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किसी के दबाव से असाधु को साधु नहीं कहना चाहिए । साधु को ही साधु कहना चाहिए। 401. बोलो, हँसते हुए नहीं ! न हासमाणो वि गिरं वएज्जा ।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 1548]
- दशवकालिक 7/54 हँसते हुए नहीं बोलना चाहिए। 402. साधु-वाणी
तहेव सावज्जणुमोयणी गिरा, ओहारिणी जा य परोवघाइणी ।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 1548]
- दशवैकालिक 7/54 श्रेष्ठसाधु पापकारी, निश्चयकारी और जीवोपघातकारी भाषा का प्रयोग न करे। 403. निष्पक्ष साधक
देवाणं मणुयाणंच, तिरियाणं च वुग्गहे। अमुयाणं जओ होउ, मा वा होउत्ति नो वए ।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 1548]
- दशवैकालिक 7/50 देव, मनुष्य तथा तिर्यञ्च जब परस्पर युद्ध करते हों, तब 'इसकी जय हो और इसकी पराजय हो'-ऐसा वचन नहीं बोलना चाहिए, क्योंकि ऐसा बोलने से एक प्रसन्न होता है और दूसरा अप्रसन्न । अत: ऐसी दु:खद स्थिति साधक को उपस्थित करना उपयुक्त नहीं है। 404. वाक्-शुचिता सवक्कसुद्धि समुपेहिया मुणी ।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 1549]
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अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-5 . 163
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