रकोष में, सूक्ति-सुधारस (षष्ठम खण्ड) ९. अभिधान राजेन्द्रकोष में, सूक्ति-सुधारस (सप्तम खण्ड) १०. 'विश्वपूज्य' : (श्रीमद्ाजेन्द्रसूरिःजीवन-सौरभ) (अष्टमखण्ड) ११. अभिधान राजेन्द्र कोष में, जैनदर्शन वाटिका (नवम खण्ड) १२. अभिधान राजेन्द्र कोष में, कथा-कुसुम (दशम खण्ड) १३. राजेन्द्र सूक्ति नवनीत (एकादशम खण्ड) १४. जिन खोजा तिन पाइयाँ (प्रथम महापुष्प) १५. जीवन की मुस्कान (द्वितीय महापुष्प) १६. सुगन्धित-सुमन (FRAGRANT-FLOWERS) (तृतीय महापुष्प) प्राप्ति स्थान : श्री मदनराजजी जैन द्वारा - शा. देवीचन्दजी छगनलालजी आधुनिक वस्त्र विक्रेता, सदर बाजार, पो. भीनमाल-३४३०२९ जिला-जालोर (राजस्थान) 6 (02969) 20132 अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-50255 Page #264 --------------------------------------------------------------------------  Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजेन्द्र कोष ७ 'अभिधान राजेन्द्र कोष' : एक झलक विश्वपूज्य ने इस बृहत्कोष की रचना ई. सन् 1890 सियाणा (राज.) में प्रारम्भ की तथा 14 वर्षों के अनवरत परिश्रम से ई. सन् 1903 में इसे सम्पूर्ण किया। इस विश्वकोष में अर्धमागधी, प्राकृत और संस्कृत के कुल 60 हजार शब्दों की व्याख्याएँ हैं । इसमें साढे चार लाख श्लोक हैं। इस कोष का वैशिष्ट्य यह है कि इसमें शब्दों का निरुपण अत्यन्त सरस शैली में किया गया है । यह विद्वानों के लिए अविरलकोष है, साहित्यकारों के लिए -यह रसात्मक हैं, अलंकार, छन्द एवं शब्द-विभूति से कविगण मंत्रमुग्धहो जाते हैं । जन-साधारण के लिए भी यह इसी प्रकार सुलभ है, जैसे-रवि सबको अपना प्रकाश बिना भेदभाव के देता है । यह वासन्ती वायु के समान समस्त जगत् को सुवासित करता है। यही कारण है कि यह कोष भारत के ही नहीं, अपितु समस्त विश्वविद्यालयों एवं महाविद्यालयों में उपलब्धहै। विश्वपूज्य की यह महान् अमरकृति हमारे लिए ही नहीं, वरन् विश्व के लिए वन्दनीय, पूजनीय और अभिनन्दनीय बन गई है। यह चिरमधुर और नित नवीन है Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विश्वपूज्य श्रीमद् राजेन्द्रसूरिजी गुरु मन्दिर (भीनमाल) विश्वपूज्य गुरुदेवश्री द्वारा प्रदत्त अभिधान राजेन्द्र कोष : अलौकिक चिन्तन लाजEF15 अविकारी बनो, विकारी नहीं ! भिक्षुक (श्रमण) बनो, भिखारी नहीं ! धार्मिक बनो, अधार्मिक नहीं ! नम्र बनो, अकुड़ नहीं ! राम बनो, राक्षस नहीं ! जेताविजेता बनो, पराजित नहीं ! न्यायी बनो, अन्यायी नहीं ! द्रष्टा बनो, दृष्टिरागी नहीं ! कोमल बनो, क्रूर नहीं ! षट्काय रक्षक बनो, भक्षक नहीं ! tox