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________________ - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 856] - उत्तराध्ययन 29/08 प्रायश्चित्त करने से जीव पापों की विशुद्धि करता है एवं निरतिचार निर्दोष बनता है । सम्यक् प्रकार से प्रायश्चित्त स्वीकार करनेवाला साधक मार्ग और मार्गफल को निर्मल करता है । आचार और आचार-फल की आराधना करता है। 169. दोष न्यूनाधिकता तुल्लम्मि वि अवराहे, परिणामवसेण होइ णाणत्तं । __- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 858] - बृह. भाष्य 4974 बाहर में समान अपराध होने पर भी अन्तर में परिणामों की तीव्रता व मन्दता सम्बन्धी तरतमता के कारण दोष की न्यूनाधिकता होती है। 170. पाप-परिभाषा पातयति नरकाऽऽदिष्विति पापम् । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 876] - आवश्यक नरकादि दुर्गतियों में जो गिराता है, वह पाप है। 171. पाप-निरक्ति पातयति पांशयतीति वा पापं । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 880] - उत्तराध्ययन चूर्णि-2 एवं आचारांग 122 सटीक जो आत्मा को बांधता है अथवा गिराता है, वह पाप है । 12. दुर्लभ बोधि-लाभ सुदुल्लहं लहिउं बोहिलाभं विहरेज्ज । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 881] - उत्तराध्ययन 174 अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-5 • 100
SR No.002320
Book TitleAbhidhan Rajendra Koshme Sukti Sudharas Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadarshanashreeji, Sudarshanashreeji
PublisherKhubchandbhai Tribhovandas Vora
Publication Year1998
Total Pages266
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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