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- भक्तपरिज्ञा प्रकीर्णक 59 संसार का मूलबीज मिथ्यात्व है। 353. जीवों के प्रति आत्मवत् आदर्श
जह ते न पियं दुक्खं जाणिय एमेव सव्वजीवाणं । सव्वायरमुवउत्तो, अत्तोवम्मेण कुणसु दयं ॥
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 1362]
- भक्तपरिज्ञा प्रकीर्णक 90 जैसे तुम्हें दु:ख अप्रिय लगता है वैसे ही सभी जीवों को भी दु:ख अप्रिय लगता है। ऐसा जानकर सभी प्राणियों के प्रति आत्मवत्.आदर और उपयोग के साथ दया करें। 354. हिंसा-फल
जावइयाइं दुक्खाई होति चउगइ गयस्स जीवस्स । सव्वाइं ताइं हिंसा फलाई निउणं वियाणाहि ॥
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 1362]
- भक्तपरिज्ञा प्रकीर्णक 94 ___ यह सुनिश्चित समझो कि चारगति में रहे हुए जीवों को जितने भी दु:ख भोगने पड़ते हैं, वे सब हिंसा के फल हैं । 355. अहिंसा-फल
जं किंचि सुहमुयारं, पहुत्तणं पयइ सुंदरं जं च । आरोग्गं सोहग्गं तं तमहिं साफलं सव्वं ॥
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 1362]
- भक्तपरिज्ञा प्रकीर्णक 95 संसार में जितने भी उदार, सुख, प्रभुता, सहज सुंदरता, आरोग्य और सौभाग्य दिखाई देते हैं, वे सब वास्तव में अहिंसा के फल हैं। 356. हत्या और दया जीव अप्पवहो, जीवदया अप्पणो दया होइ ।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 1362] __ अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-5 • 151