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- धर्मसंग्रह 3 अधि. मन, वचन और शरीर से मैंने जो पाप किए हैं, वे मेरे सब पाप मिथ्या हो। 349. संघ-क्षमापना
आयरिय - उवज्झाए, सीसे साहम्मिए कुल-गणे य। जम्मि कसाओ कोई वि, सव्वे तिविहेण खामेमि ॥
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 1361. _____1358. 317. 418]
- मरण समाधि प्रकीर्णक 335 आचार्य, उपाध्याय, शिष्यगण, साधर्मिक बन्धु, कुल और गण के प्रति मैंने जो भी कषाय भाव किये हों, उसके लिए मैं त्रियोग से क्षमाप्रार्थी
350. सम्यग्दर्शन रत्न-पूजा सम्मइंसणरयणं, नऽग्घइ ससुराऽसुरे ।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 1362]
- भक्तपरिज्ञा प्रकीर्णक 68 लोक में सुर-असुर सभी सम्यग्दर्शन रत्न की पूजा करते हैं। 351. भयंकर आत्मशत्रु
न वितं करेइ अग्गी, ने य विसं ने य किण्ह सप्पोवि। जं कुणइ महादोसं तिव्वं जीवस्स मिच्छत्तं ॥
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 1362]
- भक्तपरिज्ञा प्रकीर्णक 61 तीव्र मिथ्यात्व आत्मा का जितना अहित एवं बिगाड़ करता है, उतना बिगाड़ अग्नि, विष और काला नाग भी नहीं करते। 352. संसार-बीज संसारमूलबीयं मिच्छत्तं ।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 1362]
अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-5 . 150