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________________ सेवाव्रती सुदुर्लभ बोधि-लाभ की प्राप्ति के लिए विचरण करे । 173. पापश्रमण आयरिय-उवज्झाएहिं सुयं विणयं च गाहिए । ते चेव खिसई बाले, पाव समणेत्ति वुच्चई ॥ श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 5 पृ. 881] - उत्तराध्ययन 17/4 जिन आचार्य, उपाध्याय से श्रुत और विनय सीखा है उन्हीं की जो निंदा करता है, वह अज्ञ भिक्षु पापश्रमण कहलाता है । 174. पापश्रमण जे केइ उ इमे पव्वइए निद्दासीले पकासो । भुच्चा पिच्चा सुहं सुयई, पावसमणेति वच्चई ॥ श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 881 ] - उत्तराध्ययन 173 जो श्रमण प्रव्रजित होकर बहुत नींद लेता है और खा पीकर आराम से लेट जाता है, वह 'पापश्रमण' कहलाता है । 175. पापश्रमण विवायं च उदीरे, अधम्मे अत्तपन्नहा । दुग्गहे कलहे रत्ते, पाव समणेत्ति वुच्चई ॥ उत्तराध्ययन 17/12 जो श्रमण शान्त हुए विवाद को फिर से भड़काता है, जो सदाचार से शून्य होता है; जो अपनी प्रज्ञा का हनन करता है तथा जो कदाग्रह और में रहता है, वह 'पापश्रमण' कहलाता है । कलह 176. पापश्रमण श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 5 पृ. 882 ] असंविभागी अचियत्ते पावसमणेत्ति वुच्चई । श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 5 पृ. 882 ] उत्तराध्ययन 17/01 अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस खण्ड-5 • 101 - -
SR No.002320
Book TitleAbhidhan Rajendra Koshme Sukti Sudharas Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadarshanashreeji, Sudarshanashreeji
PublisherKhubchandbhai Tribhovandas Vora
Publication Year1998
Total Pages266
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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