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- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 848] - योगदृष्टि समुच्चय 58
एवं द्वात्रिंशद् द्वात्रिंशिका सटीक 20 दीप्रा दृष्टि में रहा हुआ साधक का मन:स्तर इतना ऊँचा हो जाता है कि वह निश्चित रूप से धर्म को प्राणों से भी बढ़कर मानता है। वह धर्म के लिए प्राणों का त्याग कर देता है, किन्तु प्राणघातक संकट आ जाने पर भी धर्म को नहीं छोड़ता। 166. त्रिविध-प्राणायाम
रेचकः स्याद् बहिर्वृत्ति-रन्तर्वृत्तिश्च पूरकः । कुम्भकस्तम्भवृत्तिश्च, प्राणायामस्त्रिधेत्ययम् ॥
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 848]
- द्वात्रिंशद् द्वात्रिंशिका 22/17 प्राणायाम तीन प्रकार के होते हैं-रेचक, पूरक और कुम्भक । बहिर्वृत्ति को, बाह्यभाव को बाहर फेंकना 'रचक' है, अन्तर्वृत्ति ग्रहण करना 'पूरक' है और उसी अन्तर्वृत्ति को हृदय में स्थिर करना 'कुंभक' है । 167. प्रायश्चित्त प्रायः पाप विनिर्दिष्टं, चित्तं तस्य च विशोधनम् ।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 855]
- धर्मसंग्रह - 3 अधि. 'प्राय:' शब्द का अर्थ पाप है और 'चित्त' का अर्थ है उस पाप का शोधन करना अर्थात् पाप को शुद्ध करनेवाली क्रिया को 'प्रायश्चित्त' कहते हैं। 168. प्रायश्चित्त-महत्ता
पायच्छित्तकरणेणं पावकम्मविसोहिं जणयइ निरइगारे यावि भवइ । सम्मं च णं पायच्छित्तं पडिवज्जमाणे मग्गं च मग्गफलं च विसोहेइ आयारं च आयरफलं च आराहेइ ।
अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-5 • 99