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जो श्रमण असंविभागी है (प्राप्त सामग्री को साथियों में नहीं बाँटता है और परस्पर प्रेमभाव नहीं रखता है) वह 'पापश्रमण' कहलाता
177. आहार-शुद्धि से चारित्र-शुद्धि
एए विसोहयंतो, पिंडं सोहेइ संसओ नत्थि । एए अविसोहिते, चरित्तभेयं वियाणाहि ॥ .
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 928]
- पिंडनियुक्तिगाथा 98 यह निस्सन्देह है कि जो निर्दोष आहार वापरते हैं, उनका चारित्र नष्ट नहीं होता और जो सदोष आहार वापरते हैं, उनका चारित्र नष्ट होता है अर्थात् आहार-शुद्धि से चारित्र-शुद्धि होती है । 178. श्रमणत्व-सार समणत्तणस्स सारो भिक्खायरिया जिणेहिं पन्नत्ता ।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 928]
- पिण्डनियुक्ति - गाथा 99 भिक्षा-शुद्धि करना अर्थात् निर्दोष आहार-प्राप्ति का प्रयास करना, यह श्रमणत्व का सार है। 179. दीक्षा निरर्थक कब ?
पिंड असोहयंतो अचरित्ती एत्थ संसओ नत्थि । चारित्तंमि असंते, निरथिआ होइ दिक्खा उ ॥
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 928]
- पिण्डनियुक्ति गाथा - 101 जो आहार की गवेषणा नहीं करते हैं, वे चारित्रहीन हैं, यह नि:सन्देह है । चारित्र के अभाव में उनकी दीक्षा निरर्थक होती है । 180. भिक्षा-शुद्धि नाणचरणस्समूलं, भिक्खायरिया जिणेहिं पन्नत्ता ।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 928] अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-5 • 102