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- दशवैकालिक 7/35. मुनि सदा वचन-शुद्धि का विचार करें । 405. दुर्वचन त्याज्य गिरं च दुटुं परिवज्जए सया ।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 1549]
- दशवैकालिक 7/35 दुष्ट भाषा का सदा परित्याग करें। 406. अहितकारिणी भाषा-वर्जन
अप्पत्तियं जेण सिया, आसु कुप्पेज्ज वा परो । सव्वसो तं न भासेज्जा, भासं अहियगामिणि ॥
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 1549]
- दशवैकालिक 8/47 जिस भाषा के बोलने से अप्रीति या अप्रतीति (अविश्वास) पैदा हो अथवा दूसरा सुननेवाला शीघ्र ही कुपित होता हो, ऐसी अहित करनेवाली भाषा सर्वथा मत बोलो। 407. संतजनों की मीठी वाणी अयंपिरमणुव्विग्गं भासं निसिर अत्तवं ।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 1549]
- दशवैकालिक 8/48 आत्मार्थी साधक वाचालता रहित और किसीको भी उद्विग्न नहीं करनेवाली वाणी बोले। 408. वाणी कैसी हो ? दिटुं मियं असंदिद्धं, पडिपुण्णं वियं जियं ।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 1549]
- दशवैकालिक 8/48 आत्मविद् साधक दृष्ट (अनुभूत) सीमित, असंदिग्ध, परिपूर्ण और स्पष्टवाणी का प्रयोग करे। _ अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-5 • 1640
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• खण्ड-5.164